खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियाँ फिर से गुजरने लगी हैं........ देश की सरकार ने लासों की कीमत अदा करनी शुरु कर दी है..... हर मरने वाले के जिंदगी की कीमत छः लाख रूपये, छः लाख की रकम का मतलब, वह रकम है जिसका आधा भी देश के ८० प्रतिशत लोगों द्वारा उनकी जिंदगी में नहीं कमाया जाता (सेन-गुप्ता कमेटी रिपोर्ट- २० रूपये प्रति दिन × ३६५ एक वर्ष में दिन × ३५ वर्ष एक व्यक्ति के कमाने की उम्र = २५५५०० रूपये). तो क्या आप सरकार की लापरवाहियों के वास्ते मरने के लिये तैयार हैं. इस आंकड़े को थोड़ा और बढ़ाया जाय, २०११ की जनगणना अभी नहीं आयी है इसलिये २००१ की जनगणना में देश की जनसंख्या १ अरब ६ करोड़ को लिया जाय और अगर सरकार को पूरा देश खाली कराना पड़े (अंबानी, मित्तल और अन्य कुछ पूजीपतियों के साथ कुछ नेताओं को देश की जरूरत पड़ जाय तो) तो देश के जनता की कीमत - १ अरब ६ करोड़ × ६ लाख = ६३६०००००००००००० रूपये है (सम्भवतः छः हजार तीन सौ साठ ख़रब रुपये). शायद मुवाबजे के तौर पर यह कीमत अदा की जा सकती है, मसलन जिंदगीयों को रूपये में आंका जा सकता है. हम इसे महज आंक रहे हैं और हमारी सरकार इसे दे भी सकती है, दे सकती है कि पंचवर्षीय परियोजनाओं के बजट जीरो हो जायेंगे कि एक बार देश जनता की तमाम समस्याओं से मुक्त हो जायेगा..... कि हमारे देश के संसद में बैठे नेताओं के लिये...... क्या देश की सबसे बड़ी समस्या देश के लोग नहीं हैं.
खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियां फिर से गुजरने लगी हैं.........पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहे हैं.....शायद अब तक वोट पड़ भी चुके हों. गुजरात में २००२ के साबरमती एक्सप्रेस की घटना याद है, ठीक बाद चुनाव के नतीजे भी याद करिये.... हमारे देश के चुनावों में रेल घटनायें बड़ी अहम भूमिका अदा करती हैं. ममता बनर्जी बहुत निर्भीक रेल मंत्री हैं, पुलिस के रोकने के बावजूद घटना स्थल पर गयी, एन. डी. टी. वी. की पत्रकार ....बनर्जी को जब वे बाइट दे रही थी तो उनकी आवाज़ में गमगीनियत को आपने नहीं सुना? उनकी आंखों में आँसू जैसा कुछ था... अगर वह आँसू नहीं था तो उसे आँसू मान लीजिये, अब रेलमंत्री इस तरह तो नहीं रोयेंगी जैसे कि हादसे में मरने वालों के परिजन......फिर तो मीडिया के लिये स्टोरी ही बदल जाती. अपने आंसुओं के साथ ममता बनर्जी ने सारी तोहमत राज्य सरकार पर लगा दी, और राज्य सरकार ने पी.सी.पी.ए. (पीपुल्स कमेटी अगेन्स्ट पुलिस एट्रोसिटि) पर, घटना स्थल से संगठन के पर्चे भी बरामद कर लिये गये. पी.सी.पी.ए. के साथ ममता बनर्जी के सम्बंध लालगढ़ आंदोलन के समय जगजाहिर थे. यह चुनाव के दरम्यान लोगों की लासों के आंच पर वोट की रोटी का सेंका जाना था..... किसने कितनी रोटियाँ सेंकी, हाल में आने वाले चुनावी नतीजों से इसका पता चल जायेगा. एक अरब से ज्यादा की आबादी में १००-२०० का मरना बड़ी बात नहीं होती..... चुनावों के दरम्यान उस राज्य की यात्रा न करें जहाँ चुनाव होने वाले हों.....
खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियां फिर से गुजरने लगी हैं......... आइ.बी.एन.सेबन का पत्रकार पटना से चलकर वहाँ सबसे पहले पहुंचा था ऐसा दावा उस चैनल का है..... बस थोड़ी सी चूक हुई और उस थोड़ी सी चूक और थोड़ी देरी का अफसोस हर चैनल को रहेगा और रहना भी चाहिये..... कि वे उन माओवादियों की तस्वीर नहीं ले पाये जिन्होंने हमले किये थे, शायद किसी चैनल के पत्रकार ने इन्हें भागते हुए भी देखा हो.....पर सबूत का आभाव...खैर सबूत कोई मायने नहीं रखते. खबर हमारी और फैसला आपका... देश के गृहमंत्रालय के पास इस बात की खबर भले न हो, देश की आई. बी. को इस बात की जानकारी रही हो या नही, अलबत्ता माओवादी पार्टी के नेताओं को भी इस बात की भनक नहीं थी कि इस घटना को वे अंजाम दे रहे हैं...ट्रेन ड्राइवर बी. के. दास के एफ.आइ.आर. में भले ही यह महज एक दुर्घटना के रूप में दर्ज किया गया हो.... नागपुर पहुंचने वाले उस ट्रेन के यात्री भले ही इनकार करें पर.... यदि घटना को अंजाम देने वालों के बारे में जानकारी थी तो मीडिया चैनलों और अखबारों को उनके पास पुख्ता सबूत थे कि इस घटना को अंजाम माओवादियों ने दिया है, क्या सी.बी.आई. इस बात की तफ्सीस करेगी कि यह जानकारी मीडिया को कैसे थी.... पर यह माओवादियों द्वारा देश में किया गया सबसे बड़ा हमला था, यह बात मीडिया द्वारा स्थापित की जा चुकी है और इस पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई घंटे व प्रिंट मीडिया के कई पन्ने रगें जा चुके हैं, यह इसलिये भी था क्योंकि माओवाद का भूत चैनलों की टी.आर.पी बढ़ाता है, यह इसलिये था क्योंकि झूठ बोलने के एवज में माओवादियों ने अभी तक किसी मीडिया संस्थान पर हमला नहीं किया है.... फिर बात क्यों न भविष्य की आसंकाओं पर की जाय कि यदि माओवादी मीडिया संस्थानों पर झूठ बोलने व मुखबिरी करने के एवज में हमला करें तो उसके क्या-क्या विश्लेषण होंगे? पी.सी.पी.ए. प्रवक्ता असित महतो का बयान आ चुका है जिसे किसी भी मीडिया द्वारा नहीं दिखाया या बताया गया कि इस घटना में उनके हाँथ नहीं है और माओवादी प्रवक्ता और राज्य समिति के सदस्य राकेश व कंचन नाम से भी बयान आ चुके हैं कि यह घटना उनके द्वारा नहीं की गयी है साथ में यह मांग भी कि इसकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिये. उनके बयान में यह भी कहा जा चुका है कि रेलविभाग द्वारा जिन रेलगाड़ियों को माओवादियों के भय से रोका जा रहा है या उनके समय में बदलाव किया जा रहा है, उन्हें इस बात से भय मुक्त रहना चाहिये, माओवादियों द्वारा इस तरह की कोई भी जनविरोधी कार्यवाही नहीं की जायेगी.
खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियां फिर से गुजरने लगी हैं.........पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहे हैं.....शायद अब तक वोट पड़ भी चुके हों. गुजरात में २००२ के साबरमती एक्सप्रेस की घटना याद है, ठीक बाद चुनाव के नतीजे भी याद करिये.... हमारे देश के चुनावों में रेल घटनायें बड़ी अहम भूमिका अदा करती हैं. ममता बनर्जी बहुत निर्भीक रेल मंत्री हैं, पुलिस के रोकने के बावजूद घटना स्थल पर गयी, एन. डी. टी. वी. की पत्रकार ....बनर्जी को जब वे बाइट दे रही थी तो उनकी आवाज़ में गमगीनियत को आपने नहीं सुना? उनकी आंखों में आँसू जैसा कुछ था... अगर वह आँसू नहीं था तो उसे आँसू मान लीजिये, अब रेलमंत्री इस तरह तो नहीं रोयेंगी जैसे कि हादसे में मरने वालों के परिजन......फिर तो मीडिया के लिये स्टोरी ही बदल जाती. अपने आंसुओं के साथ ममता बनर्जी ने सारी तोहमत राज्य सरकार पर लगा दी, और राज्य सरकार ने पी.सी.पी.ए. (पीपुल्स कमेटी अगेन्स्ट पुलिस एट्रोसिटि) पर, घटना स्थल से संगठन के पर्चे भी बरामद कर लिये गये. पी.सी.पी.ए. के साथ ममता बनर्जी के सम्बंध लालगढ़ आंदोलन के समय जगजाहिर थे. यह चुनाव के दरम्यान लोगों की लासों के आंच पर वोट की रोटी का सेंका जाना था..... किसने कितनी रोटियाँ सेंकी, हाल में आने वाले चुनावी नतीजों से इसका पता चल जायेगा. एक अरब से ज्यादा की आबादी में १००-२०० का मरना बड़ी बात नहीं होती..... चुनावों के दरम्यान उस राज्य की यात्रा न करें जहाँ चुनाव होने वाले हों.....
