महाराष्ट्र के गृहमंत्री जयंत पाटिल ने आदिवासी बटालियन बनाने की घोषणा कर दी है. २१ अगस्त को उन्हीं के हांथों १११ एकड़ जमीन पर एक प्रशिक्षण सिविर का उदघाटन भी किया जा चुका है. इस आदिवासी बटालियन में स्थानीय आदिवासियों की भर्ती को प्राथमिकता दी जायेगी. माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में व्यय करने के लिये राज्य ने अलग से १३०० करोण रूपये का पैकेज भी दिया जिससे पुलिस कर्मीयों को बेहतर सुविधा मुहैया करायी जायेगी व उन्हें अतिरिक्त पैसे भी दिये जायेंगे.
इन ढेर सारी घोषणाओं के बीच एक बात जो अघोषित रह गयी वह यह है कि राज्य सरकार को अभी आदिवासी बटालियन बनाने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है. अब तक आदिवासी पुलिस भर्ती की मापदंड से बाहर क्यों रह गये थे. पर सरकार को आज वे कौन सी विशेषतायें आदिवासियों में दिखने लगीं कि वह अलग से बटालियन बनाने को तैयार हो गयी. निश्चित तौर पर आदिवासियों ने अपने हक हुकूक की लडाई को जिस तौर पर लडा है जिसके आगे पुलिस बल कई बार मात खा चुकी है. सरकार आदिवासियों के इसी जुझारूपन व तेवर को आदिवासी बटालियन बनाकर खरीदना चाहती है और उन्हीं के हाथों उन्हीं के सीने पर गोली चलवाना चाहती है.
देश के अधिकांस हिस्सों में अपने जंगल व जमीन को बचाने के लिये आदिवासियों ने जो विद्रोह किया या जो संघर्ष चलाये उसके खिलाफ उन्हीं के बीच से आदिवासी समाज के लोगों को खडा करना, यह पहला प्रयोग नहीं है इसके पहले भी आदिवासियों से आदिवासियों को लडाने के कई तरीके अपनाये जा चुके हैं. राज्य व स्थानीयता के लिहाज से भले ही उनके स्वरूप को बदल दिया गया हो.
छत्तीसगढ़ में सलवा-जुडुम का पूरा अभियान इसी तर्ज पर तैयार किया गया जिसमे टाटा और एस्सार को जमीन दिये जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे आदिवासियों को खत्म करने के लिये उन्हीं के समाज के लोगों को १५०० रूपये देकर एस.पी.ओज. के रूप में भर्ती किया गया. यह भर्ती की प्रक्रिया पुलिस में भर्ती होने वाले मापदण्डों को तोड़ कर की गयी. जिसमे १३ वर्ष के बच्चों तक को सम्मलित किया गया और उनके हाँथ में ३०३ के हथियार पकडा दिये गये और आदिवासी बनाम आदिवासी युद्ध, शांति अभियान के नाम पर चलाया गया. जिसमे हजारों की संख्या में आदिवासियों की तबाही हुई. सलवा जुडुम अब पूरी तरह से उजागर हो चुका है और सुप्रीम कोर्ट इसकी निंदा कर चुकी है अतः आदिवासी बटालियन का बनना एक नये स्वरूप में महाराष्ट्र राज्य के अंदर एक वैध्यता प्रदान करेगा.
आदिवासी बटालियन बनने के और भी कई गंभीर संकेत है. एक तो जंगल और खदानों को लूटे जाने के विरुद्ध आदिवासी संघर्षों को रोकने के लिये व उन्हें उनकी जमीन से बेदख़ल करने के लिये जिस पुलिस बल का प्रयोग किया जाता था वे गैर आदिवासी होते थे व किसी अन्य वर्ग से होते थे. संघर्षों में कई बार इन्हें जान तक गवानी पड़ती थी. अब आदिवासी बटालियन बनने से सरकार एक ही तीर से कई निशाने साधने के फिराक में है जिसमे दोनों तरफ से मौत आदिवासियों की ही होनी है, वह भी स्थानीय आदिवासी. यानि एक ऎसे युद्ध की पृष्ठभूमी तैयार हो रही है जहाँ हार जीत की परवाह नहीं करनी है. मकसद दोनों तरफ से पूरे हो रहे हैं एक विद्रोही समाज को ख़त्म करने के, जंगल से जंगलवासियों के सफाये के.
