सुप्रीम कोर्ट ने नारको टेस्ट पर कानूनी प्रतिबंध लगाते हुए इसे असंवैधानिक करार दिया है. नारको टेस्ट का मामला व्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन से जुड़ा है जिसमे उसे बोलने या चुप रहने दोनों का अधिकार दिया जाता है. एक आरोपी को अपने ऊपर लगे आरोप को कुबूल करने या न कुबूल करने दोनों का अधिकार होना चाहिये, जिसका उलंघन ब्रेन मैपिंग के आधार पर किये जाने वाले इस तरह की जाँच में अब तक होता रहा. इस निर्णय के बाद एक अहम सवाल यह है कि अब तक किये गये नारको टेस्ट व उन बयानों के आधार पर जाँच एजेंसियों द्वारा की गयी तफ्सीस को किस रूप में देखा जायेगा. पिछले वर्ष जब माओवादी आंदोलन के कथित कार्यकर्ता अरूण फ़रेरा का नारको टेस्ट किया गया था तो उसके दौरान आये बयान और उस पर शिवसेना की टिप्पणी ने कई प्रमुख सवाल खड़े कर दिये थे. जिसमे अरुण फ़रेरा ने अपने नारको टेस्ट में पूछे गये सवाल के जवाब में ए.बी.बी.पी. व बालठाकरे से मदद मिलने की बात कही थी और शिवसेना ने उसे सिरे से खारिज भी किया था. शिवसेना का सिरे से खारिज करना इस बात को इंगित करता है कि दोनों में से एक गलत है. वैचारिक रूप से शिवसेना और वामपंथी आंदोलन दो ध्रुव हैं जिस बात को शिवसेना ने स्वीकार करते हुए किसी तरह कि मदद से इनकार किया था. ऐसे में नारको परीक्षण से सच उगलवाने को लेकर मानवाधिकार संगठनों ने कुछ अहम सवाल उठाये थे और इस पर प्रतिबंध की मांग की थी. पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट (एक मानवाधिकार संगठन) ने अरुण फरेरा के नारको परीक्षण को लेते हुए एक रिपोर्ट जारी की है जिसमे कहा गया था कि नारको टेस्ट एक प्रताणना के अलावा और कुछ नही है क्योंकि इस तरकीब से सच उगलवाना संभव नहीं है.पर इन सारे आधारों की अनदेखी की गयी और अरुण फरेरा आज भी नागपुर जेल में कैद हैं.
हाल के वर्षों में देश में बढ़ते नारको परीक्षण की सच्चाई यह रही है कि बंग्लूरू में स्थापित टेस्ट सेंटर मे अब तक ३०० से अधिक नारको परीक्षण हो चुके हैं जिसके कोई खास नतीजे सामने नहीं आये हैं और पुलिस उन सबूतों के बल पर कुछ भी करने में अक्षम रही है. इसके पीछे ठोस कारण ये है कि नारको परीक्षण के जरिये पुख्ता सबूत निकालने में ५% मदद ही मिल पाती है और यह भी कई बातों पर निर्भर करता है. नारको परीक्षण के दौरान जिन नशीले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है उसमें सोडियम पेंटोथाल, सेकोनाल, सोडियम एमिटोल, स्कीपोलामाइन है. अब तक इस दावे के आधार पर नारको टेस्ट होते रहे कि इसके प्रयोग से आरोपी अपने विचारों को बदलने में असमर्थ हो जाता है और वह सब कुछ उगलता है जो कि उसके मस्तिस्क में होता है परन्तु तथ्य यह भी हैं कि यदि उसने टेस्ट के पहले ही जिद बना ली है कि वह झूठ बोलेगा या कुछ और बोलेगा तो दवा का प्रवाह उसकी इस जिद को बलवती बनाता है. इस टेस्ट का तरीका इतना अमानवीय होता है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा निर्धारित शारीरिक शोषण के अन्तर्गत आने वाले लगभग सभी तरकीबों का प्रयोग अभियुक्त पर किया जाता है और प्रयोग किये गये सीरम से व्यक्ति का शारीरिक संतुलन भी गड़बड़ हो जाता है. जिसका सीधा प्रभाव उसकी यादास्त और स्वसन क्रिया पर पड़ता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए दुनियाँ के कई देशों ने इस अमानवीय तरीके को अपनाना बंद कर दिया.
