12 मई 2010

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा उपेक्षित

देश का कोई भी संस्थान जब नयी नीतियां पारित करता है तो यह अपेक्षा की जाती है कि नयी नीतियों के तहत बनने वाले नियम, कानून, पहले की अपेक्षा ज्यादा सरल और जन सुलभ होंगे. उच्च शिक्षा के विकास के लिये जब १९५३ में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) बनाया गया तो उसके आधार में १९४८-४९ में शिक्षा को लेकर बनायी गयी राधाकृष्णन कमेटी की वह रिपोर्ट थी जिसमें कुछ महत्वपूर्ण सिफारिसें की गयी थी. उन सिफारिसों में शिक्षा को लोगों के जीवन से जोड़ते हुए उसे लोगों की आवश्यकता और अभिरुचि के मुताबिक बनाना था. इसमे राष्ट्रीय समरसता कायम करने और लोगों की उत्पादकता को बढ़ाते हुए आधुनिक शिक्षा पर जोर देने की बात कही गयी थी. पिछले ५७ वर्षों के अपने इतिहास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई महत्वपूर्ण काम भी किये. मसलन जहाँ देश में १९४७ के वक्त महज २० विश्वविद्यालय थे उनकी संख्या बढ़कर आज ४०० से अधिक हो चुकी है, ५०० से कालेज की संख्या २० हजार से ऊपर पहुच गयी है और पाँच लाख से अधिक अध्यापक उच्च शिक्षा में अध्यापन कर रहे हैं, भले ही इनकी गुणवत्ता में कमी हो पर संसाधन के तौर पर यह एक बेहतर स्थिति बन पायी.
राधाकृष्णन आयोग के बाद उच्च शिक्षा को लेकर १९६४-६६ में “कोठारी आयोग” बनाया गया. उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिये उसने कुछ महत्वपूर्ण सिफारिसे की थी. जिसमे जी.डी.पी. का ६ प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाने की बात कही गयी थी ताकि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में बृद्धि की जा सके और समान व समता परक शिक्षा उपलब्ध करायी जा सके. इसके पीछे निहित उद्देश्य यह थे कि ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में जो विभेदीकृत शिक्षा प्रणाली है उसे सुधारा जा सके. चूंकि एक बड़ा तबका है जो गाँवों में रहते हुए उच्च शिक्षा से वंचित रह जा रहा था. कोठारी आयोग की ज्यादातर सिफारिसे कागजों पर धरी रह गयी और गांवों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र यू.जी.सी. द्वारा कई अन्य वंचनाओं का शिकार होते गये.
२००६ में राष्ट्रीय मान्यता मूल्यांकन परिषद (एन.ए.ए.सी.) ने उन कालेजों की गुणवत्ता पर एक सर्वे किया जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अंतर्गत थे, जिनकी संख्या १४ हजार के करीब थी. इनमे से महज ९ प्रतिशत कालेज ही ऐसे थे जो उच्च गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया करा रहे थे. निम्न गुणवत्ता के ज्यादातर कालेज ग्रामीण क्षेत्रों से ही थे.
सुखदेव थोराट के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आध्यक्ष बनने के बाद कुछ जरूरी कदम इस तौर पर उठाये गये जिससे समता व समानता आधारित शिक्षा को बढ़ावा मिला. यहाँ दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों व महिलाओं की कम भागीदारी को न सिर्फ चिन्हित किया गया बल्कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले छात्रों के असमान अनुपात को भी चिन्हित किया गया. जहाँ २००३ में ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या ७.७६ थी वहीं शहरी क्षेत्रों से २७.२० प्रतिशत छात्र उच्च शिक्षा में प्रवेश पा रहे थे. नवम्बर २००६ में मुम्बई के अपने एक उद्बोधन में सुखदेव थोराट द्वारा इस असमानता को दूर करने की घोषणायें भी की गयी पर उसके लिये जो प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिये थी वह नहीं अपनायी गयी बल्कि उसके विपरीत कुछ ऐसे नीतियां अपनायी गयी जिससे ग्रामीण क्षेत्र से उच्च शिक्षा लेना महज डिग्रीधारी होना ही रह जाता है.
गत वर्ष नेट और जे.आर.एफ. परीक्षाओं के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई बदलाव किये जिसमे आवेदन पत्रों को आन लाइन कर दिया गया ऐसी स्थिति में बड़ी तादात में वे छात्र जो गाँवों में रहते हैं और इंटरनेट जैसी आधुनिक सुविधाओं से वंचित है आवेदन करने से भी वंचित रह गये. उच्च शिक्षा में अध्यापन की पात्रता सुनिश्चित करने वाले इस परीक्षा में आवेदन प्रक्रियाओं को पहले से भी ज्यादा जटिल बना दिया गया. आखिर किसी भी संस्थान द्वारा प्रक्रिया को जटिल बनाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. क्या इसे इस तौर पर नहीं देखा जाना चाहिये कि इन जटिलताओं के बढ़ने से एक बड़ा समुदाय अपने को प्रक्रिया से बहिस्कृत पायेगा. इन परीक्षाओं के लिये जब इंटरनेट के आवेदन पत्र अनिवार्य किये गये तो क्या उन ग्रामीण क्षेत्रों का भी खयाल नहीं रखा जाना चाहिये था जो दूर दराज के इलाकों में बसे हैं क्या नीति निर्माताओं को इस बात का भान बिल्कुल नहीं था कि आज भी देश के कई हिस्सों में बिजली नहीं पहुंच पाती. दरअसल यह नीति निर्माताओं की चिंतन प्रणाली के बाहर इसलिये हो जाता है कि उनके ज़ेहन में शिक्षा का सम्बंध शहरं से ही जुड़ पाता है. ग्रामीण क्षेत्र इंटरनेट की पहुंच से बाहर हैं साथ में एक बड़ा वर्ग एस.सी., एस.टी., ओबीसी जो अधिकांसतः इन्हीं ग्रामीण क्षेत्रों से उच्च शिक्षा बमुश्किल पा रहा है वह ऐसी परीक्षाओं से वंचित रह जायेगा. चूंकि आधुनिक तकनीक के रूप में न तो इंटरनेट इनकी पहुंच में न ही इनकी इसमे दक्षता है. लिहाजा विश्वविद्यालयों में अध्यापन के लिये जिस मापदण्ड को जरूरी किया गया है उसे पूरा करने में यह ग्रामीण वर्ग अक्षम ही रह जायेगा. इसके साथ-साथ एक नये तरह का आरक्षण अघोषित रूप में लागू हो चुका है जिसमें उच्च शिक्षा में अध्यापन के लिये आपका शहरी क्षेत्रों से होना अनिवार्य हो है, जहाँ इंटरनेट जैसी आधुनिक तकनीक मौजूद हो और उसमे दक्षता भी.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें