18 मई 2010

संसद की बातें और युद्ध का सच --- अनिल चमड़िया

लाल कृष्ण आडवाणी ने नवंबर 1999 में जब ये कहा कि आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों का सामना करने के लिए सैनिक बलों की संख्या पर्याप्त नहीं है तो राज्यसभा में इस बाबत एक सवाल किया गया।तब सरकार ने जवाब दिया था कि इस समय जम्मू कश्मीर में मिलिटेंसी से प्रभावित जिलों की संख्या 12 है। इंसर्जेसी से प्रभावित उत्तर पूर्व के चार राज्यों के 44 जिले है। वाम उग्रवाद से पीड़ित आंध्र प्रदेश के 6 , बिहार के 10, मध्यप्रदेश के 7, महाराष्ट्र के तीन एवं उड़ीसा के 5 जिले प्रभावित हैं। इसके अलावा सबसे ज्यादा संख्या देश के विभिन्न राज्यों के 112 जिले साम्प्रदायिक स्तर पर संवेदनशील बताए गए थे। जातीय तनाव की चपेट में मात्र 24 जिलें थे। लेकिन 15 अगस्त 2006 को देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लाल किले की प्राचीर से आतंकवाद और नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में घोषित किया। महज छह वर्षों में नक्सलवाद का तेजी से इतना विकास कैसे हो गया ? कैसे मिटिलेंसी, इंसर्जेसी, वाम उग्रवाद आदि शब्द एक होकर आतंकवाद के पर्याप्य के रूप में माओवाद सामने आ गया ?

अजात शत्रु के बारे में पढ़ते हुए एक वाक्या आता हैं। उसे पिता को कैद में रखना था। लेकिन पिता को कैद में रखने के रूप में कोई फैसला लिया जाता तो लोगों के बीच उसका गलत संदेश जाता। लिहाजा राजा ने अपने फैसले की भाषा बदल दी। उसने फैसला किया कि वह अपने पिता को कड़ी सुरक्षा में रखना चाहता है और उसने उनके इर्द गिर्द सख्त पहरा बैठा दिया।उस पिता के लिए कैद और सुरक्षा शब्दों में क्या फर्क था?किसी फैसले की भाषा से राजनीतिक उद्देश्य समझ में नहीं आता है। उस फैसले के क्या परिणाम निकलने वाले है, उसके राजनीतिक उद्देश्यों को समझने के लिए उस पर गौर करना ही महत्वपूर्ण होता है। राज्यसभा में छोटे लोहिया के रूप में विख्यात जनेश्वर मिश्र ने 17 मई 2000 को सरकार से एक सीधा सवाल किया कि क्या नक्सलवाद को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए टास्क फोर्स के गठन के बाद से देश में नक्सलियों के प्रभाव और उसके कार्यक्षेत्र में तेजी से विस्तार हुआ है? दूसरा क्या झुठे मुठभेड़ के नाम पर नक्सलियों को मारने की घटनाओं में तेजी से बढ़ोतरी हुई है?अब ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते हैं।अब सूचनाएं मांगी जाती है कि सरकार नक्सलवाद से निपटने के लिए क्या कर रही है। सरकार के पास जनेश्वर मिश्र के दूसरे प्रश्न का जवाब नहीं था। सीधा जवाब पहले प्रश्न का भी नहीं था। सरकार ने केवल इतना बताया कि 1998 में नक्सलवादी प्रभावित राज्यों के बीच पुलिस वालों की एक समन्वय समिति बनाई गई हैं। अब सवाल यहां ये पूछा जा सकता है कि क्या देश में नक्सलवाद से निपटने के नाम पर राज्यों को केन्द्र द्वारा पैसा मुहैया कराने का सिलसिला शुरू किया गया है या फिर नक्सलवाद को एक बड़े खतरे के रूप में पेश करने के लिए विनियोग किया जाता रहा है? यह सवाल जनेश्वर मिश्र के सवाल से जुड़कर ज्यादा महत्वपूर्ण और गौरतलब हो जाता है।

