29 मार्च 2010

सीमा अरुंधती नहीं हैं

आवेश तिवारी
सीमा आजाद की गिरफ्तारी के 24 घंटे भी नहीं हुए थे, जब उनके एक बेहद करीबी दोस्त ने, जो एक नामचीन कवि भी हैं, उनसे कोई नाता होने से इनकार कर दिया था। सीमा की एक और मित्र, जिसे खुद की गिरफ्तारी का भी अंदेशा बना हुआ था, पुलिसवालों से मिलकर अपनी साफगोई बयान कर रही थी। सीमा की गिरफ्तारी के बाद जिन लोगों ने संसद भवन के बाहर धरना दिया था, उनमें से एक ने मुझसे फोन पर बच-बचा कर लिखने को कहा और बोला कि इस तरह से उसके पक्ष में लिखोगे तो पुलिस तुम्हे नहीं छोड़ेगी। उन्होंने ये भी कहा कि “यार मैं नहीं जानती थी, पूरे एक ट्रक नक्सली सामग्री बरामद हुई है। मुझसे एसटीएफ का एसपी कह रहा था, सीमा हार्डकोर नक्सली है और हमें ये सच मानना ही होगा। मैंने तो अरुंधती और सब लोगों को ये सच बता दिया है।” एक साहसिक पत्रकार की मनमाने ढंग से की गयी गिरफ्तारी पर उत्तरप्रदेश सरकार के सामने अपना अधोवस्त्र खोल कर बैठे अखबारों के पास कहने को कुछ भी नहीं था। मोहल्ला थोड़ा बहुत कराहने के बाद चुप हो गया था। साथियों, शुभचिंतकों के चेहरे बदलने लगे थे। उधर नैनी जेल की सीलन भरी कोठरी में बंद सीमा महिला कैदियों को अपना मनपसंद गीत सुना रही थी…
तीन गज की ओढ़नी, ओढनी के कोने चार,चार दिशाओं का संसार,ओढ़नी के कोने चार हर दो कोने बीच दीवार,दीवार बना हैं घूंघट, घूंघट अंदर है घुटन,घुटन भरी है जिंदगी,ओढ़नी है जिंदगी, जिंदगी है ओढ़नी
अन्याय और शोषण के विरुद्ध शुरू किये गये अपने एकल युद्ध में अकेले खड़ी थी सीमा। आज ये पोस्ट लिखने से पहले जब मैंने सीमा के एक पत्रकार मित्र से बात की, तो उन्होंने पहले तो कुछ भी बात करने से मना कर दिया लेकिन बहुत जद्दोजहद करने पर उन्होंने कहा, “वो सिर्फ दोस्त थी। सबसे करीबी दोस्त नहीं। हमें लोकतंत्र में सत्ता की ताकत का अंदाजा है। सीमा को शायद नहीं था या फिर वो उसे अनदेखा कर रही थी।” वो कहते हैं, “सीमा का हम चाह कर भी सहयोग नहीं कर सकते, क्‍योंकि हमारे पास इतनी ताकत और इतना बड़ा समूह नहीं कि सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सके।” शायद सीमा ने इस नपुंसकता को पहचानने में देर कर दी और भीड़ के पीछे खड़ा होने का मुगालता पाले सलाखों में जकड़ दी गयी।
अरुंधती राय जैसी प्रगतिशीलता का वो अत्याधुनिक चेहरा नहीं थीं, जिसके पीछे पूरी भीड़ हो। वो मृणाल पांडेय या शोभा डे भी नहीं थी कि उनके खांसने की भी खबर प्रकाशित होती। वो सीमा थी। कभी गोरखपुर के इंसेफेलाइटिस प्रभावित इलाकों में अकेले घूमते हुए – इलाहाबाद के यमुना पार के इलाकों में मजदूरों को माफियाओं के जुल्मोसितम के खिलाफ आवाज उठाने को संगठित करती हुई सीमा का कसूर ये था कि उसके लिए खबरें सिर्फ अखबार के पन्नों पर छपी इबारत नहीं थी, जिसे पढ़ने के बाद आम आदमी अपने बच्चों का पखाना पोंछता है, उसके लिए खबरों का मतलब था कि जिनके लिए लिखो, उन्हें अपनी खबर से कुछ दो। उसका कसूर ये भी था कि वो इलाहाबाद के उन पत्रकारों की जमात का हिस्सा नहीं थी, जिनके लिए थाने की चाय अमृत का प्याला होती है और सिविल लाइन चौराहे पर देर रात तक चलने वाली गप्‍पबाजियां अखबारनवीस होने का प्रमाणपत्र।
