21 सितंबर 2010

भगवा आतंक में सत्ता की उलझन

चन्द्रिका

गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने “भगवा आतंकवाद” कहा और कांग्रेस ने इस शब्द से रंग वापस ले लिया. कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने आतंकवाद को किसी रंग में ढाले जाने से परहेज जताया. दरअसल हिन्दू बाहुल्य देश में संसदीय पार्टियों के साथ यह समस्या है कि वे यथार्थ का निर्धारण वोट के आधार पर करती हैं और वोट को धर्म के आधार पर लेने की संस्कृति विकसित कर दी गयी है. लिहाजा किसी पार्टी का एक नेता बयान देता है दूसरा उसमे तब्दीली कर देता है. वे आदिवासियों के वामपंथी रुझान वाले आंदोलन को “लाल आतंक” तो कह देंगे पर भगवा आतंक से उन्हें भय है. जबकि देश में हिन्दुत्व की स्थापना के लिये भगवाधारियों के करतूतों से पन्ने भरे पड़े हैं और जिस मुस्लिम आतंक के नाम पर देश के कई मुस्लिम नवयुवकों को पकड़ा या मारा गया है उनकी मनः स्थिति इस भगवा आतंक के फलस्वरूप ही उभर कर आयी हैं.

मसलन दिल्ली में हुए बम धमाके के आरोपी जिया-उर-रहमान का यह कहना था कि हम उसी की खिलाफत में ये सब कर रहे हैं जो गुजरात या महाराष्ट्र में हुआ. जब आजमगढ़ में मुस्लिम आतंकवादियों की अचानक खान मिलती है तो क्या तीन माह पहले से हिन्दू संगठनों द्वारा लगाया जा रहा नारा कि “यू.पी. अब गुजरात बनेगा आजमगढ़ शुरुआत करेगा, की कोई भूमिका नहीं है. गुजरात दंगे के वक्त मोदी के वाक्य को हाल में लालकृष्ण आडवानी फिर से अलाप रहे हैं कि हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता पर हर आतंकवादी मुस्लिम होता है. ऐसे सातिरानापूर्ण वाक्यों का जवाब क्या विस्फोटक नहीं होगा. कुछ राज्यों में अल्पसंख्यकों को धार्मिक उन्माद भरी धमकी (गुजरात बनाने) मिल रही है. उनके कौम के कत्लेआम को महिमा मंडित किया जा रहा है. आखिर अल्पसंख्यक मनोदशा किस स्थिति में जायेगी. भारतीय संदर्भ में मुस्लिमों में धार्मिक उग्रता भरने का काम भगवा धारियों ने ही किया.

आर.एस.एस., बजरंग दल, वि.हि.प., शिवसेना, मनसे, जैसे संगठन यदि भारतीय सत्ता की नजर में भगवा आतंकवादी नहीं हैं तो जिस नये आतंकवाद का प्रोपोगेंडा मीडिया तंत्र द्वारा रचा जा रहा है इसके पीछे के पेंच को समझने की जरूरत है जिसे समय-समय पर कसना और ढीला करना ही भारतीय संसदीय राजनीति को टिकाये हुए है.

दूसरे अन्य जिन राजनितिक समूहों और संगठनों को आतंकवादी घोषित किया गया है. चाहे वह राष्ट्रीयता की मांग करने वाले हों या फिर माओवादी आंदोलन इनकी स्थितियाँ भिन्न हैं. क्योंकि कई बार आतंकवाद समय सापेक्ष भी होता है. एक समय भगत सिंह को आतंकवादी माना गया था, अभी कुछ वर्ष पूर्व तक नेपाल के माओवादी भी आतंकवादी थे पर आज वे देशभक्त हैं. धार्मिक आधारों पर लोगों का बटवारा व धार्मिक आधार पर राष्ट्र निर्माण की संकल्पना के लिये उन्माद निश्चित तौर पर आतंकवाद से अलग नहीं है.

दरअसल कोई भी पार्टी हिन्दुत्व के बढ़ रहे उन्मादी संगठनों का लोकतांत्रिक हल नहीं चाहती. क्योंकि इसी के सहारे समय-समय पर वे वोट बैंक बनाने का काम करती हैं. राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, देशभक्ति का झूठा ढोंग रचा जा सकता है. जहाँ सत्ताधारी वर्ग ने अधिकांस लोगों के दिलो दिमाग में राष्ट्र के प्रति गौरव दर्शाने के नये चेहरे को खडा़ कर दिया है. बंदूक के बल और कानून के सहारे, दमन के वास्ते इंसानियत के मायने बदल दिये गये हैं और देश व देशभक्ति का एक खोखला चेहरा सेना, पुलिस, विशेष सुरक्षा बल का है.

सत्ता के पोषण में ही धार्मिक आतंक बढ़ता जा रहा है. नजदीकी वर्षों की घटनाओं पर नजर डालें तो उडी़सा में 37 इसाईयों के मारे जाने, 4000 घर जलाने, जिसके कारण 50,000 इसाई घर छोड़ कर भाग गये, केरल के सबसे पुराने गिरजाघर की लूटपाट, माले गाँव के बम विस्फोट, कानपुर में बम बनाते पकडे़ जाने की घटना, राजस्थान के सिमरौली गाँव से मुस्लिमों को भगाकर आदर्श हिन्दू गाँव बसाने की घटना, दिल्ली विश्वविद्यालय में ए.बी.बी.पी. के छात्रों द्वारा गिलानी पर किया गया हमला, ऐसी कई घटनायें हमारे सामने है और प्रतिबंध तो दूर की बात इस संदर्भ में गिरफ्तारी तक नहीं हुई है. इतना ही नहीं बल्कि गुजरात के मोदासा में जो मोटरसायकिल बम धमाका हुआ तो उसमे शुरुआती दौर में सिमी से जुडे़ इंडियन मुजाहिद्दीन की बात आयी. जब मानवाधिकार संगठनों और अन्य जनसंगठनों ने बात उठायी तो इसकी जाँच होनी शुरू हुई और वह मोटरसायकिल जिसमे बम धमाके हुए अखिल भरतीय बिद्यार्थी परिषद के किसी सदस्य की थी. बाद में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया वे हिन्दू जन जागृत मंच से जुङे थे. गुजरात के मुस्लिमों की स्थिति यह हो गयी है कि उन्हें अपने मोटर गाङी तक में हिन्दू देवी देवताओं के पोस्टर, मूर्तियां लगाकर चलने पड़ रहे हैं.

तो ऐसे में क्या यह मान लेना चाहिये कि सत्ता में बैठा वर्ग हिन्दू आतंक का पोषक है या हिन्दू आतंक सत्ता के सय पर चल रहा है. अंततः इन सभी उन्मादों के पीछे के कारण धार्मिक हैं जहाँ कई बार हिन्दू कट्टरपंथ की प्रतिक्रिया में मुस्लिम कट्टरपंथ आ रहा है और इसका फौरी फायदा अलग-अलग रूप से संसदीय पार्टियों को हो रहा है. अर्थात वोट की राजनीति को मजबूती देने के लिये धर्म और धर्मिक उन्मादों का होना जरूरी हो गया है. धार्मिक आतंक से मुक्ति धर्म विहीन समाज बनाकर ही मिल सकती है जिसके लिये सरकार और किसी भी संसदीय पार्टियों के पास कोई एजेंडा नहीं है.

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