चन्द्रिका
गड़चिरौली जिले में माओवादियों द्वारा सुरक्षा बलों पर सिलसिलेवार किया गया हमला राष्ट्रमण्डल खेलों की गूंजती आवाज़ में दबाया जा सकता है. क्योंकि स्वर्णपदकों को देश के स्वाभिमान के साथ जोड़ा जा रहा है और राष्ट्रमण्डल खेलों का भ्रष्टाचार इन पदक प्राप्तियों के साथ दब जायेगा. यदि यह भ्रष्टाचार न भी दबा तो कुछ छोटे-मोटे कर्मचारी अपनी नौकरी को बलिदान कर देंगे. देश की सत्तासीन सरकार इन पदकों पर इतरा सकती है, साथ में देश के शहरों में बैठे लोग भी पदक प्राप्ति से गौरवांवित महसूस कर सकते हैं. जबकि दूसरी तरफ गड़्चिरौली में माओवादियों द्वारा ४ जवानों को मारे जाने के बाद, वहाँ के एक थाने पर हमला व उसके बाद शव लेने पहुंचे दस्ते पर किया गया हमला, यह एक सिलसिला है जो ऑपरेसन ग्रीनहंट में केन्द्र द्वारा लगाये गये सुरक्षा बलों को माओवादियों द्वारा विरोध के तौर पर झेलना पड़ रहा है और उन्हें अपनी जाने गवानी पड़ रही हैं. देश की संरचना में मौत की अहमियत को पदों के साथ ही जोड़कर देखा जाता है, लिहाजा सुरक्षा बलों और आदिवासियों, दोनों की मौत सरकार के लिये हर बार कम अहमियत रखती है.
बेरोजगारी के दौर में देश का युवा वर्ग सुरक्षा बलों की नौकरी में रोजगार के लिये आता है और आदिवासी अपने हक-हुकूक व जंगल जो उनके निवास स्थान हैं को छीने जाने व सरकार की संरचना में अपनी शून्यता की स्थिति के कारण माओवादी बनते हैं. ऐसे में अहम फर्क स्थानीयता का होता है जिसकी स्थितियों से सुरक्षा बल नावाकिफ होते हैं पर इन सभी पहलुओं को ताक पर रखते हुए गड़चिरौली जिले में सुरक्षा बलों की तादात दिनों-दिन बढ़ाई जा रही है, इस अंदेशे में कि माओवाद सुरक्षा बलों की ताकत से दब जायेगा. जबकि स्थितियाँ उसके उलट होती जा रही हैं एक तरफ देश में सबसे बड़े खेल का आयोजन चल रहा है तो दूसरी तरफ देश के सबसे बड़े खतरे के रूप में चिन्हित युद्ध का. माओवादियों द्वारा किये गये ये हमले किसी वीरान जंगल में नहीं बल्कि स्थानीय बाजार में हुए हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थानीय मदद के बिना यह सम्भव नहीं था.
माओवादियों के खिलाफ चलाये जा रहे ऑपरेसन के नाम पर गड़चिरौली में सैन्य बलों को बढ़ाकर सरकार ने स्थानीय लोगों में सुरक्षा के बजाय दहशत को ही बढ़ाया है. लिहाजा माओवादियों की स्थानीय स्वीकार्यता और भी बढ़ी है. इस स्वीकार्यता की पृष्ठभूमि महज यह नहीं है कि माओवादी आदिवासियों के स्थानीय शोषण के साथ खडे हुए हैं बल्कि सेना और सरकार की कार्यवायियों ने लोगों को माओवादियों के निकट जाने की स्थिति भी पैदा की है. महाराष्ट्र के पिछले विधान सभा चुनाव में गड़चिरौली को अतिसंवेदनशील जिला होने के कारण बड़ी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों को तैनात किया गया था और जब कुछ गाँव के आदिवासियों ने सामूहिक तौर पर वोट देने से इंकार कर दिया तो सुरक्षा बलों द्वारा इन आदिवासी लोगों की पिटाई की गयी और जबरन वोट डलवाये गये. एक तौर पर सुरक्षा बल इन आदिवासियों के बीच में बाहरी हैं जो अलग-अलग राज्यों से आये हुए हैं और ऐसे में इस तरह के सुलूक निश्चिततौर पर आदिवासियों के मन में सुरक्षा बलों के खिलाफ आक्रोश पैदा करेगा. यह आक्रोश प्रतिशोध के तौर पर जब विकल्प की तलाश करता है तो माओवादीयों से उनकी निकटता और मजबूत होती है.
