chandrika
हमारे समय के पत्रकार हो जाओ...सरकारी रोशनाई में कलम डुबोकर सरकार के चेहरे की शिकन लिखो...२०२० तक सरकार के मिशन लिखो इतना काफी न हो तो हांथों में दस्ताने बांधकर समय के मुंह पर कालिख लगा दो और पोंछ लो अपने हांथ किसी सरकारी गमछे में.... जरूरत पड़े तो थोड़ा मुस्कराओ, आँखे भी नम कर लो...... और इस अदब के साथ हाँथ मिलाओ कि लोकतंत्र जैसी कोई चीज आस-पास की हवा में घुल-मिल रही है. अखबारों में छपी ख़बरों की स्याही के रंग जैसा कुछ इतना गाढ़ा लिखो कि सरकार की आंखों में मुहब्बत की तरह उतर जाओ और एक दिन ढेर सारे पदकों के साथ अपने घर लौटो दिल्ली से.... या दिल्ली जैसे किसी शहर से, या फिर दिल्ली को अपना घर और उस सरकार को अपना परिवार मान लो जो पाँच सालों में अदला-बदली करके वापस लौट आती है. विपक्ष में रहो पर उतना जितना मनमोहन सिंह-आडवानी के, मुलायम सिंह-मायावती के, ममता बनर्जी-बुद्धदेव के या कोई भी पार्टी, संसद के इर्द गिर्द किसी पार्टी के. इतने विपक्षी मत बनों की सरकार के लिये माओवादी हो जाओ....कि बेगुनाही के बावजूद सलाखों के पीछे भेजने का लोकतंत्र है...इतने विपक्षी होना प्रशांत राही होना है, लिखने की इतनी आज़ादी मत मांगो कि सीमा आज़ाद या लक्ष्मण चौधरी जैसा बर्ताव करना पड़े सरकार को. इतने भी नहीं कि लिखने और लड़ने की कीमत हेमचन्द्र पाण्डेय जितना अदा करनी पड़े सरकार द्वारा की गयी हत्या के रूप में. पत्रकारिता के ये वूसूल जिंदगी को सुकून और भविष्य में लोकतंत्र को फुर्सत देंगे. लोकतंत्र के बुढ़ापे का समय है, मौत धीरे-धीरे इसी तरह आयेगी.
जंगलों में आदिवासी अपने विस्थापन, प्रताड़ना, असंतुष्टि के खिलाफ लड़ रहे हैं और उनकी लड़ाई को माओवादियों ने सशस्त्र बना दिया है और एक राजनैतिक व सांगठनिक स्वरूप में वे ज्यादा मजबूती के साथ उभर कर आये हैं इतनी मजबूती कि सरकार नहीं बल्कि संसदीय संरचना अपने को असुरक्षित मान रही है. स्थानीयता के लिहाज से अपनी समस्याओं के खिलाफ और एक बड़े फलक पर तंत्र के खिलाफ इस उभार को देखा जा सकता है. अभी हाल के दिनों में जबकि यह बहस जारी ही है कि माओवादी जंगलों तक ही क्यों सीमित हैं? इस बीच पिछले कुछ सालों में कई ऐसे पत्रकारों को सलाखों के पीछे भेजा गया है, प्रताड़ित किया गया है या फिर उनकी हत्यायें की गयी हैं, जिन्हें सरकार ने माओवादी के रूप में चिन्हित किया है या माओवादी गतिविधियों में शामिल पाया है . वरिष्ठ माओवादी नेता आज़ाद के साथ हेमचन्द्र पाण्डेय की हाल में की गयी हत्या या पुलिस हिरासत में पीपुल्स मार्च के बंगला संस्करण के सम्पादक स्वप्न दास गुप्ता की मौत बहस में कुछ नये पन्ने जोड़ती है. मसलन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हेमचन्द्र एक पत्रकार थे बावजूद इसके यदि माओवादी भी थे तो वह कौन सी चीज थी जिसने एक पत्रकार को माओवादी बना दिया और सरकार को उनकी हत्या करनी पड़ी. वे न तो उन जंगलों से थे जहाँ जमीनों को छीना जा रहा है और लोगों को विस्थापित