07 अगस्त 2009

इतिहास के द्वन्द अभी सलामत हैं, नामवर जी ........

आलोक श्रीवास्तव के द्वारा नामवर सिंह को लिखा गया एक खुला ख़त, जिसे ब्लाग पर पहले ही आ जाना था. कुछ व्यस्तताओं के कारण नहीं आ सका. उम्मीद है कि यह ख़त आज की चुनौतियों पर रोना रोने के बज़ाय एक नयी दिशा देगा.
"जीवन में सपना नही रहा, क्योंकि सोवियत संघ नहीं रहा..... ” नामवर जी, यह पुरानी बात हो गई। ” समाजवाद कैंप नहीं रहा एक ही महाशक्ति का वर्चस्व हैं........ ”
ये और इस तरह की तमाम बातें अनैतिहासिक हैं और अप्रमाणिक मन से जन्मी हैं. क्या जब नाज़ी कैंपों में, बंगाल के अकाल में और साम्राज्यवादी विश्व युध्द में 5 करोड़ से ज्यादा लोग जिबह कर दिए गए थे, सपना खत्म हो गया था? जब मध्ययुगीन बर्बरों ने दुनिया को अपने अश्वों की टापों से रौंद दिया था -- तब दुनिया के संज्ञान और मानव-नियति से साक्षात के उपक्रम खत्म हो गए थे?
नामवर जी, वे सपने कमज़ोर थे, जो समाजवाद कैंप पर टिके थे, क्या इतिहास में बारंबार ऐसे दौर नही़ आए जब सिर्फ पराजय क्षितिज तक दिखाती हो, सिर्फ़ धूसर हो गए स्वप्न दूर तक नज़र आते हों? माना कि यह युग कड़ा बहुत है -- पर इतिहास के व्दंव्द सलामत हैं और उपजाऊ हैं. सपनों की ज़मीन अभी भी ज़रखेज है. वैयक्तिक निराशा को इस प्रकार प्रचारित तो न करें. हिंदी की दुरिया वैसे भी अनुचरों की दुनिया हैं.
आज अधिक बड़े सपनों की और ज्यादा गहरे कर्मों की दरकार हैं. आप अपनी उम्र और अपने सपने जी चुके. नई पीढ़ी को यह सिखाएं कि उधार के सपने मत देखना -- हमारी तरह. अपनी जागृति में अपने स्वप्न गढ़ो और उन्हें मशाल की तरह आनें वालों को सौंपो. इस विश्व और जीवन को जानने और बदलने का संज्ञान अभी भी मौजूद हैं, समाजवादी कैंपों के टूटने से सपने नही मरे हैं, बक्लि यह बात रेखांकित हुईग् है कि सपनों के लिए जीना भी पड़ता है. वे सडी-गली व्यवस्थाए खत्म हुई थीं, जिन्हें समाजवाद या माक्र्सवाद नहीं खत्म हुआ था. तथाकथित समाजवादी कैंपों के धराशाई होने से यह बात रेखांकित हुई थी कि क्रांति की भावना, विचार और तंत्र किन्हीं देशों में गुमराह हो चुके थे.
सोवियत संघ के विघटन से न इतिहास खत्म हुआ न वर्ग युध्द --बक्लि वह और पैना, और उजागर हुआ है. उसने अब ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी हैं कि पूंजीवादी वैश्विक तंत्र के खिलाफ़ मानव-भविष्य की वैकल्पिक विचारधारा, चेतना और कर्म को स्थापित करने के लिए ज्यादा यथार्थवादी और वैज्ञानिक ढंग से काम किया जाए. ” सोवियत संघ का विघटन पूंजीवादी षडयंत्र था, सी आई ए की साजिश थी.............. ” इन कुतर्कों से इतिहास बहुत आगे निकल आया है. इस बात की संपूर्ण वैचारिकी अब मौजूद है कि सोवियत संघ क्या बन गया था? सोवियत संघ और चीन की बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की राजनीति और इतिहास विश्व सर्वहारा से विश्वासघात का इतिहास है. उस इतिहास को कलपने वाले शायद इतिहास को ठीक से जानने की जरूरत नही समझते. और यह ज़रूरत न समझना उनकी कमज़हनी से नहीं निहित स्वार्थें से जुड़ी बात है. साम्राज्यवाद बेशक आज बहुत मजबूत स्थिति में है, पर उसको मजबूती दी किसने? चीन विश्व राजनीति में तमाम प्रतिक्रियावादी देशों को अपना दुमछल्ला बना कर विश्व-सर्वहारा के साथ गद्दारी करता रहा और सोवियत संघ भारत सहित अनेक देशों के प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के साथ तीसरी दुनिया के सर्वहारा संघर्षो को पीछे घसीटता रहा. जिस समाजवादी कैंप की बात आप कह रहे हैं, उसके ठीक स्वरूप् केा समझने की ज़रूरत है, न कि उसका रोना रोने की, 1960 से 1990 तक के तथाकथित समाजवादी कैंप की राजनीति और विश्व सर्वहारा संघर्ष पर उसके प्रभाव का ठीक-ठीक आकलन ही भारत जैसे देशों में और उसमें हिंदी पट्टी औ हिंदी पट्टी के साहित्य को वास्तव में जन का साहित्य बनाने की राह पर ले जाएगा. अन्यथा जनवाद और इसी पतनशील व्यवस्था में जम कर मलाई खाते रहे, वह कई और पीढ़ियों तक जारी रह सकता है.
