09 मार्च 2010

जंगल चल कर शहर आ गए

ये जंगल के इलाके नही हैं. न ही ये किसी राज्य के पहाड़ियों के पार बसे आदिवासी हैं जो माओवाद के नाम पर घाव बन चुके हैं. यहाँ टाटा एस्सार जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने जमीन अधिग्रहण के लिये लोगों का विस्थापन अभियान भी नही चलाया है. सर्वजन हिताय का नारा बुलंद करने वाली बसपा सरकार को इन शहरी क्षेत्रों की जमीने भी नहीं हथियानी हैं. बावजूद इसके अचानक अजमगढ़ में आतंकवादीयों के गढ़ की तरह उत्तर प्रदेश के शहर माओवादियों के अड्डे बन जाते हैं और अलग-अलग शहरों से माओवादी नेताओं के नाम पर कई गिरफ्तारियां की जाती हैं. जिसमे इलाहाबाद के एक छात्र नेता विश्वविजय व एक महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी भी की जाती है, वह भी कानून को दरकिनार करते हुए, बगैर किसी महिला पुलिस को शामिल किए. सरकार इन्हें कमलेश चौधरी की फर्जी मुठभेड़ में हुई हत्या के मामले को उजागर करने का आरोप लगाकर गिरफ्तार नहीं कर सकती थी, न ही कौशांबी में खनन माफिया के विरुद्ध आवाज उठाने पर वह कोई कार्यवाही कर सकती थी लिहाजा उसने एक ऐसे सूत्र का उदघाटन माओवाद के नाम पर किया जिसका सरकार दोहरा फायदा उठा सके.
उत्तर प्रदेश में यह पहली घटना है जब इतने बड़े स्तर पर राज्य के प्रमुख शहरों से माओवाद के नाम पर गिरफ्तारियां की गयी हो. जबकि राज्य सरकार शोषितों व वंचितों के मसीहा के रूप में अपने को स्थापित करने का प्रयास कर रही है ऐसे में निश्चित तौर पर वह पूजीपतियों व माफियाओं का खुला समर्थन नहीं कर सकती. वह उनके शोषण को अपने संरचना में बनाये रखना चाहती है और उनकी मुक्ति का राग भी अलापना चाहती है. आखिर क्या कारण है कि उत्तर प्रदेश के शहर तथाकथित माओवादी नेताओ के अड्डे बन गये. हाल में हुई गिरफ्तारियाँ ठीक उस समय हुई हैं जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम व मुख्यमंत्रीयों के साथ आंतरिक सुरक्षा के मसले पर चर्चा कर रहे थे और राज्य सरकारों से माओवाद से निपटने के लिये सहयोग करने व सहयोग देने का समझौता कर रहे थे. हाल में हुई इस तरह कि कई बैठकों पर गौर करें तो, एक तौर पर माओवाद के मसले को लेकर राज्य के हस्तक्षेप को कम भी किया जा रहा है और केन्द्र द्वारा सैन्य हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है, बल्कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के कुछ इलाके केन्द्रीय गृह मंत्रालय के शासन से चलने लगे हैं और इन राज्यों को अकूत धन मुहैया कराया जा रहा है.
उत्तर प्रदेश केन्द्र के इस सहयोग से आंशिक रूप में वंचित था. राज्य सरकार को महामाया योजना से लेकर राज्य में चल रही कई खर्चीली योजनाओं के लिये नरेगा के धन का उपयोग करना पड़ रहा है, विकास के नाम पर चलायी जाने वाली ये योजनायें मजदूरों के श्रम के दोहन के साथ इनके शोषण को भी बढ़ा रही हैं चूंकि ठेके पर चल रही इस तरह की योजनायें सरकार के हाथ में कम माफियाओं के हाथ में ज्यादा हैं. ऐसे में मजदूरों और पीड़ितों के अधिकारों के पक्ष में उठने वाली किसी भी आवाज को माओवाद के नाम पर ही कुचला जा सकता है. क्योंकि आवाम को सत्ता अपने प्रचार के जरिये माओवाद का एक विद्रूपचेहरा ढालने में कामयाब रहा है. मसलन देश में उठने वाले किसी भी प्रतिरोध को कुचलने का सबसे अच्छा साधन आज माओवाद हो गया है और किसी भी राज्य के लिये यह एक स्रोत है जिससे उस राज्य की आर्थिकी मजबूत हो सके.