स्थानीय आदिवासियों को भर्ती करने के पीछे कारण यह भी है कि अलग-अलग राज्यों से आये अर्धसैनिक बलों को वहाँ के स्थानों से परिचित होने में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था स्थानीय आदिवासियों के साथ वे कठिनाईयां नहीं रह जायेंगी, पुलिस को अब गुप्त माध्यमों से इलाके का पता लगाने की जरूरत नहीं पडेगी बल्कि स्थानीय आदिवासी जिन्हें बटालियन में शामिल किया जायेगा वह वहाँ के चप्पे-चप्पे से वाकिफ रहेगा. पिछले कुछ दशकों में जब भी इस तरह के प्रयोग किये गये हैं एक बडा प्रचार तंत्र इस रूप में भी खडा किया जाता रहा है कि आदिवासी जागरूक हो गये हैं और अपने ऊपर हो रहे माओवादियों के जुल्म के खिलाफ खडे हो रहे हैं. जबकि यह आदिवासियों को आपस में लडाकर उन्हें खत्म करने का एक और तरीका भर है.
खनिज संसाधनों की मिल्कियत से भरे जंगलों को निजी हांथों में सौंपा जा रहा है जिस वजह से वहाँ के लोगों में आक्रोश व संघर्ष तेज होना लाजमी है जिस स्थिति को सरकार पहले पहचान रही है. अतः ऎसे पूरे समाज को खत्म करने व वहाँ से विस्थापित करने की मुहिम का एक हिस्सा है जो अपने संसाधनों पर निजी कब्जेदारी नहीं करने दे रहा है.
माओवाद से निपटने की पिछले तीस वर्षों में सरकार की जो कोशिश रही है उसमे कई तरीके अख़्तियार किये गये हैं. आदिवासी इलाकों में जनजागरण जैसे अभियान चलाये गये जो बाद में विफल साबित हुए. नये शस्त्रों से सेना व पुलिस को लैस किया गया ताकि इन्हें मार कर निपटा जा सके पर इसका उल्टा यह हुआ कि जो हथियार माओवादियों के पास नहीं थे पुलिस से छीनकर माओवादी भी उन हथियारों से अपने को मजबूत बनाने में सक्षम हुए. जिलों का विभाजन किया गया छोटे-छोटे जिले व थाने निर्मित किये गये ताकि सघन स्तर पर कार्यवाहियों को अंजाम दिया जा सके पर अंततः देखा जाय तो माओवादियों का जो क्षेत्र था उसमे विस्तार होता गया. सरकार एक तरफ तो माओवाद को आर्थिक सामाजिक समस्या के रूप में देखती है पर दूसरी तरफ हाल ही में इसे एक आतंकवादी संगठन के रूप में भी घोषित किया जा चुका है. क्या आतंकवाद आर्थिक सामाजिक समस्या की पैदाइस है?
अब जिस तरह का प्रयोग सरकार करने जा रही है वह एक तरह का जन युद्ध है शायद इस शदी को इस जनयुद्ध के भयानक खामियाजे भुगतने पडें। जो आदिवासी एकता को खंडित करने या महज़ आदिवासियों की आपसी लडाई के रूप में ही नहीं होंगे बल्कि आदिवासी समाज में जो विद्रोह का तेवर है, लडाकेपन की जो क्षमता है आदिवासी बटालियन उस तेवर से अलग नहीं लडेगी. सरकार के द्वारा चलाये जा रहे इस युद्ध में आदिवासी मारे जायेंगे और एक आदिम समाज आपसी लडाई में खत्म हो जायेगा या बच जायेगा.
चन्द्रिका
इन ढेर सारी घोषणाओं के बीच एक बात जो अघोषित रह गयी वह यह है कि राज्य सरकार को अभी आदिवासी बटालियन बनाने की जरूरत क्यों महसूस हो रही है. अब तक आदिवासी पुलिस भर्ती की मापदंड से बाहर क्यों रह गये थे. पर सरकार को आज वे कौन सी विशेषतायें आदिवासियों में दिखने लगीं कि वह अलग से बटालियन बनाने को तैयार हो गयी. निश्चित तौर पर आदिवासियों ने अपने हक हुकूक की लडाई को जिस तौर पर लडा है जिसके आगे पुलिस बल कई बार मात खा चुकी है. सरकार आदिवासियों के इसी जुझारूपन व तेवर को आदिवासी बटालियन बनाकर खरीदना चाहती है और उन्हीं के हाथों उन्हीं के सीने पर गोली चलवाना चाहती है.