संविधान के मुताबिक कानून एवं व्यवस्था राज्य का विषय है। राज्यों की माली हालत खराब बिगड़ती चली गई है।कमजोर होते राज्यों को केन्द्र सरकार ने सुरक्षा के नाम पर राज्यों के कई तरह से राशि मुहैया कराती रही है। एक तो पुलिस बलों के आधुनिकीकरण के नाम पर राशि दी जाती रही है।दूसरे सुरक्षा संबंधी खर्चों की भरपायी योजना के तहत पचास प्रतिशत राशि मुहैया कराई जाती रही है। 1999-2000 में केन्द्र सरकार ने सुरक्षा संबंधी खर्चों की भरपायी योजना के तहत आंध्र प्रदेश को सबसे ज्यादा 30.46 करोड़ रूपये मुहैया कराया था। आज जिन आदिवासी प्रदेशों झारखंड , मध्यप्रदेश, उड़ीसा को माओवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित बताया जा रहा है उन राज्यों में तब की स्थिति क्या थी, ये यहां गौर तलब है। तब संयुक्त बिहार को 9 करोड़, मध्यप्रदेश को 5 करोड़ और उड़ीसा को 3.58 करोड़ रूपये इस मद में मुहैया कराए गए थे। उपर इन राज्यों में वाम उग्रवाद से प्रभावित जिलों की संख्या भी बतायी गई है।

संसद में सरकार ने 2010 तक माओवाद और नक्सलवाद की जो तस्वीर देश को बतायी है, उस पर भी गौर करें। सरकार ने पुलिस ढांचे के आधुनिकीकरण के लिए आंध्र प्रदेश को 2008-09 में 83.83 करोड़, बिहार16.24 करोड़, छत्तीसगढ़ को 41.72 करोड़, झारखंड़ को 50.95 करोड़, मध्यप्रदेश को 57.68 करोड़, महाराष्ट्र को 75.86 करोड़, उड़ीसा को 42.52 करोड़ यानी बाकी दो राज्यों उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल को कुल मिलाकर 515.05 करोड़ रूपये राशि मुहैया करायी है। सुरक्षा संबंधी खर्चों की भरपायी योजना के तहत उपरोक्त राज्यों को 10433.20 लाख रूपये की कार्य योजना को मंजूरी दी गई । एक तीसरा नया खर्चा और जुड़ा है। वाम उग्रवाद से निपटने के लिए कई तरह के ढांचे खड़े करने के लिए विशेष ढांचागत योजना के तहत राज्यों को राशि मुहैया करायी जा रही है। छत्तीसगढ़ के केवल वीजापुर और दंतेवाड़ा के लिए क्रमश- 1615 लाख और 1135 लाख रूपये दिए गए।बिहार के गया और औरंगाबाद के लिए 986 लाख और 619 लाख रूपये और झारखंड के चतरा जिले के लिए 960 लाख एवं पलामू के लिए 1420 लाख रूपये दिए गए। कुल 9999.92 लाख रूपये उपरोक्त राज्यों के अलावा आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश को सुरक्षा के ढांचे खड़े करने के लिए दिए गए। इसमें दो तरह की राशि शामिल है। राशि एक तो सहायता के नाम पर तो दूसरे कर्ज के रूप में होती है।राज्यों पर केन्द्र का कर्ज बढ़ता चला गया है।

नक्सलवाद के विस्तार को किस रूप में देखा जाए। सरकारी दस्तावेजों में नक्सलवाद का जो विस्तार पिछले पांच वर्षों के दौरान दिखाई देता है वह किस वजह से है? आखिर देश में ऐसी क्या परिस्थितियां पैदा हुई है कि इतनी तेजी के साथ नक्सलवाद का विस्तार दिखाई देता है।जब सारी दुनिया में वाम खासतौर से क्रांतिकारी वाम की समाप्ति की घोषणा की जा रही हो उस समय नक्सलवाद का इतनी तेजी से बढ़ते प्रभाव का दावा सरकार द्वारा किया जा रहा है ।खुद मनमोहन सिंह इस बात को दोहरा चुके हैं कि नक्सलवाद के प्रति बुद्दिजीवियों में आकर्षण खत्म हुआ है। बुद्दिजीवी किसी वाद के विस्तार के मापक है तो फिर नक्सलवाद का इस रूप में विस्तार उनके द्वारा क्यों बताया जा रहा है।

