संजय और संगीता लौट गये हैं पर यह कैसे कहा जाय कि वे घर लौट गये हैं. उनके पिता विक्रम सिंह सूर्यवंशी ने जब ज़हर खाकर आत्महत्या की थी तो दोनों की उम्र इतनी कम थी कि पिता को पिता कहने का ठीक-ठीक एहसास भी नहीं रहा होगा, महज ३ साल और ५ साल. आज पाँच वर्षों बाद वे १० और आठ साल के हो गये होंगे और हरियाणा रोहतक के किसी गाँव में अपने नानी के घर अपनी मां धनेश्वरी के साथ रह रहे होंगे या फिर नहीं भी रह रहे होंगे. धनेश्वरी भी अभी तक कितनी बची होगी, बची भी होगी कि नहीं कुछ पता नहीं. शायद हरियाणा की खाब पंचायतों में उसे बैठना पड़ा हो और खाब पंचायतों की ढेरों गुमनाम कहानियों में धनेश्वरी की भी एक कहानी लिखी गयी हो. क्या हुआ होगा इसका बस कायास लगाया जा सकता है, मटियारी गाँव के लोग और विक्रम के घर वाले इस सबसे अनभिज्ञ हैं. घर से एक बार जाने के बाद उनकी ख़बर कौन लेता और क्यों.
विक्रम सिंह विलास पुर के मटियारी गाँव के छोटे किसान थे और अपनी कमसिन उम्र में मजदूरी के लिये हरियाणा चले गये, कि वे किसानी करते होते अगर, उससे घर के खर्चे चल जाते पर घर के खर्चे किसानी से नहीं बल्कि किसानी के खर्चे मजदूरी से चलते थे. फिर मजदूरी भी मिलनी कम हुई तो हरियाणा जाना पड़ा वहाँ की कहानियों के बारे में घर वालों को नहीं पता कि विक्रम क्या करते थे पर समय-समय पर कुछ पैसे भेज देते थे और घर का खर्च चलता रहता था. कुछ वर्षों बाद विक्रम जब वापस लौटे तो धनेश्वरी भी उनके साथ मटियारी आ गयी. धनेश्वरी हरियाणा के रोहतक जिले की थी और काम के दौरान दोनों की मुलाकात हुई होगी दोनों ने साथ रहने का फैसला किया होगा. इसी बीच उनके दो बच्चे संजय और संगीता भी हुए. मटियारी गाँव भी उसी भारतीय समाज का हिस्सा था जिसे सामंतवाद और पूजी आपसी गठजोड़ से चला रहे थे, फिर अपनी मर्जी से विक्रम का शादी करना तो अन्याय ही हुआ. गाँव के मुखिया और जमीदार इसके खिलाफ हुए और साथ में रहने के इस फैसले को अपराध साबित कर डाला. साथ में रहने के इस फैसले के खिलाफ मुखिया के कहने से पूरा गाँव ही हो गया था. वैसे इनके मानने न मानने से क्या होता जब धनेश्वरी और विक्रम ने फैसला कर लिया था, पर यह तर्क उस सामंती समाज के परे था और यह कहने के लिये एक मोटी जुबान चाहिये थी, जो विक्रम जैसे गरीब किसानों के पास तो नहीं ही थी. गाँव की पंचायत बुलायी गयी पंचायत ने पचास हजार का जुर्माना और गाँव को खाना खिलाने की शर्त रखी, तब गाँव के मुखिया अवधेस अग्रवाल ने उदारता भी दिखायी और चावल, दाल जैसी कुछ चीजों की मदद देने की भी बात कही, पर मटियारी गाँव के सात सौ घरों के पाँच हजार लोगों को भोजन कराना एक छोटे किसान के लिये मुश्किल बात थी. विक्रम की माँ गंगाबाई बताती हैं कि अगर इतना पैसा होता तो विक्रम के पिता के पेट दर्द की बीमारी ठीक हो जाती. उनका इलाज हो जाता और वे आत्महत्या न करते. विक्रम से पहले ही वे इसी आभाव और कष्टप्रद जिंदगी के चलते आत्महत्या कर लिये जब हमने भारतीय अपराध ब्यूरो का आंकड़ा देखा तो उसमे उनका नाम नहीं था. गंगाबाई ने कहा पुलिस को सूचित करते तो और भी समस्या होती रोज-बरोज पुलिस आती और न जाने क्या-क्या सवाल पूछती और पैसे भी अलग से ले सकती थी. लिहाजा इस मामले को गाँव तक ही सीमित रखा गया. अब जो होना था तो हो ही चुका था, पुलिस को बताने से वो वापस तो लौट नहीं आते, अलबत्ता कुछ परेशानियां जरूर खड़ी हो जाती. उनकी मौत के वर्षों बाद ब्लाक से दस हजार रूपये मिले थे, पर आप ही बताओ आज के जमाने में दस हजार रूपये से क्या होता है.