देश के अधिकांस हिस्सों में अपने जंगल व जमीन को बचाने के लिये आदिवासियों ने जो विद्रोह किया या जो संघर्ष चलाये उसके खिलाफ उन्हीं के बीच से आदिवासी समाज के लोगों को खडा करना, यह पहला प्रयोग नहीं है इसके पहले भी आदिवासियों से आदिवासियों को लडाने के कई तरीके अपनाये जा चुके हैं. राज्य व स्थानीयता के लिहाज से भले ही उनके स्वरूप को बदल दिया गया हो.
छत्तीसगढ़ में सलवा-जुडुम का पूरा अभियान इसी तर्ज पर तैयार किया गया जिसमे टाटा और एस्सार को जमीन दिये जाने के खिलाफ संघर्ष कर रहे आदिवासियों को खत्म करने के लिये उन्हीं के समाज के लोगों को १५०० रूपये देकर एस.पी.ओज. के रूप में भर्ती किया गया. यह भर्ती की प्रक्रिया पुलिस में भर्ती होने वाले मापदण्डों को तोड़ कर की गयी. जिसमे १३ वर्ष के बच्चों तक को सम्मलित किया गया और उनके हाँथ में ३०३ के हथियार पकडा दिये गये और आदिवासी बनाम आदिवासी युद्ध, शांति अभियान के नाम पर चलाया गया. जिसमे हजारों की संख्या में आदिवासियों की तबाही हुई. सलवा जुडुम अब पूरी तरह से उजागर हो चुका है और सुप्रीम कोर्ट इसकी निंदा कर चुकी है अतः आदिवासी बटालियन का बनना एक नये स्वरूप में महाराष्ट्र राज्य के अंदर एक वैध्यता प्रदान करेगा.
आदिवासी बटालियन बनने के और भी कई गंभीर संकेत है. एक तो जंगल और खदानों को लूटे जाने के विरुद्ध आदिवासी संघर्षों को रोकने के लिये व उन्हें उनकी जमीन से बेदख़ल करने के लिये जिस पुलिस बल का प्रयोग किया जाता था वे गैर आदिवासी होते थे व किसी अन्य वर्ग से होते थे. संघर्षों में कई बार इन्हें जान तक गवानी पड़ती थी. अब आदिवासी बटालियन बनने से सरकार एक ही तीर से कई निशाने साधने के फिराक में है जिसमे दोनों तरफ से मौत आदिवासियों की ही होनी है, वह भी स्थानीय आदिवासी. यानि एक ऎसे युद्ध की पृष्ठभूमी तैयार हो रही है जहाँ हार जीत की परवाह नहीं करनी है. मकसद दोनों तरफ से पूरे हो रहे हैं एक विद्रोही समाज को ख़त्म करने के, जंगल से जंगलवासियों के सफाये के.
स्थानीय आदिवासियों को भर्ती करने के पीछे कारण यह भी है कि अलग-अलग राज्यों से आये अर्धसैनिक बलों को वहाँ के स्थानों से परिचित होने में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था स्थानीय आदिवासियों के साथ वे कठिनाईयां नहीं रह जायेंगी, पुलिस को अब गुप्त माध्यमों से इलाके का पता लगाने की जरूरत नहीं पडेगी बल्कि स्थानीय आदिवासी जिन्हें बटालियन में शामिल किया जायेगा वह वहाँ के चप्पे-चप्पे से वाकिफ रहेगा. पिछले कुछ दशकों में जब भी इस तरह के प्रयोग किये गये हैं एक बडा प्रचार तंत्र इस रूप में भी खडा किया जाता रहा है कि आदिवासी जागरूक हो गये हैं और अपने ऊपर हो रहे माओवादियों के जुल्म के खिलाफ खडे हो रहे हैं. जबकि यह आदिवासियों को आपस में लडाकर उन्हें खत्म करने का एक और तरीका भर है.