अमेरिका ने रीगन के कार्यकाल के दौरान 80 के दशक में राज्य पोषित आतंकवाद को दुनिया के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने की योजना बनाई थी। लेकिन वह आकार नहीं ले सकी।क्योंकि उस समय आतंकवाद के नाम पर निशाने की एक शक्ल तैयार नहीं की जा सकी थी।लगभग यही स्थिति भारत के संदर्भ में है।नई आर्थिक नीतियों के संभावित बुरे नतीजें जब सामने आने लगे तब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने नक्सलवाद को देखने के नजरिये में परिवर्तन लाना शुरू किया।उसने नक्सलवाद को केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में स्थापित करने की कोशिश की।लेकिन अमेरिका उस समय आतंकवाद को एक इस्लामी आतंकवाद के रूप में खड़ा कर रहा था।कहा जाए कि भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद बुश के जमाने में आतंकवाद को एक ठोस शक्ल दी गई।एनडीए ने उसी तर्ज पर मार्क्स-माओ और मुल्ला के रूप में विकसित कर आतंकवाद के सिक्के के दो पहलू के रूप में उसे पेश करने की कोशिश की थी।मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने प्रथम कार्यकाल में आर्थिक नीतियों के विस्तार की जो योजना तैयार की उसे आतंकवाद की समस्या से जोड़े बिना आगे बढ़ाना संभव नहीं था। देश के जिन अमीर इलाकों में कब्जा जमाने से उसका विस्तार हो सकता था वो बदकिस्मती से दुनिया के सबसे बदहाल आबादी आदिवासियों के पैर के नीचे था।लेकिन यह संभव नहीं था कि आदिवासियों को विकास के बाधक के रूप में खड़ा करके उनके खिलाफ अभियान चलाया जा सकें। उसे एक नए वैचारिक शक्ल में पेश करना जरूरी था। माओवाद इसका चेहरा बना और उसे सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जाने लगा। दुनिया भर में भूमंडलीकरण के दौर में सत्ता का चरित्र बदला हैं और उसके तदानुरूप उसकी भाषा के अर्थ भी बदले हैं। यदि बुश जिस आतंकवाद को दुनिया के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया यह उनका आकलन नहीं था। बल्कि यह उनकी भूमंडलीकरण की परियोजना का एक हिस्सा था।जैसे जब शरद पवार मंहगाई के संदर्भ में इस तरह का बयान देते है कि वह कितने महीने तक बनी रह सकती है तो वह आकलन नहीं संदेश के रूप में होता है। संदेश उन आर्थिक वर्ग के लिए जो मंहगाई की व्यवस्था को सुदृढ़ कर और लाभ उठा सकें।इस तरह से संदेश देने की रणनीति का विकास हुआ है। विकास का जब संदेश दिया जाता है तो विकास से लाभ उठाने वालों के लिए वह और आक्रमक और संगठित होने का आह्वान होता है। मनमोहन सिंह ने जब नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया तो यह दमन के लिए प्रशिक्षित नौकरशाही के लिए संदेश के रूप में सामने आया। एक लंबा सिलसिला देखा जा सकता है जब सत्ता अपनी प्रशिक्षित मशीनरी के सामने अपने एजेंडे को पेश करने का इस तरह का तरीका विकसित किया है।

भारत के संदर्भ में इस बात को आकलन किया जा सकता है कि जिस समय मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने का सिलसिला शुरू किया उस समय उसे इस रूप में पेश करने के क्या ठोस आधार थे।उस समय गृह मंत्रालय के आंकड़े बता रहे थे कि 2005 में नक्सलवादी हिंसा की 1608, 2006 में 1509, 2007 में 1565 और 2008 में 1591 घटनाएं हुई।लेकिन इन संख्याओं के भीतर भी घुसने की कोशिश करनी चाहिए। मसलन जब बिहार में नक्सलवादी हिंसा को लेकर विधानसभा में बातचीत होती थी तो सरकार जो आंकडे पेश करती थी उसमें कपूर्री ठाकुर सरीखे नेता पूछा करते थे कि नक्सलवादी हिंसा में मारे गए दलितों की संख्या कितनी है।नक्सली के नाम पर मारे गए जवानों में कितनी संख्या पिछड़े व दलितों की है। बहरहाल कुल घटनाओं की मात्रा में कोई बड़ा अंतर नहीं दिखाई दे रहा था जिसके आधार पर नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जाए।तब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने तो उस समय कहा कि कई राज्यों में नक्सलवादी हिंसा में कमी आई है।उन्होने बताया कि केवल झारखंड और छत्तीसगढ़ में स्थिति बदत्तर है।उन्होने तो यहां तक कहा कि नक्सलवाद के खतरे को देखने के अपने अपने नजरिये हो सकते हैं।संसद में सरकार कहती रही है कि नक्सलवादियों को बाहरी मुल्क से किसी तरह के हथियार वगैरह मिलने की खबर नहीं है। उनकी आय का बड़ा हिस्सा अपने इलाके में जमा किए जाने वाली लेवी से आता है।प्रचार तंत्र ने रेड कैरिडोर का हौवा जरूर तैयार किया हो लेकिन सरकार ने ये कई मौके पर स्पष्ट किया है कि उसे रेड कैरिडोर बनाने जैसी कोई जानकारी नहीं है।प्रधानमंत्री के खतरे वाले बयान से पहले संसद में देशभर में हथियार बंद नक्सलियों की संख्या लगभग नौ सौ बतायी गई थी। दंतेबाडा में 75 केन्द्रीय पुलिस के जवानों के मारे जाने के बाद पी चिंदबरम उस संख्या के बढ़कर 14-15 हजार होने की बात कह रहे हैं।नक्सलियों के पास हथियारों के संबंध में जो आंकड़े पेश किए गए थे वे देश के पांच सात बड़े जिलों में लाईसेंसधारी हथियारों से ज्यादा नहीं बताए गए है।तब क्या इस आधार पर नक्सलवाद को सुरक्षा के लिहाज से सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जाना चाहिए था?दरअसल नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप पेश करने के पीछे भले कोई ठोस बात नहीं हो लेकिन नौ फीसदी की विकास दर को जिन इलाकों पर कब्जे के जरिये हासिल किया जा सकता था उसकी ठोस योजना थी और उसमें आने वाली बाधाओं का भी आकलन था।जब गृह मंत्री दो राज्यों के हालात बदत्तर बता रहे थे तो इसका अर्थ उन दोनों राज्यों के संपूर्ण हिस्से में भी बदत्तर हालात नहीं बता रहे थे।क्या देश के किसी वाद के कारण कुछेक जिलों में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति बदत्तर होने के आधार पर उसे आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया जा सकता है।1999 में साम्प्रदायिकता से ग्रस्त जिलों की संख्या सबसे ज्यादा बताई गई है क्या उसे आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किया गया ? देश में इस समय सबसे ज्यादा मौतें सड़कों पर होती है । एक लाख से ज्यादा लोग मारे जाते हैं। क्या इस आधार पर इसे इस समय की सबसे बड़ी समस्या के रूप में पेश किया जाना चाहिए।हिंसा और मौत खतरे का पैमाना नहीं होता है।किसी राजनीतिक व्यवस्था के लिए सबसे खतरनाक उसकी नीतियों और कार्यक्रमों को चुनौती देना होता है। भूमंलीकरण की नीतियों की वाहक राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती ये रही है कि वह कैसे विरोध की तमाम तरह की धाराओं का एक चेहरा तैयार कर दें।कैसे तमाम तरह के विरोधों को दबाने का एक नाम तैयार कर लें। माओवाद और आतंकवाद इसी दो तरह के प्रयासों के रूप में सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने आया।