दुनिया इनते पराभव इतनी इसहायता की स्थिति में नही पहुंची है. साम्राज्यवाद आज अपनी सैन्य-शक्ति में, पूंजी के फैलाव में, अपने सांस्कृतिक प्रभुत्व में बेशक अतीत के किन्हीं भी युगांे से बहुत मजबूत है, पर याद रखें कि एक जगह वह बेहद कमजोर हुआ है, और आने वाले दशकों में और भी कमजोर होगा-- वह है पूंजी के रह रह कर दोहराने वाले संकट की रिपेयरिंग में --- अब ये संकट ग्लोबल होंगें, ज्यादा मारक होंगें, और समाजों में उथल-पुथल ला देंगें. दो-तीन दशक बाद यह पूंजीवाद के वश का नहीं रह जाएगा िकवह किन्हीं कीन्स और किन्हीं अन्य अर्थशास्त्रियों के सिध्दांतों के बलबूत इन संकटों से निपठ सके. दूसरी बात यह होने जा रही है कि अब ये संकट ज्यादा आवत्र्तिता के साथ होंगें, आने वाली पूरी सदी में माक्र्स --- जहां तक आर्थिक विश्लेषण की बात है क्लासिक ढंग से और कह लें कि पैगंबरी ढंग से सच प्रमाणित होने जा रहे हैं. लेकिन साम्राज्यवाद इन संकटों के आगे घुटने टेक देगा, इस खुशफ़हमी में न रहें, इन संकटों के निदान निरंतर युध्दों और विश्व-प्रभुत्व में ढूंढ़े जाएंगें. सभ्यता का संकट ठीक यहीं पर है. वह संकट यह है कि माक्वर्स जहां इतिहास की हर करवट के साथ आर्थिक रूप् से एक भविष्यवक्ता की तरह डेढ़ सौ साल बाद भी सही सिध्द होते जाएंगे सिध्द होंगे, और हुए हैं, यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि निदान की जो रूपरेखा थी, वह उनके अपने युग के लिए थी. माक्र्स के समय में पूंजीवाद में मानव-आबादी की चेतना और संस्कृति में इतनी फेरबदल नहीं की थी, पर आज इक्कीसवीं सदी में यह फेरबदल बहुत बड़े पैमाने पर हो चुकी है, श्रमिक वर्ग की पूरी संरचना में भी बड़े पैमाने की फेरबदल कर दी गई है. तो वास्तविक चुनौती इस युग के लिए जनता के पक्ष में प्रतिरोध के निर्णायक स्वरूपांे का निर्माण है. इस कार्य की पहली मंजिल संस्कृति और चेतना का प्रबोध नही है, उस संस्कृति और चेतना का जिसे पूंजीवाद और साम्राज्यवाद ने पिछले दो-तीन दशकों में तो बहुत तेजी से भष्ट और स्वप्नहिन बनाया है, नामवर जी हम हिंदी के किसी साहित्यिक अखाड़े की भाषा में नहीं इतिहास को जानने की इसी जन-नैजिकता के तकाजे से आपको यह बताना चाहते हैं कि आपके इस तरह के विचार इस स्वप्नहीनता के पक्ष में जात हैं -- बजाय उसका प्रतिरोध बनने के, और आप पिछले डेढ़ दशक से निरंतर, ठीक यही काम कर रहे हैं-- अपने तमाम व्याख्यानों आदि के जरिए. सोवियत संघ के टूटने के बाद भी हिंदी जगत का यह जीवंत सत्य है कि दिल्ली से लेकर आरा-पटना तक और राजेंद्र यादव से लेकर नवजात कविगण तक लोग आपकी कितनी भी भत्र्सना निजी या साहित्यिक कारणें या हताशाओं के चलते करते हों , फिर भी आपके उवाच आज भी हिंदी की दुनिया में व्यापक रूप् से प्रसारित होते हैं और उनका असर भी पड़ता है।
ठीक यही वजी है कि आपको यह बताना ज़रूरी लग रहा है कि सोवियत संघ के परजीवी समाजवाद और सपनों का ज़माना खत्म हुए युग बीत चुका हैं. उस तथाकथित समाजवाद और उस समाजवादी सपने की कमाई खाने वाली और उससे अपनी दुकानें चलाने वाली प्रतिभओं के कुचक्रों ने हिंदी में वास्तविक माक्र्सवादी चेतना और स्वप्न को उठाना ही नहीं लेेने दी. यह राज्य समर्थित प्रतिरोध का बोदा साहित्य और विचारधारा थी, जो हिंदी में मठाधीशों व्दारा प्रत्यारोपित की गई थी. सोवियत संघ के तथाकथित समाजवादी कैंप व्दारा समर्थित भारत के माक्र्सवादी राजनीतिक दलों और भारत की बुर्जुआ राजसत्ता से उनके गठबंधन ने हिंदी साहित्य को क्षरित किया है. विभाजित व्यक्तित्व और विभजित मूल्यों वाले समाजचेता रचनाकर्मियों ने हिंदी साहित्य का जो हाल किया वह किसी बड़ी प्रतिभा को जन्म नहीं दे पाया. माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र को अपनी चेतना का अंग बना पाने का संघर्ष इसीलिए मुक्तिबोध का अकेले का संघर्ष बन कर रह गया, न कि इसलिए कि मुक्तिबोध कोई बिरली प्रतिभा थे, जो अपने अवसान के साथ हिंदी साहित्य के माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र की समस्त संभावनाएं और उसका समस्त भावी आत्मसंघर्ष भी लेते गए. स्वतंत्रता के बाद का और उसके आगे 1960 के बाद का तो अधिकांश हिंदी साहित्य व्यवस्था से पोषित लेखकों-आलोचकों का साहित्य रहा, न कि संघर्ष का साहित्य. यह संघर्ष का स्थूल अर्थ न लें वरना हिंदी लेखकों के पास मध्यवर्गीय जीवन और उसके लिए नौकरी के जुगाड़ वाले गर्दिश के दिनों की एक से एक कहानियां चिनी हुई होंगी. यहां संघर्ष से आशय माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र के लिए किए गए आत्मसंघर्ष और उसके जरिए व्यक्तित्व के रूपांतरण के लिए किए गए संघर्ष से है।
नामवर जी जिस चीज का स्यापा कर रहे हैं, वह कुछ लोगों के लिए सुविधाजनक ज़रूर थी, पर वह किन्हीं मूल्यों, संघर्षों और वैचारिकता को सत्ता का गुलाम बनाने वाली थी. क्या आज सन 2008 में इस बात के दस्तावेजी और परिस्थितिजन्य प्रमाणें की आवश्यकता है कि समाजवादी कैंप ने हिंदी साहित्य को किस तरह बधिया और अवसरवादी बना दिया? ऐसे मिथ्या स्वप्नों के लिए बिसूरने वालों के लिए नागार्जुन की यह पंक्ति ही अलम है--- ” भूल जाओ पुराने सपने ”
आलोक श्रीवास्तव -मुंबईफोन- 09320016684

