26 अप्रैल 2008
नजरिया : डॉ. विनायक सेन का मुकदमा पर्दे के पीछे क्यों
भारत के आदिवासी इलाकों की कहानी लूट और ध्वंस की शर्मनाक दास्तान है। राज्य सरकारों ने कंपनियों के साथ मिलकर आदिवासियों को बदलने के नाम पर इस पैमाने पर अपनी जगहों से बेदखल किया है, उसका जोड़ मिलना मुश्किल होगा, पिछले दो दशक तो और भी मुश्किल रहे हैं, क्योंकि विदेशी और देशी कंपनियों की निगाहें खनिज संपदा से भरपूर इनके इलाकों पर गड़ गई हैं। ताज्जुब नहीं कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड से लेकर केरल तक के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सबसे ज्यादा अशांति है। वहां सरकार की मदद से कंपनियां आदिवासियों और अन्य ग्रामीणों को बेदखल करने की कोशिश में लगी हैं और उन्हें प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। चूंकि संसदीय प्रणाली में काम करने वाले लगभग सभी दलों ने विकास के इस रास्ते पर कोई गंभीर सवाल नहीं खड़ा किया है, लूटी जा रही जनता के पास शायद हिंसक भाषा के अलावा और कोई चारा छोड़ा नहीं गया है। माआ॓वादी राजनीति के इन इलाकों में जड़ जमाने की यह बड़ी वजह है।
डॉक्टर विनायक सेन ने यह भी देखा कि सरकार माआ॓वाद से लड़ने के नाम पर संविधान द्वारा नागरिकों को दिए सारे अधिकारों का उल्लंघन कर रही है। मुठभेड़ों के नाम पर हत्या, फर्जी मामलों में फंसा कर लोगों को जेल में डालना, लोगों को पुलिस से घेर कर कागजों पर जबरन उनके दस्तखत लेकर उनकी बेदखली छत्तीसगढ़ के लिए आम बात थी। डॉ. सेन ने एक सच्चे जनता के डॉक्टर की तरह इनकी सचाई बताना शुरू किया। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में पहचाने जाने लगे। उन्होंने यह भी कहा कि जिन नक्सलवादियों या माआ॓वादियों को गिरफ्तार किया जाता है, उनके संवैधानिक अधिकार स्थगित नहीं हो जाते। उन्हें इंसाफ की प्रक्रिया में पूरे अधिकार के साथ शामिल होने का हक है, इसलिए बूढ़े माआ॓वादी नेता नारायण सान्याल की गिरफ्तारी के दौरान डॉ. सेन ने उनकी सेहत की देखभाल का जिम्मा अपने ऊपर लिया।
महाराष्ट्र के खैरलांजी में 2006 में दलित परिवार की हत्या की जांच भी उन्होंने की। इसके लिए वे नागपुर गए। पुलिस ने अदालत को बताया कि डॉ. सेन दरअसल, वहां माआ॓वादियों के प्रशिक्षण के लिए गए थे। उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार के वकील ने डॉ. सेन की जमानत की अर्जी नामंजूर करने के लिए दलील देते हुए उन्हें माआ॓वादी दल निकाय का सदस्य बताया, जो सफेद झूठ था। जो लोग यह बहस सुन रहे थे, इस झूठ पर हैरान रह गए। अदालत ने भी यह जरूरी नहीं समझा कि एक बार कागजात की ही जांच कर ली जाए। नतीजा यह है कि डॉ. सेन की जिंदगी का एक साल जेल के पीछे गुजर गया।
डॉ. सेन का मुकदमा भारतीय लोकतंत्र के लिए अहम है। क्या हम उसे उतना ही महत्व दे रहे हैं? क्या खुद उच्चतम न्यायालय को उनके मामले को दुबारा सुनना नहीं चाहिए, जब अभी खुद उसने यह कहा है कि सरकार सलवा जुडूम के नाम पर लोगों को हथियारबंद करके हत्या के लिए उकसावा नहीं दे सकती? क्या यही बात डॉ. सेन पिछले कुछ बरसों से नहीं कह रहे हैं, जिसके चलते उन पर राजद्रोही होने का आरोप लगाया गया है?
यह एक और पुरस्कार है, जिसके लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पुरस्कृत व्यक्ति को फोन करना चाहिए और राष्ट्र की तरफ से उन्हें शुक्रिया और बधाई देनी चाहिए। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें रायपुर जेल में फोन मिलाना होगा, क्योंकि डॉक्टर बिनायक सेन पिछले एक साल से राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलग्न होने और राज्य के विरूद्ध युद्ध छेड़ने के आरोप में इस जेल में बंद हैं। डॉक्टर बिनायक सेन को 2008 का अंतरराष्ट्रीय जोनाथन मान पुरस्कार दिया गया है। यह पुरस्कार एक सौ चालीस देशों में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं और पेशेवर लोगों की सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय संस्था 'ग्लोबल हेल्थ काउंसिल' की आ॓र से दिया गया है और डॉक्टर सेन पहले दक्षिण एशियाई हैं, जिन्हें यह सम्मान मिला है। काउंसिल ने पुरस्कार की घोषणा में कहा है कि यह सम्मान डॉक्टर सेन को भारत के आदिवासियों और गरीबों की बरसों की सेवा को ध्यान में रखते हुए दिया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने ऐसे इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएं स्थापित करने का काम किया, जहां कुछ भी नहीं था।
डॉक्टर सेन का चुनाव एक अंतरराष्ट्रीय जूरी ने किया है, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार का मानना तो यह है कि डॉक्टर सेन डॉक्टर हैं ही नहीं और वे डॉक्टरी का कोई काम करते हैं, ऐसा कोई प्रमाण उनके घर से बेचारी छत्तीसगढ़ की पुलिस को नहीं मिल पाया है! यह बात डॉक्टर सेन को पिछले साल चौदह मई को गिरफ्तार करने के बाद राज्य की पुलिस की आ॓र से उनके खिलाफ दायर आरोप पत्र में कही गई। इस तथ्य का न तो पुलिस के लिए और अदालत के लिए कोई अर्थ था कि वे पिछले तीन दशकों से दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविघालय की अपनी नौकरी छोड़ कर छत्तीसगढ़ के ढल्ली राजहरा, धमतरी इलाके में आदिवासियों और ग्रामीणों के स्वास्थ्य के लिए काम करते रहे हैं। उन्होंने कोई नर्सिंग होम नहीं बनाया और न डॉक्टरी की फीस वसूल कर कोई कोठी बनाई, जो भारत जैसे गरीबों के मुल्क में ही डॉक्टरों के लिए संभव है।
डॉ. सेन जब आदिवासियों की जिंदगी में शामिल हुए, तो उन्होंने जाना कि इनकी बीमारी स्थाई है क्योंकि उसकी जड़ें इनकी गरीबी में छिपी है। गांव-गांव घूम कर इलाज करने के दौरान उन्होंने यह भी समझा कि इनकी गरीबी इनके पिछड़ेपन के कारण नहीं, बल्कि इस वजह से है कि अपने आपको सभ्य कहने वाले समाज ने इनके पारंपरिक संसाधनों पर कब्जा करना और उसे हड़पना शुरू कर दिया है। आदिवासियों के जंगल में रहने के हक, वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर उनके अधिकार के मसलों को अलग करके उनके स्वास्थ्य की गारंटी करना मुमकिन नहीं। इसलिए डॉ. सेन ने इस मुद्दों पर बात करना शुरू किया।
वर्ल्ड हैल्थ काउंसिल ने प्रधानमंत्री को खत लिख कर कहा है कि पूरा संसार डॉ. सेन के मुकदमे को गौर से देख रहा है। यह भी देखा जा रहा है कि ट्रायल कोर्ट ने एक अजीबोगरीब हुक्म जारी किया है कि डॉ. सेन के मुकदमे को सबके लिए खुला नहीं रखा जाएगा। उनके प्रतिनिधि को एक हफ्ता पहले अपना नाम देना होगा और वही अदालत में खड़ा हो सकेगा।
न्याय-प्रक्रिया की बुनियाद है- पारदर्शिता। अगर माआ॓वाद का आतंक खड़ा करके सरकार इसका भी उल्लंघन करेगी, तो जनता के लिए वे यह संदेश दे रही होगी कि इंसाफ का हर रास्ता बंद है।
अपूर्वानंद
22 अप्रैल 2008
भारतीय अंचल के धूसर रंगों का चित्रकार :-
गांव और गरीबी मुम्बई से नहीं दिखती न ही काला हांडी, न बस्तर, न विदर्भ, और न मुम्बई की बम्बई कुछ भी तो नहीं दिखता आज की मुम्बईया फिल्मों में जो सत्यजीत रे की निगांहों ने देखा और पर्दे पर उतारा . हाशिये के रेयाज भाई का सत्यजीत रे की फिल्मों पर लिखा एक आलेख हम प्रकाशित कर रहे हैं.
एक बार फिर दुर्गा और अपु को याद करें, उस समय जब वे कास के पौधों के बीच भाग रहे थे. याद करें उनका टेलीफोन के बजते तारों को सुनना. उनकी चकित-विस्मित भंगिमा. उनकी आपसी नाराजगी और उसके बीच घुली ईख की मिठास. और तभी कास के फूलों के उस पार धुआं छोडती, धडधडाती रेलगाडी गुजरती है. दोनों पहली बार ट्रेन देखते हैं. हवा में एक तीखी सीटी गूंजती है. कैमरा अपु और दुर्गा के पीछे से हट कर पटरी की दूसरी तरफ चला जाता है और भागती हुई ट्रेन के पहियों के अंतराल में से दिखते हैं अपु और दुर्गा. यह दृश्य विश्व सिनेमा के इतिहास में कभी न भुलाये जा सकनेवाले दृश्यों में से एक है.
जब भी पाथेर पांचाली देखा है, लिंडसे एंडरसन की तरह घुटनों तक भर आयी धूल को महसूस किया है. आधी सदी से अधिक समय गुजरने के बाद यह धूल और गाढी हुई है.
सत्यजीत राय को गरीबी का कलाकार कहा गया. उन्होंने अपनी फिल्मों में भारतीय समाज के रेशे-रेश में पैठी गरीबी और विपन्नता को जिस तरह, जिस दौर में, जिन अभावों के बीच प्रस्तुत किया, वह कल्पना से परे की बात लगती है.
स्कूली दिनों से ही सत्यजीत राय के भीतर फिल्मों ने अपनी जगह बना ली थी. वे जब प्रेसीडेंसी कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद शांतिनिकेतन में रह कर पेंटिंग की शिक्षा ले रहे थे, इस बात पर अफसोस कर रहे थे कि वहां उन्हें हॉलीवुड की फिल्में देखने को नहीं मिल रही हैं और सिटीजन केन जैसी फिल्म कलकत्ता में लग कर निकल चुकी और वे उसे नहीं देख पाये. हालांकि शांतिनिकेतन में उनके गुरु नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय जैसे प्रख्यात चित्रकार थे, उनका मन पश्चिमी संगीत सुनने में अधिक लगता और वे अंगरेजी के एक अध्यापक के यहां संगीत सुनते हुए शामें गुजारना अधिक पसंद करते.
१९४२ में सत्यजीत राय ने शांतिनिकेतन छोडने का फैसला कर लिया और वे उस दिन शांतिनिकेतन से निकल आये, जिस दिन कलकत्ता पर जापान ने पहली बार बमबारी की थी. इसके बाद सत्यजीत राय ने एक विज्ञापन एजेंसी में ग्राफिक्स डिजाइनर के रूप में नौकरी पायी. इस ब्रिटिश कंपनी में काम करने के अलावा वे किताबों के लिए रेखांकन और उनके आवरण बनाने का काम भी करते. यहीं पाथेर पांचली पहली बार उनके कलाकर्म में दाखिल हुई, जब उन्होंने उसके एक संक्षिप्त संस्करण के लिए आवरण बनाया.
सत्यजीत राय ने फिल्मों पर किताबें पढना भी शुरू कर दिया था. वे बांग्ला में पारसी थिएटर के तर्ज पर बन रही मेलोड्रामा फिल्मों से खीझे हुए रहते. १९४४ में उन्होंने रोजर मानवेल की किताब 'फिल्म' पढ ली थी और उन्हें हॉलीवुड तथा दूसरे देशों की फिल्मों को देखे-दिखाये जाने की जरूरत महसूस हो रही थी. अपने कुछ मित्रों के साथ उन्होंने एक फिल्म सोसायटी बनाने की बात सोची और १९४७ में कलकत्ता फिल्म सोसायटी की स्थापना की गयी. इस सोसायटी ने कलकत्ता में गंभीर सिने प्रेमियों का पहली बार विश्व के श्रेष्ठतम कहे जानेवाले सिनेमा से परिचय कराया. उन दिनों सोसायटी में सेर्गेइ आइजेंस्टाइन, पुदोव्स्की, रॉबर्ट फ्लेहार्टी, जॉन ग्रियरसन, मार्शल कार्न, ज्यूलियन दुविविअर की फिल्में दिखायी जातीं. विश्व की सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ मानी जानीवाली आइजेंस्टाइन की बैटलशिप पोटेमकिन, स्ट्राइक, जनरल लाइन और अलेक्जेंडर नेव्स्की तथा पुदोव्स्की की स्टार्म ओवर एशिया जैसी फिल्मों का प्रदर्शन हुआ. सोसायटी में आनेवालों में ज्यां रेनोइर, पुदोव्किन, निकोलाई चेरकासोव और जॉन हस्टन जैसी महत्वपूर्ण हस्तियां थीं.
१९४८-४९ के आसपास ज्यां रेनोइर अपनी फिल्म द रिवर की शूटिंग के लिए कलकत्ता आये. सत्यजित राय उनसे मिले और इसी फिल्म के सेट पर राय की मुलाकात एक २१ वर्षीय फोटोग्राफर सुब्रत मित्रा से हुई. सुब्रत एक स्टिल फोटोग्राफर थे और उनकी खींची कुछ तसवीरें देखने के बाद सत्यजीत राय ने उन्हें एक अजीब-सा प्रस्ताव दिया. उन्होंने मित्रा से कहा कि वे राय की फिल्म में -जिसे वे भविष्य में बनायेंगे- सिनेमेटोग्राफर बन जायें.
और इस तरह अब तक एक फुट भी फिल्म शूट नहीं करनेवाले मित्रा उस फिल्म के सिनेमेटोग्राफर बन गये, जो विश्व सिनेमा में मील का पत्थर बननेवाली थी, जो फिल्म निर्देशन और फिल्मांकन का अपने आप में एक स्कूल है.
लेकिन अभी पाथेर पांचाली की शुरुआत नहीं हुई थी.
राय जिस कंपनी में काम करते थे, १९५० में उसने उनका तबादला लंदन स्थित अपने मुख्यालय में कर दिया. लंदन में अपने छह महीनों के प्रवास के दौरान राय ने ९९ फिल्में देखीं. इनमें रेनोइर की लॉ रीगल डू जिया और प्रख्यात इतालवी निर्देशक वेट्टेरियो डिसिका की मशहूर फिल्म बाइसिकल थीव्स शामिल थी.
लंदन से लौटते वक्त उन्होंने जहाज पर ही पाथेर पांचाली की पटकथा लिखनी शुरू कर दी.
राय ने अपनी पहली लंदन यात्रा से बहुत कुछ सीखा. फिल्मों में दृश्यों को प्रभावशाली बनाने के लिए रेनोइर की तरह अभिव्यिक्ति का अर्थशास्त्र और उसकी कला, समय का उपयोग और कथ्य को ऊंचाई देने के लिए विवरणों की जरूरत सीखी. उन्होंने यह सीखा कि छोटी-सी लगनेवाली कहानी को डिसिका की तरह समृद्ध कथा संदर्भों और सांस्कृतिक अनुपूरकों के जरिये किस तरह सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया जा सकता है.
१९५२ में उन्होंने अपनी कंपनी से कुछ महीनों की छुट्टी ली और पाथेर पांचाली पर काम शुरू किया.
जब फिल्म की पटकथा पूरी हो चुकी थी, संवाद लिख लिये गये थे और पटकथा से लेकर संगीत और कैमरे की पोजीशन तक की बातें तय कर ली गयी थीं, राय के मित्रों ने उनसे यह फिल्म नहीं बनाने को कहा. उन्हें विश्वास नहीं था कि राय जिस तरह की फिल्म चाहते हैं उसे बनाना संभव है, खास तौर पर उसे बनाने के लिए जितने संसाधन उनके पास हैं, उनमें तो और भी नहीं. लेकिन राय उनसे सहमत नहीं थे.