किया जा रहा है और न ही वे लालगढ़, सिंगूर, बस्तर, गड़चिरौलि से थे, सलवा जुड़ुम का दमन उनके घरों तक नहीं पहुंचा था बावजूद इसके एक पत्रकार माओवादी क्यों हो गया. आदिवासियों के असंतुष्टि के आधार पर माओवादी होने की प्रक्रिया को समझना थोड़ा आसान है क्योंकि रोज-बरोज हो रही मौत और गाँवों में सुबह मिल रही किसी पड़ोसी की लाश, चुप-चाप मौत से पहले लड़ने का एक साहस तो देती ही है. पर पत्रकारिता को जारी रखते हुए, सुकून की जिंदगी जीते हुए और शायद सरकारी लोकतंत्र का समर्थन करते हुए हेमचन्द्र, प्रशांत राही, सीमा आज़ाद, स्वप्न दास गुप्त के अलावा कई ऐसे पत्रकार थे और हैं जो अपनी जिंदगियां वैसी ही गुजार सकते थे जैसी ठीक-ठाक जिंदगी के बारे में आप सोच सकते हैं, पर नाम बदल कर, गुमनामी और बगैर किसी पहचान के जीना महज़ जुनून नहीं होता बल्कि यह माओवाद की जंगल से ज़ेहन तक की यात्रा है. दरअसल माओवाद का सैद्धांतिक और बौद्धिक पक्ष यहीं मजबूत होता है जहाँ सत्ता को कार्यवाहियों और संस्थानों के टूटने का भय ही नहीं बल्कि एक ऐसी संरचना के बेनकाब होने का खतरा है जो अपने चरम व्यवस्थित स्थिति में क्रूरता और तानाशाहीयों के साथ चंद लोगों के वर्चस्व को ही चरम पर पहुंचायेगी. शायद ऐसी व्यवस्था के खिलाफ उग्र होने की कवायद ही एक पत्रकार को उग्रवादी या उग्रवाद समर्थक बना देती है. मणिपुर, असम से लेकर देश के किसी भी शहर में मिल सकते हैं अपने नाम या किसी और नामों के साथ, अपनी कलम को हथियार बनाते हुए.
जब २६ जनवरी १९५० को लिखी गयी एक मोटी पोथी का १९वाँ अनुच्छेद धुंधला पड़ने लगे और लोकतंत्र की एक संरचना में इतना कम लोकतंत्र बचे कि आँखों पर चढ़े चश्में का कांच सरकारी तस्वीर के अलावा कुछ भी देखने से मना कर दे तो ज़ेहन के पत्थर पर अपनी भाषा और कलम की धार कुछ लोग तेज करते ही हैं जबकि यही एक स्थिर और जड़ संरचना का अतिवाद होता है, लोकतंत्र को पूरा का पूरा मांगना. छोटी-बड़ी कमियों को न तलाशने के बजाय पूरी संरचना का मूल्यांकन करना और उसके खिलाफ खड़े होना.
दुनिया में जब लोकतंत्र की बहस चल रही थी तो कई ऐसे विचारक थे जिन्होंने लोकतंत्र की व्यापकता के लिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अहम माना १७वीं सदी में फ्रांस के विचारक वाल्तेयर की जुबान को भी हम जमीन पर नहीं उतार सके जिसमें उन्होंने कहा था कि “मैं जानता हूं कि वह झूठ बोल रहा है, पर वह अपनी बात कह सके इसके लिये मैं अपनी जान दे दूंगा” वरन आज की स्थितियाँ इसके उलट पत्रकारों को यह चेतावनी दे रही हैं और सत्ता हेमचन्द्र की हत्या के साथ यह एलान कर रही है कि तुम अगर इतना सच बोलोगे तो वह तुम्हारी जान ले लेगी. जबकि हमारे समय में एक सच को स्थापित करने के लिये हजार बार बोले जा रहे झूठों को खण्डित कर, हजार बार, हजारों तरीके से सच को बोलने की जरूरत है कितना मुश्किल है यह सब कुछ मौत से बेपरवाह होकर ऐसा करना, किसी हत्या में मारा जाना और वर्तमान के इतिहास में दर्ज तक न होना.