4 टिप्‍पणियां:

  1. कहां है मूल्यों और विचारों आधारित संघर्ष-सब उपभॊक्तावाद और भाई-भतीजावाद में जी रहे हैं!!!!!

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  2. आलोक श्रीवास्तव जी,
    नामवर जी को संबोधित आपका यह पत्र कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों पर सोचने विचारने को प्रेरित करता है. दरअसल सोवियत संघ के पतन के साथ बहुत से प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के लिए ऐसा था जैसे उनके पांवों के नीचे कि जमीन खिसक गई हो. नामवर जी के साथ भी ऐसा है. इसी कारन इतिहास के अंत के उत्तराधुनिक विचार को स्वीकृति मिल पाई.लेकिन यहाँ प्रश्न नामवर जी पर नहीं है प्रश्न आप पर है आप लिखते हैं कि "आप अपनी उम्र और अपने सपने जी चुके. नई पीढ़ी को यह सिखाएं कि उधार के सपने मत देखना -- हमारी तरह. अपनी जागृति में अपने स्वप्न गढ़ो और उन्हें मशाल की तरह आनें वालों को सौंपो." आप नामवर जी से ऐसी उम्मीद क्यों करते हैं. और क्या ऐसी बातें किसी के सिखाने से होती हैं? क्या सपने सिखाने से देखे जाते हैं? और नई पीढी को सपने देखने के लिए भी किसी 'नामवर' के आलम्बन की जरुरत क्यों है?

