03 दिसंबर 2007

लज्जा : तसलीमा की नहीं, हमारी



क्या तसलीमा नसरीन की कहानी हमारे समाज की उदारता के पतन की कहानी है? शांतनु गुहा रे बता रहे हैं कि जब राजनीतिक हितों पर आंच आती नजर आती है तो दक्षिणपंथी और वामपंथी एक ही पंथ पर चल पड़ते हैं.

“बारी फिरबो सुनिल दा...कोतो दिन बारी जाई नी. कोतो दिन बारी फिरे कोब्जी डूबिए गोरोम दाल भात खाई नी, किच्छू बूझते पारछी ना कि होछे.” (मैं घर लौटना चाहती हूं, सुनिल दा. घर गए और अपना मनपसंद गर्म दाल-भात खाए कितने दिन गुजर गए. मुझे समझ नहीं आता कि ये क्या हो रहा है.)

ये वे शब्द हैं जो 2004 में तसलीमा नसरीन ने बंगाली लेखक सुनिल गंगोपाध्याय से तब कहे थे जब वे जर्मनी के म्यूनिख शहर में थीं. शायद इन दिनों भी उनकी मनोदशा कमोबेश ऐसी ही हो. बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन दर-दर भटकने को मजबूर हैं. वह भी एक ऐसे देश में जिसे वह अपना घर कहती आई हैं. वह एक ऐसी अनचाही और असुविधाजनक वस्तु हो गई हैं जिससे हर कोई पीछा छुड़ाता नजर आ रहा है. तसलीमा इसलिए अनचाही हो गईं थीं कि उन्हें सुरक्षा देने से वामदलों को प. बंगाल में कीमती मुस्लिम वोटों के खिसकने का डर लग रहा था. और हास्यास्पद ही है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत इस पेशकश से की कि ‘तसलीमाबेन’ गुजरात में रहें.

तसलीमा जब भारत पहुंची थी तो उन्हें यकीन था कि यहां उन्हें लिखने और बोलने की आजादी होगी. उनके ऐसा सोचने की वजह भी थी. लोकतंत्र और सामाजिक अधिकारों के लिए लड़ने वालों को भारत ने हमेशा पनाह दी है. उदाहरण एक नहीं अनेक हैं--दलाई लामा और उनके हजारों अनुयायी, नेपाली कांग्रेस के कई नेता, फैज़ अहमद फैज़ और फाहमिदा रियाज़ जैसे पाकिस्तानी लेखक, शेख मुजीबुर्र रहमान की पुत्री शेख हसीना वाज़ेद, अफगानिस्तान के नजीबुल्ला और उनका परिवार.

तो फिर अचानक तसलीमा नसरीन के साथ ही ऐसा क्या हो गया?

जवाब सीधा मगर शर्मिंदा करने वाला है. तसलीमा राजनीतिक रूप से तकलीफदेह हो गईं थीं और इसलिए उन्हें निकाल बाहर किया गया. अप्रत्याशित ये रहा कि उन्हें धक्का देने वाले हाथ इस बार वामपंथियों के थे जिन्होंने सामाजिक अधिकारों और आजादी की बड़ी-बड़ी बातें के बीच अचानक अपना असली चेहरा जाहिर कर दिया है. वह चेहरा जो पार्टी के हित के लिए आजादी और अधिकारों के दमन से बनता है. ऐसा ही कुछ नंदीग्राम में हुआ और यही तसलीमा नसरीन के साथ भी दोहराया गया. मुस्लिमों का एक वर्ग इस जानी-मानी लेखिका के विरोध में सड़कों पर क्या उतरा कि तसलीमा को बंजारा बना दिया गया. उन्हें आनन-फानन में पहले जयपुर रवाना किया गया, उसके बाद दिल्ली और अब वह राजधानी के आसपास किसी गोपनीय जगह पर राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड की सुरक्षा में हैं.

वामदल हमेशा से लेखकों और कलाकारों के खिलाफ संघ परिवार की असहिष्णुता पर लानत भेजते रहे हैं लेकिन अचानक ही इस घटना ने उनके दोगलेपन को सामने ला दिया है. तसलीमा इसलिए अनचाही हो गईं थीं कि उन्हें सुरक्षा देने से वामदलों को प. बंगाल में कीमती मुस्लिम वोटों के खिसकने का डर लग रहा था. और हास्यास्पद ही है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत इस पेशकश से की कि ‘तसलीमाबेन’ गुजरात में रहें. नई दिल्ली में मौजूद उनके साथी शायद वाम को शर्मिंदा करने और अपनी खामियों से ध्यान हटाने के लिए तसलीमा बचाओ अभियान को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा रहे थे. वामपंथियों की असहिष्णुता ने अचानक ही दक्षिणपंथियों को अपनी असहिष्णुता के बचाव का ब्रह्मास्त्र दे दिया है. जहां तक केंद्र का सवाल है तो उसकी जबान ज्यादातर मौकों पर दबी ही रही. जैसा कि एक कांग्रेस नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “ये एक गंदा राजनीतिक खेल बन गया है. किसी को तसलीमा की चिंता नहीं है. सबको अपने वोटबैंक की पड़ी है.”

विचारों की आजादी का मुद्दा राजनीतिक बयानों में कहीं दिखाई नहीं दे रहा. जैसा कि जाने-माने लेखक और संपादक जॉय गोस्वामी कहते हैं, “उनके (तसलीमा के) लेखन की आलोचना की जा सकती है पर जिस तरह से उन्हें निकाला गया यह खेदजनक है.” ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमन्स एसोसिएशन की महासचिव कुमुदिनी पति भी इससे सहमति जताते हुए कहती हैं, “इसे और कुछ नहीं बस अपने मतलब के लिए किसी के पीछे पड़ना कहा जा सकता है. हैरानी हो रही है कि आखिर कलाकारों को राजनीतिक गोटियों की तरह इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है? नंदीग्राम और रिजवानुर मुद्दे पर प. बंगाल के मुस्लिम नाराज हैं और ऐसे में तसलीमा को कोलकाता से बाहर करना राजनीति से प्रेरित कदम ज्यादा लगता है.” “अब जब सरकार ने बयान दे दिया है तो कौन ये फैसला करेगा कि किस चीज से भारत में धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचती है और किससे नहीं.क्या उन्हें हर बार अपनी मूल प्रति सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भेजनी होगी?”

उधर, सीपीएम ऐसी किसी भी बात से इनकार करती है. लेकिन इस मामले में उसका रुख साफ है कि पार्टी तसलीमा को सुरक्षा देकर अपने वोट बैंक के नुकसान का खतरा मोल नहीं ले सकती. पार्टी प्रवक्ता सीताराम येचुरी तीखे सुर में कह चुके हैं कि तसलीमा को वीजा देने वाले केंद्र को उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए. पिछले तीन साल से तसलीमा का घर रहे कोलकाता में राज्य सरकार और पुलिस विभाग के आला अधिकारी इस मामले पर कोई टिप्पणी करने के लिए तैयार नहीं हैं. हालांकि राइटर्स बिल्डिंग में बैठे उच्चाधिकारी विनम्र और अनिश्चित लहजे में ‘तसलीमा की वापसी का स्वागत है’ जैसी बातें जरूर कह रहे हैं, लेकिन पुलिस ने यह साफ कर दिया है कि तसलीमा वहां अवांछित हैं. कोलकाता के डिप्टी कमिश्नर विनीत गोयल का कहना था, “हमें फौरन उन्हें बाहर भेजने के आदेश थे. हमने सुरक्षा कारणों के चलते उन्हें बाहर भेजा और ऐसा करने के निर्देश राज्य के गृह विभाग से आए थे.”

लेकिन बात छोटी-मोटी नहीं थी. तसलीमा की जिंदगी में आए इस नए भूचाल से उपजी तरंगों को प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंचने में देर नहीं लगी. युगांडा की राजधानी कंपाला में राष्ट्रकुल देशों के सम्मेलन से वापस आने के बाद प्रधानमंत्री ने सबसे पहले यह संदेश बाहर भेजा कि सरकार कट्टरपंथी ताकतों द्वारा तसलीमा के उत्पीड़न को बर्दाश्त नहीं करेगी और उनकी सुरक्षा हर कीमत पर सुनिश्चित करेगी. विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद को आश्वासन दिया कि सरकार न केवल तसलीमा के वीजा की अवधि बढ़ाएगी बल्कि उन्हें सुरक्षा भी प्रदान करेगी. गौरतलब है कि तसलीमा ने स्वीडन की नागरिकता ली हुई है और भारत में उनका वीजा फरवरी 2008 में खत्म होना है.

