सदी के चेहरे पर क्रूर प्रताड़ना का लेप इतना गहरा है और उसके रंग इतने ज्यादा कि प्रिज़्म के रंगों में उन्हें व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. क्रूरता और अपमान ने कभी अपने चेहरे को एक आकार में नहीं ढाला. वह जब भी बुना गया उसके रूप बदले हुए दिखे. शब्दों के प्रतिरोध के मायने इतने कम होते गये कि बडे निहितार्थों वाले शब्दों को दीमक की जुबान चाट गयी. एक पूरा का पूरा तंत्र समानता, समता का ढोंग करता रहा और उत्पीड़न पूर्ववत जारी रहे. समानता और समता को तंत्र के मूल में रखकर एक मोटी पोथी तैयार हुई जो आज थोथी दिख रही है.
पूरे देश में दलित उत्पीड़न की अनगिनत घटनायें घटती हैं पर कितनी कम घटनायें हैं जिनकी ख़्बर हम तक पहुंच पाती है. पिछले कुछ वर्षों में हरियाना राज्य में दलितों पर हुए अत्याचारों को देखें तो पता चलता है कि मानवाधिकारों का कितने बेखौफ तरीके से मज़ाक उडाया गया है. राज्य में २० प्रतिशत जनसंख्या दलितों की है. पूरी राज्य मशीनरी पर अधिकांशतः सवर्णों का कब्जा है.यह कब्जेदारी महज़ नौकरियों और पदों तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि देखा जाय तो एक सांस्कृतिक संरचना का व्यक्ति जब सत्ता के किसी मशीनरी में में आता है तो वह अपने पारंपरिक रीतियों के साथ संस्थान में जीता है.
धर्म निरपेक्षता का ढोंग भले ही किया जाय पर देश की कोई ऎसी सरकारी ऑफिस नहीं है जो हिन्दू प्रतीकों, मूर्तियों कलेंडरों व देवी देवताओं से मुक्त हो. क्या देश की कानून व्यवस्था व संविधान की देख रेख करने वाली न्यायालयों की निगाह कभी इस बात पर गयी कि एक सार्वजनिक संस्थान में, धार्मिक कर्मकान्डों को बद किया जाना चाहिये व प्रतीकों को हटाया जाना चाहिये. इस रूप में पूरी मशीनरी यहाँ तक कि न्यायालय भी हिन्दूवादी मानसिकता से ग्रसित होकर काम कर रहे हैं. हिन्दू मानसिकता अपने मूल से जातीय वर्चस्व व विभेदीकरण के आधार पर काम करती रही है. हरियाणा राज्य में घट रही घटनायें इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं कि सत्ता मशीनरी व वर्चस्वशाली वर्ग किस तरह से एक होकर दलितों पर अत्याचार कर रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों में देखा जाय तो जमीदारों ने दलितों का खेतों में प्रवेश बंद कर दिया. झूठे मामले के तहत उन्हें जेलों में डाला जा रहा है. पानीपत के जुलना गाँव में गुर्जरों व जाटों द्वारा दलितों की पिटायी की गयी, कजरकरा गाँव में दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार जैसे कितने मामले हैं जो घट रहे हैं. आखिर यह प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ना वहाँ की सत्ता के मदद के बगैर कैसे संभव है. जबकि इस पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है.
झज्जर में २००२ में जब पाँच दलितों को पीट-पीट कर पुलिस चौकी के सामने ही जला दिया गया तो क्या यह वहाँ की पुलिस की मदद के बगैर संभव था. सरकारी संस्थाओं के ढांचे में जब किसी सवर्ण को लाया जाता है तो उसकी मानसिकता में बदलाव के लिये सांस्कृतिक स्तर पर प्रयास नहीं किया जाता. वे अपने सवर्णवादी समाज के ढांचे से आते हैं और ऊंच-नीच की भावना के साथ तंत्र में कार्य करते हैं. दलितों को जब जलाया गया तो राज्य एजेंसियों ने उसे यह कहते हुए सही ठहराया कि दलितों ने बहुसंख्यक की भावना को ठेस पहुंचाया है. जबकि मामला यह था कि दलितों ने मरी हुई गाय की खाल निकाली थी.
१० फरवरी २००३ को कैथल जिले में उच्च जाति के लोगों ने २७५ दलित परिवारों को गाँव से पीट-पीटकर इसलिये बाहर खदेड़ दिया क्योंकि ये दलित ११ फरवरी को गुरू रविदास की जयंती मनाना चाह रहे थे. सवर्ण इस जयंती मनाये जाने के खिलाफ थे. कुछ दिनों बाद जब वे लौटकर आये तो फिर से सवर्णों द्वारा जुलूस निकाल तांडव किया गया और दलितों को दुबारा गाँव छोड़ना पडा. कई महीने तक उन्हें बेघर होकर कैंपों में दिन गुजारने पडे. इसके बावजूद आरोपियों को गिरफ्तारी के बाद जल्द ही छोड़ दिया गया. इतने बडे जुल्म का यदि यही अंजाम हो तो जाहिराना तौर पर सवर्णों के हौसले बुलंद ही होंगे.