पाथेर पांचाली की शूटिंग शुरू हुई, एक ऐसी फिल्म, जिसका अधिकतर हिस्सा आउटडोर में शूट होना था, बिना अनुभवी कलाकारों के, बिना मेकअप के. पाथेर पांचाली की पूरी यूनिट अनुभवहीन लोगों की थी. किसी को भी सिनेमा का अनुभव नहीं था. खुद सिनेमेटोग्राफर वास्तव में एक फोटोग्राफर था. संपादक ने इसके पूर्व सिर्फ एक फिल्म कट की थी. मुख्य नारी पात्र सर्वजया (करुणा बनर्जी) वास्तव में राय के एक एक्जीक्यूटिव मित्र की पत्नी थी. अपु और दुर्गा की भूमिकाओंवाले बच्चों को भी अभिनय का अनुभव नहीं था. सिर्फ इंदिर ठाकरुन की भूमिका निभा रहीं ८० साल की चुनीबाला देवी ही ऐसी कलाकार थीं, जो दशकों पूर्व कभी अभिनय कर चुकी थीं और अब रेड लाइट एरिया से आती थीं. यहां तक कि खुद निर्देशक की यह पहली फिल्म थी और ग्राम्य जीवन पर आधारित इस फिल्म के इस निर्देशक को गांवों के बारे में सिर्फ उतना ही पता था, जितना इस फिल्म की पटकथा बताती थी. इसे सत्यजीत राय ने स्वीकारा है कि उनकी पूरी यूनिट ने फिल्में देख कर और पाथेर पांचाली की शूटिंग के दौरान फिल्म निर्माण के बारे में सीखा.
फिल्म की शूटिंग पूरी होने में ढाई साल लग गये. शूटिंग सप्ताहांत में और आउटडोर लोकेशन पर होती. इस पूरी अवधि में यूनिट को दो बातों का डर लगा रहा. एक तो यह कि अपु और दुर्गा की भूमिकाएं निभा रहे बच्चे बडे न दिखने लग जायें और दूसरा यह कि चुनीबाला देवी की मृत्यु न हो जाये. हालांकि ऐसा हुआ नहीं.
फिल्म का संपादन १० दिनों में हुआ, इनमें रातें भी शामिल हैं. जल्दबाजी की एक वजह थी. अमेरिका के मुनरो ह्वील ने न्यूयार्क म्यूजियम ऑफ माडर्न आर्ट में भारतीय संस्कृति पर एक आयोजन किया था और उस दौरान इस फिल्म का विशेष प्रदर्शन भी होना था. जैसे-तैसे कट किया गया और बिना सबटाइटल के यह बांग्ला फिल्म मई, १९५५ में अमेरिका भेजी गयी. कहने की जरूरत नहीं कि इस फिल्म ने वहां के लोगों को इस विद्रूपताओं से भरे भारतीय यथार्थ पर उद्वेलित किया.
पाथेर पांचाली भारतीय विपन्नता की पहली वैश्विक चीख थी. यह आलोकधन्वा की कविता पंक्तियों की मदद से कहा जाये तो विलासिता और मनोरंजन की दुनिया में अचानक आ घुसे करोडों विपन्न लोगों के अश्लील उत्पात की तरह थी. यह उनकी मुक्ति के लिए आर्तनाद थी. इसकी मौजूदगी का अहसास उतना कहीं और नहीं होता जितना पलायन कर रहे परिवार के साथ पार्श्व में बजते संगीत को सुनते हुए होता है.
पाथेर पांचाली के पहले भारत की गरीबी को इतनी विश्वसनीयता और अंतरंगता से कभी नहीं देखा गया था. यह फिल्म अपने दर्शकों को-जो प्रायः उच्च वर्ग और मध्यवर्ग से आते थे-बताती थी कि दुनिया में दूसरी तरह के लोग भी रहते हैं और यह कि वे किस तरह जीते हैं. पाथेर पांचाली अपने उेश्य में इतनी सफल रही कि अमेरिका में इसके एक प्रदर्शन के दौरान कुछ लोग यह कहते हुए उठ कर चले गये कि वे लोगों को हाथ से खाते नहीं देख सकते.
पाथेर पांचाली ने नयी सिने भाषा और नयी सिने संभावना दी-जिसमें गीत, नृत्य और रोमांस के बिना भी फिल्में बनायी जा सकती थीं. पाथेर पांचाली ने इसी के साथ एक और बडा काम किया-उसने दूसरी भारतीय कलाओं जितनी ऊंचाई और उत्कृष्टता सिनेमा को दी.
किसी ने ऐसा पहले कभी नहीं देखा था-धान के खेत, नरकुल के जंगल, कास के दूर-दूर तक फैले पौधे, पास आती ट्रेन की सीटी, काई से ढंके तालाब का धब्बेदार शीशे जैसा दृश्य, पोपले मुंह और झुकी कमरवाली एक वृद्धा का अभिनय और गरीबी से त्रस्त एक नारी की कटुता और अपने बच्चों का जीवन बचाने की उसकी कोशिशें. यह सब सिनेमा के क्षेत्र में पहली बार घट रहा था और कलकत्ता इसके लिए संभवतः अभी तैयार नहीं था.
पाथेर पांचाली को शुरू के दो-तीन हफ्तों तक दर्शक ही नहीं मिले और तब तक नहीं मिले जब तक कलकत्तावासियों को विदेशों से आ रही फिल्म को लेकर प्रशंसात्मक खबरें नहीं मिलने लगीं. इसके बाद तो यह फिल्म कलकत्ता में १३ हफ्तों तक चली. इसने पहली बार बंगाली सिनेमा को पारसी थिएटर के प्रभाव से, जात्रा से और मेलोड्रामा से मुक्त किया.
बाद के दिनों में फेलिनी और बर्गमेन से अपनी तुलना किये जाने और लगातार उनकी ही तरह उच्च सौंदर्यशास्त्रीय मानकों को बनाये रखने में अक्षम रहने के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए राय ने कहा था कि फेलिनी और बर्गमेन को जैसे दर्शक मिले थे, वैसे मुझे नहीं. उनका कहना था-मैं जब फिल्म बना रहा होता हूं, तो पश्चिमी दर्शकों के बारे में नहीं सोचता. मैं अपने बंगाली दर्शकों को ध्यान में रखता हूं. मैं उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश कर रहा हूं और इसे करने में मैं सफल रहा हूं....आपको उन्हें धीरे-धीरे अपने साथ लाना होगा. अगर कभी आप कंचनजंघा या अरण्येर दिन रात्रि की तरह छलांग लगायेंगे तो उन्हें खो देंगे....मैं उस तरह नहीं कर सकता जिस तरह बर्गमेन और फेलिनी ने किया. आप पायेंगे कि (बंगाल में) निर्देशक कितने पिछडे, कितने मूर्ख हैं, घटिया हैं और आप इस पर मुश्किल से भरोसा करेंगे कि उनकी फिल्में मेरी फिल्मों के साथ रख दी जाती हैं.'
सच में, राय की यह दिक्कत थी और इसका उन्होंने हमेशा ध्यान रखा.
राय की फिल्मों का विस्तार और उनका कैचमेंट एरिया कितना व्यापक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने समय के लगभग हर संभव विषय पर फिल्म बनायी. गांवों के जीवन पर उन्होंने पाथेर पांचाली, सद्गति और अशनि संकेत बनायी. मध्यवर्गीय जीवन पर महानगर और अरण्येर दिन रात्रि, उच्च वर्ग पर कंचनजंघा और घरे-बाइरे बनायी. अशिक्षित मजदूर वर्ग पर वे पोस्टमास्टर और सद्गति के साथ आये. अभियान और गणशत्रु, कलकत्ता के जीवन पर प्रतिद्वंद्वी और जन अरण्य, सुदूर अतीत पर देवी और चारूलता, जीवन में अतीत की स्मृतियों पर अपुर संसार और जलसाघर, तात्कालिक वर्तमान पर शाखा प्रशाखा और आगंतुक छोटे शहरी जीवन पर उनकी फिल्में हैं. उन्होंने एक ओर जहां पाथेर पांचाली और चारूलता जैसी करुण कथाओं को परदे पर प्रस्तुत किया तो पारस पत्थर और कापुरुष ओ महापुरुष जैसी शुद्ध कॉमेडी भी बनायी. इसी के साथ गोपी गाइन बाघा बाइन और हीरक राजार देशे जैसी फैेंटेसी भी रची. उन्होंने सोनार केल्ला और जय बाबा फेलूनाथ जैसी जासूसी कहानियों पर भी फिल्में बनायीं.
सत्यजीत राय में फिल्म निर्माण को लेकर उन्माद की हद तक उत्कृष्टता का आग्रह था. एक ही फिल्म में वे कला, बौद्धिकता, कारोबार, राजनीति, धर्म को इस तरह प्रस्तुत करते हैं और जटिल से जटिल दृश्यों की रचना करते हैं, त्रासदी से लेकर हास्य तक की स्थितियां पैदा करते हैं कि फिल्म अपने कथ्य का एक जीवंत संदर्भ ग्रंथ लगने लगती है. हर बार लगता है कि वे पूरी दुनिया के लिए और खुद अपने लिए भी लंबी और फिर एक और लंबी लकीर खींचते चले जा रहे हों. उनके समय के सभी महान फिल्मकार जल्दी ही चुक गये. डिसिका, रेने क्लेयर, विलिस, कुरासोवा, इसिकावा, कोबामाशी-सभी कुछेक फिल्में बनाने के बाद ही सिने परिदृश्य से ओझल होते गये. लेकिन सत्यजीत राय ने लंबे समय तक-लगभग चार दशकों तक-फिल्में बनायीं और उन्हें अंत तक नजरअंदाज नहीं किया जा सका. राय अपनी फिल्मों में बंगाली संस्कृति के इस कदर घुले-मिले होने के बावजूद एक सार्वभौमिक अपील लेकर प्रस्तुत होते हैं.
राय ने कभी विदेशी दर्शकों को ध्यान में रख कर कोई फिल्म नहीं बनायी बल्कि वे इस मानसिकता की आलोचना ही करते रहे कि भारतीय फिल्मकार पूरब के प्रति पश्चिम के आकर्षण की दलाली करने में लग जायें. और इसीलिए वे इतनी बेहतरीन फिल्में बना पाये, जो भारत की और खास कर बंगाली समाज की एक ही साथ जडता को और उसके टूटन को, उसकी आकांक्षा को और उसके अंतद्वंद्व को प्रदर्शित कर पाये.
राय पूरी दुनिया में स्वीकारे गये और राय ने पूरी दुनिया को स्वीकार किया. उन्होंने नव यथार्थवादी सिनेमा की वैश्विक परंपरा में खुद शामिल किया और उसकी जमीन पर बंगाली संस्कृति को रूपायित किया. जब पहली बार उन्होंने बाइसिकल थीव्स देखी थी, उन्होंने तय किया कि जब वे पाथेर पांचाली बनायेंगे तो उसे ठीक इसी तरह बनायेंगे. लेकिन राय की संश्लेषणात्मक क्षमता कितनी समृद्ध थी, इसका अंदाजा लगाने के लिए बाइसिकल थीव्स और पाथेर पांचाली को एक बार फिर एक साथ देखा जा सकता है. उनमें क्या समानता हैङ्क्ष
एक भी समानता नहीं, सिवाय इसके कि दोनों वास्तविक लोकेशनों पर बनायी गयी हैं और दोनों के कलाकार एकदम अनजान लोग हैं.
सत्यजीत राय ने फिल्म निर्माण का क्रमशः पूरा काम खुद अपने ऊपर ले लिया. पटकथाएं तो वे लिखते ही थे, कॉस्टूम और सेट निर्माण में भी उनकी मुख्य भूमिका रहती. वे छोटे विवरणों तक पर बारीकी से ध्यान देते. शूटिंग के दौरान कैमरा भी खुद ही चलाते और खुद हरेक फ्रेम को संपादित करते. उन्होंने अपनी अधिकतर फिल्मों का संगीत भी खुद ही कंपोज और रिकार्ड किया है. ऐसा वे न सिर्फ अपना बजट कम रखने के लिए करते, बल्कि वे यह चाहते थे कि उनकी फिल्म पूरी तरह उनकी हो.
राय ने अपने प्रस्तुति कौशल में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं किये. इसलिए उनकी फिल्में चौंकाती नहीं हैं, बल्कि वे परिवेश के स्तर पर बहुत जानी-पहचानी लगती हैं. लेकिन प्रस्तुति के स्तर पर वे एकदम नयापन लिये हुए होती हैं. उनका काम हमेशा परिपूर्ण होता. उनकी फिल्में प्रायः एक कसे हुए उपन्यास या कविता की तरह हैं, बहुत कुछ महाकाव्यात्मक उपन्यास की तरह. उनकी फिल्में देखते हुए फणीश्वरनाथ रेणु, शोलोखोव या गोपीनाथ महांती के उपन्यास याद आ जाते हैं. ताराशंकर वंद्योपाध्याय भी उनमें से एक हैं और सत्यजीत राय ने उनकी कहानी जलसाघर पर फिल्म भी बनायी.
प्रायः सत्यजीत राय में दर्शकों को किसी युक्ति या घटना से चकित करने की प्रवृत्ति नहीं मिलती. घटनाएं उनके यहां एक प्रक्रिया के बतौर आती हैं और इसलिए दर्शक प्रायः यह समझ लेता है कि आगे क्या होनेवाला है. पाथेर पांचाली में जब इंदिर ठाकरुन सर्वजया से अंतिम बार सुलह की कोशिश करती है और नाकाम रहती है तथा बेहद हताश कदमों से फ्रेम से बाहर जाती हुई दिखती है, दर्शक के लिए यह यकीन कर पाना बेहद मुश्किल होता है कि अब इंदिर ठाकरुन किसी फ्रेम में दोबारा बोलती हुई दिखेगी.
इसी तरह घरे बाइरे के अंतिम हिस्से में, जब विमला के मना करने के बावजूद निखिलेश्वर घोडे पर बैठ दंगाग्रस्त गांवों की ओर चला जाता है और विमला खिडकी के पास खडी दिखती है, हम यह सोचने के लिए कोई आधार नहीं पाते कि निखिलेश्वर अब लौट भी पायेगा. यहां तक कि इसी फिल्म में जब संदीप पहली बार विमला का चुंबन लेता है, तब भी दर्शक नहीं चौंकते. वह अपने प्रवाह में बेहद स्वाभाविक लगता है.
ऐसा करना सत्यजीत राय को नाटकीय और अतार्किक होने से दूर ले जाता है. वे घटना को विकसित होने और स्थापित होने के लिए उसे पूरा समय देते हैं. हर बार वे प्रक्रिया को पूरी होने देते हैं, उसे बीच से काटते नहीं. पाथेर पांचाली के अंत में जब अपु दुर्गा की पुरानी चीजों में वह माला पाता है, जिसकी चोरी के आरोप में कभी दुर्गा ने बहुत मार खायी थी, लेकिन दुर्गा ने चोरी को कभी स्वीकार नहीं किया था. अपु अपनी मृत बहन का सम्मान बचाये रखने के लिए उसे तालाब में फेंक देता है. माला डूबने के बहुत देर बाद तक कैमरा वहां स्थिर रहता है जहां से माला पानी के भीतर गयी है. दर्शक (और अपु भी) कई सेकेंडों तक पानी को स्थिर होती काई को फिर से आपस में मिलते देखते हैं.
हालांकि घरे बाइरे के तीनों चुंबन दृश्य भी कुल मिला कर चौंकानेवाले ही हैं, इस अर्थ में कि सत्यजीत राय के यहां वे पहली बार घटित होते हैं. सत्यजीत राय प्रायः अंतरंग दृश्यों से बचते रहे हैं. इसलिए घरे बाइरे के ये दृश्य वास्तव में थोडी देर के लिए चकित कर देते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से ये सत्यजीत राय की किसी भी फिल्म के सबसे कमजोर दृश्य भी हैं. ये न सिर्फ फिल्म की गति से मेल नहीं खाते, बल्कि सत्यजीत राय की अपनी स्वाभाविक गति और वर्णनशैली से मेल नहीं खाते और असहज लगते हैं.
सत्यजीत राय ने कभी अकेले संवादों को उतनी अहमियत नहीं दी, जितनी दूसरे फिल्मकार देते हैं. उनके संवाद पूरे दृश्यबंध के साथ जुडे होते हैं-उन्हें अभिनय, वातावरण, संगीत और प्रकाश के साथ संगत करनी होती है. इस क्रम में कई बार वे अधूरे भी छोड दिये जाते और कहने की जरूरत नहीं कि वे तब और अधिक प्रभावशाली हो जाते है. पाथेर पांचाली और अभियान से दो दृश्य. हरिहर लौटने पर एक साडी सर्वजया को देने की कोशिश करता है और बताता है कि यह दुर्गा के लिए है, सर्वजया की पीडा का मानो विस्फोट हो जाता है. इसके बाद कोई संवाद नहीं है. होंठ हिलते हैं, लेकिन सुनाई सिर्फ संगीत पडता है. हरिहर के लिए यह स्पष्ट हो जाता है कि दुर्गा नहीं रही. उस दृश्य को बार-बार देखा जा सकता है, जब हरिहर दुर्गा की मृत्यु की खबर की पीडा से परिचित हो रहा है. वह आधी ऊंचाई तक उठता है और फिर बैठ जाता है. लगभग आधी गति से चलती फिल्म के दौरान यह यह दृश्य इतना प्रभावकारी है कि यह आपको बिना विचलित किये नहीं रह सकता. राय अपनी आगे की किसी भी फिल्म में ऐसा दृश्य नहीं रच पाये.
इसी तरह अपराजितो का युवा नायक जब अपनी मां को देहात में छोड कर पढाई के लिए कलकत्ता जाने लगता है तो भावनाएं इतनी सघन हो जाती हैं कि दर्शक सत्यजीत राय की भावनाओं की नदी में खुद को डूबता हुआ महसूस करते हैं. हम राय से उदास होना सीखते हैं और खुश होना भी. वे हमें संस्कारित करते हैं.
दूसरा उदाहरण अभियान से. टैक्सी चालक नरसिंह एक ईसाई युवती नीली से प्यार करता है, लेकिन नीली एक ईसाई पादरी से प्यार करती है और यह बात नरसिंह नहीं जानता. जब नीली पढाई जारी रखने और शादी के लिए उस पादरी युवक के साथ कलकत्ता भागने में नरसिंह से मदद मांगती है, तो वह अवाक रह जाता है. उसके अंदर बहुत कुछ टूटता है, जो उतने अंधेरे में किसी दूसरे फिल्मकार के यहां दिखायी नहीं भी दे सकता था, लेकिन सत्यजीत राय इसे इस तरह दिखाते हैं कि कुछ भी नही बचता. नीली के संवादों को ओवरलैप करता हुआ और उन्हें अधूरा छोडता हुआ सत्यजीत राय का संगीत दृश्य पर छा जाता है और उसमें हम उस टैक्सी ड्राइवर की वेदना को महसूस करते हैं, जो उस ईसाई युवती से अंगरेजी सीखना चाहता था और चाहता था कि नीली उसका और अपना नाम एक दीवार पर लिख जाये.
सत्यजीत राय की सिनेयुक्तियां जितनी संप्रेषणीय हैं, उतनी ही जटिल भी. बल्कि जहां वे जटिल हैं, वहीं बहुत सहज हो पायी हैं. वे बहुत अनूठी-अनोखी नहीं हैं, फिर भी हर बार वे नयी लगती हैं.
एक उदाहरण फिर से अभियान के उसी प्रसंग से. भागनेवाली रात से पहले दिन में नीली नरसिंह को रात में दस बजे एक जगह आने को कहती है. समय पर नरसिंह पहुंच जाता है. परदे पर अंधेरा है और एकदम धुंधली छाया है नरसिंह के सिर की. अंधेरे में उसकी व्यग्रता दिखाती है बार-बार घडी पर पडती उसके टार्च की रोशनी और उसके सिगरेट की आग. इसी दृश्य में आगे जब नरसिंह दोनों को लेकर गाडी से जाने लगता है तो हेडलाइट की रोशनी बडी होते-होते पूरे दृश्यक्षेत्र पर छा जाती है और अंधेरे के बरअक्स पूरा परदा रोशनी में नहा जाता है.
एक दूसरा दृश्य. पाथेर पांचाली के अंतिम हिस्से में जब हरिहर के घर में एक सांप घुसता हुआ दिखता है. यह दृश्य देर तक परदे पर चलता है. इसके बाद अगला दृश्य दिखता है-बैलगाडी पर हरिहर सर्वजया और अपु के साथ गांव छोड कर जा रहा है. घर उजडने को प्रतिबिंबित करता हुआ खाली घर में घुसते हुए सांप का प्रतीक भारतीय दर्शकों के लिए उतना नया नहीं है फिर भी सत्यजीत राय का कैमरा इसे ऐसे प्रस्तुत करता है कि यह पहले देखा-सुना नहीं लगता.
सत्यजीत राय के फिल्मों में पार्श्व दृश्य ऐसे नहीं हैं, जो फिल्मांकन करते वक्त पात्रों के पीछे विवशता में आ गये हैं. वे जीवंतता से भरे हैं. पानी से भरे धान के खेत, तालाबों की लहरें, लंबे पेड और खेतों में चलते हुए हल...सब कुछ जीवन से भरपूर लगते हैं.
राय की फिल्म में रेलगाडियां एक अलग महत्व रखती हैं. वे प्रायः उनकी हर दूसरी फिल्म में किसी ने किसी रूप में मौजूद हैं. पाथेर पांचाली से लेकर अपराजित, अरण्येर दिन रात्रि, नायक, जय बाबा फेलुनाथ, अभियान, रवींद्रनाथ टैगोर...सारी फिल्मों में रेलगाडियां आती हैं. और वे किसी क्रॉसिंग पर खडे सवारियों से परिचय जैसा परिचय नहीं करतीं, वे पूरे समारोहपूर्वक दाखिल होती हैं, आत्मीयता से उनसे मिलती हैं और होड तक करती हैं. सत्यजीत राय अपनी अधिकतर फिल्मों में कहानियों की अंतर्धारा को जोडने के लिए भी रेलगाडियों या उनकी आवाज का इस्तेमाल करते हैं.
सत्यजीत राय जब-जब जटिल दृश्यों का निर्माण करते हैं, अत्यधिक सफल नजर आते हैं. जहां-जहां उन्होंने सामान्य होने की कोशिश की है, वहां वे प्रभावहीन लगते हैं.
उनका दृश्य, संगीत, प्रकाश समायोजन इतना व्यवस्थित और सब कुछ पहले से, फिल्म निर्माण शुरू होने से भी पहले से, इस तरह तय किया हुआ और आपस में गुंथा हुआ होता था कि उनमें से एक दृश्य, एक संवाद, एक धुन, प्रकाश की एक रेखा तक नहीं कम कर सकते. फिर तो पूरी फिल्म भरभरा कर गिर पडेगी.
सत्यजीत राय की फिल्मों की गति की तुलना सिर्फ महान इतालवी फिल्मकार माइकेलएंजेलो एंटोनियोनी से की जा सकती है, लेकिन एंटोनियोनी जहां एक बुर्जुआ जीवन की यांत्रिकता, एकांतिकता, त्रास, स्वार्थपरता और भटकाव को रूपायित करते हैं, सत्यजीत राय सामूहिक पिछडेपन, सामंती गतिहीनता को (एक गहरे व्यंग्य और अवहेलना के साथ) चित्रित करते हैं. दोनों के यहां समय बहुत धीरे गुजरता है, साधारण जीवन की गति की हद तक आकर, लेकिन फिर भी दोनों में बुनियादी अंतर मौजूद हैं. राय अपने साथ अपनी संस्कृति की ऊष्मा लेकर चलते हैं. वह एंटोनियोनी की तरह अपने समाज के नीरस जीवन को चित्रित करने के लिए अभी अभिशप्त नहीं हुए हैं.
राय की फिल्मों के दृश्य और चरित्र कभी वास्तविक जीवन से अधिक भव्य नहीं लगे. इसके लिए कथा वस्तु एवं दृश्य समायोजन के अलावा राय ने तकनीकी सावधानियां भी बरतीं. उनके कैमरों-पुराना मिशेल, आइमो और वाल कैमरा-के लेंस ४० एमएम के रहते. यह मानवीय दृष्टि के सबसे नजदीक पडता है. इसके अलावा राय को क्लोजअप और वाइडएंगेल से लगभग नफरत थी. वे बेहद सुंदर लगनेवाले शॉट्स को भी नकार देते थे, अगर वह पूरी फिल्म की दृश्ययोजना में न आये. राय ने अर्थाभाव के कारण फिल्में कम खर्च कीं. उनके साथ कई फिल्मों में काम कर चुकीं वहीदा रहमान ने उन्हें याद करते हुए यह रेखांकित किया है कि राजकपूर और के आसिफ जैसे फिल्मकारों की तरह-जो १२-१८ हजार फुट की फिल्म के लिए ३५ हजार फुट फिल्म तक की शूटिंग करतेथे- सत्यजीत राय ऐसा सोच भी नहीं सकते थे.
अपनी सभी फिल्मों में चिडियाखाना राय को सर्वाधिक अप्रिय थी. यह वास्तव में उनके एक सहकर्मी को बनानी थी, जो वक्त आने पर उसे न बना सका और जिसे बिना तैयारी के राय को बनाना पडा. राय कहते थे कि अगर उन्हें अपनी कोई फिल्म दोबारा उसी तरह बनानी हो तो वे चारूलता को चुनेंगे. वे उससे पूरी तरह संतुष्ट थे.
राय पर प्रायः रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव माना जाता है. वे इसके अलावा वे विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय से भी प्रभावित रहे. लेकिन एक फर्क स्पष्ट दिखता है, जब वे विभूतिभूषण की रचनाओं पर फिल्में बना रहे होते हैं. ऐसा करते वक्त वे टैगोर के प्रभाव से थोडा बाहर निकलने में सफल रहते हैं. टैगोर का प्रभाव उन पर सबसे अधिक घरे बाइरे बनाते वक्त रहा है क्योंकि इसमें निखिलेश्वर के रूप में खुद टैगोर मौजूद हैं.
लेकिन ट्रीटमेंट के लिहाज से सत्यजीत राय दोस्तोयव्स्की के अधिक नजदीक दिखते हैं. उनकी फिल्मों में खलनायक या नकारात्मक पात्र नहीं हैं. एकदम पवित्र और मासूम से दिखनेवाले चरित्रों की शुरुआत पाथेर पांचाली से होती है और कमोबेश उनकी अंतिम फिल्म आगंतुक तक चलती है. लंबे समय तक उनकी फिल्मों के पात्र अपु की छवि का एक अंश लिये होते हैं-दोस्तोयव्स्की के रस्कोल्निकोव या गोपीनाथ महांती के रवि (माटी मटाल) की तरह. हालांकि घरे बाइरे में संदीप की सकारात्मकता फिल्म के उत्तरार्ध में जरूर भंग हुई है और अंत आते-आते, विमला के मोहभंग होने से पहले ही वह अपने प्रति दर्शक की सहानुभूति खो बैठता है, फिर भी वह न तो नकारात्मक चरित्र है और न खलनायक. संदीप प्रकटतः हिंदू-मुसलिम दंगों के लिए दोषी लगता सकता था, लेकिन इसके बावजूद राय का ट्रीटमेंट उसे ऐसा होने से बचा लेते हैं. हालांकि थोडा सचेत रहें, तो हम संदीप और उसकी राजनीति में आज के नरेंद्र मोदी मार्का संघी राजनीति को बीज रूप में पा सकते हैं.
राय की फिल्मों में त्रासदी है और इस त्रासदी को अपनी झुकी हुई पीठों पर ढोते हुए लोग हैं. राय के यहां कोई एक आदमी या एक संस्था दोषी नहीं दिखता. वे स्थितियों और परिघटनाओं का इतना सरलीकरण नहीं करते और न समाधानों को इतना सामान्यीकृत करते हैं कि सारा दोष एक व्यक्ति में दिखा कर उसे दंडित करके मध्यवर्गीय चेतना को आत्मतुष्ट किया जा सके और उसे अपराधबोध से मुक्त कर दिया जाये. इसके बरअक्स राय एक के बाद एक त्रासदियों का प्रवाह सामने लेकर आते हैं और इसके लिए विवश करते हैं कि दर्शक अपनी तार्किक दृष्टि से कारणों की पडताल करे और समाधान तक पहुंचे.
राय में काफी हद तक समकालीन सवालों पर उनका कैमरा मौन रहा है. १९४६-४७ के दंगे, जिन्होंने उस बंगाल को सर्वाधिक प्रभाविक किया, जिसमें राय रह रहे थे और १९६७ का नक्सलबाडी आंदोलन जिसने चलते ट्रामोंवाले शहर कलकत्ता को क्रांतिकारी हलचलों से भर दिया था, राय के यहां अनुपस्थित है. राय पर उनके समकालीन और उनके बाद उभरे ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों के जरिये अप्रत्यक्ष दबाव बढ रहा था कि वे समकालीन प्रश्नों पर अपनी सिनेमाई चुप्पी तोडें. राय पर इसका प्रभाव पडा भी पडा और उन्होंने समकालीन मुों पर भी फिल्में बनायीं, लेकिन यहां भी लय उनकी अपनी ही थी. प्रतिद्वंद्वी और सीमाबद्ध जैसी फिल्में समकालीन राजनीतिक प्रश्नों से रू-ब-रू होती हैं. प्रतिद्वंद्वी में वे नक्सलवादी आंदोलन को दृश्यक्षेत्र में लाते हैं, लेकिन सिर्फ एक सीमा तक. इसके बावजूद फिल्म बेहद प्रभावशाली है. इसे राय ने अपनी सबसे उकसावेवाली फिल्म कहा है. फिल्म में सीधे आंदोलन को चित्रित भले न किया गया हो, लेकिन दूसरे पात्रों के जरिये स्थितियों का जिस तरह निरूपण किया गया है और चरित्रों को घटनाओं के प्रवाह से गुजारा गया है, वह इस आंदोलन के प्रति राय के दृष्टिकोण को रेखांकित करता है. राय ने उन शुरुआती दिनों में ही इस आंदोलन की जडों और कारणों के संकेत देते दिखते हैं.
समकालीन राजनीतिक प्रश्नों पर फिल्में बनाने को लेकर सत्यजीत राय ने सतर्कता बरती. उनका कहना था कि उन्हें फिल्मों के सेंसर से पास नहीं होने का डर था, इसलिए उन्होंने सीधे चित्रण से परहेज किया. इसके बावजूद उन्होंने इस सवालों के अक्षुण्ण रहने दिया हो ऐसा नहीं है. वे हीरक राजार देशे का नाम लेते हैं. वे कहते हैं कि इसके एक दृश्य में जिस तरह गरीबों को भगाया गया है, वह दरअसल आपातकाल के दौरान दिल्ली और दूसरे शहरों में गरीबों के साथ हुए व्यवहार को दिखाने का उनका तरीका था. वे कहते थे कि आप सीधे सत्ताधारी पार्टी पर हमला नहीं कर सकते. ऐसा करने पर फिल्म 'किस्सा कुरसी का' की तरह नष्ट कर दी जा सकती है. इसलिए अपनी सीमा में रहते हुए भी आप उन सवालों को उठा सकते हैं.
उनका मानना था कि सत्ता को टारगेट करना तो आसान है, लेकिन ऐसा करके आप ऐसे लोगों पर हमला कर रहे होते हैं, जिन्हें इससे बहुत फर्क नहीं पडता. आपके कहने के बाद भी सत्ता का कुछ नहीं बिगडता. सत्यजीत राय का मानना था कि फिल्में समाज को बदल नहीं सकतीं. वे कहते हैं-'क्रांति के दरमियान फिल्मकार एक सकारात्मक भूमिका रखता है, वह क्रांति के लिए कुछ कर सकता है. लेकिन यदि क्रांति हो ही नहीं रही हो तो वह कुछ नहीं कर सकता.'
राय का मानना था कि नक्सलवादी आंदोलन की तरह क्रांतिकारी गतिविधियों पर सेर्गेई आइजेंस्टाइन की तरह फिल्म बनायी तो जा सकती है, लेकिन भारत की वर्तमान परिस्थितियों में यह संभव नहीं है.
राय की फिल्मों में आलोचकों को हताशा, गरीबी और उजाड ही दिखता है. राय के पास इसके लिए अपनी तरह का जवाब था-'जब आप समस्याओं के बारे में फिल्म बना रहे हों और आपके पास समाधान न हो तो फिल्म निश्चित तौर पर हताशाभरी होगी.' वे कहते हैं-'आप हर समय खुशियों भरी फिल्में नहीं बना सकते.'
राय का निधन २३ अप्रैल, १९९२ को हुआ. यह वही दिन था, जब १६१६ में शेक्सपीयर का निधन हुआ था. कई मायनों में सत्यजीत राय शेक्सपीयर जैसे लगते हैं. उनकी फिल्मों में भावनाओं की सघनता शेक्सपीयर की ही तरह थी. परिवेश, काल, शैली और मूड की खास व्यापकता, उनका विस्तार और असाधारणता, सब कुछ उन्हें रूपहले परदे का शेक्सपीयर बनाती है.
आधी सदी से अधिक समय गुजरने के बाद भी राय का एक-एक फ्रेम हमारे परिवेश को, आज के परिवेश को एक बेचैन कर देनेवाली जडता के साथ प्रस्तुत करता है. पाथेर पांचली में सर्वजया एक जगह कहती है-'अपु पढ लिख जाये, दुर्गा के लिए एक अच्छा वर मिल जाये और हमें दो वक्त का भोजन...'
सर्वजया भारत की सौ करोड आबादी में से बहुमत का प्रतिनिधित्व करती है, आज भी. आज भी उसके लिए ये सपने पूरे नहीं हो सके हैं. टूटते, बिखरते और सामंतवाद की चक्की में पिसते उनके गांव आज भी एक यथार्थ हैं. हम पाते हैं कि समय गुजरने के साथ पूरा भारत ही राय के फ्रेमों में दाखिल हो गया है. और इसीलिए आज भी, राय भारत की गरीबी और निर्मम विपन्नता के सबसे बडे सिनेप्रवक्ता हैं.
अंत में, अरुंधति राय के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहें तो कहा जा सकता है कि सत्यजीत राय एक ऐसे निर्देशक थे, जिन्हें दुनिया की श्रेष्ठतम फिल्मों में से कुछ ने अपने लिए चुन लिया था.
20 अप्रैल 2008
नक्सलवाद से लड़ने का अमानवीय तरीका
नक्सल्वाद समस्या है या समाधान इस पर एक लंबी बहस हो सकती है और हो भी रही है. पर सलवा जुडुम ने बस्तर यानी दांतेवाडा में जो किया है वह जगजाहिर है. उस पर कई रिपोर्टे आ चुकी हैं. हमें इस प्रश्न को व्यवस्था से जोड्कर देखना होगा कि तथाकथित स्व्तंत्रता के बाद आया यह लोक्तंत्र कितना सफल रहा है और किसके लिये. यह देखा जा सकता है कि शेयर बाजार उछल रहा है, रिलायन्स ने ग्लोबल बना दिया है भारत को,अति उत्पादन इतना हो गया है कि खपत के रोज नये तरीके ढूडे जा रहे हैं पर क्या १९४७ में हो रही किसान हत्या आज के मुकाबिले ......,या फिर आम आदमी का जीवन ....लोक्संस्क्रिति ....साथ में एक बडे समुदाय का जीवन जो जंगलो में रहता था उसको इस लोकतंत्र ने क्या दिया है .......विस्थापन, भूख से मरने के लिये मल्टीनेसनल कम्पनियों के सहारे किसान आत्म हत्या ऐसे में सवाल उठता है कि वह प्रतिरोध क्यों न करे तो फिर प्रतिरोध कैसा हो शान्तिपूर्ण जैसा मेधापाटेकर कर रही है. उसका क्या हस्र हो रहा है .....या फिर जो एन जी ओ कर रहे है. इसके अलावा यदि कोई प्रतिरोध उठता है तो वह नक्सली है चाहे वह ननंदीग्राम का किसान आंदोलन ही क्यों न हो. इस स्थिति में रास्ता क्या बचता है, फिर एक सवाल जो बार बार उठता है हिंसक रास्ता तो क्या नक्सली सिर्फ हिंसा ही कर रहे है? हमें देखना होगा सी वेनेजा जो की आन्ध्रा की वरिष्ठ पत्रकार है उनकी बस्तर पर एक रिपोर्ट आयी थी. जिसे पढ कर समझा सकता है कि नक्सली कैसा समाज बनाना चाहते है खैर अभी हाल में कोर्ट फैसले के बाद सलवा जुडुम पर श्रीलता मेनन की ये रिपोर्ट ...
सलवा जुडूम मसले पर 3 साल की खामोशी के बाद कम से कम 2 एजेंसियों ने इसके खिलाफ अपना स्वर मुखर किया है।
नक्सलियों से लड़ने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार के इस कदम को अमानवीय रणनीति करार दिया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के अलावा एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉम्स कमिशन (प्रशासनिक सुधार आयोग) ने भी कहा है कि लोगों को कानून हाथ में लेने के लिए खुला छोड़ देने और नागरिकों के साथ युध्द छेड़ने का कोई हक नहीं है।
कुछ महीने पहले हमारे अखबार ने छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्व रंजन से पूछा था कि सरकार ने सलवा जुडूम का समर्थन करने का फैसला क्यों किया? इस पर उनका कहना था कि सरकार गांव वालों को नक्सली हमलों से सुरक्षा मुहैया करा रही थी, लेकिन उसके लिए यह काफी महंगा सौदा था। इसके मद्देनजर सरकार ने सलवा जुडूम के समर्थन का फैसला किया। ये लोग शुरू में बीजापुर जिले में नक्सली हमलों के खिलाफ लड़ रहे थे। बाद में इसका विस्तार अन्य जिलों में भी किया गया।
बस्तर इलाके के नक्सलवाद प्रभावित 5 में 2 जिलों को सलवा जुडूम के संरक्षण के दायरे में लाया गया। सलवा जुडूम के तहत काम करने वालों को नक्सलियों से सुरक्षा की जरूरत थी और इस बाबत उन्हें खास कैंपों में शिफ्ट किया गया। हालांकि इन कैंपों की सुरक्षा में भी काफी पैसे खर्च हो रहे थे, लिहाजा पुलिस ने सलवा जुडूम में शामिल नहीं होने वाले लोगों को पकड़ने के लिए स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) के रूप में स्थानीय नौजवानों की भर्ती शुरू की। यह काफी सस्ता और आसान उपाय था।
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सिर्फ सरकारी खर्च बचाने के लिए ऐसा कुछ किया जा सकता है, जिससे असहाय गांववासियों की जान खतरे में पड़ जाए? कहने का मतलब यह है कि जो लोग सलवा जूडूम का हिस्सा नहीं होंगे, उन्हें कानूनी सुरक्षा नहीं मुहैया कराई जाएगी। हालांकि विश्व रंजन यह नहीं कहते हैं कि जब से सरकार ने सलवा जुडूम को स्पेशल पुलिस ऑफिसरों और हथियारों के जरिये मदद देनी शुरू की, नक्सल प्रभावित इलाके पूरी तरह से 2 गुटों में बंट चुके हैं।
पहले गुट में वैसे लोग हैं, जो सलवा जुडूम की मदद कर रहे हैं और दूसरे वे हैं, जो इसकी मदद नहीं कर रहे हैं। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि जिन लोगों ने सलवा जुडूम के कैंपों की रक्षा के लिए पुलिस फोर्स जॉइन की है, उनके लिए अपने गांव लौटना कभी भी मुमकिन नहीं होगा। अगर वे अपने गांव जाते भी हैं, तो नक्सली या फिर अपनी जमीन के लिए संघर्ष कर रहे जंगलों में छिपे गांव वाले उनकी हत्या कर देंगे।
जंगलों में शरण लेने वाले किसानों को लूटने में सलवा जुडूम ने कोई कोताही नहीं की है और इस काम में इस संगठन को पुलिस का समर्थन भी हासिल है। हाल में छत्तीसगढ़ ईमेल नेटवर्क की चंपारण नामक गांव में बैठक हुई थी, जिसमें पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश से कुछ लोगों ने हिस्सा लिया था। इनमें औरतें, बच्चे और पुरुष शामिल थे।
सलवा जुडूम ने इन लोगों के परिवार के सदस्यों की हत्या कर दी थी और इस वजह से उन्हें अपनी जान बचाने के लिए दंतेवाड़ा छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। ये लोग डर के मारे एक छोटे से कमरे में छुपे हुए थे। उन्हें डर था कि सलवा जुडूम के मुखबिर या पुलिस द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
इन घटनाओं से साफ है कि सलवा जुडूम के जरिये पुलिस ने सिर्फ एक चीज हासिल की है- इसने आम लोगों को खुद से दूर कर लिया है और इस वजह से पुलिस के लिए वास्तविक अपराधियों को पकड़ना काफी मुश्किल हो गया है। सरकार यह बात भी स्वीकार करती है कि नक्सल प्रभावित गांवों में कोई भी कल्याणकारी परियोजनाएं नहीं चल रही हैं।
इसके बजाय वह सलवा जुडूम और एसपीओ के माध्यम से जनजातीय समुदाय के लोगों से जीने का हक छीन रही है। बिनायक सेन जैसे कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी सरकार के पलायनवादी रवैये को दर्शाती है। इससे साफ है कि असली अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रहने की वजह से सरकार ऐसे लोगों को निशाना बना रही है, जो दोषी नहीं हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने संभावित आलोचकों (खासकर स्थानीय मीडिया) का भी मुंह बंद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। साथ ही सरकार के इस कदम के खिलाफ आंदोलनों पर भी अंकुश लगा दिया गया है। दरअसल, सितंबर 2006 में राज्य ने छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून लागू कर दिया।
इसके तहत मीडिया को कोई भी ऐसी रिपोर्टिंग करने पर पाबंदी लगा दी गई है, जिसे 'गैरकानूनी गतिवधि' माना जाता है। राज्य सरकार पीयूसीएल जैसे मानवाधिकार संगठनों को गैरकानूनी करार देकर इस संस्था के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने में जुटी है।
अब जब प्रशासनिक सुधार आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने इस समस्या से निपटने के लिए मानवीय तरीका अख्तियार करने की जरूरत पर बल दिया है, क्या छत्तीसगढ़ सरकार अपने तौर-तरीकों पर फिर से गौर करने की जहमत उठाएगी?
16 अप्रैल 2008
जार्ज बुस से कहो कि साम्यवाद का भूत जिन्दा है! नेपाल में माओवादी दौर :-
आनंद स्वरूप वर्मा नेपाल विषय के जानकार है इन्होंने नेपाल का वह काल भी देखा है जब राजतंत्र की तूती बोलती थी पर समय और काल बदलता गया घट्नाये घटती गयी आनंद की आखों के सामने ही शुरू हुआ माओवादी आंदोलन आज जिस मुकाम पर है उसका एक आंकलन .....
नेपाल के १० अप्रैल को सम्पन्न संविधान सभा के नतीजो ने सबको हैरानी में डाल दिया है. राजनीतिक विश्लेषकों, चुनाव विशेषग्यों, और भारत तथा अमेरिका के खुफिया तन्त्रों के सभी अनुमानो को गलत साबित करते हुए नेपाल में माओवादियों ने संविधान सभा के चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें हासिल की. जहां तक मीडिया का और खास तौर पर नेपाली मीडिया का सवाल है, उसने शुरू से ही यह भ्र्म फैलाने की कोशिश की कि माओवादियों का जिस तरह से जन समर्थन दिखायी देता रहा है, वह उनकी लोकप्रियता के कारण नहीं, बल्कि जनता में व्याप्त उनकी बंदूक के भय के कारण है. इस प्रचार को वर्षों तक इतनी बार तरह तरह से दोहराया गया कि बहुत सारे लोगों को यह सच लगने लगा था. इसके बाद लोगों के बीच यह कहना आसान हो जाता था कि माओवादियों का युवा संगठ्न वाईसीएल(यंग कम्युनिष्ट लीग)जनता को ड्राने धमकाने और लूटपाट में लगा रहता है. यह प्रचार मीडिया से ज्यादा नेपाली कांग्रेस और नेकपा के नेताओं द्वारा किया गया, क्योंकि उन्हें लगता था कि इस प्रचार के जरिये ही वे अपनी अलोक्प्रियता पर पर्दा डाल सकते है. इसी के साथ ही यह प्रचार भी किया जाता रहा कि माओवादिइ चुनाव नही चाहते. अतीत में संविधान सभा के चुनाव दो बार स्थगित हुए और पार्टियों ने यही आरोप लगाया कि माओवादियों ने चुनाव नहीं होने दिया. इन पार्टियों का कहना था कि माओवादी चुनाव से भाग रहे है. नेकपा (माओवादी) नेता प्रचंड,बाबूराम भट्टाराई तथा अन्य लोग बराबर यह कहते रहे कि संविधान सभा के गठन और देश की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्क्रितिक पुनर्सनरचना के लिये हमने दस वर्श तक सशस्त्र संघर्ष चलाया और दस हजार से ज्यादा लोगों ने अपना बलिदान किया और हम पर ही आरोप लगाया जा रहा है कि हम चुनाव नहीं चाहते. चुनाव के प्रारम्भिक परिणामों ने ही लोगों को हैरानी में डाल दिया. काठ्मांडू घाटी एमाले का कई दशकों से गढ माना जाता रहा है.यहां कुल पंद्रह सीटे है. काठ्मांडु शहर में दस,ललित पुर में तीन, और भक्त पुर में दो सीटे है। पंद्रह में से सात सीटों पर नेकपा माओवादी, दो पर नेपाल मजदूर किसान पार्टी, और छः सीटों पर नेपाली कांग्रेस को सफलता मिली है. एमाले को एक भी सीट नही मिली है. इतना ही नही पार्टी के महासचिव माघव नेपाल को काठ्मांडु दो निर्वाचन छेत्र में झक्कु प्रसाद सुबैदी नामक एक लगभग अनजान से माओवादी के हाथ पराजय नही अपमान जनक पराजय का मुह देखना पडा है. काठ्मांडु घाटी में इनकी केन्द्रीय समिति के तीन प्रमुख सदस्यों ईश्वर पोखरेल, रघु पंत और प्रदीप नेपाल को पराजय का सामना करना पडा.
माओवादियों की व्यूहरचना:-
१० अप्रैल का चुनाव सचमुच सम्पन्न हो सकेगा इस बारे में अंत तक अनिश्चय की स्थिति बनी रही. शुरू में इसलिये, क्यंकि माओवादी तत्वों को आभास मिल गया था कि माओवादियों के जनाधार में कोई कमी नही आयी है. धीरे धीरे भारत के प्रयास से एमाले और माओवादियों के बीच वह एकता नही हो सकी , जिसे माओवादी वम एकता की दिशा में पहला कदम मानते थे. दूसरी तरफ इन्ही त्त्वों के प्रयास से कोइराला के नेत्रित्व वाली देउबा के बीच फिर एकीकरण हो गया. यह सब हो जाने के बद अब मधेस में शान्ति की जरूरत थी, वर्ना चुनाव नही हो पाते. लिहाजा नेपाल स्थित भारतीय दूतावासों में मार्च में नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं और मधेसी मुद्दे पर आंदोलन कर रहे नेताओं के बीच बात चीत हुई जिसके बाद प्रधान्मन्त्री निवास में एक आठ सूत्री समझौता हुआ.
अब चुनाव का मार्ग प्रसस्त हो गया था. माओवादिओं के खिलाफ एक व्यूह रचना हो गयी थी. नेपाली कांग्रेस, एमाले, दरबार, भारत और अमेरिका संघ निश्चित थे कि इस चुनावी अखाडे मे माओवादियों को धूल चट्यी जा सकती है. माओवादियों ने भी कुछ ऎसा ही रूख दिखाया. जिससे विरोधी खेमे का यह भ्रम बना रहे . उन्हे पता था कि अगर विरोधी खेमे को माओवादियों कि सफलता का थोडा भी संकेत मिल जायेगा तो चुनाव फिर स्थगित हो सकता है. हालांकि माओवादियों के नेता प्रचंड ने बहुत साफ शब्दों में एलान कर दिया था कि इस बार चुनाव स्थगित हुआ तो यह पूरे देश के लिये विध्वंसकारी होगा विरोधी खेमे ने यह प्रचारित करना शुरू किया चुनाव में बडे पैमाने पर वाइसीएल द्वारा हिंसा और बूथ लूट्ने की घट्नाए होंगी. इस आशंका को देखते हुए राष्टीय और अंतर्राष्टीय प्रेक्छकों का बहुत बडा जत्था तैयार कर दिया गया. जहां तक वाइसीएल का संबंध है इसमे कोई संदेह नही है कि विभिन्न चुनाव छेत्रो व निर्वाचन छेत्रों मे माओवादियों ने बहुत बडी तादात में वाइसील कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की थी. लेकिन इसका मकसद बूथ लूट्ना नहीं बल्कि नेपाली कांग्रेस और एमाले के परंपरागत बूथलुटेरों द्वारा संभावित घट्नाओं को रोकना था. इस काम में उन्हें सफलता भी मिली. अमेरिका के पूर्व राष्ट्पति जिमि कार्टर स्वंय अपनी पत्नी के साथ ६० प्रेछ्कों की टीम लेकर आये थे.जितने शांतिपूर्ण,व्यवस्थित, और अनुशासित ढंग से चुनाव हुआ उसे देखकर इन सबने यही कहा कि विगत कुछ वर्षों में इतना निष्पछ और शांति पूर्ण चुनाव कहीं देखने को नही मिला. इस शांति पूर्ण और निष्पछ चुनाव से बहुत सारे लोग निश्चिन्त हो गये कि अब माओवादी जीत नहीं सकेंगे.
अवसरवादियों का सफाया:-
इस चुनाव ने एमाले को बहुत बडा झटका तो दिया ही है, नेपाली कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रधान्मन्त्री गिरजा प्रसाद कोइराला के मंसूबे पर भी पानी फेर दिया. उनकी बेटी सुजाता कोइराला भतिइजे शेखर कोइराला और पार्टी अध्यछ सुशील कोइराला सभी को हार का सामना करना पडा. सबसे दिल्चस्प यह है कि जनयुद्ध के नायकों के रूप में चर्चित नेताओं को रिकार्ड मतों से सफलता मिली. सेल्पा में प्रचंड को ३४२२० और माधव नेपाल के उम्मीदवार को ६०२९ वोट मिले. गोरखा निर्वाचन छेत्र में बाबूराम भट्टाराई को ४६२७२ वोट मिले जबकि उनके प्रतिद्वन्दी नेपाली कांग्रेस के चंद्र प्रसाद न्योपाने को ६१४३ और एमाले के हरि प्रसाद काले को २०८३ वोट मिले. इस प्रकार जन्युद्ध के दौरान पाल्पा के राज्महल पर हुए आक्रमण का संचालन करने वाले कमांड्र प्रभाकर को रूकुम निर्वाचन छेत्र में ३०२७० वोट मिले जबकि उनके मुकाबले एमाले के शेर बहादुर केसी को ६०६८ वोट मिले दरसल इस चुनाव में एमाले के के.पी. ओली और नेपाली कांग्रेस की सुजाता कोइराला को बुरी तरह हराकर जनता ने यह संदेश देना चाहा कि वह राज्तंत्र के समर्थकों का साथ नहीं देगी. ये दोनों लोग किसी न किसी रूप में राजतंत्र को बनाये रखने के पछ में बोलते रहे हैं.इसी प्रकार ग्यानेन्द्र के चहेते कमल थापा की पार्टी को पूरे देश में एक भी सीट न्हीं मिली .
इस बहु प्रतिछित चुनाव के साथ नेपाल अब नये युग में प्रवेश कर रहा है. प्रचंड ने साफ तौर पर कहा है कि नये नेपाल में राज्तंत्र का कोई स्थान नहीं रहेगा. प्रत्यछः चुनाव में माओवादियों को बहुमत मिल गया है और यही रूझान समानुपातिक प्रणाली के तहत हुए मतदान में भी देखने को मिलेगा. बहुमत के बावजूद प्रचंड का यह कहना कि वह अन्य राजतंत्र विरोधी पार्टियों और तत्वों को लेकर सर्कार का गठन करेंगे. उनका मानना है कि नये संविधान के निर्माण में ज्यादा से ज्यादा विचारों को शामिल करना देश के लिये हितकर होगा.
नेपाल चुनाव के कुछ फोटो:-
मैं बहुत खुश थी अम्मा ! अंशु मालवीय
अंशु मालवीय एक जनवादी कवि है उनकी यह कविता तहलका में छ्पी थी जिसे यहां साभार प्र्काशित किया जा रहा है पर कविता से पहले थोड़ा सा संदर्भ समझना ज़रूरी है...
अहमदाबाद में कौसर बानो की बस्ती नरोदा पाटिया पर 28 फरवरी 2002 को हमला हुआ था। वह गर्भवती थी। हत्यारों ने पेट चीर कर गर्भस्थ शिशु को आग के हवाले कर दिया। कविता में शिशु को लडकी माना गया है और इसे, अभागन कौसर की उसी अजन्मी बिटिया की तरफ से लिखा गया है...पढ़ें और पढ़कर डरें...
सब कुछ ठीक था अम्मा !
तेरे खाए अचार की खटास
तेरी चखी हुई मिट्टी
अक्सर पहुँचते थे मेरे पास...!
सूरज तेरी कोख से छनकर
मुझ तक आता था।
मैं बहुत खुश थी अम्मा !
मुझे लेनी थी जल्दी ही
अपने हिस्से की साँस
मुझे लगनी थी
अपने हिस्से की भूख
मुझे देखनी थी
अपने हिस्से की धूप ।
मैं बहुत खुश थी अम्मा !
अब्बू की हथेली की छाया
तेरे पेट पर देखी थी मैंने
मुझे उन का चेहरा देखना था
मुझे अपने हिस्से के अब्बू देखने थे
मुझे अपने हिस्से की दुनिया देखनी थी।
मैं बहुत खुश थी अम्मा !
एक दिन
मैं घबराई...बिछली
जैसे मछली...
तेरी कोख के पानी में
पानी में किस चीज़ की छाया थी अनजानी....
मुझे लगा
तू चल नहीं घिसट रही है अम्मा !
फ़िर जाने क्या हुआ
मैं तेरी कोख के
गुनगुने मुलायम अंधेरे से निकलकर
चटक धूप
फिर...
चटक आग में पहुँच गई।
वो बहुत बड़ा ऑपरेशन था अम्मा।
अपनी उन आंखों से
जो कभी नहीं खुलीं
मैंने देखा
बड़े-बड़े डॉक्टर तुझ पर झुके हुए थे
उनके हाथ में तीन मुंह वाले
बड़े-बड़े नश्तर थे अम्मा...
वे मुझे देख चीखे !
चीखे किसलिए अम्मा...
क्या खुश हुए थे मुझे देख कर
बाहर निकलते ही
आग के खिलौने दिए उन्होंने अम्मा !
फ़िर मैं खेल में ऐसा बिसरी
कि तुझे देखा नहीं...
तूने भी अन्तिम हिचकी से सोहर गाई होगी अम्मा !
मैं कभी नहीं जन्मी अम्मा !
और इस तरह कभी नहीं मरी
अस्पताल में रंगीन पानी में रखे हुए
अजन्मे बच्चे की तरह
मैं अमर हो गई अम्मा !
लेकिन यहाँ रंगीन पानी नहीं
चुभती हुई आग है !
मुझे कब तक जलना होगा .....अम्मा !!!
12 अप्रैल 2008
जानवर बनने के लिये सब्र की जरूरत होती है ?
जन कवि धूमिल महज एक अनूभूति, भाव या शब्दों को तोड मरोड कर पेश करने वाले कवि ही नही है बल्कि वे विचार शीलता के कवि है उनकी कविताओंं के रूपक बडी दूर तक हमे लेकर चले जाते है और सोचने के लिये एक व्योम में छोड देते है । किसी एक लम्बे गहरे कुऎ मे झाकने जैसे ,किसी सूनसान सड्क पर अकेले में चलने जैसे, कही बारिस के अन्धेरे मे घिरने जैसे। वे सवाल उठाते है खुद से, पाठक से, जनता से, अपने कवि मन से .............आखिर मै क्या करू? आपै जबाब दो/तितली के पंखो मे /पटाखा बाधकर भाषा के हल्के मे कौन सा गुल खिला दूं / जब ढेर सारे दोस्तो का गुस्सा / हाशिये पर चुट्कुला बन रहा है / क्या मै व्याकरण की नाक पर रूमाल बाधकर /निष्ठा का तुक विष्ठा में मिला दूं॥ हम धूमिल की पुस्तक संसद से सड्क तक से ये कुछ कवितायें प्रकाशित कर रहे है बिना किसी अनुमति के साभार देते हुए यदि प्रकाशक को आपत्ति हो तो सूचित करें। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि ग्यान एक सामाजिक सम्पत्ति होती है उसे किसी के द्वारा प्रतिबन्धित नही किया जाना चाहिये वह कही से उठाकर कही स उद्देश्य छापी जानी चाहिये बस॥
कविता:-
उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके है
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं-
आदत बन चुकी है
वह किसी ग¡वार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढे़-लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी
एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाष है
लगातार बारिस में भीगते हुए
उसने जाना कि हर लड़्की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद
नहीं-अब वहा¡ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हा¡, हो सके तो बगल सेे गुजरते हुए आदमी से कहो-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था
इस वक्त इतना ही काफी है
वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौक पड़्ता था
मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।।
बीस साल बाद:-
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में
वे आ¡खें वापस लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गये हैं।
और जहा¡ हर चेतावनी
खतरे को टालने के बाद
एक हरी आ¡ख बन कर रह गयी है।
बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता ह¡ू
जानवर बनने के लिये कितने सब्र की जरूरत होती है ?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हू
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यू¡ है
कि खून में उड़्ने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छरोंZ
और सड़्कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुघZटना लिखी गयी है
हवा से फड़्फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्षे पर
गाय ने गोबर कर दिया है।
मगर यह वक्त घबराये हुए लोगों की शर्म
आ¡कने का नहीं
और न यह पूछने का-
कि सन्त और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुभाZग्य कौन है !
आह्! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने-आप से सवाल करता ह¡ू-
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हे एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ?
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हू¡
चुपचाप ।
जनतन्त्र के सूर्योदय मे:-
रक्त्पात-
कहीं नहीं होगा
सिर्फ एक पत्ती टूटेगी !
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और
सिसकती हुई आ¡खों को
एक साथ लाल फीतों में लपेट्कर
वे रख देंगे
काले दराजों से निस्चल एकान्त में
जहा¡ रात में
संविधान की धाराए¡
नाराज आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती हैं
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूंगी परछाईं गुजरेगी
दीवारों पर खड़्खड़ाते रहेंगें
हवाई हमलों से सुरक्षा के इष्तहार
या
त
या
त
को
रा
स्ता
देती हुई जलती रहेगी
चौरस्तों की बत्तिया¡
सड़्क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के ßगाभिन पेटÞ की तरह
सड़्क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अंधकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि जरूरतों के
हर मोचेZ पर
तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफरत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुंड में शरीक होकर
अपनी आवाज का चेहरा ट्टोलने के लिये
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
लेकिन तुम चुप रहोगे
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस निरर्थ ग¡ूगेपन-से सहोगे-
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है
जो महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिये
एक साड़ी पर राजी है
सिर कटे मुर्ग की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह-
सिर्फ, चमकते हुए रंगों की चालबाजी है
और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
या शायद, वापसी के लिये पहल करने वाले-
आदमी की तलाश मे
एक बार फिर
तुम लौट्जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी-
यादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी
अखबारों की धूप और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हे तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूयोZदय में
शरीक होने के लिये
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाजा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहा¡ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की बू¡द
झड़ पड्ने के लिये
तुम्हारी सहमति का इन्तजार
कर रही है।।
अकाल दर्शन :-
भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आ¡खों पर पट्टी बा¡धकर
हमें घास की सट्टी में छोड़ आती है ?
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का
उत्तर नही दिया।
उसने गलियों और सड़्कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले बच्चों की ओर इषारा किया
और ह¡सने लगा।
मैनें उसका हाथ पकड़्ते हुए कहा-
ßबच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैंÞ
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिये
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं
लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ो पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और ह¡सता रहा-ह¡सता रहा-ह¡सता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर ßजनता के हित मेंÞ स्थानान्तरित
हो गया।
मैने खुद को समझाया-यार !
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों िझझकते हो ?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है ?
