अवनीश ( बनारस से एक रिपोर्ट )
राजनाथ की उजड़ी दुकान ने उसकी चटख मुस्कुराहट को बदरंग कर दिया है। अयोघ्या मामले की सुनवाई की पूर्वसंध्या पर शांति स्थापना को निकली पुलिस ने लंका (वाराणसी) स्थित उसकी दुकान उजाड़ दी। उसका चेहरा देख चंद दिनों पहले देखी फिल्म पीपली लाइव्ह का उदास नत्था याद आ गया; महानगर की ऊंची इमारतों और शोर के बीच बैठा नियति के बारे में सोचता हुआ। लेकिन राजनाथ का अफसोस यह है कि ना वह नेहरू के दौर का शंभु महतो है और मनमोहन के दौर का नत्था। वह फुटपाथ पर चाय की दुकान लगाने वाला एक मामूली दुकानदार है। भारत का ऐसा आम आदमी जो विकास के हर नमूने की कीमत अपनी रोजी लुटा कर चुकाता है या कहा जाय जिसकी रोजी लूटने के बाद ही विकास की नींव में ईंट पड़ती है। सुन्दरीकरण की कवायदों की भेंट भी वही चढ़ता है, सुरक्षा इंतजामों का सबसे तगड़ा रोड़ भी वही होता है। यही वजह होती है कि शहर की हर होनी के बाद पहला चुल्हा उसी के घर का बुझता है। लेकिन उसकी कहानी ना 60 साल पहले कही गई ना आज कही जा रही है।
फिलवक्त राजनाथ और उसक जैसे 100 से अधिक दुकानदारों की आजीविका आयोध्या मामले के फैसले के बाद होने वाले दंगों के मद्देनजर छीन ली गई है। मायावती सरकार, केन्द्र सरकार और ब्यूरोक्रेसी को ऐसा लग रहा है कि बाबरी मस्जिद की मिल्कियत के फैसले के बाद देश में विशेषकर उत्तर प्रदेश में दंगे भड़क सकते हैं। इसके कारण उत्तर प्रदेश के 44 जिलों को संवेदनशील घोषित कर दिया गया है। प्रदेश के अधिकाश हिस्सों को पुलिस, पीएसी और अर्द्धसैनिक बलों से पाट दिया गया है। बड़े शहरों और जिला मुख्यालयों को छोड़िए पुलिस के रूटमार्च तहसीलों और कस्बों तक हुए हैं। ‘दंगो से हम सुरक्षित हैं’-यह बोध सरकार ने गांवों के स्तर तक पहुंचा दिया है। अखबारों में इन खबरों की कवरेज यों है मानों युद्ध की तैयारियां चल रही हैं। राजनाथ जैसे दुकानदार इस कवायद में ऐसे हल्के निशानें हैं, जिन्हें साध कर जनता को आसानी से डराया जा सकता है। इसलिए सरकार ने पहले इन्हें ही हटाया है। बाद के कदमों में प्रदेश में हर तरह के प्रदर्शनों, रैलियों और धरनों पर रोक लगा दी गई है। प्रदेश में ऐसे हालात निर्मित कर दिए गए हैं मानों आपातकाल लगा हो।
अयोध्या (बाबरी विध्वंश) ने हमें मुंबई विस्फोट जैसे गहरे घाव दिए हैं। आंतकी हमलों और दहशत का अंतहीन सिलसिला अब भी जारी है। इसकी आड़ में आर्थिक नीतियों की कसी गई चुलों में फंसा आम आदमी लगातार कराह रहा है। लेकिन पिछले 15 दिनों में मायावती और उनकी पुलिस ने एहतियातन जैसी तैयारियां की हैं, उन्होेंने खौफ की नई-नई कहानियां गढ़ी हैं। लोग किसी आसन्न खतरे के कारण डरे हुए हैं। इन तैयारियों की कवायद में ही केन्द्र सरकार ने भी कड़ी जोड़ दी है। प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपील की है अयोध्या के फैसले के बाद सभी लोगों को धैर्य और शंाति कायम रखना जरूरी होगा। सभी लोगों में धैर्य और शंति बनी रहे इसलिए ही देश भर में हाई एलर्ट जारी कर दिया गया है। 10 मिनट की नोटिस पर पहुंच जाने के लिए सुरक्षाबल तैयार किए गए हैं। अब हमें सोचना होगा कि क्या खतरा वाकई इतना बड़ा है, जैसी की तैयारियां की जा रही हैं या मायावती सरकार अथवा केन्द्र सरकार भय दिखाकर किन्ही और उद्देश्यों को पूरा करना चाह रही है।