गाँव वालो को भोज नहीं कराया जा सका कुछ लोगों ने वहिस्कार सा कर दिया. घर के खर्चे कम तो हो नहीं रहे थे और किसानी से अब कुछ भी नहीं मिल रहा था, दूसरों का भी जोतो तो अपनी मेहनत तक वापस नहीं आती. विक्रम ने अस्सी रूपये प्रति दिन के हिसाब से बगल के एन.टी.पी.सी. में नौकरी करना शुरू कर दिया. ठेके का काम था दिन भर खटना पड़ता था फिर भी समय से पैसा नहीं मिलता था. इन स्थितियों में विक्रम चिड़चिड़ा सा हो गया था. अभावग्रस्तता घरों में कलह को जन्म देती है, अक्सर पत्नी के साथ भी उसकी झड़प हो जाती. कई दिनों तक वह कोई बेहतर काम भी ढूंढ़ता रहा, पर जब गाँव में पढ़े लिखे लड़के बेरोजगार घूम रहे थे तो आठवीं पास को कौन पूछता है. गंगाबाई को अब ठीक-ठीक याद भी नहीं कि सावन के महीने की वो कौन सी तारीख है जब विक्रम घर से निकला.दिन बीत गया, नहीं आया तो दूसरे दिन यह खबर ही आ गयी कि थाने के बगल में नहर के किनारे उसने ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली है. सरकार ने कोई मदद नहीं की. सरकार गरीबों की मदद कहाँ करती है? गंगा बाई जब यह कह रही थी तो उनके कहने के आशय में और एक बड़े अर्थशास्त्री के यह कहने के आशय में कि "सत्ता का अपना चरित्र होता है जिसके हित में वह काम करती है" मुझे कोई फर्क नहीं दिखा बल्कि सूत्र वाक्य सा लगा, पर यह गाँव की एक अनपढ़ महिला की बात थी जिसे कभी किसी किताब तो दूर, अखबार की हेड लाइन, में जिक्र भी नहीं होना था.
अब उनकी एक छोटी सी दुकान है, जिसमे उतना ही सामान है जितना एक झोले में भरा जा सकता है. घर की टूटी खपरैल की छाया इतनी है. आसमान पूरा का पूरा नहीं दिखता पर बारिस में इसमे रहने की स्थिति भी नहीं बची है, इसी में अपने परिवार के ६ सदस्यों के साथ जिंदगी कट रही है, भगवान अब तो हमे भी बुला लेता तो अच्छा था....... कहते-कहते उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और देर तक उन्हें आंचल से पोंछती रहती हैं.
धनेस, दिनेस, रामू जो विक्रम के बचपन के दोस्त हैं, हमे विक्रम व गाँव की कई ऐसी कहानिया सुनाते हैं. वे बताते हैं कि अब गाँव में बहुत कम खेत सबके पास बचा है. सब धीरे-धीरे परिवार टूटने के साथ बट गये और कोई खेती करना भी नहीं चाहता, उससे बेहतर है कि कोई और काम पकड़ लो. छः महीने एक आदमी पूरी मेहनत के साथ खेती करे तो पाँच सौ रूपये का भी फायदा नहीं आ पाता. हम जब चलने लगे तो इन्होंने कहा कि आप इनके घर के बारे में कुछ करिये. सरकार से कुछ मदद ही दिलवा दीजिये. पर मैं चुप रहने के अलावा और क्या कर सकता था जबकि सरकार इन आत्महत्याओं पर चुप है.
