17 मार्च 2010

सरकार की बढ़ती असुरक्षा

हमारी सरकार हमे सुरक्षित रखना चाहती है, यह कोई कल्याणकारी काम नहीं बल्कि वह अपनी जिम्मेदारी निभा रही है. इस सुरक्षित रखने की प्रक्रिया में एक व्यक्ति की आजादी छिनती जा रही है आज के समय में यह लोकतंत्र को व्यापक बनाने का एक संकट है. यात्राओं, सार्वजनिक स्थानों पर मशीने और सुरक्षा बल लोगों की निगरानी और जाँच करते हैं यह सरकार के लिये उसकी जनता पर संदिग्धता को ही दर्शाता है पर उसके पास कोई अन्य तंत्र नहीं है जिससे वह लोगों को सुरक्षित भी रख सके और व्यक्ति को आजादी भी दे सके. एक आदमी के दाढ़ी रखने, एक महिला के बुर्का पहनने की तहजीब शक के दायरे में बदल दी गयी है. यह पूरे एक कौम के सांस्कृतिक पहचान को शक के दायरे में रखना है, यह देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है जिसे आतंकवाद को न रोक पाने वाले विफल तंत्र के मनोविज्ञान ने संदिग्ध बना दिया है और आतंकवाद के नाम पर लगायी गयी सुरक्षा व्यवस्था का दंश कौम के हर व्यक्ति को झेलना पड़ रहा है. अलावा इसके अब देश का हर नागरिक शक के दायरे में है क्योंकि माओवाद की कोई कौमी और वर्गीय पहचान नहीं है बल्कि यह चेतना आधारित है जिसका व्यक्ति के चेहरे और संस्कृति से कोई जुड़ाव बना पाना नामुमकिन है. आजादी के साठ साल बाद सरकार पहली बार इतना असुरक्षित महसूस कर रही है. रक्षा बजट को बढ़ाकर १ लाख ४६ हजार ३४४ करोड़ कर दिया गया है जिसमे ६० हजार करोड़ नये उपकरणों की खरीददारी पर खर्च किये जायेंगे. इसके साथ यह आश्वासन भी दिया गया है कि जरूरत पड़ने पर सरकार और भी मदद देने को तैयार है जबकि पिछले रक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा ५००० करोड़ सैन्य बलों ने बिना खर्च किये वापस लौटा दिया है. जब देश के हर नागरिक पर 8500 का विदेशी कर्ज हो ऐसी स्थिति में सरकार का रक्षा पर इतनी बड़ी रकम खर्च करना और देश में सशस्त्रीकरण को बढ़ाना निश्चित रूप से इस तंत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों की प्राप्ति को लेकर संदेह पैदा करता है. यह असुरक्षा सरकार की नहीं बल्कि देश की आंतरिक असुरक्षा है जिसे प्रधानमंत्री बार-बार दोहराते हैं. माओवाद को लेकर प्रधानमंत्री व गृहमंत्री अलग-अलग राज्यों के मुख्यमंत्रीयों के साथ लगातार बैठक कर रहे हैं. प्रधानमंत्री जब देश की सुरक्षा पर गम्भीर चिंता जता रहे हैं तो कुछ ऐसे सवाल उठते हैं जिनकी तहकीकात की जानी चाहिये कि यह असुरक्षा किसकी है सरकार की या देश की निश्चित तौर पर सरकार और देश के बीच में एक फर्क भी है और सम्बन्ध भी कि देश एक सीमा में बसे लोगों से समझा जा सकता है और लोग इसे चलाने के लिये अपने कुछ प्रतिनिधि चुनते हैं जो सरकार के रूप में कार्य करते हैं. क्या इस पैमाने को दण्डकारन्य में लागू किया जा सकता है जहाँ आदिवासियों की मदद से माओवादी समानांतर सरकार चला रहे हैं. इन आदिवासियों को निश्चित तौर पर दिल्ली या रायपुर में बैठे नौकरशाहों के बरक्स माओवादी कार्यप्रणाली आकर्षित करती होगी जो उनमे भरोसा पैदा करती है लिहाजा दण्डकारन्य की जनताना सरकार और वहाँ की आदिवासी जनता एक दूसरे को सुरक्षित रख पा रहे हैं. इन क्षेत्रों को सरकार इस देश की संरचना से जोड़ रही है जबकि पिछले कई वर्षों से सरकारी तंत्र, बड़े सशस्त्र बल के बावजूद वहाँ कब्जा करने में नाकामयाब रहा है और यह लोकतांत्रिक तरीके से तबतक संभव भी नहीं है जबतक सरकार उन आदिवासियों का विश्वास नहीं जीत लेती. क्या यह ग्रीन हंट जैसे दमनात्मक और भयाक्रान्त करने वाले आपरेशन से संभव हो सकता है शायद इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर आदिवासी सलवा जुडुम की तरह और भी संगठित हों व माओवादी आंदोलन और भी मजबूत हो. लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का हमारी सुरक्षा के प्रति उत्तरदायित्व बनता है. पर क्या देश के लोग वाकई माओवाद से इतना चिंतित हैं जितना कि प्रधानमंत्री चिंताग्रस्त दिख रहे हैं या यह असुरक्षा सरकार के लिये आन पड़ी है. माओवादी संगठनों ने अपनी जो जमीन तैयार की है वो वहाँ के स्थानीय लोगों के समर्थन के बिना नहीं टिका सकते और यह स्थानीय लोगों का समर्थन वहाँ की स्थान विशेष की परिस्थितियों में सत्ता की असंतुष्टि के तहत उपजा है. माओवादी संगठन, लोगों में व्याप्त इन असंतुष्टियों को एकताबद्ध कर उन्हें संघर्ष करने की प्रेरणा ही देते हैं. पूरे देश में माओवाद का विस्तार इसी रूप में हुआ है और असंतुष्ट लोग माओवादी बनने के लिये बाध्य हुए हैं अपने कार्यप्रणाली की इस अक्षमता के कारण को चिन्हित कर सही करने के बजाय सरकार उन्हें दमन व कानून के सहारे खत्म करना चाहती है ऐसी स्थिति में बुद्धीजीवी तबका व मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार जब इस स्थिति को उजागर करते हैं तो उन्हें माओवादियों के नेता या थिंक टैंक के रूप में प्रचारित किया जाता है और उनकी गिरतारियां की जाती है चाहे वह सीमा आजाद का मसला हो या फिर बिनायक सेन का. अभी हाल में कोबाद गांधी को लेकर जो चार्ज सीट पुलिस द्वारा प्रस्तुत की गयी है उसमे पुलिस द्वारा मानवाधिकार कार्यकर्ताओ व वरिष्ठ पत्रकारों तक को सम्मलित किया गया है जिसमे इ.पीडब्लू. के सलाहकार सम्पादक गौतम नवलखा तक को रखा गया है. यह एक तरह से असंतुष्टि को बढ़ाने का दूसरा चरण हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों के बल पर लोकतांत्रिक मूल्यों की निगरानी करने वाली सामाजिक संस्थाओं को निशाना बनाया जा रहा है. इस रूप में सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों में जनपक्षधरता का अंतर्द्वन्द और भी तीखा हुआ है. एक तरफ माओवाद को लेकर सरकार ग्रीन हंट जैसे आपरेशन चला रही है और दूसरी तरफ वह माओवादियों से लगातार वार्ता का प्रस्ताव भी भेज रही है. इस आपरेशन में आदिवासियों की एक बड़ी संख्या का कत्ले आम किया जा रहा है सम्भव है कि वे माओवादी पार्टी के सदस्य हों पर वे ज्यादातर आदिवासी ही हैं. आखिर एक आदिवासी से माओवादी बनने की क्या प्रक्रिया होती होगी क्या ये किसी कारखाने में तैयार किये जा रहे हैं या इनकी भर्तियाँ की जा रही हैं और वह क्या है जो इन्हें अपनी जान की परवाह किये बगैर अवैतनिक संधर्ष करने की ताकत देता है. क्या भारतीय सरकार अपनी सुविधायें और वेतन को दिये बगैर सेना के कुछ ऐसे जवानों को तैयार कर सकती है जो देश के लिये लड़ें. दरअसल देश का यही फर्क है कि एक आदिवासी जब लड़ता है तो इस एहसास के साथ कि वह अपने देश के लिये लड़ रहा है. जिसमे उसने चलना सीखा है, जिन पहाड़ों और जंगलों के बीच रहकर वह अपनेपन का भाव अर्जित करता है उसे न छोड़ने की लड़ाई वह लड़ता है और सेना इन्ही को विस्थापित करने के लिये उनके खिलाफ लड़ाई का कार्य कर रही है. यदि सेना या सशस्त्र बल के किसी भी सैनिक के घर को उजाड़ा जाय या उसके गाँवों को विस्थापित किया जाय तो जंगल, पहाड़ियाँ नहीं वह कहीं का भी निवासी हो एक लड़ने वाले आदिवासी जैसी ही प्रतिक्रिया देगा, यानि प्रतिरोध करेगा. यह प्रतिरोध शहरों में होने वाले विस्थापन व अन्य कारणों से दमन के फलस्वरूप दिखाई पड़ता है पर इन दोनों संघर्षों में एक बुनियादी फर्क होता है वह इस रूप में कि शहरी मध्यम वर्ग इन संघर्षों के साथ समझौता कर लेता है क्योंकि इसके पास पूजी होती है और इसकी रक्षा के लिये वह संघर्षों के उस स्तर पर नहीं उतरता जितना कि आदिवासी समाज जो पूजी विहीन होता है और उसके पास ऐसा कुछ नहीं होता जिसे वह खो सकता है सिवाय जीने के अधिकार के, इसी रूप में भारतीय समाज में सर्वहारा के अप्रतिम उदाहरण के तहत आदिवासी समाज आता है जो भारतीय सत्ता को आज चुनौती के रूप में दिख रहा है. गृह मंत्रालय का २००९ का आंकड़ा यदि देखे तो अलग-अलग घटनाओं में ५९१ नागरिक, ३१७ सुरक्षा बल, और २१७ उग्रवादी मारे गये हैं. इन आंकड़ों में सार्वाधिक संख्या में बेगुनाह नागरिकों को मारे जाने की है जिसका कोई तर्क सरकार के पास नहीं है. एक माओवादी को मारने में ४ से अधिक लोगों ने जाने गवांयी गयी हैं जो आपरेशन ग्रीन हंट के चलते गत वर्ष और भी बढ़ने की सम्भावना है. क्या यह सरकार की नाकामयाब नीति को नहीं इंगित करता. आसानी से गिनाते हुए इन आंकड़ों में गृहमंत्री को कोई पश्चातप क्यों नहीं होता. यदि यह देश की आंतरिक सुरक्षा का एक गम्भीर मसला है तो उससे भी गम्भीर मसला देश के लोगों के लिये यह है कि उनके भेजे हुए प्रतिनिधि इसे इतनी अगम्भीरता से ले रहे हैं कि बहस के दौरान अधिकांश मुख्यमंत्री सोते हुए पाये जाते हैं. जब हजारो करोड़ के फैसले महज एक-एक राज्य के लिये हो रहे थे, तेरहवें वित्त आयोग के समक्ष छत्तीस गढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पुलिस संसाधन को बेहतर बनाने के लिये ८१५ करोड़ की मांग रख रहे थे. सोने वाले मुख्यमंत्रीयों के लिये यह देश की पूंजी के साथ मजाक और खिलवाड़ नही तो और क्या है. माओवाद को लेकर एक निश्चित और ठोस समझ बनाने में सरकार, गृहमंत्रालय और राज्य अभी तक सफल नहीं हो पाये हैं अलबत्ता नीति निर्धारण और कार्यवाहिया वर्षों से जारी हैं प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्रीयों के द्वारा समय-समय पर दिये जाने वाले बयानों से यही प्रतीत होता है. ७ फरवरी को प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रीयों की जो बैठक हुई उसमे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने नक्सलवाद और आतंकवाद को एक सिक्के का दो पहलू बताया जबकि गृहमंत्री ने अपने पिछले दिनों दिये गये एक बयान में कहा कि आपरेशन ग्रीन हंट कोई युद्ध नहीं है और माओवादी आतंकवादी नहीं है, सामाजिक, आर्थिक विषमता की उपज है. मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के इन बयानों से यह समझा जा सकता है कि सरकार राज्य सरकारों के साथ माओवादियों को लेकर कोई स्पष्ट समझ नहीं विकसित कर पायी है. यदि यह समझ विकसित किये बगैर हजारो करोड़ रूपये एक-एक राज्य पर खर्च किये जा रहे हैं तो यह जन सम्पत्ति का दुरुपयोग के साथ नौजवान पुलिस कर्मियों की जिंदगी व आदिवासियों की जिंदगी को तबाह करने के अपराध का जिम्मेदार कौन होगा। चन्द्रिका