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  3. दूसरी बात, आपने कहा है "वे सडी-गली व्यवस्थाए खत्म हुई थीं, जिन्हें समाजवाद या माक्र्सवाद नहीं खत्म हुआ था. तथाकथित समाजवादी कैंपों के धराशाई होने से यह बात रेखांकित हुई थी कि क्रांति की भावना, विचार और तंत्र किन्हीं देशों में गुमराह हो चुके थे"
    आलोक जी, आज यह कह देना आसान है. कि क्रांति गुमराह हो चुकी थी. ठीक है, लेकिन क्या इतना काफी है? असल सवाल तो यह है कि क्रांति क्यों और कैसे गुमराह हुई थी. इस पर आप कुछ नहीं कहते हैं. आज केवल इतना कह देने से कि 'इतिहास अभी मरा नहीं है और मार्क्सवाद और भी ज्यादा प्रासंगिक है' कुछ भी हासिल नहीं होता. बल्कि यह तब तक एक भावुक प्रलाप ही कह जायेगा. जब तक बीसवीं शताब्दी में समाजवादी परियोजना क्यों गतिरुद्ध हो गई इस पर कोई ठोस और गंभीर बातें न कहीं जाएँ.बिना इस विश्लेषण के कि भविष्य में होने वाली सर्वहारा क्रांतियाँ इन विफलताओं से कैसे उबरेंगी. वे गुमराह होने से कैंसे बचेंगी. ये बात कहना कि इतिहास अभी जीवित है एक अति सामान्य बात है जो मान को दिलासा देने के लिए कही गई प्रतीत होती है.
    आलोक जी नई क्रांतियों के लिए आवेग और उर्जा चिचली भावुकता से नहीं हासिल होगा. बल्कि पुरानी क्रांतियों कि विफलता और गतिरुद्धता के ठोस विश्लेषण से हासिल होगा. अतः अच्छा यह होगा कि बजाय नामवर जी जैसों के वक्तव्यों पर भावुक प्रतिक्रिया देने के, हम इस सवाल पर विचार करें कि पिछले समाजवादी प्रयोग क्यों विफल हो गए? क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ नौकरशाही के विशाल तंत्रों में कैसे बदल गई? और सर्वाहारा कि तानाशाही कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष पर बैठे कुछ दर्जन नौकरशाहों कि तानाशाही में कैंसे बदल गई.

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  4. आलोक श्रीवास्तव का लेख बहुत गहन और गंभीर है और एक सच्ची पीड़ा और सदाशयता उमें झलकती है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. लेकिन.........

    आश्चर्य होता है, जिस बात को कोई भी एक साधारण पढ़ा लिखा यहाँ तक कि अनपढ़ भी आसानी से समझ सकता है उसे हमारे विद्वान लोग नहीं समझते.

    सोवियत संघ क्यों असफल हुआ, इसका कारण इतना ज़टिल नहीं है कि उसे ऐसी दिमाग मरोड़ कसरत के बाद तकनीकी शब्दावली में ही समझा जा सके. कम्युनिज्म का वादा था और है कि वह इतिहास की सबसे अधिक जनवादी, लोकतान्त्रिक और न्यायपूर्ण व्यवस्था होगी. हर व्यक्ति उसमें अपने भीतर की असीम संभावनाओं को पा सकेगा.

    लेकिन असलियत में वहां क्या लोकतंत्र था ? क्या असहमति की आजादी थी ? क्या विचार और अभिव्यक्ति की आजादी थी ?

    क्या वहां ब्रेजनेव या स्तालिन की आलोचना की जा सकती थी ?

    क्या नेताओं पर वैसे कार्टून अख़बारों में छप सकते थे जो हम आम देखते हैं ? क्या उनके निर्णयों और विचारों पर व्यंग्यलेख छप सकते थे ?

    क्या वहां राइट टू इन्फोर्मेशन जैसा कोई अधिकार था ?

    क्या मजदूर ट्रेड यूनियन बना सकते थे ? क्या उन्हें हड़ताल का हक़ tha ?

    kya desh mein kaheen bhee ghoomne kee azadee thee ?

    communism ka ek bhee wada poora naheen hua isliye wahan ke nagrikon ne use nakar diya aur wahan ke adhisankhya janta ko tamam takleefon ke bawazood aaj bhee iska koi khed naheen hai.

    sachchai itnee see hai ki manushya kewal rotee par naheen jeeta. Use azadee aue garima se bhara mukt jeewan bhee chahiye.

    Samjhe alok jee ?

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