सीमा की गिरफ्तारी के पहले और बाद में मीडिया मैनेजमेंट के लिए पुलिस ने क्या क्या किया और किस किस पत्रकार ने क्या क्या पाया, ये अपने आप में बड़ी रोमांचक कहानी है। इलाहाबाद के डीआईजी के घर में सीमा की गिरफ्तारी से महज कुछ घंटे पहले बैठकर चाय पीने और एसटीएफ के एसपी नवीन अरोरा को सीमा के खिलाफ हल्ला बोलने का आश्वासन देने वालों के चेहरे उतने ही काले हैं, जितनी कि उनकी कलम की रोशनाई। सीमा की गिरफ्तारी और उसके बाद मीडिया के एक वर्ग द्वारा पुलिस की भाषा में की गयी क्राइम रिपोर्टिंग ने ये साबित कर दिया कि उत्तर प्रदेश में पुलिस अपनी सफलताओं का तानाबाना दल्ले पत्रकारों और टायलेट पेपर सरीखे अखबारों के मालिकानों की मिलीभगत से तैयार कर रही है। होड़ इस बात की लगी है कि कौन सा समूह और कौन सा पत्रकार सरकार और सरकार के नुमाइंदों के सबसे नजदीक है। ये शत प्रतिशत सच है कि पुलिस द्वारा न सिर्फ माओवादियों के नाम पर की जा रही गिरफ्तारियां, बल्कि नक्सल प्रभावित इलाकों में आदिवासी जनों का उत्पीड़न भी मीडिया की सहमति से हो रहा है। ये बात दिल्ली, मुंबई में बैठे पत्रकार भले न मानें मगर ये सच है कि उत्तर प्रदेश में अखबार वाले बलात्कार से लेकर हत्याओं तक की खबरें दारू की बोतलों की कीमत पर गटक कर जा रहे हैं। ये तो गनीमत है कि पत्रकारों की हत्या नहीं हो रही है। अगर कल को पुलिस नक्सली बताकर किसी पत्रकार को गोली मार दे तो उसमें भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अभी पिछले पखवारे जब कमलेश चौधरी की फर्जी मुठभेड़ में हत्या और उसके बाद सीमा की फर्जी तरीकों से की जाने वाली गिरफ्तारी से संबंधित खबर डेली न्यूज एक्टिविस्‍ट में छपी। अगले ही दिन प्रदेश के एक बेहद चर्चित और जनसत्ता में नियमित तौर पर लिखने वाले एक पत्रकार ने लखनऊ में एसटीएफ मुख्यालय से मुझे फोन करके कहा कि आवेश भाई आप नहीं जानते, मैंने आज माओवादियों का वो रजिस्टर देखा जिसमें सीमा के दस्तखत थे। वो और उसका पति तो बकायदा माओवादियों की साजिशों के सूत्रधार की भूमिका में थे। आप एक बार आकर यहां अधिकारियों से मिल लीजिए। आपकी सीमा को लेकर धारणा बदल जाएगी। मेरी धारणा बदली या नहीं बदली, उस दिन जो पत्रकार एसटीएफ मुख्यालय में मौजूद थे, उन लोगों ने बारी बारी से सीमा के खिलाफ खबरें निकालने का सिलसिला शुरू कर दिया और उन पत्रकार महोदय को जिन्होंने मुझे फोन पर सच्चाई का ज्ञान कराया था, नक्सल प्रभावित इलाकों में पंफलेट और पोस्टर छपवाने एवं उत्तर प्रदेश पुलिस के नक्सली उन्मूलन को लेकर की जा रही कवायद को लेकर एक बुकलेट छपवाने का ठेका मिल गया। वो ये काम पहले भी करते आये हैं और इस काम में वे इलाहाबाद के एक प्रिंटिंग प्रेस की मदद से लाखों की कमाई पहले भी करते आये हैं। अभी कुछ नहीं कहा जा सकता कि सीमा कब तक जेल में रहेगी। इसका भी कोई अंदाजा नहीं कि कब कौन और कैसे माओवाद के नाम पर सलाखों के पीछे धकेल दिया जाएगा। लेकिन ये तय है कि हर एक बार जब कोई कलम से क्रांति की बात करने वाला सत्ता की खुराक बनेगा, जूठन खाने को चील कौवों की तरह मीडिया के ये शिखंडी भी मौके पर मौजूद रहेंगे।
आवेश‍ तिवारी। लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख।

4 टिप्‍पणियां:

  1. sri aavesh tiwari ji,
    aap ka lekh accha laga ham seema ajaad se parichit nahi hain kintu unka ek lekh loksangharsh patrika mein maine chhapa tha. ham aur hamari loksangharsh patrika unke sath hai.

    suman
    loksangharsha

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  2. देश के खिलाफ हथियार उठाने वाले देशद्रोही ही होते हं बंधु.....आप का ये करुण क्रंदन साफ साफ घडियाली आंसुओं जैसा हैं....सब को झूठा साबित करते हुए आप बस अपने आप को सच्चा मान रहे हैं....हो सकता हैं उस रजिस्टर मैं ठीक ठीक लिखा हो

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