छत्तीसगढ़ में किसानों के आत्महत्या की अलग-अलग कहानियां लिखी जाय तो ऐसी कितनी कहानियाँ हैं. आत्महत्या के बाद ऐसे कितने घर हैं जो उजड़ गये खुरदुर के वेदराम मराबी के घर की स्थिति यही थी घर नाम से एक छप्पर था जो पूरी तरह से टूट चुका था. जिसमे उनके पाँच कुपोसित बच्चे पडे थे और पत्नी रामकली बीमारी से बेहोसी की हालत में पड़ी हुई थी जिन्हे देखने वाला कोई भी नहीं था. बच्चे इतने छोटे थे कि उन्हें अपने पिता के मौत के बारे में कुछ भी पता नहीं. छत्तीसगढ़ के छोटे किसानों के लिये यह और भी मुश्किल है कि जब वहाँ के लोगों को चावल दो रूपये किलो मिल ही जाता है, तो उनके थोड़े से धान की कोई कीमत ही नहीं आंकी जाती. यानि एक तरफ सरकार गरीब, आदिवासियों को सस्ता चावल भले ही वह घटिया गुणवत्ता का हो इतने सस्ते में मुहैया करा रही है कि उन छोटे किसानों के धान की जो कीमत नजदीकी बाजार में लगनी थी, वह बहुत ही कम हो जाती है. जबकि वहीं बड़े किसान आज भी दूर मंडी में लेजाकर सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर कुछ लाभ तो कमा ही लेते हैं, पर यहाँ किसान के बड़े या छोटे होने के सवाल के साथ एक सवाल यह भी जुड़ा हुआ है कि आज कोई भी किसान स्वेक्षा से किसानी करने को तैयार नहीं है. किसानी एक ऐसा व्यवसाय हो चुका है....... यह महज छत्तीसगढ़ की ही स्थिति नहीं है बल्कि पूरे देश की स्थिति यही है. जबकि इतने किसान प्रति वर्ष आत्महत्या कर रहे हैं हम अंदाजा नहीं लगा सकते कि कितने आत्महत्या की दहलीज पर खड़े होंगे.
विक्रम सिंह विलास पुर के मटियारी गाँव के छोटे किसान थे और अपनी कमसिन उम्र में मजदूरी के लिये हरियाणा चले गये, कि वे किसानी करते होते अगर, उससे घर के खर्चे चल जाते पर घर के खर्चे किसानी से नहीं बल्कि किसानी के खर्चे मजदूरी से चलते थे. फिर मजदूरी भी मिलनी कम हुई तो हरियाणा जाना पड़ा वहाँ की कहानियों के बारे में घर वालों को नहीं पता कि विक्रम क्या करते थे पर समय-समय पर कुछ पैसे भेज देते थे और घर का खर्च चलता रहता था. कुछ वर्षों बाद विक्रम जब वापस लौटे तो धनेश्वरी भी उनके साथ मटियारी आ गयी. धनेश्वरी हरियाणा के रोहतक जिले की थी और काम के दौरान दोनों की मुलाकात हुई होगी दोनों ने साथ रहने का फैसला किया होगा. इसी बीच उनके दो बच्चे संजय और संगीता भी हुए. मटियारी गाँव भी उसी भारतीय समाज का हिस्सा था जिसे सामंतवाद और पूजी आपसी गठजोड़ से चला रहे थे, फिर अपनी मर्जी से विक्रम का शादी करना तो अन्याय ही हुआ. गाँव के मुखिया और जमीदार इसके खिलाफ हुए और साथ में रहने के इस फैसले को अपराध साबित कर डाला. साथ में रहने के इस फैसले के खिलाफ मुखिया के कहने से पूरा गाँव ही हो गया था. वैसे इनके मानने न मानने से क्या होता जब धनेश्वरी और विक्रम ने फैसला कर लिया था, पर यह तर्क उस