यह पूरी तैयारी इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि आम जनता सहिष्णु नहीं है और अयोध्या मामले में आने वाले फैसला जिस भी पक्ष के विरोध में जाएगा, वह विरोध में दंगे भड़का सकता है। हालांकि यह पूर्वधारणा भी जनता के बारे में गलत समझ का ही द्योतक है। यह वास्तविकता है कि भारतीय समाज में धर्म एक प्रतिनिधि चेतना है। लेेकिन मौजूदा अर्थ प्रणाली ने इस मुल्क में संपन्नता और विपन्नता के कई स्तर भी पैदा किए हैं। उन स्तरों की भौतिक स्थितियां ऐसी नहीं के किसी स्वतःस्फूर्त दंगे का हिस्सा बनें या दंगे को नेतृत्व दें। यदि भारत में दंगो का इतिहास देखें तो आम आदमी दंगों के ंिशकार के रूप में ही दिखेगा। वह कभी मुसलमान होगा, कभी सिख होगा और कभी मजलूम हिंदू। आम जनता को असहिष्णु मानने की धारणा ही सरकार की असफलता का प्रतीक है। भारत सरकार 60 साल से धर्मनिरपेक्षता को सविधान की अहम् विशेषता मानती रही है। लेकिन इतने दिनों बाद भी सरकार को इतना विश्वास नहीं है कि जनता इस फैसले को न्यायिक प्रक्रिया की एक कडी़ मानकर स्वीकार करेगी और असहमत होने की स्थिति में उच्चतम न्यायालय से अपील करेगी! दरअसल आम जनता को धर्मनिरपेक्ष बनाने की ईमानदार कोशिश सरकार ने कभी नहीं की। हमारे यहां शिक्षा का ढांचा, प्रशासन और पुलिस की कार्यशैली ऐसी रही है कि उनसे सांप्रदायिकता को खाद-पानी ही मिलता रहा है।
उत्तर प्रदेश में जनता को असहिष्णु मानने जैसी धारणा के आधार पर काम करना क्या संकेत देती है? ऐसे आसार बन रहे हैं मानों जनांदोलनों के दमन के दौर में आम जनता के लिए बचा असहमती का रत्ती भर स्पेश भी समाप्त करने की कोशिश की जा रही है। पिछलंे एक साल में कई राजनीतिक गिरफ्तारियां हुई हैं। माफियाओं की गिरफ्तारी के मामले में भी पक्षपात किया जा रहा है। गंगा एक्सप्रेसवे, यमुना एक्सप्रेसवे जैसी योजनाओं के कारण धारा 144 का लागू होना आम बात हो गई है। आसार तो यह भी जताए जा रहे हैं कि पिछले तीन सालों में अभिशासन के सभी मोर्चों पर असफल रहीं मायावती अयोध्या के फैसले को धु्रवीकरण के नुस्खे के रूप में प्रयोग करना चाह रही है। हालंाकि इसकी सच्चाई आने वाला समय तय करेगा।
संभवतः गुरुवार को अयोध्या के कानूनी कुचक्र का अंत हो जाए। साथ ही उत्तर प्रदेश मंे पखवाड़े भर से लगा आंतरिक आपात काल भी खत्म हो और राजनाथ और उस जैसे कई चाय, पान, सब्जियों, खोमचांें, और ठेलों वालों की भटिठ्यों से धंुआ उठे, उनकी दुकानें फिर से गुलजार हो और उनके बुझ चुके चेहरों पर फिर रौनक लौटे। इस फैसले के साथ ही मायावती सरकार द्वारा की जा रही है युद्ध की तैयारियों को भी विराम लगे। कुछ होगा! क्या हो सकता है? कुछ होगा नहीं!! जैसी अड़ीबाज अटकलबजियां भी बंद हों और लोगांें के भीतर के घर कर गई अनिश्चितता का तनाव भी खत्म हो। जनता अपनी सहिष्णुता का परिचय एक बार फिर दे!