नक्सलवाद के सबसे बड़े खतरे के रूप में स्थापित होने के क्या अर्थ हो सकते हैं, इस प्रश्न पर लोकतंत्र के बारे में तनिक भी संवेदनशील रहने वाले लोगों को सोचना पड़ेगा। इन वर्षों में क्या हुआ है। सरकार का संसद में ही जवाब है कि सरकार ने वाम उग्रवाद से निपटने के लिए एक ऐसे नजरिये को स्वीकार किया है जिसमें कई बातें शामिल हैं। इसमें सुरक्षा, विकास और लोगों की समझ के पहलू शामिल हैं।लोगों की समझ का पहलू अब जुड़ा है। ऐसा पहली बार हुआ है कि गृह मंत्रालय गरीब इलाकों में माओवादियों को लेकर तरह तरह के विज्ञापन जारी कर रहा है। कई शहरों में बतौर विज्ञापन होर्डिंग लगाए गए हैं।यदि इन विज्ञापनों की सामग्री का विश्लेषण किया जाए तो सत्ता के वास्तविक चरित्र को और खोलकर सामने रखा जा सकता है।विज्ञापन ये नहीं होता है कि विकास के इतने बड़े दावे के बीच आदिवासियों के बीच अंग्रेजों के जमाने से भी बदत्तर बदहाली की स्थिति बनी हुई है। बहरहाल फिलहाल विज्ञापन विषय नहीं है। केन्द्र सरकार के अनुसार राज्य सरकारें अपने यहां नक्सलवाद से जुड़े कई पहलूओं पर सक्रिय रहती है और केन्द्र सरकार कई तरह से उन्हें मदद करती हैं। इसमें केन्द्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती, रिजर्व बटालियन की स्वीकृति , आतंकवाद विरोधी और काउंटर इंसर्जेंसी स्कूलों की स्थापना , राज्य की पुलिस की सेना द्वारा ट्रेनिंग के लिए रक्षा मंत्रालय से मदद, सामुदायिक पुलिस लोगों को कार्रवाई में उतारने के लिए मदद उपर उल्लेखित पुलिस के आधुनिकीकरण आदि स्कीमों के तहत दी जाने वाली राशि के अलावा है।यहां जिस सामुदायिक और नागरिकों को कार्रवाई में उतारने के लिए मदद देने की बात जो कहीं गई है उसके बारे में स्पष्ट कर लेना चाहिए। सरकार ने ही स्वीकार किया है कि देश के विभिन्न हिस्सों में उसने नागरिक सुऱक्षा समितियों के गठन में मदद करती है। देश के कई हिस्सों में ग्रामीण सुरक्षा समितियां सक्रिय है जिन्हें सरकारी फंड के अलावा हथियार और संरक्षण मिलता है।दूसरा छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री ने बताया था कि केन्द्र के कहने पर ही उनके राज्य में विशेष पुलिस अधिकारी नियुक्त किए गए हैं।मुख्यमंत्री के मुताबिक अब उनकी बटालियन तैयार करने पर विचार किया जा रहा है। असंतोष से भरे इलाके में गरीब और जागरूक युवाओं को एक राजनौतिक जगह जमा होने से रोकने की सरकारी नीति के तहत कई तरह की योजनाएं चलती रहती है। एसपीओ यानी विशेष पुलिस अधिकारी, सुरक्षा समितियां उनमें एक हैं। स्थानीय युवाओं के एक हिस्से को सेना या अर्द्धसैनिक बलों में ले लिया जाता है।जैसे कश्मीर के दो हजार युवाओं को सेना में लेने का फैसला किया गया। असम में जिस समय असंतोष गहराया उस समय वहां के युवाओं को सेना में भर्ती करने का सिलसिला तेज किया गया। अभी आदिवासी इलाकों में ये सिलसिला तेज हुआ है। पुलिस और सेना में भर्ती के लिए लंबी लाइनें लग जाती है।आदिवासी बटालियन बनाने की प्रक्रिया तेज हुई है। देश में असंतोष से भरे राजनीतिक आंदोलनों के दौरान इस तरह की योजनाओं का एक लंबा सिलसिला हैं।लेकिन युवाओं की चाहें जितनी भर्ती सेना या पुलिस में कर ली जाए उससे समस्या के खिलाफ असंतोष के घनत्व को तो कमजोर किया जा सकता है लेकिन समस्याएं कैसे खत्म हो सकती है? वह तो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रमों के आधार पर ही हो सकती है।नई आर्थिक नीति और राजनीतिक सरोकार इसकी इजाजत नहीं देते हैं। लोकतंत्र में हासिल अधिकार इसका विरोध करने की इजाजत देते है।सैन्य ढांचा इसी लोकतंत्र से निपटने की दूरगामी योजना का हिस्सा है।

नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश किए बिना आतंकवाद विरोधी ढांचे का निर्माण नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसे आर्थिक,सामाजिक और राजनीतिक समस्या मानने के दृष्टिकोण के रहते ऐसा करना संभव नहीं हो सकता था।इस नजरिये के बिना विभिन्न तरह के राजनीतिक पर्दों में छिपे लोकतंत्र विरोधी तमाम शक्तियों को एकजूट नहीं किया जा सकता था। इसके बिना उस छोटे से बौद्धिक वर्ग पर भी हमले की स्थितियां तैयार नहीं की जा सकती है जो भूमंडलीकरण के तमाम दबावों के बावजूद अपनी संवेदनशीलता और सरोकारों को बचाए हुए है। इसीलिए देखा जा सकता है कि कल राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से जुड़े संगठन बौद्धिक आतंकवाद के नाम पर लोकतांत्रिक समूहों पर हमला बोलते थे अब मनमोहन सिंह के स्वर में स्वर मिलाने वाले आर्थिकवादी गृहमंत्री पी चिंदबरम भी बौद्धिक वर्ग पर माओवाद के समर्थन के लिए सबसे जोरदार हमला बोलते हैं।जैसे सल्वा जुड़ुम में भाजपा और कांग्रेस साथ साथ हो गई। अमीर परस्त आर्थिकवादियों का राजनीतिक लक्ष्य एक ही होता है। गणतंत्र में राज्यों की ताकत को कमजोर नही किया जा सकता है।ये अब दावे के साथ कहा जा सकता है कि राज्यों के नाम कानून एवं व्यवस्था केवल एक विषय के रूप में रह गया है जैसे देश के नाम समाजवादी संविधान रह गया है।राज्य के नाम केवल विषय है , निपटने के लिए सारी योजनाएं केन्द्र की है। नक्सलवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने में गरीब और राजनीतिक तौर पर कमजोर राज्यों के भीतर लालच की प्रवृति का बढ़ना स्वभाविक है। अमेरिका ने मुशर्रफ के कार्यकाल में पाकिस्तान को आतंकवाद के नाम तब तब बहुत पैसा दिया जब जब पाकिस्तान ने अपने यहां आतंकवादी घटनाओं में तेजी के साथ इजाफा दिखाया।सबसे बड़े खतरे के रूप में पेश करने में लोकतंत्र की कार्रवाईयों पर चोट करने में सबसे ज्यादा आसानी होती है। देश के लोकतंत्र में पहली बार एक पुलिस अधिकारी रिबेरो ने साहस किया कि बुलेट का जवाब बुलेट से देंगे।लेकिन उस समय सवाल उठे तो उसने कई बार सफाई दी। उसकी झिझक आज एक शोर के रूप में सुनायी पड़ रही है। हर राज्य का पुलिस अधिकारी बुलेट का बुलेट से देने के लिए दहाड़ रहा है। पहले एक गिल थे जो धरना प्रदर्शन को आतंकवाद की शुरूआत मानते थे। अब देश के किसी भी हिस्से में घरना प्रदर्शन असंभव होता जा रहा है।राजनीतिक नेता लोकतंत्र में बातचीत की प्रक्रिया से इंकार कर रहे हैं।लोकतंत्र के सैन्यकरण की तरफ बढ़ने की प्रक्रिया और होती कैसी है? इसके अलावा कोई दूसरा रूप नहीं होता। मात्र दस वर्ष में नक्सलवाद के नाम पर पर युद्ध छेड़ने की बात सुनाई पड़ने लगी है।ठीक वैसे ही अमेरिका ने आतंकवाद की एक शक्ल तैयार करने के बाद उसके खिलाफ युद्द छेड़ने की घोषणा कर दी। युद्ध किसके खिलाफ हुए? अफगानिस्तान और इराक ने क्या बिगाड़ा था। क्या वकाई नक्सलवाद की विचारधारा में इतनी ताकत है कि उसके सामने सभी राजनीतिक धाराएं लगातार खुद को बौना महसूस कर रही है ? क्या भूमंडलीकरण में एक तरफ सभी सत्ताधारी धाराएं एक हो गई है और दूसरी तरफ विरोध का एक चेहरा तैयार कर लिया गया है? युद्ध के लिए हथियार बंद चेहरा चाहिए और नक्सलवाद व माओवाद बहाना है। सबसे सुंदर कहावत गढ़ी जा रही है कि सबसे कमजोर लेकिन सबसे अमीर लोगों को लूटने के लिए सबसे सुंदर बहाना क्या हो सकता है?कमजोर हिंसक नहीं हो सकता और अमीर होने का तो उसे एहसास भी नहीं। तब ऐसी कहावत का उत्तर क्या होगा? कमजोर और अमीर एक साथ होना इस समयका सबसे बड़ा खतरा हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

    बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
    अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
    बस्तर की कोयल होने पर

    सनसनाते पेड़
    झुरझुराती टहनियां
    सरसराते पत्ते
    घने, कुंआरे जंगल,
    पेड़, वृक्ष, पत्तियां
    टहनियां सब जड़ हैं,
    सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

    बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
    पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
    पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
    तड़तड़ाहट से बंदूकों की
    चिड़ियों की चहचहाट
    कौओं की कांव कांव,
    मुर्गों की बांग,
    शेर की पदचाप,
    बंदरों की उछलकूद
    हिरणों की कुलांचे,
    कोयल की कूह-कूह
    मौन-मौन और सब मौन है
    निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
    और अनचाहे सन्नाटे से !

    आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
    महुए से पकती, मस्त जिंदगी
    लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
    पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
    जंगल का भोलापन
    मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
    कहां है सब

    केवल बारूद की गंध,
    पेड़ पत्ती टहनियाँ
    सब बारूद के,
    बारूद से, बारूद के लिए
    भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
    भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

    फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

    बस एक बेहद खामोश धमाका,
    पेड़ों पर फलो की तरह
    लटके मानव मांस के लोथड़े
    पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
    टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
    सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
    मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
    वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
    ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
    निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
    दर्द से लिपटी मौत,
    ना दोस्त ना दुश्मन
    बस देश-सेवा की लगन।

    विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
    आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
    अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
    बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
    अपने कोयल होने पर,
    अपनी कूह-कूह पर
    बस्तर की कोयल होने पर
    आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

    अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

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  2. संसद की बहसों में पेश किये गए आंकड़े भले ही वास्तविकता दिखाने की बात करते हों लेकिन इन आंकड़ों का शायद 1% ही सच होता होगा। ऐसे में सच का इतिहास ढूंढना मुश्किल काम है क्योंकि ये कहीं दर्ज नहीं और अगर दर्ज है तो ढूंढना मुश्किल काम है।

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