कृपाशंकर चौबे
लंबे समय से चल रही अलग गोरखालैंड राज्य की लड़ाई एक संवैधानिक संकट के मोड़ पर पहुंच गई है। दरअसल व्यवहार में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने अलग गोरखालैंड राज्य हासिल कर लिया है।पूरे दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में दुकानों के साइनबोर्ड में पश्चिम बंगाल का नाम मिटाकर गोरखालैंड कर दिया गया है तो गाड़ियों के नंबर प्लेट में भी डब्लू बी (वेस्ट बेंगाल) की जगह जीएल (गोरखालैंड) लिखवा दिया गया है। और तो और, जीजेएम ने पूरे पहाड़ में गोरखालैंड की अपनी सुरक्षा व्यवस्था लागू कर रखी है। पहाड़ में पश्चिम बंगाल पुलिस को प्रवेश करने की इजाजत नहीं है। जगह-जगह गोरखा जनमुक्ति के साढ़े दस हजार सशस्त्र जवान तैनात हैं। इन्हें जीएलपी यानी गोरखालैंड पर्सनल कहा जाता है। वैसे ये काम पुलिस का करते हैं इसलिए जीएलपी को पहाड़वासी पुलिस ही कहते हैं। जीएलपी के इन लाठीधारी जवानों ने सेना के पूर्व कर्नल रमेश दीक्षित से प्रशिक्षण हासिल किया है। जीजेएम ने अपना अलग प्रशिक्षण शिविर बना रखा है और उसके अध्यक्ष विमल गुरुंग ने कहा है कि जीएलपी जवानों की संख्या बढ़ाई जाएगी। गुरुंग ने जीएलपी के लिए प्रशिक्षण देकर कुल पचीस हजार जवानों को तैयार करने का ऐलान किया है। पहाड़ में जीएलपी के जवानों, पहाड़ की दुकानों और गाड़ियों को देखकर लगता है कि गोरखालैंड तो व्यवहार में बन ही गया है।
व्यवहार में गोरखालैंड हासिल हो जाने के बाद अब उसे संवैधानिक स्वीकृति दिलाने के लिए जीजेएम ने पहाड़ में बीते तेरह जुलाई से हड़ताल कर रखी है। इस हड़ताल को टलवाने के लिए केंद्र सरकार ने अगले महीने अगस्त में तितरफा बैठक बुलाई है। उस प्रस्तावित बैठक की घोषणा किए जाने के बावजूद जीजेएम ने हड़ताल जारी रखने का ऐलान किया है और संकेत दिया है कि इस बार उनकी हड़ताल डेढ़ महीने से भी ज्यादा समय तक चल सकती है। दरअसल पहाड़ में अब गुरुंग की ही चलती है। वे ही आजकल दार्जिंलिंग के एकछत्र सम्राट हैं। पहाड़ पर दो दशकों से ज्यादा समय तक एक छत्र राज करनेवाले गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (जीएनएलएफ) के अध्यक्ष सुभाष घीसिंग भी गुरुंग की लोकप्रियता के आगे बौने पड़ गए हैं। उनका खुद का दार्जिलिंग में प्रवेश करना मुहाल हो गया है। उन्हें पहाड़ से निर्वासित होना पड़ा है। घीसिंग को पहाड़ के केंद्र से परिधि में फेंकने के बाद गुरुंग अब घीसिंग द्वारा सबसे लंबे समय तक की गई हड़ताल के रेकार्ड को भी इस बार तोड़ देना चाहते हैं। घीसिंग ने अपने आंदोलन के उत्कर्ष के जमाने में 45 दिनों तक लगातार हड़ताल की थी। गुरुंग उससे ज्यादा दिनों तक हड़ताल करने को आमादा हैं। गुरुंग की सलाह पर पहाड़वासियों ने जब दो महीने का राशन अपने यहां रख लिया, उसके बाद ही हड़ताल आरंभ की गई। इसके अलावा ऐहतियात के तौर पर जीजेएम ने खाद्यान्न के तीन गोदाम भरकर रखवा लिए हैं। पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न रखे जाने से भले हड़ताल के दौरान पहाड़वासियों को भोजन की असुविधा न हो पर जीजेएम का सारा आंदोलन एक गंभीर खतरे की तरफ इशारा करता है। हड़ताल के कारण जिस तरह पहाड़ को बाकी देश से काट दिया गया है, उसे किसी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