राजनाथ की उजड़ी दुकान ने उसकी चटख मुस्कुराहट को बदरंग कर दिया है। अयोघ्या मामले की सुनवाई की पूर्वसंध्या पर शांति स्थापना को निकली पुलिस ने लंका (वाराणसी) स्थित उसकी दुकान उजाड़ दी। उसका चेहरा देख चंद दिनों पहले देखी फिल्म पीपली लाइव्ह का उदास नत्था याद आ गया; महानगर की ऊंची इमारतों और शोर के बीच बैठा नियति के बारे में सोचता हुआ। लेकिन राजनाथ का अफसोस यह है कि ना वह नेहरू के दौर का शंभु महतो है और मनमोहन के दौर का नत्था। वह फुटपाथ पर चाय की दुकान लगाने वाला एक मामूली दुकानदार है। भारत का ऐसा आम आदमी जो विकास के हर नमूने की कीमत अपनी रोजी लुटा कर चुकाता है या कहा जाय जिसकी रोजी लूटने के बाद ही विकास की नींव में ईंट पड़ती है। सुन्दरीकरण की कवायदों की भेंट भी वही चढ़ता है, सुरक्षा इंतजामों का सबसे तगड़ा रोड़ भी वही होता है। यही वजह होती है कि शहर की हर होनी के बाद पहला चुल्हा उसी के घर का बुझता है। लेकिन उसकी कहानी ना 60 साल पहले कही गई ना आज कही जा रही है।
फिलवक्त राजनाथ और उसक जैसे 100 से अधिक दुकानदारों की आजीविका आयोध्या मामले के फैसले के बाद होने वाले दंगों के मद्देनजर छीन ली गई है। मायावती सरकार, केन्द्र सरकार और ब्यूरोक्रेसी को ऐसा लग रहा है कि बाबरी मस्जिद की मिल्कियत के फैसले के बाद देश में विशेषकर उत्तर प्रदेश में दंगे भड़क सकते हैं। इसके कारण उत्तर प्रदेश के 44 जिलों को संवेदनशील घोषित कर दिया गया है। प्रदेश के अधिकाश हिस्सों को पुलिस, पीएसी और अर्द्धसैनिक बलों से पाट दिया गया है। बड़े शहरों और जिला मुख्यालयों को छोड़िए पुलिस के रूटमार्च तहसीलों और कस्बों तक हुए हैं। ‘दंगो से हम सुरक्षित हैं’-यह बोध सरकार ने गांवों के स्तर तक पहुंचा दिया है। अखबारों में इन खबरों की कवरेज यों है मानों युद्ध की तैयारियां चल रही हैं। राजनाथ जैसे दुकानदार इस कवायद में ऐसे हल्के निशानें हैं, जिन्हें साध कर जनता को आसानी से डराया जा सकता है। इसलिए सरकार ने पहले इन्हें ही हटाया है। बाद के कदमों में प्रदेश में हर तरह के प्रदर्शनों, रैलियों और धरनों पर रोक लगा दी गई है। प्रदेश में ऐसे हालात निर्मित कर दिए गए हैं मानों आपातकाल लगा हो।
अयोध्या (बाबरी विध्वंश) ने हमें मुंबई विस्फोट जैसे गहरे घाव दिए हैं। आंतकी हमलों और दहशत का अंतहीन सिलसिला अब भी जारी है। इसकी आड़ में आर्थिक नीतियों की कसी गई चुलों में फंसा आम आदमी लगातार कराह रहा है। लेकिन पिछले 15 दिनों में मायावती और उनकी पुलिस ने एहतियातन जैसी तैयारियां की हैं, उन्होेंने खौफ की नई-नई कहानियां गढ़ी हैं। लोग किसी आसन्न खतरे के कारण डरे हुए हैं। इन तैयारियों की कवायद में ही केन्द्र सरकार ने भी कड़ी जोड़ दी है। प्रधानमंत्री ने देश के नाम अपील की है अयोध्या के फैसले के बाद सभी लोगों को धैर्य और शंाति कायम रखना जरूरी होगा। सभी लोगों में धैर्य और शंति बनी रहे इसलिए ही देश भर में हाई एलर्ट जारी कर दिया गया है। 10 मिनट की नोटिस पर पहुंच जाने के लिए सुरक्षाबल तैयार किए गए हैं। अब हमें सोचना होगा कि क्या खतरा वाकई इतना बड़ा है, जैसी की तैयारियां की जा रही हैं या मायावती सरकार अथवा केन्द्र सरकार भय दिखाकर किन्ही और उद्देश्यों को पूरा करना चाह रही है।