मगर वोट बैंक की चिंता तो कांग्रेस को भी है. इसीलिए सुरक्षा की बातें तो की गईं लेकिन साथ ही तसलीमा को, उनका व्यवहार कैसा होना चाहिए, ये पाठ भी पढ़ाया गया. प्रणव मुखर्जी के शब्द थे, “यह उम्मीद की जाती है कि मेहमान उन गतिविधियों से परहेज करेंगी जिनसे हमारे लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचे.”

मशहूर चित्रकार सुवाप्रसन्ना के मुताबिक इस हिदायत से तसलीमा के लेखन की आजादी पर कोई न कोई असर तो पड़ेगा ही. वह कहती हैं, “अब जब सरकार ने बयान दे दिया है तो कौन ये फैसला करेगा कि किस चीज से भारत में धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचती है और किससे नहीं.क्या उन्हें हर बार अपनी मूल प्रति सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भेजनी होगी.” जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के शिक्षक जोया हसन कहती हैं, “दुखद ये है कि कोई भी इसका विरोध नहीं कर रहा. उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है कि उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाए.” लेखक सुनिल गंगोपाध्याय भी नाराजगी भरे स्वर में कहते हैं, “किसी न किसी को जिम्मेदारी तो लेनी ही होगी. आखिर किसी लेखक को इस तरह परेशान कैसे किया जा सकता है?”

गंगोपाध्याय अनुमान लगाते हैं कि अगर तसलीमा ने 2004 के बाद अपनी कोई कृति प्रकाशित नहीं की है तो इसके पीछे की एक वजह शायद उनकी परेशानियों को लेकर कोलकाता के प्रबुद्ध वर्ग की खामोशी भी हो सकती है. तसलीमा ने उस साल जब अपनी आत्मकथा का चौथा भाग ‘साइ सोब ओंधोकार’ (वही अंधकार) लिखा था तो बांग्लादेश सरकार ने ये कहते हुए तुरंत इस पर प्रतिबंध लगा दिया था कि इसमें पैगंबर के बारे में आपत्तिजनक बातें हैं.

गौरतलब है कि पुलिस द्वारा कई बार शहर छोड़ने के सुझाव को तसलीमा ने कोई तरजीह नहीं दी थी. इसलिए ये भी कहा जा रहा है कि राज्य सरकार ने 22 नवंबर को कोलकाता में हुई हिंसा को तसलीमा से छुटकारा पाने के लिए इस्तेमाल किया. गुपचुप रूप से ये भी कहा जा रहा है कि ये हिंसा कई सालों से तसलीमा के खिलाफ सुलग रहे गुस्से का परिणाम हो सकती है. इसी साल अगस्त में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने तसलीमा के खिलाफ मौत का फतवा भी जारी किया था. लेकिन आलोचकों के मुताबिक कोलकाता में हुई हिंसा तसलीमा को लेकर नहीं बल्कि नंदीग्राम के विरोध में थी.

लेकिन कोलकाता छोड़ना शायद तसलीमा की मुसीबतों का अंत न हो. विश्वस्त सूत्रों ने तहलका को बताया है कि परदे के पीछे तसलीमा को इस बात के लिए राजी करने की कोशिशें हो रही हैं कि वह स्वीडन या किसी दूसरे यूरोपीय देश चली जाएं. दिल्ली में स्वीडन के डिप्टी चीफ ऑफ मिशन ने हमें बताया कि उनका देश तसलीमा के वापस लौटने का स्वागत करेगा.

लेकिन सवाल ये है कि अगर तसलीमा को भारत छोड़ना भी पड़ा तो क्या हम खुद को कभी सही अर्थों में उदार लोकतंत्र की संज्ञा दे पाएंगे? क्या ये हमारी छवि पर एक और दाग नहीं होगा?

:-तहलका से सभार

2 टिप्‍पणियां: