10 सितंबर 2008

समझदारॊं के लिये गीत


हवा का रुख कैसा है
हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों देते हैं
हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है
हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आज़ादी का मतलब समझते हैं
टटपुजिया नौकरीयों के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोजगारी अन्याय के तेज दर से बढ़ रही हो
हम आज़ादी और बेरोजगारी
दोनों के खतरे समझते हैं
हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं
यह भी हम समझते हैं
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं
अगर वो सिर्फ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़िया धसान होती है
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं
यह भी हम समझते हैं
विरोध ही वाजिब कदम है
हम समझते हैं
हम कदम-कदम पर समझौता करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क को गोलमटोल भाषा में पेश करते हैं
हम समझते हैं
हम इस गोलमटोल भाषा का
तर्क भी समझते हैं
वैसे हम अपने को किसी से कम नहीं समझते
हम स्याह को सफेद
सफेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफान खडा़ कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमजोर
और जनता समझदार हो
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नही कर सकते हैं
हम कुछ क्यों नहीं कर सकते हैं
ये भी हम समझते हैं. गोरख पाण्डेय

3 टिप्‍पणियां:

  1. लेकिन हम समझते हैं
    कि हम कुछ नही कर सकते हैं
    हम कुछ क्यों नहीं कर सकते हैं
    ये भी हम समझते हैं.
    "well said, ye geet smajedaron ke liye he hai, very well composed"

    Regards

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  2. बहुत उम्दा!!

    गोरख पाण्डे जी को पढ़वाने का आभार.

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  3. is kavita ka sheershak samaajhdaron ke liye geet nahin balki samajhdaron ka geet hai

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