23 अप्रैल 2014

चुनावों की चालबाजियां: आनंद तेलतुंबड़े


मौजूदा चुनावी प्रक्रिया, इसके जातीय पहलू और जनता के हितों के अनुकूल एक मुनासिब चुनावी प्रणाली के विकल्पों पर आनंद तेलतुंबड़े का विश्लेषण. द हिंदू में  प्रकाशित, अनुवाद: रेयाज उल हक

कुछ ही दिनों में सोलहवें आम चुनावों की भारी भरकम कसरत पूरी हो जाएगी. और इसी के साथ भारत के सिर पर लगे दुनिया के सबसे महान कार्यरत लोकतंत्र के ताज में एक और हीरा जड़ जाएगा, जबकि यहां रहने वाले ज्यादातर लोग बेचारगी और छीन ली गई आवाजों के साथ अपने वजूद के संघर्ष में फिर से जुट जाएंगे. लोकतंत्र के कुछ महीने लंबे नाच के आखिर में चुने हुए प्रतिनिधि बच जाएंगे जो अपने करोड़ों के निवेश पर पैसे बनाने के धंधे में लग जाएंगे. इस गरीब देश को चुनावों की इस प्रक्रिया की जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसकी तुलना सिर्फ अमेरिका से ही हो सकती है (ऐसा कहा गया है कि भारतीय राजनेता 2012 के पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में खर्च की गई 7 बिलियन डॉलर की राशि के बरअक्स 5 बिलियन डॉलर खर्च करने वाले हैं) और इस पूरी प्रक्रिया में वे सब साजिशें और छल-कपट किए जाते हैं, जिनकी कल्पना कोई इन्सान कर सकता है. जाहिर है कि तब इन सबकुछ को सिर्फ मुट्ठी भर अमीरों के निजाम और अपराधों के जरिए ही कायम रखा जा सकता है. चूंकि हकीकत में ऐसा ही होता रहा है, इसलिए इस पर गौर करना होगा कि भारत की खामियों को तलाशते हुए चुनावों की इस प्रक्रिया की पड़ताल जरूरी है.

जनता के साथ धोखा

उदारवादी ढांचे में प्रत्यक्ष लोकतंत्र मुमकिन नहीं है. चुनावों का मकसद लोकतंत्र को चलाने के लिए जनता के प्रतिनिधियों को चुनना है. हालांकि लोगों की पसंद राजनीतिक दलों द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवारों और कुछ निर्दलियों तक सीमित होती है, जिनमें से ज्यादातर तो मुख्य राजनीतिक दलों के चुनावी गुना-भाग में मदद करने के लिए कठपुतली उम्मीदवार के रूप में खड़े होते हैं. यही वजह है कि बिना किसी काम का सबूत दिए, चुनाव दर चुनाव समान लोगों का समूह चुना जाता रहा है. यह पूरी प्रक्रिया [बाकियों के] भीतर दाखिल होने की रुकावट के रूप में काम करती है. मिसाल के लिए, लोक सभा के उम्मीदवार को अधिकतम 75 लाख रुपए खर्च करने की इजाजत है, यह खर्च सिर्फ मुख्यधारा के राजनीतिक दल ही उठा सकते हैं. लेकिन असली खर्च तो इससे कई गुना ज्यादा होता है. अगर चुनावों में कोई भारी पूंजी लगाने का जोखिम उठाता है, तो सैद्धांतिक रूप से इस निवेश पर उसे फायदा भी होना चाहिए. चूंकि इसका [कानूनन] कोई फायदा नहीं है, इसलिए यह अनिवार्य रूप से बढ़ते हुए भ्रष्टाचार के रूप में सामने आता है. इसने राजनीति को टिकटों के बड़े कारोबार में बदल दिया है, जिसमें बेजोड़ मुनाफा है और यह सब लोगों की नजरों से छुपा हुआ होता है. नेता सामंत बन जाते हैं और निर्वाचन क्षेत्र उनकी जागीर, जिसकी किलेबंदी बाहुबल और धनबल से होती है.

एक एनजीओ एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (एडीआर) के सौजन्य से चुनावों में हिस्सा लेने वाले नेताओं के बारे में जानकारी अब सरेआम है. नेता चुनाव आयोग को जो हलफनामे जमा करते हैं, एडीआर ने उनमें से जानकारियां जुटा कर उन्हें इस तरह पेश किया है कि लोग समझ सकें. हालांकि ये आंकड़े नेताओं द्वारा खुद कबूल किए जाते हैं और इसकी गुंजाइश ज्यादा है कि उन्हें बहुत घटा कर बताया जाता होगा लेकिन इसके बावजूद इन आंकड़ों से यह उजागर होता है प्रतिनिधियों में करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. पंद्रहवीं लोकसभा चुनावों में 1205 करोड़पति उम्मीदवार थे, जिनमें से 300 से ज्यादा संसद में पहुंचे. अपराधों के आंकड़े भी उनकी बढ़ती हुई दौलत के साथ बढ़ते जाते हैं और ये सभी दलों में मौजूद हैं. दो मुख्य दलों कांग्रेस और भाजपा से जुड़े करोड़पति सांसदों की संख्या 2004 में क्रमश: 29 और 26 थी, जो 2009 में बढ़ कर 42 और 41 हो गई. ये उस जनता, उस व्यापक बहुसंख्या के प्रतिनिधि थे जो 20 रुपए रोज पर गुजर करती है! हरेक चुनाव में उनकी बेपनाह दौलत के बढ़ने की दर इससे भी अधिक दिलचस्प है. एडीआर और नेशनल इलेक्शन वाच (एनइडब्ल्यू) ने अपने विश्लेषण में पाया कि फिर से चुनाव लड़ रहे 317 उम्मीदवारों की दौलत 1000 प्रतिशत बढ़ गई थी. ये दरें तो कॉरपोरेट दुनिया में भी नहीं सुनी जाती हैं. एक औसत क्षमता का इंसान, जो ऊपर से गरीबों की सेवा में लगा हो, यहां बेहतरीन फंड प्रबंधकों को मात दे देता है! आम मामलों में ऐसे सबूत आयकर और भ्रष्टाचार-निरोधक अधिकारियों के कान खड़े कर देते हैं, लेकिन इन दौलतमंदों के राजनीतिक रिश्ते उन्हें ऐसे दुनियावी खतरों से बचाए रखते हैं. यहां इस दौलत के स्रोतों के बारे में अंदाजा नहीं लगाया जा रहा है, जबकि यह जानी हुई बात है कि पूरी मशीनरी जनता के नाम पर कॉरपोरेट घरानों और दूसरे धन्ना सेठों के लिए काम करती है.

चुनावों की पद्धति

जब भारत आजाद हुआ, तो नए शासकों के सामने सबड़े बड़ी चुनौती जनता की वे उम्मीदें थीं, जो आजादी के संघर्ष के दौरान पैदा हुई थीं. ये उम्मीदें क्रांति के बाद के रूस (सोवियत संघ) द्वारा हासिल की गई शानदार तरक्की, दूसरे विश्व युद्ध के बाद की कल्याणकारी तौर-तरीकों और पड़ोसी चीन में क्रांति जैसी घटनाओं से कई गुना बढ़ गई थीं. सत्ता हस्तांतरण के दौरान भड़की सांप्रदायिक उथल पुथल, रियासतों के रूप में मौजूद 600 राजनीतिक इकाइयों का भारत के भीतर एकीकरण, देश के कुछ इलाकों में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हथियारबंद संघर्षों और निचली जातियों के उभार ने एक साथ मिल कर नए शासकों के सामने एक भारी चुनौती पेश की थी. उन्होंने जो गणतांत्रिक संविधान बनाया था, उसमें इन उम्मीदों की झलक थी. हालांकि वास्तविक अर्थों में, सत्ता हासिल करने वाली कांग्रेस पार्टी, बुर्जुआ हितों की प्रतिनिधित्व करती थी और उसे बड़ी कारीगरी से उसे बढ़ावा भी देना था. एक तरफ जनता की उम्मीदों को पूरा करने का दिखावा करने की जरूरत और दूसरी तरफ वास्तव में पूंजी के हितों को बढ़ावा देने से एक तनाव पैदा हुआ. यह तनाव इसकी एक के बाद एक बेईमानी भरी कार्रवाइयों की श्रृंखला में भी दिखा. समाजवादी दिखावे के लिए पंचवर्षीय योजना की शुरुआत की गई लेकिन भीतर ही भीतर बंबई योजना को अपनाया गया था-जिसे तब के देश के आठ शीर्ष पूंजीपतियों ने बनाया था. या फिर भूमि सुधारों की शुरुआत की गई, लेकिन इसमें सुनिश्चित किया गया कि उन पर इस तरह अंकुश बना रहे कि व्यापक देहातों में सहयोगी के रूप में धनी किसानों का एक वर्ग बनाया जा सके. या फिर भूख खत्म करने के नाम पर देहातों में पूंजीवादी संबंधों के प्रसार के लिए हरित क्रांति को आगे बढ़ाया गया. ये महज कुछेक मिसालें हैं. लोकतंत्र को चलाने के लिए राजनीतिक रूप से एक ऐसी पद्धति जरूरी थी, जिससे उन्हें सत्ता पर पूरा नियंत्रण हासिल होता.

सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को विजयी घोषित करने वाली चुनावी [एफपीटीपी-फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम] व्यवस्था शासक वर्ग की राजनीतिक सत्ता को मजबूत करने वाली ऐसी ही पद्धति थी. यों यह व्यवस्था औपनिवेशिक शासन से विरासत में अपनाई गई थी, जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश रह चुके दूसरे सभी देशों में हुआ था. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जो भारत को अपने हालात के मुताबिक एक बेहतर पद्धति को अपनाने के लिए इसे छोड़ने से रोकता. आज हम खुद को जिन बुराइयों से घिरा हुआ पाते हैं, उनमें से ज्यादातर इसी एफपीटीपी व्यवस्था से पैदा हुई हैं. असाधारण रूप से ऐसी विविधता भरे राज्यतंत्र में होने वाले चुनावों में एक अकेले विजेता का होना बहुसंख्यक तबके के समर्थन के बिना नहीं हो सकता था. इसका नतीजा यह हुआ कि समान हितों के आधार पर बने ज्यादातर समूहों को बहुसंख्यक तबके के हितों के साथ समझौता करना पड़ा, जिसने इन समूहों को मिला लिए जाने [को-ऑप्शन] और दूसरी धांधलियों का रास्ता खोल दिया. देश में हितों की विविधता अभी भी अनेक दलों को आगे ले आ सकती है, जो बुनियादी रूप से प्रतिस्पर्धी एफपीटीपी चुनावों को और भी बदतर बना देगी, जिसके साथ साथ बढ़ी हुई दर के साथ भारी खर्चे बढ़ते जाएंगे जिन्हें बड़े कारोबार पूरा करेंगे. इसी में जातियों, समुदायों, धर्म वगैरह जैसी मौजूदा खामियों और बेशक बाहुबल का बेरोकटोक इस्तेमाल भी बढ़ेगा. दलगत सीमाओं से ऊपर उठ कर, अनिवार्य रूप से यह सभी शासक वर्गों के मुट्ठीभर लोगों की शक्ति संरचना में रूप में विकसित हो गया है, जिसकी अनेक तरीकों से हिफाजत की जाती है और जिसकी सर्वोच्च ताकत पुलिस और फौज है.

एक वैकल्पिक मॉडल

क्या चुनावों की इस पद्धति का कोई विकल्प नहीं था? देश में शक्ल ले रहा विविधतापूर्ण राज्यतंत्र चुनावों के एक अलग मॉडल की तरफ इशारा करेगा. इसे हम आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कह सकते हैं. यह वो व्यवस्था है जो ज्यादातर यूरोपीय लोकतंत्रों और उन अनेक दूसरे देशों में अपनाई जाती है जिनका लोकतांत्रिक रेकॉर्ड बहुत अच्छा रहा है. हालांकि व्यावहारिक रूप में आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था की अनेक किस्में हैं. लेकिन बुनियादी रूप से ये दलों या सामाजिक समूहों के लिए मतदान की व्यवस्था देती हैं (न कि किसी व्यक्ति को वोट देने के), जो अपने मतों के हिस्से के अनुपात में प्रतिनिधित्व पाते हैं. मिसाल के लिए दलित भारत में 17 फीसदी हैं लेकिन हरेक निर्वाचन क्षेत्र में अल्पसंख्यक होने के कारण वे एफपीटीपी व्यवस्था में कभी भी स्वतंत्र रूप से नहीं चुने जाते, आरक्षित सीटों पर भी नहीं. आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था संसद और विधान सभाओं में उनकी हिस्सेदारी को सुनिश्चित करेगी और यह उन्हें अपने जनाधार का विस्तार करने वाली शक्ति भी मुहैया करा सकती है. आज जिसे थोड़े नरम शब्दों में बहुजन कहा जाता है, उसका निर्माण इसी प्रक्रिया के जरिए मुमकिन था. सामाजिक पहचान की जगह वर्गीय चेतना लेगी और पूरी राजनीति को वर्गीय धुरी पर केंद्रित करेगी. इस व्यवस्था में कोई गलाकाट मुकाबला भी नहीं होगा, क्योंकि हरेक समूह को तर्कसंगत रूप से उनके हिस्से का प्रतिनिधित्व मिलेगा. इसके बजाए मुकाबला संसद के भीतर होने लगेगा, जिसे बहुसंख्यक जनता के हितों में नीतियां बनानी होंगी. एफपीटीपी व्यवस्था में, एक बार चुनाव हो जाने के बाद, नीतिगत मामलों पर संसद में बहस के लिए प्रेरणा देने वाली कोई ताकत नहीं होती. जनता पर असर डालने वाली सरकार की ज्यादातर भौतिक नीतियां (जैसे कि आपातकाल लागू किया जाना और नवउदारवादी आर्थिक सुधार) पर संसद में कभी बहस ही नहीं हुई.

एफपीटीपी चुनावों में सैद्धांतिक खामी यह है कि चुने हुए प्रतिनिधियों को आधे मतदाताओं का वोट भी मुश्किल से ही मिला होता है. यह खामी आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था में इस तरह दूर हो जाती है कि यह समान हितों के आधार पर बने ज्यादातर समूहों को उनकी उचित हिस्सेदारी देता है. एफपीटीपी चुनावों में गहन मुकाबले के नतीजे में भारी खर्चे होते हैं और उसके बाद भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी होती है, जिन्हें आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था में दूर किया जा सकता है. सबसे अहम बात यह कि भारत के संदर्भ में, यह शासक वर्गों द्वारा जनता को जातियों और समुदायों में बांटने के बुरे मंसूबों पर लगाम लगाती है. मिसाल के लिए, दलितों के लिए आरक्षित सीटों की जरूरत नहीं रह जाएगी और इस तरह दलित होने के ठप्पे की भी जरूरत नहीं रहेगी. इस तरह राजनीति में से जातियों का बोलबाला भी खत्म हो जाएगा. हालांकि कोई भी व्यवस्था किसी को अपने समुदाय से अलग होकर उसे समुदाय हितों के खिलाफ काम करने से नहीं रोक सकती, लेकिन आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था समुदाय को उसकी उचित हिस्सेदारी देकर इसकी ढांचागत गुंजाइश को खत्म कर सकती है. दलित पूना समझौते के जरिए गांधीवादी ब्लैकमेल पर बरसों से अफसोस जताते आए हैं, लेकिन वे यह नहीं समझ पाए कि यह समझौता एफपीटीपी व्यवस्था पर टिका था. पूना समझौता आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाली व्यवस्था में अपनी प्रासंगिकता खो देगा. इसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि जातियों की पहचान को बनाए रखने की जरूरत भी खत्म हो जाएगी और इसी तरह खत्म हो जाएंगी वे सारी तकलीफदेह मुश्किलें भी, जो इस जरूरत से पैदा हुई हैं.

सचमुच, भारत को इससे भारी फायदा होगा, लेकिन क्या शासक वर्ग को इसकी परवाह होगी?

22 अप्रैल 2014

सामाजिक कार्यकर्ता प्रशान्त राही की रिहाई के लिये आई.आई.टी. बी.एच.यू. से उठी आवाज

 शैलेश कुमार
                जो समाज औरों के इन्साफ की जंग लड़ने वालों के साथ हो रहे अन्याय पर भी चुप्पी साधे रहे, समझो की उस समाज में इंसाफ मर रहा है। वो समाज कायरता व बेपरवाही की नपुंसकता से ग्रस्त है, उस समाज में आज़ाद मनुष्य नहीं, गुलाम प्राणी रह रहे हैं। ऐसी ही एक दास्तान है मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे प्रशान्त राही की। जिनकी रिहाई के लिये गत् 8 अपै्रल को आई.आई.टी. बी.एच.यू. के छात्रों व भगत सिंह छात्र मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने आई.आई.टी. बी.एच.यू. में ही गेस्ट प्रोफेसर के रूप मंे कार्यरत मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पाण्डेय के नेतृत्व में एक कैण्डिल मार्च निकाला। यह कैण्डिल मार्च आई.आई.टी. बी.एच.यू. से होते हुए मुख्य द्वार बी.एच.यू. तक पहुंच कर सभा में बदल गया। प्रशान्त राही ने 90 के दशक में एक मेधावी छात्र के रूप में प्रौद्योगिकीय संस्थान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इलेक्ट्रिकल इंजिनियरिंग में बीटेक तथा एमटेक किया। पेशे से वह एक पत्रकार थें। समाज सेवा करते हुए उन्होने कई नामी अखबारों में सामाजिक विषयों पर अंग्रेजी व हिन्दी लेख लिखे। उत्तराखण्ड राज्य निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले प्रशान्त राही ने तहरी बांध निर्माण के समय विस्थापित हुए ग्रामीण एवं आदिवासी लोगों के अधिकारों की मांग के आन्दोलन का नेतृत्व किया। फलस्वरूप सरकार को उन्हंे उनका हक देना पड़ा। प्रशान्त की यह सक्रियता भारतीय राज्य को बर्दाश्त नहीं हो रही थी, इसलिये दिसम्बर 2007 में उन्हें अवैधानिक और अमानवीय तरीके से गिरफ्तार कर टार्चर किया गया और करीब 4 साल उन्हें जेल में गुजारना पड़ा। बाद में उन्हें 21 अगस्त 2011 को जमानत पर छोड़ा गया। जेल में उन्होंने राजनैतिक कैदियों के भीषण दुर्दशा को महसूस किया और यह तय किया कि रिहा होने के बाद वो राजनैतिक बंदियों की रिहाई के लिये काम करेंगे। और वो ऐसा कर भी रहे थे। उनके इन प्रयासों से कुछ लोग रिहा भी हुए और कईयों के केसों में भारी प्रगति हुई। भारतीय राज्य को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और एक बार फिर सितम्बर 2013 में जब उनके 2007 वाले मुकदमें की अन्तिम सुनवाई होनी थी एवं न्यायालय द्वारा उनके दोषमुक्त होने की पूरी संभावना थी तभी 1 सितम्बर 2013 को उन्हें रायपूर से दोबारा गिरफ्तार कर लिया गया तथा गिरफ्तारी को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में दिखाया गया। सभा में अपनी बात रखते हुए संदीप पाण्डेय ने कहा कि ’’प्रशान्त राही जैसे हजारों लोग जो समाज के लिये कार्य कर रहे हैं उन्हे नक्सलवाद के नाम पर यूएपीए के अन्तर्गत फर्जी मुकदमों में फसाकर जेलांे में डाल दिया जा रहा है और उनके मुकदमों की बहुत ही धीमी गति से सुनवाई हो रही है। बल्कि विडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये एवं केवल पुलिस के बयान पर केस की सुनवाई की जा रही है।’’ इस कड़ी में प्रशान्त के वकील शिव प्रसाद,  भगत सिंह छात्र मोर्चा के सचिव रितेश विद्यार्थी, आई.आई.टी. के छात्र माॅनिश बब्बर ने भी अपनी बात रखी। वक्ताओं ने एक स्वर में यूएपीए सरीखे काले कानूनों को रद्द करने व प्रशान्त राही को तत्काल रिहा करने की मांग की। जुलुस एवं सभा का संचालन आई.आई.टी के छात्र माॅनिश बब्बर व निखिल जैन ने किया।  
प्रशांत राही रिहाई समिति की ओर से जारी पर्चा.
द्वारा: संदीप पाण्डेय