जीएलपी के जवान जिस तरह पहाड़ में कानून-व्यवस्था को संभाले हुए हैं और विभिन्न सामाजार्थिक विकासमूलक योजनाओं के क्रियान्वयन, पर्यटकों की सहायता, यहां तक कि महाकाल मंदिर की सुरक्षा संभाल रहे हैं, उसके बाद स्वतंत्र गोरखालैंड राज्य को हासिल करने के लिए बाकी क्या बचा है? तब क्या बुद्धदेव सरकार ने व्यवहार में अलग गोरखालैंड की मांग को स्वीकार कर लिया है ?तथ्य यह है कि आज पूरे दार्जिलिंग में बुद्धदेव सरकार के प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं है। बुद्धदेव सरकार की प्रशासनिक मशीनरी पहाड़ में क्यों फेल हो गई? देश-विदेश से आए पर्यटकों-छात्र-छात्राओं की सुरक्षा बंगाल पुलिस के बजाय जीएलपी पर क्यों निर्भर है? पुलिस के आईजी तक पहाड़ में क्यों नहीं प्रवेश कर पा रहे हैं? तथ्य यह भी है कि जीजेएम के हड़ताली अलग राज्य की मांग के अलावा आईजी व दो अन्य आईपीएस अधिकारियों को हटाने की मांग भी कर रहे हैं। सुभाष घीसिंग ने जब अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया था तो राज्य प्रशासन मुखर था और तब राज्य प्रशासन ने पहाड़ के जन-जीवन को सामान्य बनाए रखने के लिए कई कदम उठाए थे। लेकिन आज क्या इस तरह के आंदोलनकारियों के आगे समर्पण कर देना ही बुद्धदेव सरकार की नीति है? कहना न होगा कि यह कापुरुष सरकार की निशानी है और उसकी अयोग्यता का प्रमाण भी।
दार्जिलिंग में तो बंगाल पुलिस कानून-व्यवस्था की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने के लिए भी सक्रिय नहीं होती जबकि जहां जरूरत नहीं होती, वहां अति सक्रिय हो उठती है। पुलिस विभाग चूंकि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के पास है, इसलिए पुलिस की किसी भूमिका की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते। नंदीग्राम में बंगाल पुलिस ने नाहक अति सक्रिय होकर ही गोली चलाई थी और दोषी पुलिसवालों पर आज तक कोई कार्रवाई बुद्धदेव ने नहीं की। अदालत के आदेश के बावजूद आज तक नंदीग्राम गोलीकांड के हताहतों व क्षतिग्रस्त लोगों को मुआवजा नहीं दिया गया। नंदीग्राम से सटे खेजुरी में माकपा नेताओं के यहां से बरामद हथियारों के जखीरे के बारे में पुलिस मंत्री के नाते बुद्धदेव ने यह पता लगाने का जहमत नहीं उठाया कि उतने हथियार आए कहां से? जिनके यहां से हथियार बरामद हुए, इन पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? लालगढ़ में बंगाल पुलिस ने रात में तलाशी के नाम पर आदिवासी महिलाओं के साथ जो ज्यादती की, उसकी जिम्मेदारी मंत्री के नाते लेने से बुद्धदेव इंकार कर सकते हैं? कहना न होगा कि बुद्धदेव की इन्हीं प्रशासनिक विफलताओं के कारण आज दार्जिलिंग मुक्तांचल बना हुआ है। इसके बाद अब दुआर्स की बारी है। दार्जिलिंग की तर्ज पर उत्तर बंगाल में ग्रेटर कूचबिहार व अलग कामतापुर आंदोलन की मांग कब जोर पकड़ लेगी, नहीं कहा जा सकता। लोकमत से साभार