राज्य में दलित बडे पैमाने पर बंधुआ मजदूर बनने के लिये आज भी मजबूर हैं जबकि बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है. पर राज्य में यह सब बेमानी हो चुका है. कुछ वर्ष पहले ही एक बाल्मीक मजदूर को हुकुम सिंह नामक जमीदार ने ट्रैक्टर से कुचलकर इसलिये मार डाला क्योंकि वह बंधुआ मजदूरी की खिलाफत कर रहा था.
अब इस दमन चक्र को नया रूप देने का प्रयास किया जा रहा है जिसे कानूनी तौर पर जायज ठहराया जा सके. बीते दिनों २५ दलितों को माओवादी बताकर गिरफ्तार किया गया जिनमें तीन महिलायें भी शामिल हैं. इन्हें जेल में डाल दिया गया. आरोपी के रूप में करनाल जेल में बंद मुकेश कुमार नामक व्यक्ति के साथ जेल में जो बर्ताव किया गया वह अमानवीय है. मुकेश को जब जज अश्वनी मेहता के कोर्ट में लाया गया तो वह फफक पडा उसने अपने वकील के हवाले से एक पत्र लिखा जिसमे उसने बताया है कि दलित होने के कारण जेल प्रशासन के दो व्यक्तियों “ जोगिंदर सिंह, व “डांगी, द्वारा २२ जुलाई को पीटा गया, उससे शौचालय धुलवाये गये वदलित सूचक गालियाँ दी गयी. जब उसने इसका प्रतिरिध किया तो उसका सिर मुड़वा दिया गया और मूंछें काट दी गयी. प्रशासन द्वारा उसे इनकाउंटर में मारने की धमकी भी दी गयी. पर अभी तक न तो राष्ट्रीय मानवाधिकार और न ही दलित रक्षा करने वाली किसी संस्था ने इसकी खबर लेने का प्रयास किया.
राज्य में एक तरफ सामाजिक ढांचे से बहिस्कृत व प्रताडित किये जाने के बाद जब सत्ता तंत्र भी इस भेद-भाव को प्रश्रय देने लगे तो आखिर उनके सामने रास्ता क्या बचता है. इसकी क्या वज़ह है कि देश में आदिवासी और दलित ही माओवाद के नाम पर पकडे जा रहे हैं. प्रतिरोध की ताकत आज आदिवासियों और दलितों के बीच ही बची है क्योंकि वे झारखंड में आदिवासियों के नेतृत्व का शासन, उत्तर प्रदेश में मायावती का शासन भी देख चुके हैं. अब वे इस असमान ढांचे को तोड़, नया ढांचा बनाने के पक्ष में हैं.
पूरे देश में दलित उत्पीड़न की अनगिनत घटनायें घटती हैं पर कितनी कम घटनायें हैं जिनकी ख़्बर हम तक पहुंच पाती है. पिछले कुछ वर्षों में हरियाना राज्य में दलितों पर हुए अत्याचारों को देखें तो पता चलता है कि मानवाधिकारों का कितने बेखौफ तरीके से मज़ाक उडाया गया है. राज्य में २० प्रतिशत जनसंख्या दलितों की है. पूरी राज्य मशीनरी पर अधिकांशतः सवर्णों का कब्जा है.यह कब्जेदारी महज़ नौकरियों और पदों तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि देखा जाय तो एक सांस्कृतिक संरचना का व्यक्ति जब सत्ता के किसी मशीनरी में में आता है तो वह अपने पारंपरिक रीतियों के साथ संस्थान में जीता है.
धर्म निरपेक्षता का ढोंग भले ही किया जाय पर देश की कोई ऎसी सरकारी ऑफिस नहीं है जो हिन्दू प्रतीकों, मूर्तियों कलेंडरों व देवी देवताओं से मुक्त हो. क्या देश की कानून व्यवस्था व संविधान की देख रेख करने वाली न्यायालयों की निगाह कभी इस बात पर गयी कि एक सार्वजनिक संस्थान में, धार्मिक कर्मकान्डों को बद किया जाना चाहिये व प्रतीकों को हटाया जाना चाहिये. इस रूप में पूरी मशीनरी यहाँ तक कि न्यायालय भी हिन्दूवादी मानसिकता से ग्रसित होकर काम कर रहे हैं. हिन्दू मानसिकता अपने मूल से जातीय वर्चस्व व विभेदीकरण के आधार पर काम करती रही है. हरियाणा राज्य में घट रही घटनायें इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं कि सत्ता मशीनरी व वर्चस्वशाली वर्ग किस तरह से एक होकर दलितों पर अत्याचार कर रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों में देखा जाय तो जमीदारों ने दलितों का खेतों में प्रवेश बंद कर दिया. झूठे मामले के तहत उन्हें जेलों में डाला जा रहा है. पानीपत के जुलना गाँव में गुर्जरों व जाटों द्वारा दलितों की पिटायी की गयी, कजरकरा गाँव में दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार जैसे कितने मामले हैं जो घट रहे हैं. आखिर यह प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ना वहाँ की सत्ता के मदद के बगैर कैसे संभव है. जबकि इस पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है.