१९२२ में जब टेक्सास में पहली बार राबर्ट अर्नेस्ट द्वारा वहाँ के दो बंदियों पर यह तरीका अपनाते हुए कोर्ट में उन्हें पेश कर बयान दिलाया गया तो अभियुक्तों के अपराध स्वीकारने के बावजूद भी न्यायाधीस ने यह कहते हुए उन्हें बरी कर दिया कि नशे की हालत में दिया गया यह बयान अवैधानिक है. १९३० तक ही दुनियाँ के कई देश की न्यायालयों ने नारको टेस्ट से जुटाये गये सबूतों को अमान्य कर दिया और १९५० तक कई देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया. भारतीय कानून में धारा १६४ के अनुसार बिना किसी दबाव के न्यायाधीस के सामने दिये गये ही बयान न्यायालय को मान्य होंगे. इस आधार पर भारतीय न्यायालय परीक्षण के आधार पर जुटाये गये सबूत को मानती भी नही. परन्तु दुनियाँ के सबसे बडे़ लोकतंत्र कहे जाने वाले देश में इस प्रक्रिया का जारी रखना और ड्रग का इश्तेमाल कर शारीरिक यातना अभी तक जारी रही. नारको टेस्ट अवैज्ञानिक इस लिहाज से भी था कि सीरम के प्रयोग के बाद अभियुक्त से प्रश्न पूछने की शैली भी अभियुक्त के जवाब को निर्धारित करती है. यानि इसके मुताबिक जाँचकर्ता वह सब उगलवा सकता है जो वह उगलवाना चाहे. लिहाजा सुप्रीम कोर्ट के इस अहम फैसले के बाद जाँच एजंसियों द्वारा अभियुक्त पर की जा रही अमानवीयता पर फर्क जरूर पड़ेगा. पर सवाल नारको टेस्ट द्वारा अब तक अभियुक्तों पर हो चुकी अमानवीयता और मानवाधिकार हनन का भी है. कुछ मामले ऐसे है जिनमे अभियुक्त को छः-छः बार परीक्षण करवाना पडा़ है. आरुसी हत्या मामले में कम्पाउंडर कृष्णा की दो बार नारको टेस्ट हुई जिसका कोई खास नतीजा सामने नही आया ऐसे में टेस्ट के आधार पर जिन अभियुक्तों की तफ्सीस को आगे बढ़ाया जा रहा होगा उनका क्या होगा.
अब तक भारतीय न्यायालय जाँच में इसकी भूमिका को सही ठहराती रही क्योंकि वह मानती थी कि इससे पुलिस को कुछ पुख्ता सबूत मिलते हैं. पर इसके अलावा अब तक हुए ३०० से अधिक परीक्षण व इससे भी कहीं अधिक की गयी मांगों में न्यायालय व पुलिस का रवैया साफ तौर पर देखा जा सकता है. तेलगी प्रकरण में किये गये नारको परीक्षण के दौरान कई बडे़-बडे़ नेता और आला अधिकारियों के नाम पूछ-ताछ के दौरान लिये गये थे पर अब तक उन सुरागों का पुलिस ने कही इस्तेमाल नही किया है. यहाँ तक कि इन नेताओं और अधिकारियों से पुलिस ने सवाल-जबाब तक नहीं किये. दूसरे मामले में यदि न्यायालय का रुख देखें जिसमें शेख शोहराबुद्दीन के फर्जी मुठभेड़ और कौसर बी की हत्या पर गुजरात की अदालत ने आई.पी.एस. अधिकारियों जिसमे डी.जी.पी. बजारा समेत अन्य छः पुलिस कर्मी भी सम्मलित थे, के नारको टेस्ट की याचिका खारिज कर दिया था. ये घटनाये यह स्पष्ट करती हैं कि अब तक नारको टेस्ट किसका होता रहा है और सबूत किनके लिये जुटाये जाते हैं और कौन हरबार बचा लिये जाते रहे हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अभियुक्तों के साथ हो रहे अमानवीय व अलोकतांत्रिक व्यवहार पर लगाम लगाने की दिशा में देर से ही सही एक महत्वपूर्ण कदम है.
हाल के वर्षों में देश में बढ़ते नारको परीक्षण की सच्चाई यह रही है कि बंग्लूरू में स्थापित टेस्ट सेंटर मे अब तक ३०० से अधिक नारको परीक्षण हो चुके हैं जिसके कोई खास नतीजे सामने नहीं आये हैं और पुलिस उन सबूतों के बल पर कुछ भी करने में अक्षम रही है. इसके पीछे ठोस कारण ये है कि नारको परीक्षण के जरिये पुख्ता सबूत निकालने में ५% मदद ही मिल पाती है और यह भी कई बातों पर निर्भर करता है. नारको परीक्षण के दौरान जिन नशीले पदार्थों का प्रयोग किया जाता है उसमें सोडियम पेंटोथाल, सेकोनाल, सोडियम एमिटोल, स्कीपोलामाइन है. अब तक इस दावे के आधार पर नारको टेस्ट होते रहे कि इसके प्रयोग से आरोपी अपने विचारों को बदलने में असमर्थ हो जाता है और वह सब कुछ उगलता है जो कि उसके मस्तिस्क में होता है परन्तु तथ्य यह भी हैं कि यदि उसने टेस्ट के पहले ही जिद बना ली है कि वह झूठ बोलेगा या कुछ और बोलेगा तो दवा का प्रवाह उसकी इस जिद को बलवती बनाता है. इस टेस्ट का तरीका इतना अमानवीय होता है कि संयुक्त राष्ट्र के द्वारा निर्धारित शारीरिक शोषण के अन्तर्गत आने वाले लगभग सभी तरकीबों का प्रयोग अभियुक्त पर किया जाता है और प्रयोग किये गये सीरम से व्यक्ति का शारीरिक संतुलन भी गड़बड़ हो जाता है. जिसका सीधा प्रभाव उसकी यादास्त और स्वसन क्रिया पर पड़ता है. इस बात को ध्यान में रखते हुए दुनियाँ के कई देशों ने इस अमानवीय तरीके को अपनाना बंद कर दिया.