गड़चिरौली जिले के अहेरी तहसील में जब ४ सुरक्षा बलों को माओवादियों ने उड़ाया, उसके बाद भी यही स्थिति बनी. शवों को लेने पहुंचे सुरक्षा बलों ने इस घटना के लिये दोषी बताते हुए बाजार में खरीदी करने आये लोगों, छोटे व्यवसायियों की पिटाई की, मानो जवानों को उड़ाने में पूरा का पूरा बाजार ही शामिल रहा हो. जबकि स्थानीय लोगों ने मानवीय बर्ताव करते हुए सुरक्षा बलों के ५०० मीटर दूरी में बिखरे शवों को इकट्ठा करने में भी मदद की थी, बावजूद इसके स्थानीय लोगों की सुरक्षा बलों द्वारा की गयी पिटाई, स्थानीय लोगों से अपने श्रेष्ठता व ताकत का प्रदर्शन ही था. दरअसल यही वे स्थितियाँ हैं जो केन्द्र में हजार किलोमीटर की दूरी पर बैठी सरकार को नहीं दिखाई पड़ती और वह इन जिलों में सैनिक शासन लगाने पर आमादा दिखती है. गड़चिरौली या देश के अन्य जिले जहाँ पर माओवादियों की स्थिति मजबूत है वहाँ सरकार लगातार सुरक्षाबलों को बढ़ाती जा रही है. जबकि स्थानीय आधार पर कम-ओ-बेस इसी तरह के समीकरण बन रहे हैं जहाँ सुरक्षाबल जनता से अलगाव की स्थिति में बाहरी के रूप में होते हैं और वहाँ के लोगों के अंदर सुरक्षा के बजाय एक दहसत ही पैदा करते हैं. ऐसे में स्थानीय लोगों की मदद से माओवादी अपने खिलाफ चलाये जा रहे ऑपरेसन को असफल बनाने में ज्यादा कारगर हो रहे हैं. जबकि सरकार लगातार इसे देश का सबसे बड़ा आंतरिक खतरा मानते हुए उच्च स्तरीय बैठकें कर रही है और मावोवादियों से वार्ता करने या कोई अन्य शान्ति प्रक्रिया चलाने के बजाय सुरक्षा बलों की बढ़ोत्तरी और दिन ब दिन हो रही मौत को ही कारगर तरीका मान रही है.
गड़चिरौली जिले में माओवादियों द्वारा सुरक्षा बलों पर सिलसिलेवार किया गया हमला राष्ट्रमण्डल खेलों की गूंजती आवाज़ में दबाया जा सकता है. क्योंकि स्वर्णपदकों को देश के स्वाभिमान के साथ जोड़ा जा रहा है और राष्ट्रमण्डल खेलों का भ्रष्टाचार इन पदक प्राप्तियों के साथ दब जायेगा. यदि यह भ्रष्टाचार न भी दबा तो कुछ छोटे-मोटे कर्मचारी अपनी नौकरी को बलिदान कर देंगे. देश की सत्तासीन सरकार इन पदकों पर इतरा सकती है, साथ में देश के शहरों में बैठे लोग भी पदक प्राप्ति से गौरवांवित महसूस कर सकते हैं. जबकि दूसरी तरफ गड़्चिरौली में माओवादियों द्वारा ४ जवानों को मारे जाने के बाद, वहाँ के एक थाने पर हमला व उसके बाद शव लेने पहुंचे दस्ते पर किया गया हमला, यह एक सिलसिला है जो ऑपरेसन ग्रीनहंट में केन्द्र द्वारा लगाये गये सुरक्षा बलों को माओवादियों द्वारा विरोध के तौर पर झेलना पड़ रहा है और उन्हें अपनी जाने गवानी पड़ रही हैं. देश की संरचना में मौत की अहमियत को पदों के साथ ही जोड़कर देखा जाता है, लिहाजा सुरक्षा बलों और आदिवासियों, दोनों की मौत सरकार के लिये हर बार कम अहमियत रखती है.
बेरोजगारी के दौर में देश का युवा वर्ग सुरक्षा बलों की नौकरी में रोजगार के लिये आता है और आदिवासी अपने हक-हुकूक व जंगल जो उनके निवास स्थान हैं को छीने जाने व सरकार की संरचना में अपनी शून्यता की स्थिति के कारण माओवादी बनते हैं. ऐसे में अहम फर्क स्थानीयता का होता है जिसकी स्थितियों से सुरक्षा बल नावाकिफ होते हैं पर इन सभी पहलुओं को ताक पर रखते हुए गड़चिरौली जिले में सुरक्षा बलों की तादात दिनों-दिन बढ़ाई जा रही है, इस अंदेशे में कि माओवाद सुरक्षा बलों की ताकत से दब जायेगा. जबकि स्थितियाँ उसके उलट होती जा रही हैं एक तरफ देश में सबसे बड़े खेल का आयोजन चल रहा है तो दूसरी तरफ देश के सबसे बड़े खतरे के रूप में चिन्हित युद्ध का. माओवादियों द्वारा किये गये ये हमले किसी वीरान जंगल में नहीं बल्कि स्थानीय बाजार में हुए हैं जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्थानीय मदद के बिना यह सम्भव नहीं था.