एक पत्रकार के माओवादी या माओवाद समर्थक होने का मसला यहीं से जुड़ा है. १८२८ में जब ब्रिटिश के राजनीतिज्ञ एडमण्ड बर्क ने मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा था तो वह इस रूप में कतई नहीं था कि मीडिया को लोकतंत्र की किसी एक संरचना का जनसम्पर्क माध्यम हो जाना चाहिये बल्कि उसे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये लगातार व्यापक आज़ादी के संघर्ष का सहयोगी बनना चाहिये और सत्ता तंत्र द्वारा प्रतिस्थापित किये जाने वाले लोकतंत्र से आगे जाकर सोचना चाहिये. ऐसी स्थिति में एक पत्रकार का आज के समय में यह अंतर्द्वन्द है जब वह व्यक्ति की व्यापक आज़ादी के लिये संसदीय संरचना को नाकाफी पाता है तो उस जनपक्षधरता के साथ खड़ा होता है जो इस ढांचे से संघर्ष कर रहे हैं फिर तो माओवादी शक्तियाँ ही आज देश के फलक पर जुझारूपन के साथ सत्ता से लड़ती हुई दिखती हैं, भले ही इनमे कई खामियां हों और इनके क्षेत्र अभी सीमित हों. एक बौद्धिक तबका इन सीमित क्षेत्रों में चल रहे संघर्षों का आलोचनात्मक विश्लेषण करता है और उन्हें मजबूत बनाता है. किसी समय में चल रहे संघर्ष की यह एक भूमिका है, अपने लिये उचित स्थान की तलाश करना जबकि सरकार द्वारा हत्या किये जाने की सम्भावनायें जंगलों और शहरों में कम-ओ-बेस बराबर हो चुकी हैं और लोकतंत्र व आज़ादी के स्वप्न हमारे प्रतिलोम में खड़े हैं.
ऐसे में यदि कोई पत्रकार उस आज़ादी को मांगेगा जिससे चंद लोगों या एक वर्ग की स्वक्षंदता को खतरा हो तो वर्ग संघर्ष की लड़ाईयां और तीखी ही होंगी. तब हत्याओं के लिये मुठभेड़ का नाम नहीं दिया जायेगा, आफ्सपा जैसे कानून बनाकर हत्यायें वैध कर दी जायेंगी. छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा अधिनियम जैसे कानून कई लोगों के जिन्दगी के उस हिस्से को सलाखों के पीछे धकेलने में काफी होंगे जिसमे सच बोलने का साहस जिंदा बचा रहता है.
माओवादी होने की प्रक्रिया से अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि माओवाद के समर्थक होने की प्रक्रिया के पीछे के कॉरपोरेट कल्चर का सच क्या है?
जवाब देंहटाएंदेसी पदको या पुरस्कारों की बानगी छोड दूं तो क्या यह विदेशी पदकों की लिप्सा तो नहीं? विरोध के कॉरपोरेट सेंटर से जुड जाने के लिये खैर इतना तो जायज ही है चाहे इसके लिये अन्धे हो जाओ।
लाल-आतंकवादियों की मारी जाती लाशों को व्यवस्था गिनों चाहे वह आदिवासी सिपाही लूकस टेटे ही क्यों न हो लेकिन हर नक्सलवादी-माओवादी को आदिवासी ही गिनों चाहे उसके हाथ कितने ही कत्ल से रंगे हों और हर खून उनका ही क्यों न हो जो हैं तो आदिवासी लेकिन "माओ" की थ्योरी के बहकावे में नहीं आते।
अपने गिरेबान में झांको क्यों पत्रकारों से किसी को कोई सहानुभूति नहीं रही। माओ के ठेकेदारो गीदड भभकिया देना बंद करो। और जिसे तुम सच बोलने का साहस कहते हो न वह झूठ की पराकाष्ठा है,तुम बेनकाब हो चुके हो इस लिये तुम्हारे शब्द बेमानी हैं और कुछ भी नहीं...।