१९२२ में जब टेक्सास में पहली बार राबर्ट अर्नेस्ट द्वारा वहाँ के दो बंदियों पर यह तरीका अपनाते हुए कोर्ट में उन्हें पेश कर बयान दिलाया गया तो अभियुक्तों के अपराध स्वीकारने के बावजूद भी न्यायाधीस ने यह कहते हुए उन्हें बरी कर दिया कि नशे की हालत में दिया गया यह बयान अवैधानिक है. १९३० तक ही दुनियाँ के कई देश की न्यायालयों ने नारको टेस्ट से जुटाये गये सबूतों को अमान्य कर दिया और १९५० तक कई देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया. भारतीय कानून में धारा १६४ के अनुसार बिना किसी दबाव के न्यायाधीस के सामने दिये गये ही बयान न्यायालय को मान्य होंगे. इस आधार पर भारतीय न्यायालय परीक्षण के आधार पर जुटाये गये सबूत को मानती भी नही. परन्तु दुनियाँ के सबसे बडे़ लोकतंत्र कहे जाने वाले देश में इस प्रक्रिया का जारी रखना और ड्रग का इश्तेमाल कर शारीरिक यातना अभी तक जारी रही. नारको टेस्ट अवैज्ञानिक इस लिहाज से भी था कि सीरम के प्रयोग के बाद अभियुक्त से प्रश्न पूछने की शैली भी अभियुक्त के जवाब को निर्धारित करती है. यानि इसके मुताबिक जाँचकर्ता वह सब उगलवा सकता है जो वह उगलवाना चाहे. लिहाजा सुप्रीम कोर्ट के इस अहम फैसले के बाद जाँच एजंसियों द्वारा अभियुक्त पर की जा रही अमानवीयता पर फर्क जरूर पड़ेगा. पर सवाल नारको टेस्ट द्वारा अब तक अभियुक्तों पर हो चुकी अमानवीयता और मानवाधिकार हनन का भी है. कुछ मामले ऐसे है जिनमे अभियुक्त को छः-छः बार परीक्षण करवाना पडा़ है. आरुसी हत्या मामले में कम्पाउंडर कृष्णा की दो बार नारको टेस्ट हुई जिसका कोई खास नतीजा सामने नही आया ऐसे में टेस्ट के आधार पर जिन अभियुक्तों की तफ्सीस को आगे बढ़ाया जा रहा होगा उनका क्या होगा.
अब तक भारतीय न्यायालय जाँच में इसकी भूमिका को सही ठहराती रही क्योंकि वह मानती थी कि इससे पुलिस को कुछ पुख्ता सबूत मिलते हैं. पर इसके अलावा अब तक हुए ३०० से अधिक परीक्षण व इससे भी कहीं अधिक की गयी मांगों में न्यायालय व पुलिस का रवैया साफ तौर पर देखा जा सकता है. तेलगी प्रकरण में किये गये नारको परीक्षण के दौरान कई बडे़-बडे़ नेता और आला अधिकारियों के नाम पूछ-ताछ के दौरान लिये गये थे पर अब तक उन सुरागों का पुलिस ने कही इस्तेमाल नही किया है. यहाँ तक कि इन नेताओं और अधिकारियों से पुलिस ने सवाल-जबाब तक नहीं किये. दूसरे मामले में यदि न्यायालय का रुख देखें जिसमें शेख शोहराबुद्दीन के फर्जी मुठभेड़ और कौसर बी की हत्या पर गुजरात की अदालत ने आई.पी.एस. अधिकारियों जिसमे डी.जी.पी. बजारा समेत अन्य छः पुलिस कर्मी भी सम्मलित थे, के नारको टेस्ट की याचिका खारिज कर दिया था. ये घटनाये यह स्पष्ट करती हैं कि अब तक नारको टेस्ट किसका होता रहा है और सबूत किनके लिये जुटाये जाते हैं और कौन हरबार बचा लिये जाते रहे हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अभियुक्तों के साथ हो रहे अमानवीय व अलोकतांत्रिक व्यवहार पर लगाम लगाने की दिशा में देर से ही सही एक महत्वपूर्ण कदम है.
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