तुम वहा¡ कुवा¡ झा¡कते आदमी की
सिर्फ पीठ देख सकते हो।
और सहसा मैने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हू¡ और
उस मुहावरे को समझ गया हू¡
जो आजादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए )
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों जूलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्साले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अ¡गुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज्यादा शरीर
भेिड़यों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं-
कि भारतवर्ष नदियों का देश है।
बेशक, यह खयाल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते
अनाज में छिपे ßउस आदमीÞ की नियत
नही समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिजा वसूल करता है-
कभी गाय से
कभी हाय से
ßयह सब कैसे होता हैÞ मैं उन्हे समझाता ह¡ू
मैं उन्हें समझाता हू¡-
वह कौन सा प्रजातािन्त्रक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी म¡ा का चेहरा
झुरिZयों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।
वे चुपचाप सुनते है।
उनकी आ¡खों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है कुछ पता नही चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :
कि तटस्थ है।
और मैं सोचने लगता हू¡ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पू¡जी है।
क्रान्ति-
यहा¡ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-
हाथों की जूजी है।
वसन्त :-
इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा
कर रहा हू¡ : कुर्सी में
टिमटिमाते हुए आदमी आ¡खों में
ऊब है और पड़ोसी के लिये
ल़म्बी यातना के बाद
किसी तीखे शब्द का आशय
अप्रत्याषित ध्वनियों के समानान्तर
एक खोखला मैदान है
और मासिक धर्म में डूबे हुए लत्ते सा
खड़खड़ाता हुआ दिन
जाडे़ की रात में
जले हुए कुत्ते का घाव
सूखने लगा है
मेरे आस-पास
एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है
उधार देनेवाले बनिये के
नमस्कार की तरह
जिसे मैं मात्र इसलिये सहता हू¡
कि इसी के चलते मौज से
रहता हू¡
मेरे लिये अब कितना आसान हो गया है
नामों और आकारों के बीच से
चीजों को टटोलकर निकालना
अपने लिये तैयार करना-
और फिर उस तनाव से होकर-
गुजर जाना
जिसमें जिम्मेदारिया¡
आदमी को खोखला करती हैं
मेरे लिये बसन्त
बिलों के भुगतान का मौसम है
और यह वक्त है कि मैं भी वसूल करू¡-
टूट्ती हुई पत्तियों की उम्र
जाडे़़ की रात जले कुत्ते का दुस्साहस
वारण्ट के साथ आये जमीन की उतावली
और पड़ोसियों का तिरस्कार
या फिर
उन तमाम लोगों का प्यार
जिनके बीच
मैं अपनी उमीद के लिये
अपराधी ह¡ू
यह वक्त है कि मैं
तमाम झुकी हुई गरदनों को
उस पेड़ की ओर घुमा दू¡
जहा¡ बसन्त
दिमाग से निकले हुए पाषणकालीन पत्थर की तरह
डाल से लट्का हुआ है
यह वक्त है कि हम
कहीं न कहीं सहमत होुं
बसन्त
मेरे उत्साहित हाथों में एक
जरूरत है
जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग
चीजों को
घटी हुई दरों में कूतते हैं
और कहते हैं : सौन्दर्य में स्वाद का मेल
जब नही मिलता
कुत्ते महुवे के फूल पर
मूतते है।।
एकान्त-कथा:-
मेरे पास उत्तेजित होने के लिये
कुछ भी नहीं है
न कोकशास्त्र की किताबें
न युद्ध की बात
न गÌेदार बिस्तर
न टा¡गे, न रात
चा¡दनी
कुछ भी नहीं
बलात्कार के बाद की आत्मीयता
मुझे शोक से भर गयी है
मेरी शालीनता-मेरी जरूरत है
जो अक्सर मुझे नंगा कर गयी है
जब कभी
जहा¡ कहीं जाता हू¡
अचूक उदन्ड्ता के साथ देहों को
छयाओं की ओर सरकते हुए पाता ह¡ू
भट्ठिया¡ सब जगह हैं
सभी जगह लोग सेंकते हैं शील
उम्र की रपट्ती ढलानों पर
ठोकते हैं जगह-जगह कील-
कि अनुभव ठहर सके
अक्सर लोग आपस में बुनते हैं
गहरा तनाव
वह शायद इसलिये कि थोड़ी देर ही सही
मृत्यु से उबर सकें
मेरी दृष्टि जब भी कभी
जिन्दगी के काले कोनों मे पड़ी है
मैंने वहा¡ देखी है-
एक अन्èाी ढलान
बैलगािड़यों को पीठ पर लादकर
खड़ी है
(जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
वैसे यह सच है-
जब
सड़्कों में होता हू¡
बहसों में होता हू¡¡
रह-रह चहकता हू¡
लेकिन हर बार वापस घर लौट्कर
कमरे के अपने एकान्त में
जूते से निकाले गये पा¡व-सा
महकता ह¡ू।।
शान्ति पाठ :-अखबारों की सुिर्खया¡ मिटाकर दुनिया के नक्षे पर
अन्धकार की एक नई रेखा खींच रहा ह¡ू
मैं अपने भविष्य के पठार पर आत्महीनता का दलदल
उलीच रहा ह¡ू।
मेरा डर मुझे चर रहा है।
मेरा अस्तित्व पड़ोस की नफरत की बगल से उभर रहा है।
अपने दिमाग के आत्मघाती एकान्त में
खुद को निहत्था साबित करने के लिये
मैनें गा¡धी के तीनों बन्दरों की हत्या की है।
देश-प्रेम की भट्ठी जलाकर
मैं अपनी ठ्ण्डी मांसपेसियों को विदेषी मुद्रा में
ढाल रहा हू¡।
फूट पड़्ने के पहले,अणुबम के मसौदे को बहसों की प्याली में
उबाल रहा ह¡ू।
जरायमपेषा औरतों की सावधानी और संकट कालीन क्रूरता
मेरी रक्षा कर रही है।
गर्भ-गद्गद औरतों में अजवाईन का सत्त और मिस्सी
बा¡ट रहा हू¡।
युवकों को आत्महत्या के लिये रोजगार दफ्तर भेजकर
पंचवषीZय योजनाओं की सख्त चट्टान को
कागज से काट रहा हू¡।
बूढ़ो को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी
चमडे़ का मुहावरा सिखा रहा हू¡।
गिद्धों की आ¡खों के खूनी कोलाहल और ठन्डे लोगों की
आत्मीयता से बचकर
मैकमोहन रेखा एक मुर्दे के बगल में सो रही है
और मैं दुनिया के शान्ति दूतों और जूतों को
परम्परा की पालिश से चमका रहा ह¡ू
अपनी आ¡खों में सभ्यता के गभाZषय की दीवारों का
सूरमा लगा रहा हू¡।
मैं देख रहा हू¡ एशिया में दायें हाथों की मक्कारी ने
बिस्फोट्क सुरंगे बिछा दी हैं।
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम-कोरिया, वियतनाम
पाकिस्तान, इजराइल और कई नाम
उसके चारों कोनों पर खूनी धब्बे चमक रहे है।
मगर मैं अपनी भूखी अ¡तणिया¡ हवा में फैलाकर
पूरी नैतिकता के साथ अपने सडे़ हुए अंगो को सह रहा हू¡।
भेिड़़ये को भाई कह रहा हू¡।
कबूतर का पर लगाकर
विदेशी युद्ध प्रेक्षकों ने
आजादी की बिगड़ी हुई मशीन को
ठीक कर दिया है।
वह फिर हवा देने लगी है।
न मै कमन्द हू
न कवच हू¡
न छन्द ह¡ू
मैं बीचो बीच से दब गया हू¡।
मैं चारो तरफ से बन्द हू¡।
मैं जानता हू¡ कि इससे न तो कुर्सी बन सकती है
और न बैसाखी
मेरा गुस्सा-
जनमत की चढ़ी हुई नदी में
एक सड़ा हुआ काठ है।
लन्दन और न्युयार्क के घुण्डीदार तसमों में
डमरू की तरह बजता हुआ मेरा चरित्र
अग्रेंजी का 8 है।
फोटो पंकज दीछित के कविता पोस्टर से
कविता:-
उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके है
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं-
आदत बन चुकी है
वह किसी ग¡वार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढे़-लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी
एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाष है
लगातार बारिस में भीगते हुए
उसने जाना कि हर लड़्की
तीसरे गर्भपात के बाद
धर्मशाला हो जाती है और कविता
हर तीसरे पाठ के बाद
नहीं-अब वहा¡ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हा¡, हो सके तो बगल सेे गुजरते हुए आदमी से कहो-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था
इस वक्त इतना ही काफी है
वह बहुत पहले की बात है
जब कहीं किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौक पड़्ता था
मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।।
बीस साल बाद:-
बीस साल बाद
मेरे चेहरे में
वे आ¡खें वापस लौट आयी हैं
जिनसे मैंने पहली बार जंगल देखा है :
हरे रंग का एक ठोस सैलाब जिसमें सभी पेड़ डूब गये हैं।
और जहा¡ हर चेतावनी
खतरे को टालने के बाद
एक हरी आ¡ख बन कर रह गयी है।
बीस साल बाद
मैं अपने-आप से एक सवाल करता ह¡ू
जानवर बनने के लिये कितने सब्र की जरूरत होती है ?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हू
क्योंकि आजकल मौसम का मिजाज यू¡ है
कि खून में उड़्ने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।
दोपहर हो चुकी है
हर तरफ ताले लटक रहे हैं
दीवारों से चिपके गोली के छरोंZ
और सड़्कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुघZटना लिखी गयी है
हवा से फड़्फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्षे पर
गाय ने गोबर कर दिया है।
मगर यह वक्त घबराये हुए लोगों की शर्म
आ¡कने का नहीं
और न यह पूछने का-
कि सन्त और सिपाही में
देश का सबसे बड़ा दुभाZग्य कौन है !
आह्! वापस लौटकर
छूटे हुए जूतों में पैर डालने का वक्त यह नहीं है
बीस साल बाद और इस शरीर में
सुनसान गलियों से चोरों की तरह गुजरते हुए
अपने-आप से सवाल करता ह¡ू-
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हे एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ?
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हू¡
चुपचाप ।
जनतन्त्र के सूर्योदय मे:-
रक्त्पात-
कहीं नहीं होगा
सिर्फ एक पत्ती टूटेगी !
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और
सिसकती हुई आ¡खों को
एक साथ लाल फीतों में लपेट्कर
वे रख देंगे
काले दराजों से निस्चल एकान्त में
जहा¡ रात में
संविधान की धाराए¡
नाराज आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती हैं
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूंगी परछाईं गुजरेगी
दीवारों पर खड़्खड़ाते रहेंगें
हवाई हमलों से सुरक्षा के इष्तहार
या
त
या
त
को
रा
स्ता
देती हुई जलती रहेगी
चौरस्तों की बत्तिया¡
सड़्क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के ßगाभिन पेटÞ की तरह
सड़्क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अंधकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि जरूरतों के
हर मोचेZ पर
तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफरत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुंड में शरीक होकर
अपनी आवाज का चेहरा ट्टोलने के लिये
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है :
लेकिन तुम चुप रहोगे
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस निरर्थ ग¡ूगेपन-से सहोगे-
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है
जो महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिये
एक साड़ी पर राजी है
सिर कटे मुर्ग की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह-
सिर्फ, चमकते हुए रंगों की चालबाजी है
और यह जानकर भी, तुम चुप रहोगे
या शायद, वापसी के लिये पहल करने वाले-
आदमी की तलाश मे
एक बार फिर
तुम लौट्जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी-
यादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी
अखबारों की धूप और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हे तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूयोZदय में
शरीक होने के लिये
तुम, चुपचाप, अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाजा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहा¡ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की बू¡द
झड़ पड्ने के लिये
तुम्हारी सहमति का इन्तजार
कर रही है।।
अकाल दर्शन :-
भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आ¡खों पर पट्टी बा¡धकर
हमें घास की सट्टी में छोड़ आती है ?
उस चालाक आदमी ने मेरी बात का
उत्तर नही दिया।
उसने गलियों और सड़्कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले बच्चों की ओर इषारा किया
और ह¡सने लगा।
मैनें उसका हाथ पकड़्ते हुए कहा-
ßबच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैंÞ
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिये
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं
लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ो पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और ह¡सता रहा-ह¡सता रहा-ह¡सता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर ßजनता के हित मेंÞ स्थानान्तरित
हो गया।
मैने खुद को समझाया-यार !
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों िझझकते हो ?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है ?
तुम वहा¡ कुवा¡ झा¡कते आदमी की
सिर्फ पीठ देख सकते हो।
और सहसा मैने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हू¡ और
उस मुहावरे को समझ गया हू¡
जो आजादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए )
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों जूलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्साले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।
मैंने जब भी उनसे कहा है देश शासन और राशन ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर, वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अ¡गुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज्यादा शरीर
भेिड़यों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं-
कि भारतवर्ष नदियों का देश है।
बेशक, यह खयाल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।
मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते
अनाज में छिपे ßउस आदमीÞ की नियत
नही समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिजा वसूल करता है-
कभी गाय से
कभी हाय से
ßयह सब कैसे होता हैÞ मैं उन्हे समझाता ह¡ू
मैं उन्हें समझाता हू¡-
वह कौन सा प्रजातािन्त्रक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी म¡ा का चेहरा
झुरिZयों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।
वे चुपचाप सुनते है।
उनकी आ¡खों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है कुछ पता नही चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :
कि तटस्थ है।
और मैं सोचने लगता हू¡ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पू¡जी है।
क्रान्ति-
यहा¡ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-
हाथों की जूजी है।
वसन्त :-
इधर मैं कई दिनों से प्रतीक्षा
कर रहा हू¡ : कुर्सी में
टिमटिमाते हुए आदमी आ¡खों में
ऊब है और पड़ोसी के लिये
ल़म्बी यातना के बाद
किसी तीखे शब्द का आशय
अप्रत्याषित ध्वनियों के समानान्तर
एक खोखला मैदान है
और मासिक धर्म में डूबे हुए लत्ते सा
खड़खड़ाता हुआ दिन
जाडे़ की रात में
जले हुए कुत्ते का घाव
सूखने लगा है
मेरे आस-पास
एक अजीब-सा स्वाद-भरा रूखापन है
उधार देनेवाले बनिये के
नमस्कार की तरह
जिसे मैं मात्र इसलिये सहता हू¡
कि इसी के चलते मौज से
रहता हू¡
मेरे लिये अब कितना आसान हो गया है
नामों और आकारों के बीच से
चीजों को टटोलकर निकालना
अपने लिये तैयार करना-
और फिर उस तनाव से होकर-
गुजर जाना
जिसमें जिम्मेदारिया¡
आदमी को खोखला करती हैं
मेरे लिये बसन्त
बिलों के भुगतान का मौसम है
और यह वक्त है कि मैं भी वसूल करू¡-
टूट्ती हुई पत्तियों की उम्र
जाडे़़ की रात जले कुत्ते का दुस्साहस
वारण्ट के साथ आये जमीन की उतावली
और पड़ोसियों का तिरस्कार
या फिर
उन तमाम लोगों का प्यार
जिनके बीच
मैं अपनी उमीद के लिये
अपराधी ह¡ू
यह वक्त है कि मैं
तमाम झुकी हुई गरदनों को
उस पेड़ की ओर घुमा दू¡
जहा¡ बसन्त
दिमाग से निकले हुए पाषणकालीन पत्थर की तरह
डाल से लट्का हुआ है
यह वक्त है कि हम
कहीं न कहीं सहमत होुं
बसन्त
मेरे उत्साहित हाथों में एक
जरूरत है
जिसके सन्दर्भ में समझदार लोग
चीजों को
घटी हुई दरों में कूतते हैं
और कहते हैं : सौन्दर्य में स्वाद का मेल
जब नही मिलता
कुत्ते महुवे के फूल पर
मूतते है।।
एकान्त-कथा:-
मेरे पास उत्तेजित होने के लिये
कुछ भी नहीं है
न कोकशास्त्र की किताबें
न युद्ध की बात
न गÌेदार बिस्तर
न टा¡गे, न रात
चा¡दनी
कुछ भी नहीं
बलात्कार के बाद की आत्मीयता
मुझे शोक से भर गयी है
मेरी शालीनता-मेरी जरूरत है
जो अक्सर मुझे नंगा कर गयी है
जब कभी
जहा¡ कहीं जाता हू¡
अचूक उदन्ड्ता के साथ देहों को
छयाओं की ओर सरकते हुए पाता ह¡ू
भट्ठिया¡ सब जगह हैं
सभी जगह लोग सेंकते हैं शील
उम्र की रपट्ती ढलानों पर
ठोकते हैं जगह-जगह कील-
कि अनुभव ठहर सके
अक्सर लोग आपस में बुनते हैं
गहरा तनाव
वह शायद इसलिये कि थोड़ी देर ही सही
मृत्यु से उबर सकें
मेरी दृष्टि जब भी कभी
जिन्दगी के काले कोनों मे पड़ी है
मैंने वहा¡ देखी है-
एक अन्èाी ढलान
बैलगािड़यों को पीठ पर लादकर
खड़ी है
(जिनमें व्यक्तित्व के सूखे कंकाल हैं)
वैसे यह सच है-
जब
सड़्कों में होता हू¡
बहसों में होता हू¡¡
रह-रह चहकता हू¡
लेकिन हर बार वापस घर लौट्कर
कमरे के अपने एकान्त में
जूते से निकाले गये पा¡व-सा
महकता ह¡ू।।
शान्ति पाठ :-अखबारों की सुिर्खया¡ मिटाकर दुनिया के नक्षे पर
अन्धकार की एक नई रेखा खींच रहा ह¡ू
मैं अपने भविष्य के पठार पर आत्महीनता का दलदल
उलीच रहा ह¡ू।
मेरा डर मुझे चर रहा है।
मेरा अस्तित्व पड़ोस की नफरत की बगल से उभर रहा है।
अपने दिमाग के आत्मघाती एकान्त में
खुद को निहत्था साबित करने के लिये
मैनें गा¡धी के तीनों बन्दरों की हत्या की है।
देश-प्रेम की भट्ठी जलाकर
मैं अपनी ठ्ण्डी मांसपेसियों को विदेषी मुद्रा में
ढाल रहा हू¡।
फूट पड़्ने के पहले,अणुबम के मसौदे को बहसों की प्याली में
उबाल रहा ह¡ू।
जरायमपेषा औरतों की सावधानी और संकट कालीन क्रूरता
मेरी रक्षा कर रही है।
गर्भ-गद्गद औरतों में अजवाईन का सत्त और मिस्सी
बा¡ट रहा हू¡।
युवकों को आत्महत्या के लिये रोजगार दफ्तर भेजकर
पंचवषीZय योजनाओं की सख्त चट्टान को
कागज से काट रहा हू¡।
बूढ़ो को बीते हुए का दर्प और बच्चों को विरोधी
चमडे़ का मुहावरा सिखा रहा हू¡।
गिद्धों की आ¡खों के खूनी कोलाहल और ठन्डे लोगों की
आत्मीयता से बचकर
मैकमोहन रेखा एक मुर्दे के बगल में सो रही है
और मैं दुनिया के शान्ति दूतों और जूतों को
परम्परा की पालिश से चमका रहा ह¡ू
अपनी आ¡खों में सभ्यता के गभाZषय की दीवारों का
सूरमा लगा रहा हू¡।
मैं देख रहा हू¡ एशिया में दायें हाथों की मक्कारी ने
बिस्फोट्क सुरंगे बिछा दी हैं।
उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम-कोरिया, वियतनाम
पाकिस्तान, इजराइल और कई नाम
उसके चारों कोनों पर खूनी धब्बे चमक रहे है।
मगर मैं अपनी भूखी अ¡तणिया¡ हवा में फैलाकर
पूरी नैतिकता के साथ अपने सडे़ हुए अंगो को सह रहा हू¡।
भेिड़़ये को भाई कह रहा हू¡।
कबूतर का पर लगाकर
विदेशी युद्ध प्रेक्षकों ने
आजादी की बिगड़ी हुई मशीन को
ठीक कर दिया है।
वह फिर हवा देने लगी है।
न मै कमन्द हू
न कवच हू¡
न छन्द ह¡ू
मैं बीचो बीच से दब गया हू¡।
मैं चारो तरफ से बन्द हू¡।
मैं जानता हू¡ कि इससे न तो कुर्सी बन सकती है
और न बैसाखी
मेरा गुस्सा-
जनमत की चढ़ी हुई नदी में
एक सड़ा हुआ काठ है।
लन्दन और न्युयार्क के घुण्डीदार तसमों में
डमरू की तरह बजता हुआ मेरा चरित्र
अग्रेंजी का 8 है।
फोटो पंकज दीछित के कविता पोस्टर से
10 अप्रैल 2008
पवन करण की तीन कवितायें:-
पवन करण जाने माने कवि है उनकी कविता आज के दौर में समाज का शब्दों से प्रतिबिम्बन है हम उनकी कुछ कविताओं को यहां प्रकासित कर रहे है।
इस कदर बेमतलब रहना सिखाया जाता है उन्हें
कि प्रधानमंत्री को हमेशा घेरे में लिये रहते
उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता
प्रधानमंत्री जनता से क्या कह रहे हैं
जिस वक्त प्रधानमंत्री बोले जा रहे होते हैं
कमांडो अपनी बिल्लौट निगाहों से लगातार
देख रहे होते हैं हमें इधर उधर
पेट से बाहर आने को व्यग्र वायु और
मुंह से बाहर छलांग मारने को बेताब हंसी
रोक पाना कितना कठिन होता है
यह कोई पदोड़ और हंसोड़ से पूछे
प्रधानमंत्री के सुनाये जिस चुटकुले पर जनता
मुंह फाड़ कर हंस रही होती है
उसे सुन कर कमांडो के चेहरे पर हंसी तो क्या
मुस्कान की हल्की सी लकीर भी नहीं उभरती
प्रधानमंत्री के पढ़े किसी शेर पर जब सब
दे रहे होते हैं दाद उनके होंठ कसे हुए होते हैं
प्रधानमंत्री की किसी घोषणा पर तालियों की
गड़गड़ाहट में शामिल होने
उनके हाथों की उंगलियां हिलती तक नहीं
वे हमें इतने निरपेक्ष दिखाई देते हैं कि हमें लगता है
वे कभी प्रधानमंत्री के आगे अपने भतीजे की
नौकरी की दरखास्त तक रखने की नहीं सोचते होंगे
हम अपने प्रधानमंत्री को हमेशा उन्हीं से घिरे
किसी परियोजना का शिलान्यास करते
किसी सेमीनार में दीप प्रज्ज्वलित करते या फिर
किसी पुल का उद्घाटन करते देखते हुए सोचते हैं
कमांडो के रहते हमारे प्रधानमंत्राी की जान
सुरक्षित है एकदम , कि प्रधानमंत्राी को हरदम
घेरे रहते वे कितने चुस्त दुरस्त ,
सजग, चौकस और आश्चर्यजनक फुर्तीले हैं
कमांडो से घिरे हमारे प्रधानमंत्राी हमें देख कर
मुस्कराते हुए दूर से हाथ हिलाते हैं , हम भी
उन्हें अपनी तरफ हाथ हिलाते देख उनकी तरफ
जोर जोर से हिलाते हैं अपने हाथ , मगर जैसे ही
अपने प्रधानमंत्राी से हम हाथ मिलाने की कोशिश करते हैं
कमांडो हम पर पिस्टल तान लेते हैं
हरदम प्रधानमंत्राी को घेरे रहने वाले ओैर
जरा सी बात पर हम पर गोली दाग देने के लिये तैयार
कमांडो से हमें डर लगता है , क्या हरदम
कमांडो से घिरे रहने वाले और हमारी तरह ही निहत्थे
प्रधानमंत्राी को कभी उनसे डर नहीं लगता ?
