अवनीश
अमरीकी रक्षामंत्री राबर्ट गेट्स ने हाल ही में लॉसएन्जिल्स टाइॅम्स को दिए साक्षात्कार में कहा कि ‘‘ अगले वर्ष की गर्मियों से अफगानिस्तान में मौजूद अमरीकी सैनिकों की वापसी की शुरूआत निश्चित है। इस बारे में किसी को कोई आशंका नहीं होनी चाहिए’’। गौरतलब है कि पिछली सर्दियों मंे अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जुलाई 2011 तक अफगानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की वापसी की समयसीमा तय की थी। लेकिन अफगानिस्तान में नाटो के नवनियुक्त कमांडर जनरल डेविड पैट्रियॉस के इस बयान के बाद कि वह राष्ट्रपति ओबामा से सैनिको की वापसीे की समयसीमा बढ़ाने की मंाग करेंगे, ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि अमरीका अफगानिस्तान के सैन्य वापसी के इरादे पर अमल टाल सकता है। बीते जुलाई महीने में अफगानिस्तान में हुए अंतर्राष्टीय सम्मेलन में राष्टपति हामिद करजई ने वहां तैनात सैनिकों की पूर्ण वापसी के लिए वर्ष 2014 का लक्ष्य प्रस्तावित किया था तथा इसके लिए 2011 से वापसी शुरू करने की अपीेल की थी। तब नाटो महासचिव एडर्स फाग रासमुसेन ने टिप्पणी दी थी कि सैनिकों की वापसी का रोडमैप कैलेण्डर नहीं, बल्कि हालात तय करेंगे। उन्होंने कहा था कि फिलहाल अफगानी सैनिक इतने सक्षम नहीं कि सुरक्षा की जिम्मेदारी सम्हाल सके। अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी के अमरीका के फैसले से इस आशंका को बल मिला है कि वह अफगानिस्तान जंग हार रहा है। पिछले दिनों ब्रितानी सेना प्रमुख जनरल डेविड रिचर्डस ने सुझाव दिया था कि अफगानिस्तान कि स्थिरता के लिए तालिबान से बातचीत फायदेमंद होगी; तब तालिबान ने नाटो के साथ किसी भी समझौते से इनकार कर दिया था। उन्हांेने हिकारत भरे अंदाज में कहा था कि अमरीकी युद्ध हार रहे हैं और इस समय बातचीत के किसी भी प्रस्ताव को वह नाटो की कमजोरी के रूप मंे देखते हैं। तालिबान के तेवरों को उस समय पर्यवेक्षको बहुत अधिक तवज्जो तो नहीं दी थी, लेकिन अफगानिस्तान में अमरीका की हार की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। उस समय कुछ अमरीकी राजनयिकों ने भी अफगानिस्तान में अमरीका की चरमपंथ विरोधी मौजूदा रणनीति को लेकर संदेह जताया था। भारत में अमरीका के राजदूत रह चुके राबर्ट ब्लैकविल ने फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित एक आलेख में लिखा था कि अमरीका की आतंक के खिलाफ युद्ध की मौजूदा रणनीति सफल नहीं होगी और शांति स्थापना की कोशिश कर रहा अमरीका ताकतवर तालिबानियों को समझौते के लिए तैयार नहीं करा पाएगा। अमरीका, अफगानिस्तान में ना युद्ध जीत पाएगा और ना सम्मान भरी वापसी कर पाएगा। विकिलिक्स ने द्वारा जारी किए गए दस्तावेजों मंे भी अमरीका के अफगानिस्तान में जंग हारने की आशंका जाहिर की गई है कि अमरीका। इन संशयांे के बीच ही यदि यह मान लिया जाय कि अमरीका अफगानिस्तान में युद्ध हार रहा है, तो क्या अमरीकी सैनिकों की सहज वापसी संभव है ? अफगानिस्तान में तालिबान चरमपंथियों की पकड़ मजबूत होने से दक्षिण एशिया की भौगोलिक राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ सकता है ? ये ऐसे प्र्रश्न हैं जो इन दिनों अफगानिस्तान की राजनीति में जेरे-बहस बने हुए हैं। यह तो स्पष्ट हो चुका है कि अमरीका अपने सामरिक और साम्रज्यवादी हितों की खातिर अफगानी जमीन पर डंटा हुआ है, क्षेत्र की स्थिरता और शांति को खतरा पैदा होगा उसकी तवज्जों नहीं है। जिस लोकतंत्र स्थापना की भेरी बजाता अमरीका अफगानिस्तान आया था, उसकी हकीकत भी हाल ही में विकिलिक्स के दस्तावेजों में जाहिर हो चुकी है। दस्तावेजों से उजागर हुआ है कि पिछले 5 सालों मंे नाटों ने 144 ऐसे हमले किए, जिनमें आम नागरिक मारे गए। और इन कार्रवाइयों की वजह रही है नाटो सैनिकों पर हमला होेने की आंशंका! यह सुनना स्तब्धकारी है कि अमरीकी या नाटो के अन्य कमांडर अफगानिस्तान में महज आशंका के आधार पर पुरे के पुरे परिवार के कत्ल का आदेश दे रहे है। बेचैनी इस बात पर भी होती है कि हठ भरं अंदाज में वह ऐसे हमलों की बात खरिज भी करते रहे हैं। महीने भर पहले अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजाई ने नाटो सैनिकों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने दक्षिणी अफगानिस्तान में राकेटों से हमला कर 52 नागरिकों की हत्या कर दी है। तब