1 टिप्पणी:

  1. यह हिस्सा मैने आलोक पुतुल द्वारा नक्सलवाद के जनक कानू सान्याल के साक्षात्कार से लिया है। उन्हे विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए उनका कहा ही सच माओवाद समर्थियों के लिये -

    आलोक पुतुल - ये जो आंध्र में, छत्तीसगढ़ में, झारखंड में ये जो हथियारबंद आंदोलन चल रहे हैं. आपके शब्दों में मार्क्सवादी, लेनिनवादी आंदोलन. इसको आप ऐसा कहते हैं क्या ?

    कानू सान्याम - नहीं हम कहते हैं कि ये terrorist हैं. They mainly base themselves on terror campaign पैसा से बंदूक से. ये बहुत कम जगह में दो incident हुआ है. बहुत कम जगह में. बहुत जगह के आदमी को जमा करके एक थाना में हमला करके भाग गए. खाली that is not the only source. ये लोग आदमी को धमकी देकर पैसा देकर, पैसे वाले को अदा करते हैं कि कुछ कर रहे हैं. ऐसे ही, yes in the form of armed struggle. I never condemn it. पर ऐसे, you cannot do it. In the last analysis, you will be defeated. काहे कि Terror campaign से होगा नहीं unless people are with you.

    पूरा पढें -
    http://raviwar.com/baatcheet/B7_kanu-sanyal-interview-alokputul.shtml

    नक्सलवादी आतंकवाद का अब अंत हो ही जाना चाहिये।

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