खनिज संसाधनों की मिल्कियत से भरे जंगलों को निजी हांथों में सौंपा जा रहा है जिस वजह से वहाँ के लोगों में आक्रोश व संघर्ष तेज होना लाजमी है जिस स्थिति को सरकार पहले पहचान रही है. अतः ऎसे पूरे समाज को खत्म करने व वहाँ से विस्थापित करने की मुहिम का एक हिस्सा है जो अपने संसाधनों पर निजी कब्जेदारी नहीं करने दे रहा है.
माओवाद से निपटने की पिछले तीस वर्षों में सरकार की जो कोशिश रही है उसमे कई तरीके अख़्तियार किये गये हैं. आदिवासी इलाकों में जनजागरण जैसे अभियान चलाये गये जो बाद में विफल साबित हुए. नये शस्त्रों से सेना व पुलिस को लैस किया गया ताकि इन्हें मार कर निपटा जा सके पर इसका उल्टा यह हुआ कि जो हथियार माओवादियों के पास नहीं थे पुलिस से छीनकर माओवादी भी उन हथियारों से अपने को मजबूत बनाने में सक्षम हुए. जिलों का विभाजन किया गया छोटे-छोटे जिले व थाने निर्मित किये गये ताकि सघन स्तर पर कार्यवाहियों को अंजाम दिया जा सके पर अंततः देखा जाय तो माओवादियों का जो क्षेत्र था उसमे विस्तार होता गया. सरकार एक तरफ तो माओवाद को आर्थिक सामाजिक समस्या के रूप में देखती है पर दूसरी तरफ हाल ही में इसे एक आतंकवादी संगठन के रूप में भी घोषित किया जा चुका है. क्या आतंकवाद आर्थिक सामाजिक समस्या की पैदाइस है?
अब जिस तरह का प्रयोग सरकार करने जा रही है वह एक तरह का जन युद्ध है शायद इस शदी को इस जनयुद्ध के भयानक खामियाजे भुगतने पडें। जो आदिवासी एकता को खंडित करने या महज़ आदिवासियों की आपसी लडाई के रूप में ही नहीं होंगे बल्कि आदिवासी समाज में जो विद्रोह का तेवर है, लडाकेपन की जो क्षमता है आदिवासी बटालियन उस तेवर से अलग नहीं लडेगी. सरकार के द्वारा चलाये जा रहे इस युद्ध में आदिवासी मारे जायेंगे और एक आदिम समाज आपसी लडाई में खत्म हो जायेगा या बच जायेगा.
चन्द्रिका
चन्द्रिका जी
जवाब देंहटाएंबहुत साहसिक अभिव्यक्ति का नमूना है यह लेख. बधाई स्वीकारें.
आप लगातार हमारे समाज के सबसे ज्वलंत विषयों पर जिस स्पष्टता और निर्भीकता के साथ लिख रहे हैं. वह काफी प्रेरणा देता है.
aadivasi bataliyan bhi salwa judum ka dusara roop jan padata hai. iska har star par virodh hona chaiye. ham sabhi aapke sath hain.
जवाब देंहटाएं高中生聊天室
जवाब देंहटाएं成人聊天網
成人影片
av女優影片線上看
三級電影
av情色網
成人影視
hilive tv免費電影
臺灣妹妹情色自拍
免費自拍情色電影
小老鼠影片分享區
情色文學自拍王
自拍情色圖貼照片
學生情色自拍
純情色妹妹自拍
免費色情短片線上觀看
日本大奶女優短片
影片交流,免費色情
線上成人影片-sex貼片區
檳榔西施摸奶影片
a片
a片
免費視訊聊天
免費色咪咪影片網,
免費色情影片分享
免費a片觀賞
免費a長片線上看
線上免費a片
色咪咪影片網
甜心寶貝貼影片
av女優影片
msn 聊天室入口
台灣 yahoo 聊天室入口
she say 聊天室入口
tu 聊天室入口
yahoo 聊天室入口
聊天室入口 yam
ek21 聊天室入口
ut 聊天室入口
免費視訊聊天室入口
av無碼女優
免費女優電影
日本av女優