केन्द्र में कांग्रेस सरकार आने के बाद प्रधानमंत्री का हर माह कई-कई बार दुहराया जाने वाला बयान कि माओवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ी चुनौती है और हम इससे निपटने के लिये सभी राज्यों को पर्याप्त संसाधन मुहैया करायेंगे, राज्य सरकारों को इस स्थिति में खड़ा कर रहा है कि वे माओवाद के नाम पर राज्यों को संवेदनशील बनायें जिसमे उत्तर प्रदेश अब तक पीछे दिख रहा था. ऐसी स्थिति में एक रिपोर्ट बनायी गयी. यह उत्तर प्रदेश गृह विभाग की रिपोर्ट थी, इस रिपोर्ट के मुताबिक २३ जिलों में माओवादियों के संगठन काम कर रहे हैं जो आदिवासी, दलित और मुक्त वाहिनी के नाम पर बनाये गये हैं. एक अहम सवाल यह उठता है कि दलित उद्धारक के रूप में प्रचारित करने वाली सरकार को दलितों के द्वारा बनाये गये दलित अधिकार मंच, विरसा मुंडा भू अधिकार संघ से किस तरह का खतरा महसूस हो रहा है जबकि सरकार खुले तौर पर इनके अधिकारों को लेकर लड़ने व इस दायरे को बढ़ाने की बात को प्रचारित करती है. क्या इसे राज्य सरकार का ढोंग ही माना जाय या फिर इसकी एक सीमा. मसलन प्रतिरोध करने वाली व अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले किसी भी संगठन को माओवाद के नाम पर प्रचारित कर दिया जा रहा है ताकि उनका दमन आसानी से किया जा सके. चाहे वह गोरखपुर में माडर्न लेमिनेसन लिमिटेड, माडर्न पैकेजिंग लिमिटेड के खिलाफ अपनी न्यूनतम मजदूरी के लिये खड़े होने वाले मजदूर हों या फिर सामाजिक कार्यकर्ता.
निश्चित तौर पर केन्द्र सरकार माओवाद को लेकर जिस तरह की सक्रियता दिखा रही है और माओवाद प्रभावित राज्यों को अथाह धन मुहैया करा रही है उसका एक खाका उत्तर प्रदेश सरकार ने पहले ही तैयार किया था और गृह विभाग २००९ की रिपोर्ट में केन्द्र सरकार से बड़ी मांगें रखी गयी थी. प्रदेश ने यह घोषणा भी कर दी थी कि राज्य के २३ जिलों में माओवादी संगठन कार्यरत हैं लिहाजा केन्द्र सरकार इससे निपटने के लिये राज्य की मदद करे. जिसमे उसने माओवादियों के खिलाफ अभियान चलाने के लिये उत्तर-प्रदेश को मिलने वाली राशि को ११८ करोड़ से बढ़कर ३०० करोड़ की मांग की थी. साथ में १०० करोड़ रूपये पुलिस बल को आधुनिक हथियारों से लैस करने के लिये प्रस्तावित किया गया था, १.५ लाख नये पुलिस कर्मीयों के भर्ती की मांग की गयी थी, जिसमे से ३० प्रतिशत पुलिस कर्मियों को माओवाद से निपटने के लिये तैयार करने की बात थी व अतिरिक्त सी.आर.पी.एफ. की मांग भी महज इसी उद्देश्य से की गयी थी. केन्द्र सरकार ने २ लाख से अधिक पदों को भरने की मंजूरी भी दे दी थी और यह सब मिशन रेड वाइरस चलाने की तैयारियां थी, जिसका जिक्र गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में किया गया था.
इस पूरी कार्य योजना को देखते हुए यह समझा जा सकता है कि सरकार को परोक्ष व अपरोक्ष रूप से बड़ी आय हुई होगी और इसके मुताबिक उसे परिणाम भी दिखाने थे परिणाम के तौर पर उसने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर अपना निशाना साधा और उन्हें माओवादियों का नेता बताकर गिरफ्तार किया गया जो मजदूरों के न्यूनतम मजदूरी के लिये लड़ रहे हैं और जिनके साथ मजदूर खड़े हैं. ऐसी स्थिति में सरकार लड़ने वाले मजदूरों को माओवादी बनाने की जमीन तैयार कर रही है मसलन गोरखपुर के बरगदवा क्षेत्र में मिल मालिकों के खिलाफ मजदूरों के न्यूनतम मजदूरी की मांग को लेकर मजदूरों के साथ आवाज उठाने वाले जितने भी सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया वह सब माओवादियों के नेता के नाम पर. जिसमे १५ अक्टूबर को प्रशांत, तपीस और प्रमोद नाम के सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी की गयी थी. प्रदेश सरकार इस तरह की स्थिति पैदा कर रही है जहाँ वह जहाँ उचित मजदूरी की मांग करना या मानवाधिकारों के हनन की बात को उठाना मुनासिब नहीं होगा ऐसी स्थिति में राज्य में तानाशाही और वर्चस्ववादी प्रवृत्तियाँ का उभार होना लाजमी है और साथ में लोकतंत्र के दायरे का सिमटना भी.