लंबे समय से चल रही अलग गोरखालैंड राज्य की लड़ाई एक संवैधानिक संकट के मोड़ पर पहुंच गई है। दरअसल व्यवहार में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने अलग गोरखालैंड राज्य हासिल कर लिया है।पूरे दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में दुकानों के साइनबोर्ड में पश्चिम बंगाल का नाम मिटाकर गोरखालैंड कर दिया गया है तो गाड़ियों के नंबर प्लेट में भी डब्लू बी (वेस्ट बेंगाल) की जगह जीएल (गोरखालैंड) लिखवा दिया गया है। और तो और, जीजेएम ने पूरे पहाड़ में गोरखालैंड की अपनी सुरक्षा व्यवस्था लागू कर रखी है। पहाड़ में पश्चिम बंगाल पुलिस को प्रवेश करने की इजाजत नहीं है। जगह-जगह गोरखा जनमुक्ति के साढ़े दस हजार सशस्त्र जवान तैनात हैं। इन्हें जीएलपी यानी गोरखालैंड पर्सनल कहा जाता है। वैसे ये काम पुलिस का करते हैं इसलिए जीएलपी को पहाड़वासी पुलिस ही कहते हैं। जीएलपी के इन लाठीधारी जवानों ने सेना के पूर्व कर्नल रमेश दीक्षित से प्रशिक्षण हासिल किया है। जीजेएम ने अपना अलग प्रशिक्षण शिविर बना रखा है और उसके अध्यक्ष विमल गुरुंग ने कहा है कि जीएलपी जवानों की संख्या बढ़ाई जाएगी। गुरुंग ने जीएलपी के लिए प्रशिक्षण देकर कुल पचीस हजार जवानों को तैयार करने का ऐलान किया है। पहाड़ में जीएलपी के जवानों, पहाड़ की दुकानों और गाड़ियों को देखकर लगता है कि गोरखालैंड तो व्यवहार में बन ही गया है।
व्यवहार में गोरखालैंड हासिल हो जाने के बाद अब उसे संवैधानिक स्वीकृति दिलाने के लिए जीजेएम ने पहाड़ में बीते तेरह जुलाई से हड़ताल कर रखी है। इस हड़ताल को टलवाने के लिए केंद्र सरकार ने अगले महीने अगस्त में तितरफा बैठक बुलाई है। उस प्रस्तावित बैठक की घोषणा किए जाने के बावजूद जीजेएम ने हड़ताल जारी रखने का ऐलान किया है और संकेत दिया है कि इस बार उनकी हड़ताल डेढ़ महीने से भी ज्यादा समय तक चल सकती है। दरअसल पहाड़ में अब गुरुंग की ही चलती है। वे ही आजकल दार्जिंलिंग के एकछत्र सम्राट हैं। पहाड़ पर दो दशकों से ज्यादा समय तक एक छत्र राज करनेवाले गोरखा राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा (जीएनएलएफ) के अध्यक्ष सुभाष घीसिंग भी गुरुंग की लोकप्रियता के आगे बौने पड़ गए हैं। उनका खुद का दार्जिलिंग में प्रवेश करना मुहाल हो गया है। उन्हें पहाड़ से निर्वासित होना पड़ा है। घीसिंग को पहाड़ के केंद्र से परिधि में फेंकने के बाद गुरुंग अब घीसिंग द्वारा सबसे लंबे समय तक की गई हड़ताल के रेकार्ड को भी इस बार तोड़ देना चाहते हैं। घीसिंग ने अपने आंदोलन के उत्कर्ष के जमाने में 45 दिनों तक लगातार हड़ताल की थी। गुरुंग उससे ज्यादा दिनों तक हड़ताल करने को आमादा हैं। गुरुंग की सलाह पर पहाड़वासियों ने जब दो महीने का राशन अपने यहां रख लिया, उसके बाद ही हड़ताल आरंभ की गई। इसके अलावा ऐहतियात के तौर पर जीजेएम ने खाद्यान्न के तीन गोदाम भरकर रखवा लिए हैं। पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न रखे जाने से भले हड़ताल के दौरान पहाड़वासियों को भोजन की असुविधा न हो पर जीजेएम का सारा आंदोलन एक गंभीर खतरे की तरफ इशारा करता है। हड़ताल के कारण जिस तरह पहाड़ को बाकी देश से काट दिया गया है, उसे किसी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
जीएलपी के जवान जिस तरह पहाड़ में कानून-व्यवस्था को संभाले हुए हैं और विभिन्न सामाजार्थिक विकासमूलक योजनाओं के क्रियान्वयन, पर्यटकों की सहायता, यहां तक कि महाकाल मंदिर की सुरक्षा संभाल रहे हैं, उसके बाद स्वतंत्र गोरखालैंड राज्य को हासिल करने के लिए बाकी क्या बचा है? तब क्या बुद्धदेव सरकार ने व्यवहार में अलग गोरखालैंड की मांग को स्वीकार कर लिया है ?तथ्य यह है कि आज पूरे दार्जिलिंग में बुद्धदेव सरकार के प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं है। बुद्धदेव सरकार की प्रशासनिक मशीनरी पहाड़ में क्यों फेल हो गई? देश-विदेश से आए पर्यटकों-छात्र-छात्राओं की सुरक्षा बंगाल पुलिस के बजाय जीएलपी पर क्यों निर्भर है? पुलिस के आईजी तक पहाड़ में क्यों नहीं प्रवेश कर पा रहे हैं? तथ्य यह भी है कि जीजेएम के हड़ताली अलग राज्य की मांग के अलावा आईजी व दो अन्य आईपीएस अधिकारियों को हटाने की मांग भी कर रहे हैं। सुभाष घीसिंग ने जब अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया था तो राज्य प्रशासन मुखर था और तब राज्य प्रशासन ने पहाड़ के जन-जीवन को सामान्य बनाए रखने के लिए कई कदम उठाए थे। लेकिन आज क्या इस तरह के आंदोलनकारियों के आगे समर्पण कर देना ही बुद्धदेव सरकार की नीति है? कहना न होगा कि यह कापुरुष सरकार की निशानी है और उसकी अयोग्यता का प्रमाण भी।
दार्जिलिंग में तो बंगाल पुलिस कानून-व्यवस्था की अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाने के लिए भी सक्रिय नहीं होती जबकि जहां जरूरत नहीं होती, वहां अति सक्रिय हो उठती है। पुलिस विभाग चूंकि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के पास है, इसलिए पुलिस की किसी भूमिका की जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते। नंदीग्राम में बंगाल पुलिस ने नाहक अति सक्रिय होकर ही गोली चलाई थी और दोषी पुलिसवालों पर आज तक कोई कार्रवाई बुद्धदेव ने नहीं की। अदालत के आदेश के बावजूद आज तक नंदीग्राम गोलीकांड के हताहतों व क्षतिग्रस्त लोगों को मुआवजा नहीं दिया गया। नंदीग्राम से सटे खेजुरी में माकपा नेताओं के यहां से बरामद हथियारों के जखीरे के बारे में पुलिस मंत्री के नाते बुद्धदेव ने यह पता लगाने का जहमत नहीं उठाया कि उतने हथियार आए कहां से? जिनके यहां से हथियार बरामद हुए, इन पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई? लालगढ़ में बंगाल पुलिस ने रात में तलाशी के नाम पर आदिवासी महिलाओं के साथ जो ज्यादती की, उसकी जिम्मेदारी मंत्री के नाते लेने से बुद्धदेव इंकार कर सकते हैं? कहना न होगा कि बुद्धदेव की इन्हीं प्रशासनिक विफलताओं के कारण आज दार्जिलिंग मुक्तांचल बना हुआ है। इसके बाद अब दुआर्स की बारी है। दार्जिलिंग की तर्ज पर उत्तर बंगाल में ग्रेटर कूचबिहार व अलग कामतापुर आंदोलन की मांग कब जोर पकड़ लेगी, नहीं कहा जा सकता। लोकमत से साभार
व्यवस्था की नाकामी ही अलगाव को जन्म देती है।
जवाब देंहटाएंरक्षाबंधन पर शुभकामनाएँ! विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!