माओवादियों के खिलाफ चलाये जा रहे ऑपरेसन के नाम पर गड़चिरौली में सैन्य बलों को बढ़ाकर सरकार ने स्थानीय लोगों में सुरक्षा के बजाय दहशत को ही बढ़ाया है. लिहाजा माओवादियों की स्थानीय स्वीकार्यता और भी बढ़ी है. इस स्वीकार्यता की पृष्ठभूमि महज यह नहीं है कि माओवादी आदिवासियों के स्थानीय शोषण के साथ खडे हुए हैं बल्कि सेना और सरकार की कार्यवायियों ने लोगों को माओवादियों के निकट जाने की स्थिति भी पैदा की है. महाराष्ट्र के पिछले विधान सभा चुनाव में गड़चिरौली को अतिसंवेदनशील जिला होने के कारण बड़ी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों को तैनात किया गया था और जब कुछ गाँव के आदिवासियों ने सामूहिक तौर पर वोट देने से इंकार कर दिया तो सुरक्षा बलों द्वारा इन आदिवासी लोगों की पिटाई की गयी और जबरन वोट डलवाये गये. एक तौर पर सुरक्षा बल इन आदिवासियों के बीच में बाहरी हैं जो अलग-अलग राज्यों से आये हुए हैं और ऐसे में इस तरह के सुलूक निश्चिततौर पर आदिवासियों के मन में सुरक्षा बलों के खिलाफ आक्रोश पैदा करेगा. यह आक्रोश प्रतिशोध के तौर पर जब विकल्प की तलाश करता है तो माओवादीयों से उनकी निकटता और मजबूत होती है.
गड़चिरौली जिले के अहेरी तहसील में जब ४ सुरक्षा बलों को माओवादियों ने उड़ाया, उसके बाद भी यही स्थिति बनी. शवों को लेने पहुंचे सुरक्षा बलों ने इस घटना के लिये दोषी बताते हुए बाजार में खरीदी करने आये लोगों, छोटे व्यवसायियों की पिटाई की, मानो जवानों को उड़ाने में पूरा का पूरा बाजार ही शामिल रहा हो. जबकि स्थानीय लोगों ने मानवीय बर्ताव करते हुए सुरक्षा बलों के ५०० मीटर दूरी में बिखरे शवों को इकट्ठा करने में भी मदद की थी, बावजूद इसके स्थानीय लोगों की सुरक्षा बलों द्वारा की गयी पिटाई, स्थानीय लोगों से अपने श्रेष्ठता व ताकत का प्रदर्शन ही था. दरअसल यही वे स्थितियाँ हैं जो केन्द्र में हजार किलोमीटर की दूरी पर बैठी सरकार को नहीं दिखाई पड़ती और वह इन जिलों में सैनिक शासन लगाने पर आमादा दिखती है. गड़चिरौली या देश के अन्य जिले जहाँ पर माओवादियों की स्थिति मजबूत है वहाँ सरकार लगातार सुरक्षाबलों को बढ़ाती जा रही है. जबकि स्थानीय आधार पर कम-ओ-बेस इसी तरह के समीकरण बन रहे हैं जहाँ सुरक्षाबल जनता से अलगाव की स्थिति में बाहरी के रूप में होते हैं और वहाँ के लोगों के अंदर सुरक्षा के बजाय एक दहसत ही पैदा करते हैं. ऐसे में स्थानीय लोगों की मदद से माओवादी अपने खिलाफ चलाये जा रहे ऑपरेसन को असफल बनाने में ज्यादा कारगर हो रहे हैं. जबकि सरकार लगातार इसे देश का सबसे बड़ा आंतरिक खतरा मानते हुए उच्च स्तरीय बैठकें कर रही है और मावोवादियों से वार्ता करने या कोई अन्य शान्ति प्रक्रिया चलाने के बजाय सुरक्षा बलों की बढ़ोत्तरी और दिन ब दिन हो रही मौत को ही कारगर तरीका मान रही है.
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