अफगानिस्तान में नाटो सहयोगी सैन्य बल आईएसएएफ के प्रवक्ता कर्नल वायेन स्वैन्क ने इन आरोपों को सिरे से नकार दिया था; जबकि लीक हुए दस्तावेजों में इसके पुख्ता प्रमाण है कि वह हमला अमरीकी मरीन ने जान बुझकर किया था। इन मुद्दों और इन पर जारी बहस के आलोक में देखेें तो अमरीका की अफगानिस्तान से सहज वापसी संभव नहीं लगती। अफगानिस्तान की सुरक्षा का दारोमदार अफगानी सैनिकों को संभवतः 2014 तक सौपा जा सकता है। बराक ओबामा नेे जिन 30 हजार अतिरिक्त सैनिको को भेजने की बात की है, उनकी उपस्थिति भी अफगानिस्तान में बनी रहेगी। हालांकि अमरीका अफगानिस्तान में अपने दीर्घकालीन हितों के मद्देननजर इस क्षेत्र मंे प्रभाव को बनाए रखने के कुछ और उपाय कर सकता है। अमरीकी प्रशासन इसी कवायद के तहत तालिबान के उदार धड़ों से बातचीत की कोशिश भी कर चुका है, लेकिन वहां उसे आशानुरूप सफलता नहीं मिली है। राजनयिक हल्कों में इन दिनों अमरीका की सम्मान भरी वापसी और और लंबे समय तक अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए जिस विकल्प की खासी चर्चा हैं वह है अफगानिस्तान कोे दो हिस्सों में विभाजित करने की। बिलकुल औपनिवेशिक दौर की ‘बांटों और राज करो’ की नीति के तर्ज पर ‘बांटो और वापस चलो’ की राजनीति की। अफगानिस्तान मंे अमरीका की हार की भविष्यवाणी करने वाले अमरीकी राजदूत राबर्ट ब्लैकविल इस प्रस्ताव के प्रबल पैरोकार बनकर उभरे हैं। बकौल ब्लैकविल अफगानिस्तान में अमरीकी सेना के हारने की स्थिति में अफगानिस्तन का बंटवारा ही ऐसा विकल्प है, जिसके जरिए इस क्षेत्र मंे शंाति स्थापित हो पाएगी। इस प्र्रस्ताव के मुताबिक दक्षिणी और पूर्वी अफगानिस्तान को पख्तूनों को सौंप दिया जाय; और उत्तरी व पश्चिमी अफगानिस्तान पर अमरीका व उसके सहयोगी देशों के समर्थक अफगानी गुटों का कब्जा बरकरार रखा जाय। ब्रितानी उपपिवेशवाद के दौर जैसा यह विचार दरअसल अफगानिस्तान की पख्तून और गैरपख्तुन आबादी को आतंकी और गैरआतंकी मानकर देखेने की अमरीकी मानसिकता का अभिव्यक्ति भी है। अफ-पाक क्षे़त्र में नाटो सैनिकों को मिले जबर्दस्त प्रतिरोध के कारण अमरीकी इंटेलीजेंसिया पख्तुनों को आतंकी अथवा अलकायदा और तालिबान जैसे संगठनांे के संरक्षक के रूप में देखती है। अमरीकियों की इस सोच का उदाहरण पाकिस्तान के ख्ैाबरपख्तूनख्वा और स्वात घाटी में आई जबर्दस्त बाढ़ के बाद प्रभावितों की सहायता के लिए दिए जाने वाले धन मे बरती जा रही कूटनीतिक चालाकी में देखा जा सकता है। अफगानिस्तान के किसी भी प्रकार के भौगोलिक विभाजन का अर्थ होगा आम जनता के मानवाधिकारों की सदा-सर्वदा के लिए हत्या और अफगानियों की राष्ट्रीयता की भावना को गहरा आघात। तालिबान का मानवाधिकारों के हनन का जैसा रिकार्ड रहा है, उसे देखते हुए कतई यह उम्मीद नहीं की जा सकती की विभाजन की स्थिति में तालिबान शासित क्षेत्रों में स्त्रियों और गैर पख्तूनों के मानवाधिकारों की रक्षा संभव होगी; कमोेबेश यही हालात अमरीकी सैनिकों की उपस्थिति के कारण गैरपख्तून खित्ते की भी होगी । हालांकि अफगानी अपने मुल्क के विभाजन को कतई स्वीकार करेेंगे। राष्ट्रीयता की भावना अफगानियों विशेष पहचान रही है। 1996 में भी आईएसआई ने तालिबान को अफगानिस्तान को बांटने का प्रस्ताव दिया था। उस समय अफगानिस्तान के अधिकतर हिस्सों में तालिबान का कब्जा था, लेकिन उत्तर का इलाका नार्दर्न एलायंस के कब्जे में था। तब तालिबान ने आईएसआई ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसके अलावा ऐसे किसी प्रस्ताव से पाकिस्तान में भी हालात बिगड सकते हैं; पाकिस्तान में चार करोड पख्तून आबदी रहती है, जबकि अफगानिस्तान में महज डेढ करोड; ऐसे में तालिबान इन हिस्सों को एक कर अलग पख्तूनिस्तान बना लेता है तो मुश्किलें और बढ जाएंगी। नया मुल्क आतंक की नई पनाहगाह होगा। इसलिए बेहतर होगा की अफगानिस्तान में शांति स्थापना के लिए अधिक व्यावहरिक, अफगानी जनता और क्षेत्रीय हितों के अनुकूल किसी उपाय पर विचार किया जाय। यदि यह उपाय अफगानी जनता के भीतर से विकसित होते हैं तो अफगानिस्तान में लोकतंत्र बहाली की गारंटी दी जा सकती है।
सही चिंतन है
जवाब देंहटाएंबाँटने भर से संतुष्ट नहीं होने वाले ये...दर असल अमरीका और चीन दोनो ही इस क्षेत्र मे जमे रहने के तर्क(बहाने) ढूँढ रहे हैं. महत्वपूर्ण पोस्ट .
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