यह पूरी तैयारी इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि आम जनता सहिष्णु नहीं है और अयोध्या मामले में आने वाले फैसला जिस भी पक्ष के विरोध में जाएगा, वह विरोध में दंगे भड़का सकता है। हालांकि यह पूर्वधारणा भी जनता के बारे में गलत समझ का ही द्योतक है। यह वास्तविकता है कि भारतीय समाज में धर्म एक प्रतिनिधि चेतना है। लेेकिन मौजूदा अर्थ प्रणाली ने इस मुल्क में संपन्नता और विपन्नता के कई स्तर भी पैदा किए हैं। उन स्तरों की भौतिक स्थितियां ऐसी नहीं के किसी स्वतःस्फूर्त दंगे का हिस्सा बनें या दंगे को नेतृत्व दें। यदि भारत में दंगो का इतिहास देखें तो आम आदमी दंगों के ंिशकार के रूप में ही दिखेगा। वह कभी मुसलमान होगा, कभी सिख होगा और कभी मजलूम हिंदू। आम जनता को असहिष्णु मानने की धारणा ही सरकार की असफलता का प्रतीक है। भारत सरकार 60 साल से धर्मनिरपेक्षता को सविधान की अहम् विशेषता मानती रही है। लेकिन इतने दिनों बाद भी सरकार को इतना विश्वास नहीं है कि जनता इस फैसले को न्यायिक प्रक्रिया की एक कडी़ मानकर स्वीकार करेगी और असहमत होने की स्थिति में उच्चतम न्यायालय से अपील करेगी! दरअसल आम जनता को धर्मनिरपेक्ष बनाने की ईमानदार कोशिश सरकार ने कभी नहीं की। हमारे यहां शिक्षा का ढांचा, प्रशासन और पुलिस की कार्यशैली ऐसी रही है कि उनसे सांप्रदायिकता को खाद-पानी ही मिलता रहा है।
उत्तर प्रदेश में जनता को असहिष्णु मानने जैसी धारणा के आधार पर काम करना क्या संकेत देती है? ऐसे आसार बन रहे हैं मानों जनांदोलनों के दमन के दौर में आम जनता के लिए बचा असहमती का रत्ती भर स्पेश भी समाप्त करने की कोशिश की जा रही है। पिछलंे एक साल में कई राजनीतिक गिरफ्तारियां हुई हैं। माफियाओं की गिरफ्तारी के मामले में भी पक्षपात किया जा रहा है। गंगा एक्सप्रेसवे, यमुना एक्सप्रेसवे जैसी योजनाओं के कारण धारा 144 का लागू होना आम बात हो गई है। आसार तो यह भी जताए जा रहे हैं कि पिछले तीन सालों में अभिशासन के सभी मोर्चों पर असफल रहीं मायावती अयोध्या के फैसले को धु्रवीकरण के नुस्खे के रूप में प्रयोग करना चाह रही है। हालंाकि इसकी सच्चाई आने वाला समय तय करेगा।
संभवतः गुरुवार को अयोध्या के कानूनी कुचक्र का अंत हो जाए। साथ ही उत्तर प्रदेश मंे पखवाड़े भर से लगा आंतरिक आपात काल भी खत्म हो और राजनाथ और उस जैसे कई चाय, पान, सब्जियों, खोमचांें, और ठेलों वालों की भटिठ्यों से धंुआ उठे, उनकी दुकानें फिर से गुलजार हो और उनके बुझ चुके चेहरों पर फिर रौनक लौटे। इस फैसले के साथ ही मायावती सरकार द्वारा की जा रही है युद्ध की तैयारियों को भी विराम लगे। कुछ होगा! क्या हो सकता है? कुछ होगा नहीं!! जैसी अड़ीबाज अटकलबजियां भी बंद हों और लोगांें के भीतर के घर कर गई अनिश्चितता का तनाव भी खत्म हो। जनता अपनी सहिष्णुता का परिचय एक बार फिर दे!
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