२
हम दूरदराज बैठे कमांडो से घिरे अपने प्रधानमंत्राी को
भारी भरकम प्रतिनिधि मंडल के साथ
विदेश यात्राा पर जाते देखते हैं
प्रतिनिधि मंडल में वही लोग शामिल होते हैं
जो प्रधानमंत्राी से हाथ मिलाने में हो चुके होते हैं कामयाब
हम अपने खाली हाथ अपनी जेबों में घुसेड़े
कमांडो की तनी हुई पिस्टल को करते हुए याद
प्रधानमंत्राी को हवाई जहाज में चढ़ने से पहले
मंत्रिामंडल के साथियों से फूल ग्रहण करते देखते हैं
प्रधानमंत्राी एक एक कर सबसे मुस्कराते
किसी किसी से थोड़ी थोड़ी बात करते
फूल लेते जाते हुए हवाई जहाज पर चढ़ने के लिये
लगी सीढ़ी तक बढ़ते जाते हैं
प्रधानमंत्राी को मिलते जा रहे फूलों को
प्रधानमंत्राी के साथ साथ आगे बढ़ रहे
कमांडो करते जाते हैं खुद के हवाले
विदेश यात्राा पर जाते प्रधानमंत्राी को फूल देने वालों में
मंत्रिामंडल में शामिल वह बुजुर्ग मंत्राी भी होता है
जो प्रधानमंत्राी को प्रधानमंत्राी मानता ही नहीं
जो सरकार में नम्बर दो या
अगला प्रधानमंत्राी माना जाता है जो ठीक
प्रधानमंत्राी के बगल वाले घर में रहता है
और रोज सुबह सोकर उठते ही
प्रधानमंत्राी के घर में पत्थर फेंकता है
और प्रधानमंत्राी के वे कमांडो भी उससे
कुछ नहीं कह पाते जो प्रधानमंत्राी से हाथ मिलाने की
कोशिश करने पर हमारी तरफ पिस्टल तान लेते हैं
प्रधानमंत्राी न चाहते हुए भी उससे हंस कर
फूल ग्रहण करते हैं , वह न चाहते हुए भी
प्रधानमंत्राी को फूल भेंट करता है
प्रधानमंत्राी अपने प्रति उसकी आंखों में
तिरस्कार और उसके होठों पर
कुटिल मुस्कान साफ देखते हुए भी
उससे नहीं कह पाते कि जाइए नहीं लेने
मुझे आपसे फूल और सुनिए आगे से आप कभी
इस मौके पर आना भी नहीं मुझे छोड़ने
कमांडो इनका चेहरा नहीं दिखना चाहिए मुझे
आज के बाद , तुम्हें पता नहीं ये महाशय
मुझे हटा कर खुद प्रधानमंत्राी बनना चाहते हैं
प्रधानमंत्राी के कमांडो प्रधानमंत्राी और उसे फूल लेते देते
देख कर बने रहते हैं सपाट , उसे लेकर
प्रधानमंत्राी की इच्छा को नहीं बनने देते वे अपनी इच्छा
मगर इस बात को याद कर
पेशाबघर में पेशाब करते हुए वे मुस्कराते जरूर हैं।
३
दूरदराज बैठे हम सोचते हैं हमारे प्रधानमंत्राी
उन कमांडो से जिनसे वे हमेशा घिरे रहते हैं
ठीक उसी तरह कभी हंसी मजाक करते हैं
जैसे वे पत्राकारों से करते हैं
कभी हमने उन्हें किसी कमांडो से बात
करते देखा तो नहीं चलो प्रधानमंत्राी की छोड़ो
क्या कभी प्रधानमंत्राी को खाली पाकर
उन्हें चारों तरफ से घेर कर चलते कमांडो ही उनसे
किसी बात पर बात करने की करते हैं कोशिश
क्या प्रधानमंत्राी किसी कमांडो के बीमार पड़ जाने पर
साथी कमांडो से उसका हाल पूछते हैं ,
उसके लौटने पर उससे कहते हैं
क्यों क्या हो गया था तुम्हें अब तो ठीक हो न ,
हम जैसे दफ्तर के बाबुओं के यहां
जैसे हमारे साहब चले आते हैं क्या प्रधानमंत्राी भी
किसी कमांडो की बेटी की शादी में
लिफाफा लेकर पहुंच जाते हैं
क्या कोई कमांडो भी इस तरह की इच्छा रखता है
कभी प्रधानमंत्राी अपने काफिले को रोक कर पूछें
अरे रमेश तुम्हारा घर तो इसी सड़क पर है न
चलो आज तुम्हारे घर चल कर चाय पीते हैं
प्रधानमंत्राी क्या उन सभी कमांडो
जो उन्हें हमेशा घेरे रहते हैं के नाम जानते हैं
उन्हें पानी चाहिए होता है तो किसी
कमांडो की तरफ देख कर वे सिर्फ पानी कहते हैं
या रणवीर पानी तो लाओ कहते हैं
और तो और वे कमांडो प्रधानमंत्राी के इर्द गिर्द
कहां कहां घेरा बनाये रहते हैं
क्या उस जगह के बाहर दरवाजे पर भी
जिसमें हमारे बुजुर्ग प्रधानमंत्राी के पायजामे की गांठ
अक्सर देर तक खुलती नहीं है तब क्या
प्रधानमंत्राी उसे खोलने उन्हीं में से
किसी एक को आवाज देकर बुलाते हैं
कमाल है कि अपने प्रधानमंत्राी को तो हमने
अक्सर ऊंघते , सोते, उबासी लेते देखा है
मगर प्रधानमंत्राी को घेरे रहते कमांडो को हमने आज तक
छींकते , खुजाते, नाक में उंगली मारते नहीं देखा
हम सोचते है हमारे प्रधानमंत्राी कभी अपने कमांडो से
हमारे बारे में भी बात करते होंगे
क्या वे कभी उनसे कहते होंगे जहां तक
जनता पर तुम्हारे बंदूक तान लेने की बात है
वो तो ठीक है मगर मेरा तुमसे अनुरोध है
कभी उन पर गोली मत चला देना।
तद्भव से साभार...........
पवन करण जाने माने कवि है उनकी कविता आज के दौर में समाज का शब्दों से प्रतिबिम्बन है हम उनकी कुछ कविताओं को यहां प्रकासित कर रहे है।
इस कदर बेमतलब रहना सिखाया जाता है उन्हें
कि प्रधानमंत्री को हमेशा घेरे में लिये रहते
उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता
प्रधानमंत्री जनता से क्या कह रहे हैं
जिस वक्त प्रधानमंत्री बोले जा रहे होते हैं
कमांडो अपनी बिल्लौट निगाहों से लगातार
देख रहे होते हैं हमें इधर उधर
पेट से बाहर आने को व्यग्र वायु और
मुंह से बाहर छलांग मारने को बेताब हंसी
रोक पाना कितना कठिन होता है
यह कोई पदोड़ और हंसोड़ से पूछे
प्रधानमंत्री के सुनाये जिस चुटकुले पर जनता
मुंह फाड़ कर हंस रही होती है
उसे सुन कर कमांडो के चेहरे पर हंसी तो क्या
मुस्कान की हल्की सी लकीर भी नहीं उभरती
प्रधानमंत्री के पढ़े किसी शेर पर जब सब
दे रहे होते हैं दाद उनके होंठ कसे हुए होते हैं
प्रधानमंत्री की किसी घोषणा पर तालियों की
गड़गड़ाहट में शामिल होने
उनके हाथों की उंगलियां हिलती तक नहीं
वे हमें इतने निरपेक्ष दिखाई देते हैं कि हमें लगता है
वे कभी प्रधानमंत्री के आगे अपने भतीजे की
नौकरी की दरखास्त तक रखने की नहीं सोचते होंगे
हम अपने प्रधानमंत्री को हमेशा उन्हीं से घिरे
किसी परियोजना का शिलान्यास करते
किसी सेमीनार में दीप प्रज्ज्वलित करते या फिर
किसी पुल का उद्घाटन करते देखते हुए सोचते हैं
कमांडो के रहते हमारे प्रधानमंत्राी की जान
सुरक्षित है एकदम , कि प्रधानमंत्राी को हरदम
घेरे रहते वे कितने चुस्त दुरस्त ,
सजग, चौकस और आश्चर्यजनक फुर्तीले हैं
कमांडो से घिरे हमारे प्रधानमंत्राी हमें देख कर
मुस्कराते हुए दूर से हाथ हिलाते हैं , हम भी
उन्हें अपनी तरफ हाथ हिलाते देख उनकी तरफ
जोर जोर से हिलाते हैं अपने हाथ , मगर जैसे ही
अपने प्रधानमंत्राी से हम हाथ मिलाने की कोशिश करते हैं
कमांडो हम पर पिस्टल तान लेते हैं
हरदम प्रधानमंत्राी को घेरे रहने वाले ओैर
जरा सी बात पर हम पर गोली दाग देने के लिये तैयार
कमांडो से हमें डर लगता है , क्या हरदम
कमांडो से घिरे रहने वाले और हमारी तरह ही निहत्थे
प्रधानमंत्राी को कभी उनसे डर नहीं लगता ?
२
हम दूरदराज बैठे कमांडो से घिरे अपने प्रधानमंत्राी को
भारी भरकम प्रतिनिधि मंडल के साथ
विदेश यात्राा पर जाते देखते हैं
प्रतिनिधि मंडल में वही लोग शामिल होते हैं
जो प्रधानमंत्राी से हाथ मिलाने में हो चुके होते हैं कामयाब
हम अपने खाली हाथ अपनी जेबों में घुसेड़े
कमांडो की तनी हुई पिस्टल को करते हुए याद
प्रधानमंत्राी को हवाई जहाज में चढ़ने से पहले
मंत्रिामंडल के साथियों से फूल ग्रहण करते देखते हैं
प्रधानमंत्राी एक एक कर सबसे मुस्कराते
किसी किसी से थोड़ी थोड़ी बात करते
फूल लेते जाते हुए हवाई जहाज पर चढ़ने के लिये
लगी सीढ़ी तक बढ़ते जाते हैं
प्रधानमंत्राी को मिलते जा रहे फूलों को
प्रधानमंत्राी के साथ साथ आगे बढ़ रहे
कमांडो करते जाते हैं खुद के हवाले
विदेश यात्राा पर जाते प्रधानमंत्राी को फूल देने वालों में
मंत्रिामंडल में शामिल वह बुजुर्ग मंत्राी भी होता है
जो प्रधानमंत्राी को प्रधानमंत्राी मानता ही नहीं
जो सरकार में नम्बर दो या
अगला प्रधानमंत्राी माना जाता है जो ठीक
प्रधानमंत्राी के बगल वाले घर में रहता है
और रोज सुबह सोकर उठते ही
प्रधानमंत्राी के घर में पत्थर फेंकता है
और प्रधानमंत्राी के वे कमांडो भी उससे
कुछ नहीं कह पाते जो प्रधानमंत्राी से हाथ मिलाने की
कोशिश करने पर हमारी तरफ पिस्टल तान लेते हैं
प्रधानमंत्राी न चाहते हुए भी उससे हंस कर
फूल ग्रहण करते हैं , वह न चाहते हुए भी
प्रधानमंत्राी को फूल भेंट करता है
प्रधानमंत्राी अपने प्रति उसकी आंखों में
तिरस्कार और उसके होठों पर
कुटिल मुस्कान साफ देखते हुए भी
उससे नहीं कह पाते कि जाइए नहीं लेने
मुझे आपसे फूल और सुनिए आगे से आप कभी
इस मौके पर आना भी नहीं मुझे छोड़ने
कमांडो इनका चेहरा नहीं दिखना चाहिए मुझे
आज के बाद , तुम्हें पता नहीं ये महाशय
मुझे हटा कर खुद प्रधानमंत्राी बनना चाहते हैं
प्रधानमंत्राी के कमांडो प्रधानमंत्राी और उसे फूल लेते देते
देख कर बने रहते हैं सपाट , उसे लेकर
प्रधानमंत्राी की इच्छा को नहीं बनने देते वे अपनी इच्छा
मगर इस बात को याद कर
पेशाबघर में पेशाब करते हुए वे मुस्कराते जरूर हैं।
३
दूरदराज बैठे हम सोचते हैं हमारे प्रधानमंत्राी
उन कमांडो से जिनसे वे हमेशा घिरे रहते हैं
ठीक उसी तरह कभी हंसी मजाक करते हैं
जैसे वे पत्राकारों से करते हैं
कभी हमने उन्हें किसी कमांडो से बात
करते देखा तो नहीं चलो प्रधानमंत्राी की छोड़ो
क्या कभी प्रधानमंत्राी को खाली पाकर
उन्हें चारों तरफ से घेर कर चलते कमांडो ही उनसे
किसी बात पर बात करने की करते हैं कोशिश
क्या प्रधानमंत्राी किसी कमांडो के बीमार पड़ जाने पर
साथी कमांडो से उसका हाल पूछते हैं ,
उसके लौटने पर उससे कहते हैं
क्यों क्या हो गया था तुम्हें अब तो ठीक हो न ,
हम जैसे दफ्तर के बाबुओं के यहां
जैसे हमारे साहब चले आते हैं क्या प्रधानमंत्राी भी
किसी कमांडो की बेटी की शादी में
लिफाफा लेकर पहुंच जाते हैं
क्या कोई कमांडो भी इस तरह की इच्छा रखता है
कभी प्रधानमंत्राी अपने काफिले को रोक कर पूछें
अरे रमेश तुम्हारा घर तो इसी सड़क पर है न
चलो आज तुम्हारे घर चल कर चाय पीते हैं
प्रधानमंत्राी क्या उन सभी कमांडो
जो उन्हें हमेशा घेरे रहते हैं के नाम जानते हैं
उन्हें पानी चाहिए होता है तो किसी
कमांडो की तरफ देख कर वे सिर्फ पानी कहते हैं
या रणवीर पानी तो लाओ कहते हैं
और तो और वे कमांडो प्रधानमंत्राी के इर्द गिर्द
कहां कहां घेरा बनाये रहते हैं
क्या उस जगह के बाहर दरवाजे पर भी
जिसमें हमारे बुजुर्ग प्रधानमंत्राी के पायजामे की गांठ
अक्सर देर तक खुलती नहीं है तब क्या
प्रधानमंत्राी उसे खोलने उन्हीं में से
किसी एक को आवाज देकर बुलाते हैं
कमाल है कि अपने प्रधानमंत्राी को तो हमने
अक्सर ऊंघते , सोते, उबासी लेते देखा है
मगर प्रधानमंत्राी को घेरे रहते कमांडो को हमने आज तक
छींकते , खुजाते, नाक में उंगली मारते नहीं देखा
हम सोचते है हमारे प्रधानमंत्राी कभी अपने कमांडो से
हमारे बारे में भी बात करते होंगे
क्या वे कभी उनसे कहते होंगे जहां तक
जनता पर तुम्हारे बंदूक तान लेने की बात है
वो तो ठीक है मगर मेरा तुमसे अनुरोध है
कभी उन पर गोली मत चला देना।
तद्भव से साभार...........
09 अप्रैल 2008
एक कार्यकर्ता की सार्वजनिक डायरी:-
अभिषेक श्रीवास्तव के द्वारा प्रस्तुत यह रिपोर्ट तहलका मे प्रकाशित हुई जिसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे है :-
राजेंद्र रवि एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। गाहे-बगाहे उन्हें लेखक भी कहा जा सकता है और उनकी पहचान सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में असंसदीय गलियारे में नारे लगाने वाले हजारों आम चेहरों में एक के रूप में भी की जा सकती है। आम तौर पर वे परिवहन क्षेत्र के विशेषज्ञ माने जाते हैं और दिल्ली के चांदनी चौक में रिक्शों को बंद करवाने के सरकार के फैसले के दौरान 'रिक्शा: एक महागाथा' नामक पुस्तक से वे चर्चा में आए। उनकी एक अन्य पुस्तक हाल ही के दिनों में बाजार में आई है जिसका नाम है 'यथार्थ की धरती और सपना'।
यह पुस्तक किसी विशेष उद्देश्य से नहीं लिखी गई है। यह राजेंद्र रवि द्वारा समय-समय पर लिखे आलेखों और अनुभवों का एक संकलन है जो उन्हें सार्वजनिक राजनीति में आने के बाद हुए और जिनके प्रति उनकी लेखनी सक्रिय रही। चूंकि लंबे समय से रवि दिल्ली में ही रह रहे हैं, इसलिए जाहिर तौर पर उनका कार्यक्षेत्र दिल्ली ही है और यहीं के शहरी नियोजन पर उन्होंने काफी काम किया है।
पुस्तक चार खंडों में है। पहला खंड परिवहन व्यवस्था पर है, दूसरा पर्यावरण पर, तीसरा महिलाओं की समस्याओं से जुड़ा है और आखिरी खंड में वंचित-शोषित दुनिया के जो पक्ष छूट गए हैं, अधिकतम को समाहित कर लिया गया है। सार्वजनिक जीवन या राजनीतिक दायरे में पहले-पहल उतर रहे किसी भी व्यक्ति के लिए यह पुस्तक आंदोलनों के प्रति आस्था और निगरानी का एक स्रोत है, विश्व दृष्टिकोण का एक खाका निर्मित करने की जंत्री है और समाज विज्ञान में एक प्रवेशिका है।
लेखक पुस्तक की भूमिका में जो स्वीकार करते हैं, दरअसल वही इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जेहन में पहला ख्याल भी आता है, 'मुझे इस बात का गहरा एहसास है कि यह पुस्तक अलग-अलग मुद्दों पर केंद्रित अपनी विशिष्ट सामग्री के चलते किसी विषय का गंभीर विवेचन प्रस्तुत नहीं करती। इस तरह के किसी संग्रह से ऐसी अपेक्षा करना बहुत उपयुक्त भी नहीं है।' दरअसल, यही स्वीकारोक्ति इस पुस्तक की जान है।
सामाजिक जीवन में उतरने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए दुनिया के तमाम मसलों पर कोई एक राय बनाना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि तमाम किस्म के पक्ष उसे अपनी ओर खींचने में लगे होते हैं।
कह सकते हैं कि आम तौर पर ऐसे छात्रोपयोगी विषयों पर पुस्तकें बहुत कम हैं और हैं भी, तो विषयों पर काफी बोरियत पैदा करती हैं। इस लिहाज से भी प्रस्तुत पुस्तक पढ़ने लायक कही जा सकती है। इसमें आपको दिल्ली के मजदूरों और रिक्शा खींचने वालों की दिक्कतों से लेकर ब्राजीली शहरों के नियोजन के मॉडल सम्बन्धी उदाहरण मिल जाएंगे। एक ओर जहां आदिवासियों की कीमत पर आधुनिक विकास की बात मिलेगी, वहीं भोपाल गैस कांड या संभावित परमाणु युद्ध के चलते धरती के बदले हुए नक्शे की तस्वीर दिखाई देगी। जल, जंगल और जमीन के सवालों पर लोगों के लुटने-पिटने के उदाहरण शामिल हैं, तो घरेलू हिंसा और विस्थापन की मार झेल रही महिलाओं का दर्द भी बयां है।
तमाम सवालों के बीच दिल्ली के मालियों पर एक आलेख विशेष तौर पर ध्यान खींचता है क्योंकि इनके बारे में आम तौर पर कहीं पढ़ने को नहीं मिलता। हमें यह जान कर आश्चर्य होता है कि मालियों को अपने ही घर से बाल्टी और औजार लाने के आदेश भी इसी दिल्ली में जारी किए जा चुके हैं। यह भी पढ़ने को मिलेगा कि दिल्ली के छिटपुट जंगलों से लकड़ी की अवैध कटाई भी होती है और इसका विरोध करने पर मालियों को खतरे भी उठाने पड़ते हैं।
इसके अलावा रवि आपको ब्राजीली शहर क्यूरीटीबा ले जाते हैं जहां के शहरी नियोजन को मानक के तौर पर बताया गया है। एक बहुत बढ़िया और बुनियादी बात आप देखेंगे जो इस शहर के बारे में कही गई है- क्यूरीटीबा के 99 फीसदी बाशिंदों का कहना था कि उन्हें अपने शहर में रहना अच्छा लगता है। यह बात देखने में चाहे जितनी भी सहज लगे, लेकिन यदि यही सवाल हमारे देश के सिर्फ चार महानगरों के बाशिंदों से पूछा जाए, तो आप ऐसे जवाब की कितने लोगों से उम्मीद करेंगे। एक ऐसा शहर जहां के 99 फीसदी लोगों को वहां रहना भाता हो, अपने आप में एक अद्भुत परिघटना है।
ऐसे तमाम चौंकाने वाले उदाहरणों से मिलकर बनी है यह पुस्तक। यकीन मानिए जैसा कि पहले मैंने कहा- सार्वजनिक जीवन या राजनीतिक दायरे में पहले-पहल उतर रहे किसी भी व्यक्ति के लिए यह पुस्तक आंदोलनों के प्रति आस्था और निगरानी का एक स्रोत है, विश्व दृष्टिकोण का एक खाका निर्मित करने की जंत्री है और समाज विज्ञान में एक प्रवेशिका है।
अकादमिक जटिलता से बचते हुए यदि जनता के जमीनी मसलों से साबका बैठाना हो, समय कम हो और भाषा बोलचाल वाली समझ में आती हो- तो इस पुस्तक को एक बार जरूर देखें। कहीं-कहीं लेखक के आत्मवृतान्त के संदर्भ में दुहराव दिख सकता है, लेकिन उसे नजरअंदाज कर दें। जाहिर तौर पर जनता के बीच काफी दिनों तक काम करने के बाद नागरिक समाज का हिस्सा बन जाने पर एक आत्ममुग्धता जैसी चीज घर कर ही जाती है। मूल बात उन अनुभवों, संस्मरणों और तथ्यों में छुपी है जो पुस्तक की जान है। पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद ही आपको पुस्तक के नाम का औचित्य समझ में आएगा, शुरू में नहीं।
अभिषेक श्रीवास्तव के द्वारा प्रस्तुत यह रिपोर्ट तहलका मे प्रकाशित हुई जिसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे है :-
राजेंद्र रवि एक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। गाहे-बगाहे उन्हें लेखक भी कहा जा सकता है और उनकी पहचान सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में असंसदीय गलियारे में नारे लगाने वाले हजारों आम चेहरों में एक के रूप में भी की जा सकती है। आम तौर पर वे परिवहन क्षेत्र के विशेषज्ञ माने जाते हैं और दिल्ली के चांदनी चौक में रिक्शों को बंद करवाने के सरकार के फैसले के दौरान 'रिक्शा: एक महागाथा' नामक पुस्तक से वे चर्चा में आए। उनकी एक अन्य पुस्तक हाल ही के दिनों में बाजार में आई है जिसका नाम है 'यथार्थ की धरती और सपना'।
यह पुस्तक किसी विशेष उद्देश्य से नहीं लिखी गई है। यह राजेंद्र रवि द्वारा समय-समय पर लिखे आलेखों और अनुभवों का एक संकलन है जो उन्हें सार्वजनिक राजनीति में आने के बाद हुए और जिनके प्रति उनकी लेखनी सक्रिय रही। चूंकि लंबे समय से रवि दिल्ली में ही रह रहे हैं, इसलिए जाहिर तौर पर उनका कार्यक्षेत्र दिल्ली ही है और यहीं के शहरी नियोजन पर उन्होंने काफी काम किया है।
पुस्तक चार खंडों में है। पहला खंड परिवहन व्यवस्था पर है, दूसरा पर्यावरण पर, तीसरा महिलाओं की समस्याओं से जुड़ा है और आखिरी खंड में वंचित-शोषित दुनिया के जो पक्ष छूट गए हैं, अधिकतम को समाहित कर लिया गया है। सार्वजनिक जीवन या राजनीतिक दायरे में पहले-पहल उतर रहे किसी भी व्यक्ति के लिए यह पुस्तक आंदोलनों के प्रति आस्था और निगरानी का एक स्रोत है, विश्व दृष्टिकोण का एक खाका निर्मित करने की जंत्री है और समाज विज्ञान में एक प्रवेशिका है।
लेखक पुस्तक की भूमिका में जो स्वीकार करते हैं, दरअसल वही इस पुस्तक को पढ़ने के बाद जेहन में पहला ख्याल भी आता है, 'मुझे इस बात का गहरा एहसास है कि यह पुस्तक अलग-अलग मुद्दों पर केंद्रित अपनी विशिष्ट सामग्री के चलते किसी विषय का गंभीर विवेचन प्रस्तुत नहीं करती। इस तरह के किसी संग्रह से ऐसी अपेक्षा करना बहुत उपयुक्त भी नहीं है।' दरअसल, यही स्वीकारोक्ति इस पुस्तक की जान है।
सामाजिक जीवन में उतरने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए दुनिया के तमाम मसलों पर कोई एक राय बनाना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि तमाम किस्म के पक्ष उसे अपनी ओर खींचने में लगे होते हैं।
कह सकते हैं कि आम तौर पर ऐसे छात्रोपयोगी विषयों पर पुस्तकें बहुत कम हैं और हैं भी, तो विषयों पर काफी बोरियत पैदा करती हैं। इस लिहाज से भी प्रस्तुत पुस्तक पढ़ने लायक कही जा सकती है। इसमें आपको दिल्ली के मजदूरों और रिक्शा खींचने वालों की दिक्कतों से लेकर ब्राजीली शहरों के नियोजन के मॉडल सम्बन्धी उदाहरण मिल जाएंगे। एक ओर जहां आदिवासियों की कीमत पर आधुनिक विकास की बात मिलेगी, वहीं भोपाल गैस कांड या संभावित परमाणु युद्ध के चलते धरती के बदले हुए नक्शे की तस्वीर दिखाई देगी। जल, जंगल और जमीन के सवालों पर लोगों के लुटने-पिटने के उदाहरण शामिल हैं, तो घरेलू हिंसा और विस्थापन की मार झेल रही महिलाओं का दर्द भी बयां है।
तमाम सवालों के बीच दिल्ली के मालियों पर एक आलेख विशेष तौर पर ध्यान खींचता है क्योंकि इनके बारे में आम तौर पर कहीं पढ़ने को नहीं मिलता। हमें यह जान कर आश्चर्य होता है कि मालियों को अपने ही घर से बाल्टी और औजार लाने के आदेश भी इसी दिल्ली में जारी किए जा चुके हैं। यह भी पढ़ने को मिलेगा कि दिल्ली के छिटपुट जंगलों से लकड़ी की अवैध कटाई भी होती है और इसका विरोध करने पर मालियों को खतरे भी उठाने पड़ते हैं।
इसके अलावा रवि आपको ब्राजीली शहर क्यूरीटीबा ले जाते हैं जहां के शहरी नियोजन को मानक के तौर पर बताया गया है। एक बहुत बढ़िया और बुनियादी बात आप देखेंगे जो इस शहर के बारे में कही गई है- क्यूरीटीबा के 99 फीसदी बाशिंदों का कहना था कि उन्हें अपने शहर में रहना अच्छा लगता है। यह बात देखने में चाहे जितनी भी सहज लगे, लेकिन यदि यही सवाल हमारे देश के सिर्फ चार महानगरों के बाशिंदों से पूछा जाए, तो आप ऐसे जवाब की कितने लोगों से उम्मीद करेंगे। एक ऐसा शहर जहां के 99 फीसदी लोगों को वहां रहना भाता हो, अपने आप में एक अद्भुत परिघटना है।
ऐसे तमाम चौंकाने वाले उदाहरणों से मिलकर बनी है यह पुस्तक। यकीन मानिए जैसा कि पहले मैंने कहा- सार्वजनिक जीवन या राजनीतिक दायरे में पहले-पहल उतर रहे किसी भी व्यक्ति के लिए यह पुस्तक आंदोलनों के प्रति आस्था और निगरानी का एक स्रोत है, विश्व दृष्टिकोण का एक खाका निर्मित करने की जंत्री है और समाज विज्ञान में एक प्रवेशिका है।
अकादमिक जटिलता से बचते हुए यदि जनता के जमीनी मसलों से साबका बैठाना हो, समय कम हो और भाषा बोलचाल वाली समझ में आती हो- तो इस पुस्तक को एक बार जरूर देखें। कहीं-कहीं लेखक के आत्मवृतान्त के संदर्भ में दुहराव दिख सकता है, लेकिन उसे नजरअंदाज कर दें। जाहिर तौर पर जनता के बीच काफी दिनों तक काम करने के बाद नागरिक समाज का हिस्सा बन जाने पर एक आत्ममुग्धता जैसी चीज घर कर ही जाती है। मूल बात उन अनुभवों, संस्मरणों और तथ्यों में छुपी है जो पुस्तक की जान है। पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद ही आपको पुस्तक के नाम का औचित्य समझ में आएगा, शुरू में नहीं।
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