झज्जर में २००२ में जब पाँच दलितों को पीट-पीट कर पुलिस चौकी के सामने ही जला दिया गया तो क्या यह वहाँ की पुलिस की मदद के बगैर संभव था. सरकारी संस्थाओं के ढांचे में जब किसी सवर्ण को लाया जाता है तो उसकी मानसिकता में बदलाव के लिये सांस्कृतिक स्तर पर प्रयास नहीं किया जाता. वे अपने सवर्णवादी समाज के ढांचे से आते हैं और ऊंच-नीच की भावना के साथ तंत्र में कार्य करते हैं. दलितों को जब जलाया गया तो राज्य एजेंसियों ने उसे यह कहते हुए सही ठहराया कि दलितों ने बहुसंख्यक की भावना को ठेस पहुंचाया है. जबकि मामला यह था कि दलितों ने मरी हुई गाय की खाल निकाली थी.
१० फरवरी २००३ को कैथल जिले में उच्च जाति के लोगों ने २७५ दलित परिवारों को गाँव से पीट-पीटकर इसलिये बाहर खदेड़ दिया क्योंकि ये दलित ११ फरवरी को गुरू रविदास की जयंती मनाना चाह रहे थे. सवर्ण इस जयंती मनाये जाने के खिलाफ थे. कुछ दिनों बाद जब वे लौटकर आये तो फिर से सवर्णों द्वारा जुलूस निकाल तांडव किया गया और दलितों को दुबारा गाँव छोड़ना पडा. कई महीने तक उन्हें बेघर होकर कैंपों में दिन गुजारने पडे. इसके बावजूद आरोपियों को गिरफ्तारी के बाद जल्द ही छोड़ दिया गया. इतने बडे जुल्म का यदि यही अंजाम हो तो जाहिराना तौर पर सवर्णों के हौसले बुलंद ही होंगे.
राज्य में दलित बडे पैमाने पर बंधुआ मजदूर बनने के लिये आज भी मजबूर हैं जबकि बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है. पर राज्य में यह सब बेमानी हो चुका है. कुछ वर्ष पहले ही एक बाल्मीक मजदूर को हुकुम सिंह नामक जमीदार ने ट्रैक्टर से कुचलकर इसलिये मार डाला क्योंकि वह बंधुआ मजदूरी की खिलाफत कर रहा था.
अब इस दमन चक्र को नया रूप देने का प्रयास किया जा रहा है जिसे कानूनी तौर पर जायज ठहराया जा सके. बीते दिनों २५ दलितों को माओवादी बताकर गिरफ्तार किया गया जिनमें तीन महिलायें भी शामिल हैं. इन्हें जेल में डाल दिया गया. आरोपी के रूप में करनाल जेल में बंद मुकेश कुमार नामक व्यक्ति के साथ जेल में जो बर्ताव किया गया वह अमानवीय है. मुकेश को जब जज अश्वनी मेहता के कोर्ट में लाया गया तो वह फफक पडा उसने अपने वकील के हवाले से एक पत्र लिखा जिसमे उसने बताया है कि दलित होने के कारण जेल प्रशासन के दो व्यक्तियों “ जोगिंदर सिंह, व “डांगी, द्वारा २२ जुलाई को पीटा गया, उससे शौचालय धुलवाये गये वदलित सूचक गालियाँ दी गयी. जब उसने इसका प्रतिरिध किया तो उसका सिर मुड़वा दिया गया और मूंछें काट दी गयी. प्रशासन द्वारा उसे इनकाउंटर में मारने की धमकी भी दी गयी. पर अभी तक न तो राष्ट्रीय मानवाधिकार और न ही दलित रक्षा करने वाली किसी संस्था ने इसकी खबर लेने का प्रयास किया.
राज्य में एक तरफ सामाजिक ढांचे से बहिस्कृत व प्रताडित किये जाने के बाद जब सत्ता तंत्र भी इस भेद-भाव को प्रश्रय देने लगे तो आखिर उनके सामने रास्ता क्या बचता है. इसकी क्या वज़ह है कि देश में आदिवासी और दलित ही माओवाद के नाम पर पकडे जा रहे हैं. प्रतिरोध की ताकत आज आदिवासियों और दलितों के बीच ही बची है क्योंकि वे झारखंड में आदिवासियों के नेतृत्व का शासन, उत्तर प्रदेश में मायावती का शासन भी देख चुके हैं. अब वे इस असमान ढांचे को तोड़, नया ढांचा बनाने के पक्ष में हैं.
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