14 सितंबर 2010

पोला की खुशियों में किसान आत्महत्या

चन्द्रिका
राहुल गांधी विदर्भ में अपना भाषण दे कर चले गये उनको यहाँ से गये अभी कुछ ही घंटे हुए थे जबकि यहाँ के पाँच किसानों ने आत्महत्या कर ली. वर्धा के निवासी हनुमान चौधरी बारिस से हुई तबाही को बर्दास्त नहीं कर सके और कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी. इसके पहले हनुमान तीन बार आत्महत्या का प्रयास कर चुके थे और चौथी बार का यह प्रयास उनकी जिंदगी ले बैठा. अन्य चार किसान दिलीप राजूरकर मेढ़े, विजय पंधरे, महादेव वाहने, गंगूबाई ने भी आत्महत्या कर ली. महाराष्ट्र में यह किसानों के सबसे बड़े पर्व पोला का अवसर था जब वे अपने बैलों के साथ सड़कों पर खुशी मनाते और नाचते देखे जा सकते थे पर खुशियां तारीखों और त्योहारों में टंग कर नहीं आती वे जिंदगी के कार्य कलापों और रोजमर्रा की स्थितियों का प्रतिफलन होती हैं. जब पूरा विदर्भ इस बार गीले अकाल में डूबा हुआ है और बारिस ने सोयाबीन व कपास की फसलें बर्बाद कर दी है ऐसे में यहाँ का किसान अपने परम्परा के निर्वाह के तौर पर पोला भले ही मना लें, अपने बैलों को भले ही सजाकर घूम ले पर सही मायने में इस बार की बारिश ने उसकी खुशियाँ डुबो दी हैं. एक तरफ वह पोला की खुशी मनाकर लौट रहा है तो दूसरी तरफ अपने किसी पड़ोसी किसान की आत्महत्या देख रहा है. दरअसल लाखों में पहुंच चुके आत्महत्या के इस आंकड़े को देखा जा सकता है, दस्तावेजों से उनके तथ्य इकट्ठा किये जा सकते हैं पर उन किसानों के आंकड़े का महज अंदाजा लगाया जा सकता है या नहीं भी लगाया जा सकता है, जो आत्महत्या की दहलीज पर खड़े हैं. और अपनी रोज की जिन्दगी को घुट-घुट कर बिता रहे हैं. किसानों की कर्ज माफी और यू.पी.ए. सरकार द्वारा दिये गये विशेष पैकेज से किसानों की आत्महत्या में कोई कमी नहीं आयी है यह तथ्य को विदर्भ दौरे के दौरान अपने भाषण में राहुल गांधी ने स्वीकार किया पर इसके पीछे जो कारण और तर्क उन्होंने दिये वह एक रटा रटाया वर्षों पुराना कांग्रेसी जुमला था कि सरकार १०० रूपये भेजती है तो आम आदमी तक १० रूपये ही पहुंचते हैं. क्या किसान आत्महत्या का मामला रूपये की लेन-देन व कर्ज माफी से ही जुड़ा है या उसके और भी कारण हैं.

दरअसल सरकार किसान आत्महत्या को घटना के तौर पर लेती है लिहाजा जब कोई किसान आत्महत्या करता है या करती है तो उसके परिवार को कुछ रूपये दे दिये जाते हैं पर इसके लिये भी उस परिवार को आत्महत्या के कारण पुख्ता तौर पर जुटाने पड़ते हैं. जबकि यह मामला तंत्र की अवधारणा से जुड़ा है जहाँ देश के ७० प्रतिशत आबादी जो कि किसानी से किसी न किसी रूप से जुड़ी है उस तौर पर तंत्र के विकास व देश के विकास की धुरी के रूप में किसान को रखा जाना चाहिये था पर उसके लिये कोई स्पष्ट पॉलिसी नहीं बनायी गयी है अलबत्ता विकास की अवधारणा के तहत यह कहा जा रहा है कि अब समय है जब शहरों के बजाय गाँवों का औद्योगीकरण कर रोजगार के नये अवसर पैदा किये जायें. यह सरकार की विकास नीति को स्पष्ट करता है कि वह देश में औद्योगीकरण को ही प्राथमिक तौर पर रखती है और यह औद्योगीकरण अब शहरों के बजाय गाँवों में प्रसारित करने का तरीका है, गाँवों को सड़कों से इसीलिये जोड़ा गया था क्योंकि शहरों में पानी व अन्य संसाधन समाप्त व दूषित हो चुके हैं और उद्योगों को जिंदा रखने के लिये जरूरी है कि ऐसे जगहों की तलाश की जाय जहाँ यह प्रचुरता में मौजूद हों. इस लिहाज से अब वे उपजाऊ क्षेत्र जहाँ पानी व अन्य संसाधन मौजूद हैं उनकी बारी है. यह बेहतर होता कि जहाँ पर गाँवों की जमीने किसानी के योग्य थी और वहाँ किसान खेती कर रहा था वहाँ का विकास व रोजगार किसानों को सुविधा मुहैया करा कर किया जाता, विकास की ऐसी नीतियां बनायी जाती जो किसानों के लिये अनुकूल होती. बजाय एक किसान की आत्महत्या के पश्चात धन देने के उसकी उन मूलभूत जरूरतों को पूरा किया जाता जिससे कृषक वर्ग को लाभ होता और उत्पादन बढ़ता. मसलन विदर्भ के किसानों के पास सिचाई के अल्प साधन हैं और उन्हें इन साधनों से लैस किया जाता, उनके लिये महंगे विदेशी बीजों के बजाय सस्ते व अच्छे बीज उपलब्ध कराये जाते. ऐसा नहीं किया गया क्योंकि सरकार की मंशा किसानों का विकास नहीं है बल्कि आत्महत्या की दर को और बढ़ाना है जिसके पश्चात वह धन देने का लोभ किसानों में पैदा करती है. विदर्भ के किसानों की आत्म्हत्यायें तबतक नहीं रुक सकती जब तक इनका विकास, इनकी स्थितियों को देखते हुए नहीं किया जाता, जब तक इन्हें वे सुविधायें नहीं मुहैया करायी जाती जो कि इनके किसानी के लिये जरूरी है. इस बार गीले अकाल से किसानों की अधिकांस फसल नष्ट हो चुकी है. शायद यह किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा और भी बढ़ा दे.

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