सामंती समाज के परे था और यह कहने के लिये एक मोटी जुबान चाहिये थी, जो विक्रम जैसे गरीब किसानों के पास तो नहीं ही थी. गाँव की पंचायत बुलायी गयी पंचायत ने पचास हजार का जुर्माना और गाँव को खाना खिलाने की शर्त रखी, तब गाँव के मुखिया अवधेस अग्रवाल ने उदारता भी दिखायी और चावल, दाल जैसी कुछ चीजों की मदद देने की भी बात कही, पर मटियारी गाँव के सात सौ घरों के पाँच हजार लोगों को भोजन कराना एक छोटे किसान के लिये मुश्किल बात थी. विक्रम की माँ गंगाबाई बताती हैं कि अगर इतना पैसा होता तो विक्रम के पिता के पेट दर्द की बीमारी ठीक हो जाती. उनका इलाज हो जाता और वे आत्महत्या न करते. विक्रम से पहले ही वे इसी आभाव और कष्टप्रद जिंदगी के चलते आत्महत्या कर लिये जब हमने भारतीय अपराध ब्यूरो का आंकड़ा देखा तो उसमे उनका नाम नहीं था. गंगाबाई ने कहा पुलिस को सूचित करते तो और भी समस्या होती रोज-बरोज पुलिस आती और न जाने क्या-क्या सवाल पूछती और पैसे भी अलग से ले सकती थी. लिहाजा इस मामले को गाँव तक ही सीमित रखा गया. अब जो होना था तो हो ही चुका था, पुलिस को बताने से वो वापस तो लौट नहीं आते, अलबत्ता कुछ परेशानियां जरूर खड़ी हो जाती. उनकी मौत के वर्षों बाद ब्लाक से दस हजार रूपये मिले थे, पर आप ही बताओ आज के जमाने में दस हजार रूपये से क्या होता है.
गाँव वालो को भोज नहीं कराया जा सका कुछ लोगों ने वहिस्कार सा कर दिया. घर के खर्चे कम तो हो नहीं रहे थे और किसानी से अब कुछ भी नहीं मिल रहा था, दूसरों का भी जोतो तो अपनी मेहनत तक वापस नहीं आती. विक्रम ने अस्सी रूपये प्रति दिन के हिसाब से बगल के एन.टी.पी.सी. में नौकरी करना शुरू कर दिया. ठेके का काम था दिन भर खटना पड़ता था फिर भी समय से पैसा नहीं मिलता था. इन स्थितियों में विक्रम चिड़चिड़ा सा हो गया था. अभावग्रस्तता घरों में कलह को जन्म देती है, अक्सर पत्नी के साथ भी उसकी झड़प हो जाती. कई दिनों तक वह कोई बेहतर काम भी ढूंढ़ता रहा, पर जब गाँव में पढ़े लिखे लड़के बेरोजगार घूम रहे थे तो आठवीं पास को कौन पूछता है. गंगाबाई को अब ठीक-ठीक याद भी नहीं कि सावन के महीने की वो कौन सी तारीख है जब विक्रम घर से निकला.दिन बीत गया, नहीं आया तो दूसरे दिन यह खबर ही आ गयी कि थाने के बगल में नहर के किनारे उसने ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली है. सरकार ने कोई मदद नहीं की. सरकार गरीबों की मदद कहाँ करती है? गंगा बाई जब यह कह रही थी तो उनके कहने के आशय में और एक बड़े अर्थशास्त्री के यह कहने के आशय में कि "सत्ता का अपना चरित्र होता है जिसके हित में वह काम करती है" मुझे कोई फर्क नहीं दिखा बल्कि सूत्र वाक्य सा लगा, पर यह गाँव की एक अनपढ़ महिला की बात थी जिसे कभी किसी किताब तो दूर, अखबार की हेड लाइन, में जिक्र भी नहीं होना था.