खड़गपुर की पटरियों से रेलगाड़ियां फिर से गुजरने लगी हैं......... आइ.बी.एन.सेबन का पत्रकार पटना से चलकर वहाँ सबसे पहले पहुंचा था ऐसा दावा उस चैनल का है..... बस थोड़ी सी चूक हुई और उस थोड़ी सी चूक और थोड़ी देरी का अफसोस हर चैनल को रहेगा और रहना भी चाहिये..... कि वे उन माओवादियों की तस्वीर नहीं ले पाये जिन्होंने हमले किये थे, शायद किसी चैनल के पत्रकार ने इन्हें भागते हुए भी देखा हो.....पर सबूत का आभाव...खैर सबूत कोई मायने नहीं रखते. खबर हमारी और फैसला आपका... देश के गृहमंत्रालय के पास इस बात की खबर भले न हो, देश की आई. बी. को इस बात की जानकारी रही हो या नही, अलबत्ता माओवादी पार्टी के नेताओं को भी इस बात की भनक नहीं थी कि इस घटना को वे अंजाम दे रहे हैं...ट्रेन ड्राइवर बी. के. दास के एफ.आइ.आर. में भले ही यह महज एक दुर्घटना के रूप में दर्ज किया गया हो.... नागपुर पहुंचने वाले उस ट्रेन के यात्री भले ही इनकार करें पर.... यदि घटना को अंजाम देने वालों के बारे में जानकारी थी तो मीडिया चैनलों और अखबारों को उनके पास पुख्ता सबूत थे कि इस घटना को अंजाम माओवादियों ने दिया है, क्या सी.बी.आई. इस बात की तफ्सीस करेगी कि यह जानकारी मीडिया को कैसे थी.... पर यह माओवादियों द्वारा देश में किया गया सबसे बड़ा हमला था, यह बात मीडिया द्वारा स्थापित की जा चुकी है और इस पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई घंटे व प्रिंट मीडिया के कई पन्ने रगें जा चुके हैं, यह इसलिये भी था क्योंकि माओवाद का भूत चैनलों की टी.आर.पी बढ़ाता है, यह इसलिये था क्योंकि झूठ बोलने के एवज में माओवादियों ने अभी तक किसी मीडिया संस्थान पर हमला नहीं किया है.... फिर बात क्यों न भविष्य की आसंकाओं पर की जाय कि यदि माओवादी मीडिया संस्थानों पर झूठ बोलने व मुखबिरी करने के एवज में हमला करें तो उसके क्या-क्या विश्लेषण होंगे? पी.सी.पी.ए. प्रवक्ता असित महतो का बयान आ चुका है जिसे किसी भी मीडिया द्वारा नहीं दिखाया या बताया गया कि इस घटना में उनके हाँथ नहीं है और माओवादी प्रवक्ता और राज्य समिति के सदस्य राकेश व कंचन नाम से भी बयान आ चुके हैं कि यह घटना उनके द्वारा नहीं की गयी है साथ में यह मांग भी कि इसकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिये. उनके बयान में यह भी कहा जा चुका है कि रेलविभाग द्वारा जिन रेलगाड़ियों को माओवादियों के भय से रोका जा रहा है या उनके समय में बदलाव किया जा रहा है, उन्हें इस बात से भय मुक्त रहना चाहिये, माओवादियों द्वारा इस तरह की कोई भी जनविरोधी कार्यवाही नहीं की जायेगी.
horrible
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