देखा जाय तो कम-ओ-बेस सभी राज्यों में सैन्यीकरण बढ़ रहा है, लोकतांत्रीकरण की जो प्रक्रिया ६० वर्ष पूर्व शुरू की गयी थी क्या यह बढ़ता सैन्यीकरण उस पर सवाल नहीं खड़ा करता कि राज्य या सत्ता अपने अधिकार क्षेत्र में ही असुरक्षित क्यों होती जा रही है. लोकतंत्र के दायरे को व्यापक बनाने के लिये राज्य को ऐसी नीतियां बनानी चाहिये थी जिससे कि सैन्य व दमनकारी कानूनों का शासन कमजोर होता, आवाम की असंतुष्टि कम होती. दरअसल राज्य का असुरक्षा बोध लगातार बढ़ रहा है इस असुरक्षा बोध का ही परिणाम है कि ग्रीन हंट जैसे ऑपरेशन सरकार चला रही है जिसमें माओवाद के नाम पर कई निर्दोष आदिवासियों को मारा जा रहा है मसलन जिन्होंने मानवीयता के नाते किसी माओवादी को खाना खिलाया या रास्ता बताया. किसी भी राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार हो माओवाद के मसले पर बार-बार एक जुटता दिखा रहे हैं क्योंकि माओवाद किसी सत्ता पर सवाल उठाने के बजाय इस ढांचे का सवाल उठा रहा है जिस ढांचे में ये पार्टीयां अपना सफल-असफल संचालन कर रही हैं. अब व्यवस्था की कार्यप्रणाली और उसकी जन दिशा पर सवाल उठ रहा है. माओवादी लोगों में विकास के दावों और नारों के विरूद्ध विकास का नया माडल व विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे है, बावजूद इसके कि उनके संचार माध्यम और प्रेषण की क्षमता सीमित है. ये समता मूलक विकास का एक नया स्वप्न संसदीय राजनीति के बरक्स पैदा कर रहा है. ऐसा स्वप्न जिसे दिखाने की बात हर बदलती सरकार कहती रही है पर स्वप्न के भी कुछ वैज्ञानिक आधार होते हैं जिसकी नीव ही संसदीय राजनीति में नहीं डाली जा सकी पूजी के केन्द्रीकरण पर रोक, जमीनों का समुचित बटवारा. ये ऐसी कार्यवाहियाँ थी जो सत्ता के चरित्र में मूलभूत बदलाव लाती. निश्चित रूप से यह देखा जा सकता है कि माओवादी आंदोलनों का आधार क्षेत्र आदिवासी समाज रहा है जो सत्ता के ढांचे में वंचना का दंश झेल रहा है यह एक प्राथमिक दृष्टिकोण हो सकता है पर बौद्धिक मध्यम वर्ग का माओवाद के प्रति झुकाव या आंदोलन से जुड़ाव इस तथ्य को तोड़ता भी है क्योंकि समता, समानता जैसी अवधारणायें किसी भी व्यक्ति को आकर्षित करती हैं जिसके निकट जाने में यह व्यवस्था नाकामयाब दिख रही है क्योंकि यह अपनी कार्यपद्धति व प्रणाली में केन्द्रीकृत संरचना का ही निर्माण कर रही है. मध्यम वर्ग इस लोकतांत्रिक प्रणाली की सीमा रेखा को देख रहा है. वह भविष्य में लोकतंत्र के चुकने की सम्भावना और उच्च वर्ग केन्द्रित शासन की तस्वीर देश के नक्शे पर देख रहा है. लगातार राज्य का असुरक्षा बोध बढ़ने का ही परिणाम है कि वह सैन्य ताकतों व कानूनों के बल पर लोकतंत्र को तज रही है बजाय इसके कि वह इसके कारणों का सही-सही आंकलन करे.
यह असुरक्षा मामूली नहीं है बल्कि यह उस ढांचे को बनाये रखने के लिये सुरक्षा को मजबूत करना है जिस पर संसदीय लोकतंत्र और पूजी केन्द्रीकृत ताकतों का अस्तित्व ही कायम है. जिस पर सिकंजा कसने के लिये सत्ता अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को भी ताक पर रख रही है, नियमों को दरकिनार कर रही है. आज जब देश के अधिकांश राज्य माओवाद की गतिविधियों का विस्तार पा रहे हैं तो इनके पनाह की जमीन और परिस्थितियों को पहचाना जाना बेहद जरूरी है.

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