अब उनकी एक छोटी सी दुकान है, जिसमे उतना ही सामान है जितना एक झोले में भरा जा सकता है. घर की टूटी खपरैल की छाया इतनी है. आसमान पूरा का पूरा नहीं दिखता पर बारिस में इसमे रहने की स्थिति भी नहीं बची है, इसी में अपने परिवार के ६ सदस्यों के साथ जिंदगी कट रही है, भगवान अब तो हमे भी बुला लेता तो अच्छा था....... कहते-कहते उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और देर तक उन्हें आंचल से पोंछती रहती हैं.
धनेस, दिनेस, रामू जो विक्रम के बचपन के दोस्त हैं, हमे विक्रम व गाँव की कई ऐसी कहानिया सुनाते हैं. वे बताते हैं कि अब गाँव में बहुत कम खेत सबके पास बचा है. सब धीरे-धीरे परिवार टूटने के साथ बट गये और कोई खेती करना भी नहीं चाहता, उससे बेहतर है कि कोई और काम पकड़ लो. छः महीने एक आदमी पूरी मेहनत के साथ खेती करे तो पाँच सौ रूपये का भी फायदा नहीं आ पाता. हम जब चलने लगे तो इन्होंने कहा कि आप इनके घर के बारे में कुछ करिये. सरकार से कुछ मदद ही दिलवा दीजिये. पर मैं चुप रहने के अलावा और क्या कर सकता था जबकि सरकार इन आत्महत्याओं पर चुप है.
छत्तीसगढ़ में किसानों के आत्महत्या की अलग-अलग कहानियां लिखी जाय तो ऐसी कितनी कहानियाँ हैं. आत्महत्या के बाद ऐसे कितने घर हैं जो उजड़ गये खुरदुर के वेदराम मराबी के घर की स्थिति यही थी घर नाम से एक छप्पर था जो पूरी तरह से टूट चुका था. जिसमे उनके पाँच कुपोसित बच्चे पडे थे और पत्नी रामकली बीमारी से बेहोसी की हालत में पड़ी हुई थी जिन्हे देखने वाला कोई भी नहीं था. बच्चे इतने छोटे थे कि उन्हें अपने पिता के मौत के बारे में कुछ भी पता नहीं. छत्तीसगढ़ के छोटे किसानों के लिये यह और भी मुश्किल है कि जब वहाँ के लोगों को चावल दो रूपये किलो मिल ही जाता है, तो उनके थोड़े से धान की कोई कीमत ही नहीं आंकी जाती. यानि एक तरफ सरकार गरीब, आदिवासियों को सस्ता चावल भले ही वह घटिया गुणवत्ता का हो इतने सस्ते में मुहैया करा रही है कि उन छोटे किसानों के धान की जो कीमत नजदीकी बाजार में लगनी थी, वह बहुत ही कम हो जाती है. जबकि वहीं बड़े किसान आज भी दूर मंडी में लेजाकर सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर कुछ लाभ तो कमा ही लेते हैं, पर यहाँ किसान के बड़े या छोटे होने के सवाल के साथ एक सवाल यह भी जुड़ा हुआ है कि आज कोई भी किसान स्वेक्षा से किसानी करने को तैयार नहीं है. किसानी एक ऐसा व्यवसाय हो चुका है....... यह महज छत्तीसगढ़ की ही स्थिति नहीं है बल्कि पूरे देश की स्थिति यही है. जबकि इतने किसान प्रति वर्ष आत्महत्या कर रहे हैं हम अंदाजा नहीं लगा सकते कि कितने आत्महत्या की दहलीज पर खड़े होंगे.
कम दरों पे दिए जाने वाले चावलों से भी गरीब किसानो को ही नुकसान हो रहा है पता नहीं ....बाजार की पकड़ कितनी गहरी बन चुकी है....o
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