शायर और शहज़ादी: शकीरा के बारे में मार्केस




वे दोनों महानतम कोलम्बियनों में शुमार हैं: शकीरा और गाब्रिएल गार्सीया मारकेज़. नैसर्गिक था कि वे कहीं न कहीं मिलते.


एक फ़रवरी को शकीरा मायामी से बूएनोस आइरेस पहुंची, एक रेडियो प्रोग्राम के लिए उससे फ़क़त एक सवाल पूछने का इच्छुक एक पत्रकार उन का पीछा करता आ रहा था. कई वजूहात से वह ऐसा नहीं कर सका तो उसने अपनी रपट का शीर्षक रखा: "शकीरा तब क्या कर रही होती है जब उनसे कोई ढूंढ ही नहीं सकता?" हंसी से दोहरी होती हुई शकीरा हाथ में डायरी थामे समझाती है. "मैं ज़िन्दगी जी रही हूं."

वह एक फ़रवरी की शाम को बुएनोस आइरेस पहुंची थी, और अगले दिन वह दोपहर से लेकर आधी रात तलक काम करती रही; उस दिन उसका जन्मदिन था, लेकिन उसे मनाने को उसके पास समय ही नहीं था. बुधवार को वह वापस मायामी चल दी, जहां उसने एक लम्बे पब्लिसिटी शूट में हिस्सा लिया और कई घन्टे अपने ताज़ा अल्बम के अंग्रेज़ी संस्करण के लिए रेकॉर्डिंग की. शुक्रवार की दोपहर दो बजे से शनिवार की सुबह तक उसने दो गानों की फ़ाइनल रेकॉर्डिंग पूरी की. उसके बाद वह तीन घन्टे सोई और दोबारा स्टूडियो पहुंची जहां उसने दोपहर तीन बजे तक काम किया. उस रात वह थोड़ा सोई और इतवार की भोर लीमा जाने वाले हवाई जहाज़ पर सवार हुई. सोमवार की पूर्वान्ह वह एक लाइव टीवी शो में उपस्थित थी; चार बजे उसका एक टीवी विज्ञापन शूट हुआ; शाम को वह अपने पब्लिसिस्ट द्वारा दी गई एक पार्टी में मौजूद थी जहां वह भोर तक जगी रही. अगले दिन यानी नौ फ़रवरी सुबह दस बजे से शाम पांच बजे तक को उसने रेडियो, टीवी और अख़बार के लिए आधे आधे घन्टे के ग्यारह इन्टरव्यू दिए. बीच में एक घन्टा लंच के लिए निकाला गया. उसे वापस मायामी पहुंचना था मगर अन्तिम क्षणों में उसने बोगोटा में ठहरना तय किया, जहां वह भूकम्प के शिकार लोगों तक अपनि सहानुभूति जताने पहुंची.

उसी रात वह किसी तरह मायामी जाने वालि आख़िरी फ़्लाइट पकड़ पाने में कामयाब हुई जहां अगले चार दिनों तक वह स्पेन और पेरिस में होने वाली अपनी कन्सर्ट्स के लिए रिहर्सल में व्यस्त रही. अपने अल्बमों के अंग्रे़ज़ी संस्करणों के लिए उसने शनिवार लंचटाइम से लेकर सुबह साढ़े चार बजे तक ग्लोरिया एस्टेफ़ान के साथ काम किया. दिन फटने पर वह वह अपने घर पहुंची जहां उसने एक कॉफ़ी पी, डबलरोटी का एक टुकड़ा खाया और पूरे कपड़ों में सो गई. मंगलवार सोलह तारीख़ को वह कोस्टा रिका में एक लाइव टीवी शो में मौजूद थी. बृहस्पतिवार को वह वापस मायामी पहुंची जहां उसने 'सेन्सेशनल सैटरडे' नाम के एक टीवी कार्यक्रम में हिस्सा लेना था.

वह बमुश्किल सो पाई - 21 को उसने वेनेज़ुएला से लॉस एन्जेलीस पहुंचकर ग्रैमी समारोह अटैन्ड करना था. उसे विजेताओं की सूची में होने की उम्मीद थी पर अमरीकियों ने तमाम मुख्य पुरुस्कार जीत लिए. लेकिन इस से उसकी रफ़्तार में कोई कमी नहीं आई: 25 को वह स्पेन में थी जहां उसने 27 और 28 फ़रवरी को काम किया. एक मार्च तक आखीरकार वह मैड्रिड के एक होटल में पूरी रात सो पाने का समय निकाल सकी. उस समय तक वह एक महीने में एक पेशेवर फ़्लाइट अटैन्डेन्ट के बराबर यानी चालीस हज़ार किलोमीटर की यात्राएं कर चुकी थी.

ठोस धरती पर भी शकीरा का काम कोई कम मुश्किल न था. उसके साथ चलने वाली संगीतकारों, लाइट टैक्नीशियनों और साउन्ड इंजीनियरों इत्यादि की टीम किसी लड़ाकू दस्ते जैसी नज़र आती है. वह हर चीज़ पर ख़ुद निगाह रखती है. उसे संगीत पढ़ना नहीं आता पर उसकी विशुद्ध आवाज़ और पूरा फ़ोकस इस बात की गारन्टी करते हैं कि उसके संगीतकार एक-एक नोट को सही सही लगा सकें. अपनी टीम के हर सदस्य के साथ उसके व्यक्तिगत सम्बन्ध हैं. वह अपनी थकान को जाहिर नहीं होने देती पर इस से आपको छलावे में नहीं पड़ना चाहिये. अर्जेन्टीना के चालीस कन्सर्ट्स वाले दौरे के आख़िरी दिनों में उसके एक सहायक को उसे बस में चढ़ने में मदद करनी पड़ी थी. कभी कभी उसकी धड़कनें बढ़ जाती हैं और उसे त्वचा की एलर्जी जैसी शिकायतें भी हो जाया करती हैं.

'दोन्दे एस्तान लोस लाद्रोनेस?' (सारे चोर कहां हैं?) अल्बम के अंग्रेज़ी संस्करण की तैयारी में एमीलियो एस्टेफ़ान और उसकी पत्नी ग्लोरिया के साथ की गई उसकी कड़ी मेहनत ने स्थिति को और भी मुश्किल बना दिया था. इस समय शकीरा को अपने जीवन के सबसे दबावभरे समय से जूझना पड़ा था: वह ठीकठाक अंग्रेज़ी बोल लेती है पर अपने उच्चारण को ठीक बनाने के लिए उसने इस कदर ऑब्सेशन की हद तक काम किया था कि वह सपने में भी कभी कभी अंग्रेज़ी बोला करती थी.

कोलम्बिया के बारान्कीया के एक जौहरी विलियम मेबारेक और उसकी पत्नी नाइदिया रिपोल के अरबी मूल के कलाप्रेमी परिवार में जन्मी थी शकीरा. उसकी कड़ी मेहनत और असाधारण बुद्धिमत्ता का परिणाम था कि अपने शुरुआती सालों में उसने इतना सारा सीख लिया जिसे सीखने में सामान्य लोग दसियों साल लगा देते हैं. सत्रह माह की आयु में वह अक्षरमाला सीखना शुरू कर चुकी थी और तीन साल की उम्र में गिनती करना. चार साल की आयु में बारान्कीया के अपने स्कूल में वह बैली-डान्सिंग सीख रही थी. सात साल की आयु में उसने अपना पहला गीत कम्पोज़ किया. आठ की आयु में कविता लिखनी शुरू की और दस की होते होते बाकायदा अपने ओरिजिनल गीत लिख और कम्पोज़ कर लिए थे. इसी दरम्यान उसने अटलांटिक के तट पर मौजूद 'एल कोर्रेहोन' कोयला खदानों के कामगारों के मनोरंजन हेतु अपने पहले कॉन्ट्रैक्ट पर दस्तख़त कर लिए थे. उसने अभी सेकेन्डरी स्कूल में दाख़िला लेना बाकी था जब एक रेकॉर्डिंग कम्पनी ने उसे पहला पेशेवर प्रस्ताव दिया.

"मुझे अपनी अपार रचनात्मकता के बारे में हमेशा मालूम था," वह कहती है. "मैं प्रेम कविताओं का पाठ किया करती थी, कहानियां लिखती थी और गणित को छोड़कर सारे विषयों में सबसे अच्छे नम्बर लाती थी." उसे बहुत खीझ होती थी जब घर पर आए मेहमान उस से गाने की फ़रमाइश किया करते थे. "मैं तीस हज़ार लोगों के सामने गाना पसन्द करती बजाय पांच गधों के आगे गाने और गिटार बजाने के." वह थोड़ा कमज़ोर दिखती है मगर उसे पक्का यकीन था कि एक दिन सारी दुनिया उसे जानेगी. किस बात के लिए और कैसे, यह उसे पता नहीं था पर उसका भरोसा मजबूत था. यही उसकी नियति भी होनी थी.

आज उसके सपने पूरे होने से कहीं ज़्यादा पूरे हो चुके हैं. शकीरा का संगीत किसी और के जैसा नहीं सुनाई पड़ता और उसने मासूम सेन्सुअलिटी का अपना एक ब्रान्ड भी बना लिया है. "अगर मैं गाऊंगी नहीं तो मर जाऊंगी!" यह बात अक्सर हल्के फ़ुल्के तरीके से कही जाती है लेकिन शकीरा के मामले में यह एक सच्चाई है: जब वह गा नहीं रही होती वह बमुश्किल ज़िन्दा रहती है. भीड़ के बीच रहने में ही उसके भीतर शान्ति उभरती है. स्टेज का डर उसे कभी महसूस नहीं हुआ. उसे स्टेज पर न होने से डर लगता है: "मुझे लगता है" वह कहती है "जैसे वहां मैं जंगल में किसी शेर जैसी हो जाती हूं." स्टेज पर ही वह शकीरा बन पाती है जो कि वह असल में है.

कई गायक स्टेज से परे तेज़ रोशनियों पर निगाहें गड़ा लेते हैं ताकि श्रोताओं की भीड़ की निगाहों का सामना न करना पड़े. शकीरा इसका ठीक उल्टा करती है; वह अपने टैक्नीशियनों से कहती है कि दर्शकों श्रोताओं पर सबसे तेज़ रोशनियां डालें ताकि वह उन्हें देख सके. "तब जा कर संवाद सम्पूर्ण बनता है" वह कहती है. वह एक अजानी अनाम भीड़ को अपनी सनक और प्रेरणा के हिसाब से जैसा चाहे वैसा ढाल लेती है. "गाते हुए मुझे लोगों की आंखों में देखना अच्छा लगता है." कभी कभी वह भीड़ में ऐसे चेहरे देखती है जिन्हें उसने कभी नहीं देखा होता लेकिन वह उन्हें पुराने दोस्तों की तरह याद करती है. एक बार तो उसने एक ऐसे आदमी को पहचान लिया जो कब का मर चुका था. एक बार उसे ऐसा महसुस हुआ जैसे कोई उसे किसी दूसरे जन्म के भीतर से देख रहा हो. "मैंने पूरी रात उस के लिए गाया." वह बताती है. इस तरह के चमत्कार कई महान कलाकारो के लिए महान प्रेरणा के और अक्सर महान विनाशों के कारण बनते रहे हैं

शकीरा के मिथक का सबसे बड़ा आयाम है बच्चों के भीतर उसकी इस कदर गहरी पैठ. जब उसका अल्बम 'पीएस देस्काल्ज़ोस' 1996 में रिलीज़ हुआ तो उसके पब्लिसिस्ट्स ने तय किया कि उसे कैरिबियन लोकसमारोहों के इन्टरवलों में प्रमोट किया जाएगा. उन्हें यह नीति बदलनी पड़ी जब तमाम बच्चे "शकीरा! शकीरा!" के नारे लगाते हुए सारी शाम उस के गीतों को बजाने की मांग करने लगे. आज यह करिश्मा डॉक्टरेट के किसी महत्वपूर्ण विषय में तब्दील हो चुका है. हर सामाजिक तबके के प्राइमरी स्कूल की बच्चियां पहनावे, बोलने और गाने के अन्दाज़ में शकीरा की नकल करती हैं. छः साला बच्चियां उसकी सबसे बड़ी प्रशंसिकाएं हैं.

इन्टरवल के दौरान उसके अल्बमों की सस्ती पाइरेटेड प्रतियों की अदलाबदली हुआ करती है. दुकानों में पहुंचते ही उसके आभूषणों की नकलें हाथोंहाथ निकल जाती हैं. बाजारों में हेयरडाईज़ की होलसेल बिक्री होती है ताकि लड़कियां शकीरा के हेयरस्टाइल की नकल कर सकें उसके नए अल्बम की पहली स्वामिनी स्कूल की सबसे लोकप्रिय लड़की बन जाती है. सबसे ज़्यादा पॉपुलर स्टडी-ग्रुप स्कूल के बाद किसी लड़की के घर में जमते हैं जहां पहले थोड़ा सा होमवर्क होता है और उस के बाद धमाल. जन्मदिन की दावतें नन्हीं शकीराओं का जमावड़ा हुआ करता है. बिल्कुल विशुद्धतावादी समूहों में - जिनकी संख्या बहुत ज़्यादा है - लड़कों को नहीं बुलाया जाता.

अपनी असाधारण संगीत प्रतिभा और मार्केटिंग के बावजूद शकीरा अपनी परिपक्वता के बगैर वहां हो ही नहीं सकती थी जहां वह अब है. यह यकीन कर पाना मुश्किल होता है कि इस लड़की के भीतर इतनी ताकत आती कहां से है जो हर दिन अपने बालों का रंग बदल देती है - कल काला, आज लाल, कल हरा. कई उम्रदराज़ महिला गायकों से कहीं ज़्यादा ईनामात वह हासिल कर चुकी है. आप देख कर बता सकते हैं कि वह कहां पहुंचना चाहती है: बुद्धिमान, असुरक्षित, शालीन, मधुर, आक्रामक और सघन! अपने पेशे के चरम पर पहुंच चुकने के बाद भी वह बारान्कीया की एक लड़की भर है - जहां भी होती है उसे घर की मुलेट मछली और मैनियोक ब्रैड की याद आती है. अभी वह अपने सपनों का घर नहीं ले सकी है - समुद्र किनारे ऊंची छतों वाला एक शान्त मकान और दो घोड़े. उसे किताबें अच्छी लगती हैं - वह उन्हें खरीदती है उन्हें प्यार करती है अलबत्ता पढ़ने के लिए उसके पास उतना वांछित समय नहीं होता. एयरपोर्टों पर जल्दबाज़ी में विदा लेने के बाद उसे अपने दोस्तों की बहुत याद आती है मगर उसे मालूम होता है कि अगली मुलाकात होने में कितना वक़्त लग सकता है.

उसने कितना पैसा कमाया है, इस बाबत वह कहती है "जितना मैं बताती हूं उस से ज़्यादा मगर जितना लोग बताते हैं उस से कम." संगीत सुनने का उसका प्रिय स्थान होता है गाड़ी के भीतर पूरे वॉल्यूम में बजता प्लेयर - वह शीशे चढ़ा लिया करती है ताकि दूसरों को दिक्कत न हो. "ईश्वर से बात करने, अपने से बात करने और समझने का यह आदर्श स्थान होता है." उसे टीवी से नफ़रत है. उसके हिसाब से उसका सबसे बड़ा विरोधाभास है अनन्त जीवन पर उसका विश्वास और मृत्यु का असह्य खौफ़.

वह एक दिन में चालीस इन्टरव्यू तक दे चुकी है और उसने किसी भी बात को दोहराया नहीं. कला, जीवन. अगले जन्म, ईश्वर प्रेम और मत्यु को लेकर उसके अपने विचार हैं. लेकिन उसके इन्टरव्यू लेने वालों ने इन विषयों पर खुल कर बताने को उस से इतनी दफ़ा पूछ लिया है कि अब वह उन से बचकर निकलना सीख गई है. उसके उत्तर जितना बताते हैं उस से कम ही छिपाते हैं और यह सबसे उल्लेखनीय बात है. वह इस बात को सीधे सीधे खारिज कर देती है कि उसकी प्रसिद्धि अस्थाई है और यह कि ज़्यादा गाने से उसकी आवाज़ पर असर पड़ेगा. "भरी धूप के बीच में सूर्यास्त के बारे में नहीं सोचना चाहती." जो भी हो विशेषज्ञ कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं चूंकि उसकी आवाज़ की प्राकृतिक रेन्ज उसकी तमाम ज़्यादतियों के बावजूद बची रहेगी. बह बुखार और थकान से गा कर उबरी है. "गायक के लिए सबसे बड़ी कुंठा यह हो सकती है," हमारे इन्टरव्यू के आखीर में तनिक हड़बड़ी में वह कहती है "कि वह गाने को अपना कैरियर बना चुकने के बावजूद गा न सके."

उसके लिए सबसे रपटीला विषय होता है प्यार. वह उसका गुणगान करती है, वही उसके संगीत की प्रेरणा होता है पर बातचीत में वह उस पर अपने ह्यूमर की परत चढ़ा लेती है. "सच तो यह है कि मुझे मौत से ज़्यादा शादी से डर लगता है." यह आम जानकारी है कि उसके चार बॉयफ़्रैन्ड्स रह चुके हैं हालांकि वह शरारत के साथ बताती है कि तीन और थे जिनके बारे में किसी को मालूम नहीं. वे सब तकरीबन उसी की उम्र के थे पर उनमें से कोई भी उस जैसा परिपक्व नहीं था. शकीरा उन्हें बहुत अपनेपन और दर्द के साथ याद करती है. ऐसा लगता है वह उन्हें नश्वर प्रेतों की तरह देखा करती है जिन्हें उसने अपनी अल्मारी में टांग दिया है. भाग्यवश यह कोई बहुत हताशा की बात भी नहीं है: अगली दो फ़रवरी को वह फ़क़त छब्बीस साल की हो जाने वाली है.


(हिंदी अनुवाद के लिए कबाड़खाना का आभार)

20 अप्रैल 2014

इस युग का कथाशिल्पी मार्केज


पंकज सिंह

गाब्रिएल गार्सिया मार्केज का 87 वर्ष की उम्र में निधन हो गया, यह समाचार सारी दुनिया के उन तमाम लोगों के लिए आघात पहुंचाने वाली एक बड़ी खबर है जो साहित्य-कला-संस्कृति की मानवीय संपदा को मनुष्य के लिए एक जरूरी और गतिमान निधि मानते हैं। मार्केज को 1982 में उनके महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘एकांत के सौ बरस’ पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था।

लेकिन नोबेल पुरस्कार से विभूषित होने के बहुत पहले से मार्केज को स्पेनी भाषा का ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर का कालजयी कथाशिल्पी माना जा चुका था। 23 वर्ष की उम्र में अपना पहला लघु उपन्यास लिखने के बाद मार्केज दक्षिण अमरीका के स्पेनी लेखकों में चर्चा का विषय बन चुके थे।

उस काल में उन्होंने ‘लीफ स्टार्म’ और ‘नो वन राइट्स टू द कोलोनेल’नाम के दो लघु उपन्यास लिखे थे। उन उपन्यासों का प्रभाव ऐसा था कि नये सिरे से इस मुद्दे पर बहस छिड़ गयी थी कि मार्केज की इन दो कृतियों को लंबी कहानी माना जाए या लघु उपन्यास। मार्केज ने अपने कथाकार जीवन के आरंभ से ही अपनी निजी कथा शैली की पहचान बनानी शुरू कर दी थी जिसके विकास के साथ उन्हें ‘जादुई यथार्थवाद’ का आविष्कारक होने का श्रेय दिया गया। हालांकि स्वयं गाब्रिएल गार्सिया मार्केज ने जादुई यथार्थवाद नाम की विशिष्ट शैली का जनक होने का कोई दावा कभी नहीं किया परंतु उनके लेखन में लातीन अमरीकी समाजों और परंपराओं के यथार्थ में चमत्कारों और अजीबोगरीब किस्म की घटनाओं, अनोखी चीजों और जीव जगत की अविश्वसनीय स्थितियों का जो मनोहारी मिश्रण और सामंजस्य पैदा हुआ उसने न सिर्फ उनकी कृतियों को विश्व साहित्य की अमूल्य धरोहर का दर्जा दिलाया बल्कि सारी दुनिया में अनेकानेक भाषाओं के लेखन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। ‘एकांत के सौ बरस’ का प्रथम प्रकाशन 1967 में हुआ था। तब से लेकर अब तक उस महान उपन्यास का दुनिया की लगभग तीन दजर्न भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और उसकी पांच करोड़ से ज्यादा प्रतियां साहित्य प्रेमियों के घरों में पहुंच चुकी हैं। सिर्फ उस एक उपन्यास के आंकड़ों के आधार पर यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि मार्केज इतिहास में लातीन अमरीका के सभी लेखकों से ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक रहे। गाब्रिएल गार्सिया मार्केज मूलत: कोलंबिया के थे जहां उनका जन्म हुआ और उन्होंने शिक्षा और संस्कार पाने के बाद वहां अपने जीवन का आधी सदी का सफर तय किया। पिछले तीस वर्षो से मार्केज मेक्सिको की राजधानी मेक्सिको सिटी में अपने परिवार के साथ रहते आए थे। 1999 में उन्हें कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी ने ग्रस लिया था, लेकिन मार्केज उचित चिकित्सा के कारण उसके चंगुल से बाहर आ गये थे। लेकिन उसके बाद उन्हें एक दूसरी खतरनाक बीमारी ‘अल्जाइमर्स’ ने अपना निशाना बना लिया और मार्केज की स्मृति क्रमश: गायब हो गयी।

लातीन अमरीका के महान कवि पाब्लो नेरुदा ने कहा था कि स्पेनी भाषा में मिगुएल द सर्वातेस के क्लासिक उपन्यास, ‘दोन किहोते’ के बाद मार्केज का उपन्यास ‘एकांत के सौ बरस’उस भाषा की महानतम अभिव्यक्ति है। 1982 में जब मार्केज को स्वीडन के राजा एक भव्य समारोह में नोबेल पुरस्कार से विभूषित कर रहे थे तो पुरस्कार की निर्णायक समिति की ओर से पढ़े जा रहे प्रशस्ति पत्र में कहा गया कि गाब्रिएल गार्सिया मार्केज ऐसे लेखक हैं जिनकी हर नयी कृति के आने पर उस कृति के विषय में जो समाचार बनता है वह अंतरराष्ट्रीय स्तर का होता है और दुनिया की सभी भाषाओं में उसकी गूंज-अनुगूंज सुनायी देने लगती है।

कहना न होगा कि मार्केज के देहांत पर सारी दुनिया में जो शोक की लहर छायी है उससे केवल साहित्यिक-सांस्कृतिक समुदायों के लोग ही प्रभावित नहीं हुए हैं, बल्कि पढ़े-लिखे समाजों में जीवन के हर क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों ने उनकी स्मृति में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए शोक-संदेश जारी किए हैं। अमरीका के वर्तमान राष्ट्रपति ओबामा के शोक संदेश से ज्यादा भावपूर्ण भाषा में अमरीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने बड़ी विनम्रता से मार्केज के साथ अपनी बीस साल पुरानी दोस्ती का हवाला देते हुए कहा है कि उन्हें इस बात का गर्व महसूस होता रहा है कि मार्केज उनके मित्र रहे।

मार्केज की वैचारिकता सदा बहुत स्पष्ट रही। उन्होंने लातीन अमरीकी समाजों के जिस संष्टि यथार्थ को अपने कथा साहित्य में रूपायित किया उसमें यह साफ दिखाइ देता है कि साधारण से लेकर विशिष्ट जन तक की जीवन शैलियों, मनोविज्ञान, क्रिया-प्रतिक्रिया और जीवन के व्यापक विस्तार पर उनकी जो सूक्ष्म और पैनी निगाह लगातार बनी रही उसमें उनकी प्रगतिशील-जनवादी प्रतिबद्धता का सहज स्पर्श हर कहीं महसूस होता है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उनकी पुस्तक ‘ एकांत के सौ बरस ’ के विस्मयजनक प्रभाव से यह स्थिति बनी कि उन्होंने जिस काल्पनिक दक्षिण अमरीकी गांव माकोंदो और वहां रहने वाले बुएंदिया खानदान की जिन कई पीढ़ियों का चित्रण सैकड़ों पात्रों के साथ किया वह सब दक्षिण अमरीका की रहस्यमयी और अल्पज्ञात परंपराओं के श्रेष्ठ और अत्यंत प्रामाणिक रूपों की तरह अमिट रूप से साहित्यिक इतिहास में दर्ज हो चुका है। इस उपन्यास की रचना-प्रक्रिया से जुड़ी हुई अनेक कथाएं हैं। इसकी शुरुआत यूं हुई कि मार्केज अपनी गाड़ी में कहीं जा रहे थे और बीच के नीरव और सुनसान इलाके में उनकी कल्पना में उपन्यास की कथा का आरंभ उभरने लगा। उन्होंने कहीं रुककर उपन्यास के पहले अध्याय को लिपिबद्ध किया। कुछ ही समय बाद जब वे अपने घर गये तो उन्होंने अपनी प्रिय सिगरेट के बहुत सारे पैकेट अपने कमरे में भर लिए और पूरी तरह तल्लीन होकर, तन्मय भाव से लिखने में जुट गये। लंबी अवधि के बाद जब वे उपन्यास को पूरा करके निकले तो उनके पास तेरह सौ पृष्ठों की सामग्री थी। यह बात और है कि उस पूरी अवधि में किसी आर्थिक आय का कोई अता-पता नहीं था और वे तथा उनका परिवार बारह हजार डॉलर के कर्ज में डूब चुके थे। अपने कार्य जीवन की शुरुआत मार्केज ने एक पत्रकार के रूप में की थी। पत्रकारिता भी उन्होंने जमकर की थी। बाद के दौर में उन्होंने फिल्म पटकथा लेखन सहित कई तरह का ऐसा गद्य लेखन किया जिससे उन्हें ठीकठाक आय हुई। परंतु इस दौर में पत्रकारिता से लगभग विमुख होकर उन्होंने सिर्फ रचनात्मक लेखन पर खुद को केन्द्रित कर लिया था। उस दौर में अपने घर के प्रवेश द्वारा पर ताला लगाकर वे छिपकर पिछले दरवाजे से अपने घर में आते- जाते थे, ताकि उन्हें कर्ज देने वाले घर में घुसकर अपने पैसे वापस न मांगने लगें।

क्यूबा के क्रांतिकारी जननायक और भूतपूर्व राष्ट्रपति फीदेल कास्त्रो से मार्केज की दोस्ती निरंतर चर्चा और विवाद का विषय बनी रही। मार्केज ने अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध काफी तीखे वक्तव्य समय-समय पर दिये थे। संयुक्त राज्य अमरीका की सरकार उन्हें विध्वंसक व्यक्ति मानती रही और उन्हें अमरीका यात्रा के लिए वीजा देने से इनकार करती रही। वह तो बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति बनने के बाद ही संभव हुआ कि इस महान प्रतिभा पर लगा अमरीकी यात्रा-प्रतिबंध समाप्त हुआ। फीदेल कास्त्रो के बारे में मार्केज का कहना था कि फीदेल अत्यंत सुसंस्कृत व्यक्ति हैं और मिलने पर वे दोनों साहित्यिक वार्तालाप किया करते हैं।

मार्केज के अन्य बहुचर्चित उपन्यासों में ‘हैजा के दिनों में प्यार’ ,‘पूर्व घोषित मौत का सिलसिलेवार ब्योरा’,‘अपनी भूल-भुलैया में जनरल’,‘प्रभु पुरुष का पतझड़’ आदि बहुख्यात कृतियां हैं। उनकी अन्य दो उल्लेखनीय कृतियों में एक तो कोलंबिया में मादक द्रव्यों का अवैध कारोबार चलाने वाले मेदेलिन कार्तेल नामक भयावह संगठन द्वारा किए गए अपहरणों पर एक पत्रकारीय पुस्तक है और दूसरी पुस्तक उनकी आत्मकथा है जिसे उन्होंने ‘कथा कहने के लिए जीते हुए’ नाम दिया था।

क्या उनकी मृत्यु के दुख का दंश हमें इस बात से कम महसूस होगा कि वे कैंसर से लड़कर जीते, मगर दु:साध्य रोग अलजाइमर्स ने उनकी स्मृति छीन ली थी और आखिरकार न्यूमोनिया ने उनके दैहिक विनाश की भूमिका बना दी थी?

शायद नहीं।


कल्पतरु एक्सप्रेस से साभार

गाब्रिएल गार्सिया मार्केस से एक बातचीत



गाब्रिएल गार्सिया मार्केस के साथ पीटर एच. स्टोन की बातचीत का सम्पादित अंश. जानकीपुल से साभार

प्रश्न- टेपरिकार्डर के उपयोग के बारे में आप क्या सोचते हैं?

मुश्किल यह है कि जैसे ही आपको इस बात का पता चलता है कि इंटरव्यू को टेप किया जा रहा है, आपका रवैया बदल जाता है. जहाँ तक मेरा सवाल है मैं तो तुरंत रक्षात्मक रुख अख्तियार कर लेता हूँ. एक पत्रकार के रूप में मुझे लगता है कि हमने अभी यह नहीं सीखा है कि इंटरव्यू के दौरान टेपरिकार्डर किस तरह से उपयोग किया जाना चाहिए. सबसे अच्छा तरीका जो मुझे लगता है कि पत्रकार लंबी बातचीत करे जिसके दौरान वह किसी प्रकार का नोट नहीं ले. बाद में उस बातचीत के आधार पर उसे वह लिखना चाहिए जैसा उसने उस साक्षात्कार के दौरान महसूस किया, ज़रूरी नहीं है कि वह हुबहू वही लिखे जिस तरह से इंटरव्यू देने वाले ने बोला. टेपरिकार्डर से जो भान होता है वह यह कि वह उस व्यक्ति के प्रति ईमानदार नहीं होता जिसका इंटरव्यू लिया जा रहा हो क्योंकि यह उसको भी रिकॉर्ड करके दर्ज कर लेता है जब सामने वाला अपना मजाक उड़ा रहा होता है. इसीलिए जब सामने टेपरिकार्डर होता है तो मैं इसको लेकर सजग होता हूँ कि मेरा इंटरव्यू लिया जा रहा है; लेकिन जब टेपरिकार्डर नहीं होता है मैं सहज और स्वाभाविक रूप से बात करता हूँ.

प्रश्न- तो आपने इंटरव्यू के लिए कभी टेपरिकार्डर का इस्तेमाल नहीं किया?

पत्रकार के तौर पर तो मैंने कभी उसका उपयोग नहीं किया. मेरे पास एक बहुत बढ़िया टेपरिकार्डर है लेकिन मैं उसका उपयोग केवल संगीत सुनने के लिए करता हूँ. लेकिन यह भी है कि पत्रकार के रूप में मैंने कभी इंटरव्यू नहीं किया, मैंने रिपोर्ट किए लेकिन सवाल-जवाब वाला इंटरव्यू तो कभी नहीं किया.

प्रश्न- मैंने आपके एक मशहूर इंटरव्यू के बारे में सुना है, जो एक जहाजी से था जिसका जहाज़ टूट गया था...

वह सवाल-जवाब के रूप में नहीं था. उस जहाजी ने मुझे अपने अनुभव बताये थे, मैंने उसे लिखा और यह कोशिश की उसी के शब्दों में लिखूं. मैंने कोशिश कि कि प्रथम पुरुष में लिखूं, ताकि यह लगे कि वही लिख रहा है. बाद में वह एक समाचारपत्र में धारावाहिक छपा, दो सप्ताह तक रोज उसका एक-एक खंड प्रकाशित हुआ, तो वह उसके नाम से छपा था, मेरे नाम से नहीं. जब 20 सालों बाद जब वह पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ तब लोगों को इस बात की जानकारी हुई कि उसे मैंने लिखा था. किसी संपादक को तब तक ऐसा नहीं लगा था कि वह अच्छा है जब तक कि मैंने वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालीटयूड नहीं लिखा था.


प्रश्न- हमने बातचीत की शुरुआत पत्रकारिता के बारे में बात करने से आरम्भ की थी, फिर से पत्रकारिता से जुड़ना कैसा लगता है, जबकि इतने दिन से आप उपन्यास लिख रहे हैं? क्या कुछ अलग तरह का महसूस होता है, क्या नजरिया कुछ बदल जाता है?

मुझे हमेशा से इस बात का भरोसा रहा है कि मेरा असली पेशा पत्रकारिता ही है. पहले इसके बारे में जो बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी वह काम करने की स्थितियां थीं, साथ ही, मुझे अपने सोच-विचारों को अखबार के हितों के मुताबिक़ ढालना पड़ता था. अब उपन्यास लिखकर मैंने आर्थिक स्वतंत्रता अर्जित कर ली है. अब मैं अपनी रूचि और विचारों के मुताबिक़ लिख सकता हूँ. वैसे भी, पत्रकारिता के माध्यम से जब भी मुझे कुछ अच्छा लिखने अवसर मिलता है तो मुझे बहुत आनंद आता है.

प्रश्न- पत्रकारिता का अच्छा नमूना क्या है आपके लिए?

जॉन हर्सी का हिरोशिमा पत्रकारिता का असाधारण नमूना है.

प्रश्न- क्या आपको लगता है कि उपन्यास कुछ ऐसा कर सकता है जो पत्रकारिता नहीं कर सकती?

कुछ भी नहीं. मुझे नहीं लगता कि इनमें कोई अंतर है. इनके स्रोत एकसमान होते हैं, सामग्री समान होती है, संसाधन और भाषा भी समान ही होती है. डेनियल डेफो का जर्नल ऑफ द प्लेग इयर्स एक महान उपन्यास है जबकि हिरोशिमा पत्रकारिता का बेहतरीन नमूना.

प्रश्न- सत्य बनाम कल्पना के बीच संतुलन बनाने में पत्रकारों और उपन्यासकारों की अलग-अलग तरह की जिम्मेदारियां होती हैं?

पत्रकारिता में अगर एक तथ्य भी गलत हो तो वह पूरे लेख को संदिघ्ध बना देता है. इसके विपरीत अगर उपन्यास में अगर एक तथ्य भी सही हो तो वह पूरी कृति को वैध बना देता है. यही एक अंतर है और यह लेखक के कमिटमेंट पर निर्भर करता है. एक उपन्यासकार जो चाहे वह कर सकता है जब तक कि लोग उसमें विश्वास करें. 

वैसे अब उपन्यास और पत्रकारिता दोनों के लिए लिख पाना मुझे पहले से मुश्किल लगने लगा है. जब मैं अखबार में काम करता था तो मैं अपने लिखे प्रत्येक शब्द को लेकर उतना सजग नहीं रहता था, जबकि अब रहता हूँ. जब मैं बोगोटा में एल स्पेक्तादोर में काम कर रहा था तब मैं सप्ताह में कम से कम तीन ‘स्टोरी’ करता था, रोज तीन सम्पादकीय लिखता था, फिर मैं सिनेमा के रिव्यू लिखता था. फिर रात में जब सब चले जाते थे तब मैं वहीँ रुककर उपन्यास लिखता था. मुझे लिनोटाइप मशीनों की आवाजें अच्छी लगती थी, जो सुनने में बारिश की तरह लगती थी. अगर वे थम जाते तो मैं ख़ामोशी के साथ तनहा रह जाता था, फिर मैं लिख नहीं पाता था. अब उसके मुकाबले मैं कम लिखता हूँ. जिस दिन सुबह के 9 बजे से दोपहर के दो या तीन बजे तक अच्छी तरह काम कर लूं तो मैं मुश्किल से चार-पांच पंक्तियों का एक पैराग्राफ लिख पाता हूँ, जिसे अक्सर अगले दिन मैं फाड़ देता हूँ.

प्रश्न- क्या आपके लेखन में यह परिवर्तन इसलिए आया है क्योंकि आपकी कृतियों को काफी सराहना मिली है या किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण?

ऐसा दोनों कारणों से हुआ है. मुझे लगता है कि यह विचार कि मैं उससे कहीं अधिक लोगों के लिए लिख रहा हूँ जितनी कि मैंने कभी कल्पना की थी, ने खास तरह की ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी है जो सहित्यिक भी और राजनीतिक भी.

प्रश्न- आपने लिखना कैसे शुरू किया?

रेखांकन बनाने से. कार्टून बनाने से. जब मैं पढ़ना-लिखना नहीं जानता था तो मैं घर और स्कूल में कॉमिक्स बनाया करता था. मजेदार बात यह है कि जब मैं हाईस्कूल में पढता था तो उस समय मेरी ख्याति एक लेखक के रूप में थी जबकि तब तक मैंने कुछ भी नहीं लिखा था. कोई परचा लिखना होता था या किसी तरह का पिटीशन तो मुझे याद किया जाता था क्योंकि मुझे लेखक के तौर पर जाना जाता था. जब मैं कॉलेज में गया तो सामान्य तौर पर मेरे दोस्तों के मुकाबले मेरी साहित्यिक पृष्ठभूमि अच्छी मानी जाती थी. बोगोटा में विश्वविद्यालय के दिनों में मेरी कुछ ऐसे लोगों से दोस्ती हुई जिन्होंने मेरा परिचय समकालीन लेखकों से करवाया. एक रात मेरे एक दोस्त ने मुझे फ्रांज़ काफ्का की कहानियों की  किताब पढ़ने को दी. उसमें उनकी कहानी मेटामॉर्फोसिस भी थी. उसकी पहली पंक्ति पढते ही मैं अपने बिस्तर से उछल पड़ा- ‘उस सुबह जब ग्रेगरी साम्सा असहज सपने से जगा तो उसने पाया कि वह बिस्तर पर एक बहुत बड़े कीड़े में बदल गया है.’ इस लाइन को पढकर मैंने यह सोचा कि यह तो मुझे पता ही नहीं था कि कोई इस तरह से भी लिख सकता था, किसी को इस तरह से लिखने की इजाज़त भी मिल सकती थी. अगर मुझे पता होता तो मैंने बहुत पहले ही लिखना शुरू कर दिया होता. फिर मैंने तत्काल कहानियां लिखनी शुरू कर दी. वे पूरी तरह से बौद्धिक कहानियां थी जो मेरे साहित्यिक अनुभवों पर आधारित थी और तब तक जीवन और साहित्य के बीच का सूत्र मुझे नहीं मिला था. वे कहानियां उस दौर में एल स्पेक्तादोर के साहित्यिक परिशिष्ट में छपी और उस दौर में उनको कुछ सफलता भी मिली- उसका कारण शायद यह था कि उस ज़माने में कोलंबिया में कोई बौद्धिक कहानियां नहीं लिख रहा था. मेरी आरंभिक कहानियों के बारे में कहा गया कि उनके ऊपर जेम्स जॉयस का प्रभाव है.

प्रश्न- आपने तब तक जॉयस को पढ़ा था?

मैंने तब तक उनको पढ़ा नहीं था, इसलिए मैंने यूलिसिस पढ़ना आरम्भ कर दिया. उनसे मैंने आतंरिक एकालाप की तकनीक सीखी. बाद में मैंने वह तकनीक वर्जीनिया वुल्फ में भी देखी और मुझे अच्छा लगा, वे उस तकनीक का जॉयस से भी अच्छी तरह उपयोग करती थी. हालाँकि मैंने बाद में पाया कि आंतरिक एकालाप की तकनीक को इजाद करनेवाला लेखक लाजरिलो दे तोर्म्स का गुमनाम लेखक था.

प्रश्न- उस समय आप किसके लिए लिख रहे थे? आपके पाठक कौन थे?

लीफ स्टोर्म उपन्यास मैंने मैंने अपने उन दोस्तों के लिए लिखा था जो मेरी मदद कर रहे थे, मुझे किताबें उधार देते थे और सामान्य तौर पर मेरे लेखन को लेकर प्रोत्साहित रहते थे. मुझे लगता है कि आप सामान्य तौर पर किसी न किसी के लिए लिखते हैं. जब मैं लिख रहा होता हूँ तो मुझे लिखते हुए इस बात का अहसास हो जाता है कि फलां को यह पसंद आएगा, अमुक दोस्त इस अनुच्छेद को पसंद करेगा, मैं उन अलग-अलग खास लोगों के बारे में सोचता रहता हूँ. आखिरकार सभी पुस्तकें अपने दोस्तों के लिए ही तो लिखी जाती हैं. वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड लिखने के बाद यह हुआ है कि लाखों-करोड़ों पाठकों में मैं किसके लिए लिख रहा हूँ इस बात का मुझे पता नहीं होता, इससे मैं असहज हो जाता हूँ. यह कुछ वैसे ही है लाखों आँखें आपको देख रही हों और आपको पता नहीं चले कि वे क्या सोच रहे हैं.

प्रश्न- आपके गल्प-लेखन पर पत्रकारिता के प्रभावों के बारे में आपका क्या कहना है?

मुझे यह दोतरफा लगता है. उपन्यासों ने मेरे पत्रकारिता-लेखन की इस दिशा में मदद की है उसके कारण उसमें साहित्यिक मूल्य पैदा हुआ. पत्रकारिता ने मेरे उपन्यासों की इस तरह मदद की है कि उसने मुझे हमेशा यथार्थ के करीब रखा है.

प्रश्न- लीफ स्टॉर्म से लेकर वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड शैली की जो तलाश आपकी रही, उसको आप किस तरह देखते हैं?

लीफ स्टॉर्म लिखने के बाद मुझे लगा कि गांव और अपने बचपन के बारे में लिखना असल में देश के राजनीतिक यथार्थ से पलायन है. मुझे ऐसा लगने लगा कि मैं देश के राजनीतिक हालात से भागने के क्रम में एक प्रकार के नॉस्टेल्जिया के पीछे छिप रहा हूँ. वही समय था जब साहित्य और राजनीति के संबंधों को लेकर खूब चर्चा होती थी. मैं उन दोनों के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश करता रहा. पहले मैं फौकनर से प्रभावित था, बाद में हेमिंग्वे का प्रभाव पड़ा. मैंने नो वन राइट्स टू कर्नल, इन एविल आवर, द फ्यूनरल ऑफ ग्रेट मैट्रियार्क लिखे, जो कमोबेश एक ही दौर में लिखे गए थे और उनमें काफी समानताएं थीं. लीफ स्टॉर्म और वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के मुकाबले उनका परिवेश अलग था. वह एक ऐसा गांव था जहाँ कोई जादू नहीं था. वह पत्रकारीय साहित्य था. लेकिन जब मैंने ‘इन एविल आवर’ लिखा तो मैंने पाया कि मेरे सारे दृष्टिकोण गलत साबित हुए. मैंने पाया कि बचपन को लेकर लिखते हुए मैंने जो लिखा उसका सम्बन्ध राजनीति से अधिक और मेरे देश के यथार्थ से अधिक था जितना मैंने सोचा था. इन एविल आवर के बाद मैंने पांच सालों तक कुछ नहीं लिखा. मुझे इसकी कुछ समझ तो थी कि मैं क्या लिखना चाहता था, लेकिन कुछ था जो उनमें रह जाता था, नहीं आ पाता था. आखिरकार मैंने वह स्वर पा लिया, जिसका मैंने बाद में वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड में उपयोग किया. वह उस पर आधारित था जिस तरह कि मेरी नानी मुझे कहानियां सुनाती थीं. वे जो बातें बताती थी वे पराभौतिक और काल्पनिक प्रतीत होती थीं, लेकिन उनको पूरे स्वाभाविकता के साथ सुनाया करती थीं. जब मुझे वह स्वर मिल गया जिसमें मैं लिखना चाहता था तो उसके बाद मैं 18 महीनों तक बैठकर लिखता रहा, हर दिन.

प्रश्न- उस तकनीक में कुछ पत्रकारीय भंगिमा भी लगती है. आप कल्पनाजनित घटनाओं का भी इतनी गहराई से वर्णन करते हैं कि वह उनको एक तरह का यथार्थ प्रदान कर देता है. यह कुछ ऐसा है जो लगता है आपने पत्रकारिता से सीखा?

यह एक पत्रकारीय युक्ति है जिसको आप साहित्य में आजमा सकते हैं. उदाहरण के लिए, अगर आप कहें कि आकाश में हाथी उड़ रहे हैं तो कोई विश्वास नहीं करनेवाला. लेकिन अगर आप कहें कि आकाश में कुल 425 हाथी हैं तो शायद लोग आपका विश्वास कर लें. वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड इस तरह की चीज़ों से भरा हुआ है. यह ठीक वही तकनीक है जिसका मेरी नानी उपयोग किया करती थीं. मुझे वह कहानी खास तौर पर याद है जो एक ऐसे आदमी के बारे में है जो पीली तितलियों से घिरा रहता था. जब मैं बहुत छोटा था तो हमारे घर में एक बिजली का काम करनेवाला आता था. मुझे उसको लेकर बहुत उत्सुकता रहती थी क्योंकि वह अपने साथ एक बेल्ट लेकर आता था जिससे वह खुद को बिजली के खम्भे से बाँध लेता था. मेरी नानी कहतीं कि जब यह आदमी आता है घर तितलियों से भर जाता है. जब मैं इस बात को लिख रहा था तो मुझे लगा कि अगर मैंने नहीं कहा कि तितलियाँ पीली थीं तो लोग विश्वास नहीं करेंगे.

प्रश्न- वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड के ‘बनाना फीवर’ के बारे में आपका क्या कहना है? यूनाइटेड फ्रूट कंपनी के कारनामों से उसका कितना संबंध है?

‘बनाना फीवर’ का काफी कुछ सम्बन्ध यथार्थ से है. वास्तव में, मैंने कुछ ऐसी साहित्यिक युक्तियों का प्रयोग किया है जिनको ऐतिहासिक रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए, चौक में हुए जनसंहार की घटना बिलकुल सत्य है, मैंने उसे दस्तावेजों और बयानों के आधार पर लिखा है, लेकिन इस बात का कभी पता नहीं चल पाया कि कितने लोग उस घटना में मारे गए. मैंने मरनेवालों की संख्या 3000 लिखी, जो ज़ाहिर है अतिरंजना थी. लेकिन मेरी बचपन की स्मृतियों में उस ट्रेन को देखना भी है जो बहुत लंबी थी जो बागानों से केले भरकर लौटी थी. उसमें तीन हज़ार मृत हो सकते थे, जिनको समुद्र में फेंक दिया गया. लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि अब संसद और अखबारों में 3000 मृतकों की बात होने लगी है. मुझे लगता है कि हमारा आधा इतिहास इसी तरह से बना हुआ है. ऑटम ऑफ द पैट्रियार्क में तानाशाह कहता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह अभी सत्य नहीं है, लेकिन आनेवाले समय में यह बात सच साबित होगी. आनेवाले समय में जनता सरकार के बजाय लेखकों पर अधिक भरोसा करेगी.

प्रश्न- क्या आपको अंदाजा था कि वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड को ऐसी अप्रत्याशित सफलता मिलने वाली है?

मैं इतना तो जानता था कि यह किताब मेरे दोस्तों मेरी अन्य किताबों के मुकाबले अच्छी लगेगी. लेकिन जब मेरे स्पेनिश प्रकाशक ने कहा कि वह इसकी आठ हज़ार प्रतियाँ छापने जा रहा है तो मैं सन्न रह गया, क्योंकि मेरी अन्य किताबें 700 प्रतियों से ज्यादा नहीं बिकी थीं. मैंने उनसे कहा कि शुरुआत कम से करनी चाहिए, उसने जवाब दिया कि उसे पक्का विश्वास है कि यह एक अच्छी किताब है और मई से दिसंबर के दरम्यान सभी प्रतियाँ बिक जाएंगी. वास्तव में ब्यूनस आयर्स में वे सभी एक सप्ताह के अंदर बिक गईं.

प्रश्न- आपको क्या लगता है वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड इतनी पसंद क्यों की गई?

इसका मुझे बिलकुल अंदाज़ नहीं है क्योंकि मैं अपनी रचनाओं का बहुत बुरा आलोचक हूँ. इसकी एक व्याख्या जो मैंने अक्सर सुनी है वह यह है यह किताब लैटिन अमेरिका के लोगों की निजी जिंदगियों के बारे में है, तथा यह अंतरंगता से लिखी गई है. इस व्याख्या से मुझे आश्चर्य होता है क्योंकि जब मैंने इसे लिखने का पहला प्रयास किया था तब इसका नाम द हाउस होनेवाला था. मैं यह चाहता था कि इस उपन्यास की घटनाएँ घर के अंदर ही घटित हों तथा बाहरी संसार का इसमें वही कुछ आये जो इस बात को दिखाने के लिए हो कि उसका घर पर क्या प्रभाव पड़ा. इसकी एक और व्याख्या मैंने यह सुनी है कि प्रत्येक पाठक इसके पात्रों में से किसी न किसी के साथ अपनी छवि देख सकता है. मैं नहीं चाहता कि इसके ऊपर कोई फिल्म बने क्योंकि फिल्म देखने वाले एक चेहरा देखेंगे, जिसके बारे में हो सकता है कि उन्होंने कल्पना भी नहीं की हो.

प्रश्न- क्या इसके ऊपर फिल्म बनाने को लेकर आपकी कोई रूचि है?

मेरी एजेंट ने इसके फिल्म अधिकार के दस लाख डॉलर की दर तय की थी ताकि कोई इसके ऊपर फिल्म बनाने की न सोचे. लेकिन जब कुछ प्रस्ताव आये तो उसने इसे बढ़ाकर 30 लाख डॉलर कर दिया. मेरी कोई रुचि नहीं है कि इसके ऊपर किसी तरह की फिल्म बने और जब तक मैं रोक सकता हूँ तब तक इसके ऊपर फिल्म बनने से मैं रोकूँगा. मैं तो यही चाहूँगा कि पाठकों और इस किताब के बीच एक तरह का निजी रिश्ता बना रहे.

प्रश्न- क्या आपको लगता है कि किसी किताब का फिल्म में अच्छी तरह रूपांतरण हो सकता है?

मुझे किसी ऐसी फिल्म का ध्यान नहीं आता जो किसी अच्छे उपन्यास से अच्छी बनी हो लेकिन मुझे कई ऐसी अच्छी फिल्मों का ख्याल आता है जो बुरे उपन्यासों पर बनी हैं.

प्रश्न- क्या आपने कभी खुद फिल्म बनाने के बारे में सोचा?

एक समय में मैं फिल्म निर्देशक बनना चाहता था. मैंने रोम में फिल्म निर्देशन की पढ़ाई भी पढ़ी. मैं सोचता था कि सिनेमा एक ऐसा माध्यम है जिसकी कोई सीमा नहीं है और जिसमें कुछ भी संभव है. मैं मेक्सिको इसीलिए रहने आया क्योंकि मैं फिल्मों में पटकथा लेखक के रूप में काम करना चाहता था. लेकिन सिनेमा की एक बड़ी सीमा यह है कि यह यह एक औद्योगिक कला है, उद्योग है. फिल्मों में जो आप कहना चाहते हैं उसकी अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल है. मैं अभी भी इसके बारे में सोचता हूँ, लेकिन अब यह मुझे विलासिता लगती है, जिसे आप दोस्तों के साथ करना चाहें बिना इस बात कि उम्मीद किये कि मैं स्वयं को अभिव्यक्त कर पाउँगा. इसलिए मैं सिनेमा से दूर बहुत दूर होता चला गया. इसके साथ मेरा सम्बन्ध उस जोड़े की तरह है जो अलग-अलग नहीं रह सकते लेकिन वे साथ-साथ भी नहीं रह सकते. मुझे फिल्म कंपनी और जर्नल में से एक चुनने को कहा जाए तो मैं जर्नल को ही चुनूंगा.

प्रश्न- क्या आपको लगता है कि किसी लेखक के जीवन में सफलता या प्रसिद्धि का बहुत ज़ल्दी आ जाना अच्छा नहीं होता?

यह तो किसी भी उम्र में बुरा ही होता है. मैं तो यह चाहता कि मेरी किताबें मेरी मृत्यु के बाद प्रसिद्ध हुई होती, कम से कम पूंजीवादी देशों में, जहां आप एक तरह से माल में बदल दिए जाते हैं.

प्रश्न- अपनी प्रिय पुस्तकों के अलावा आप इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं?

मैं अजीब-अजीब तरह की किताबें पढता हूँ. एक दिन मैं मोहम्मद अली के संस्मरण पढ़ रहा था. ब्रेम स्टोकर का ड्रैकुला बड़ी अच्छी किताब है, अगर मैंने उसे कुछ साल पहले नहीं पढ़ा होता तो हो सकता है कि मैं कहता कि उसे पढ़ना समय बर्बाद करना है. लेकिन मैं किसी किताब को तब तक नहीं पढता जब तक उसके बारे में मुझे कोई ऐसा आदमी नहीं बताता जिसके ऊपर मैं विश्वास करता हूँ. मैं अब उपन्यास नहीं पढ़ता. मैंने अनेक संस्मरण और दस्तावेज़ पढ़े हैं, चाहे वे जाली दस्तावेज़ ही क्यों न हों. और मैं अपनी पसंदीदा किताबों को फिर-फिर पढता हूँ. पुनर्पठन का एक फायदा यह होता है कि आप किसी भी पेज को खोलकर अपने मनपसंद हिस्से को पढ़ सकते हैं. अब मैं केवल ‘साहित्य’ पढ़ने के पवित्र विचार को खो चुका हूँ. मैं कुछ भी पढ़ लूँगा. मैं अपने आपको अपटुडेट रखने की कोशिश करता हूँ. मैं हर् सप्ताह दुनिया भर की सारी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं को पढ़ जाता हूँ. जब मैं दुनिया की सारी गंभीर और महत्वपूर्ण पत्रिकाओं को पढ़ जाता हूँ तो मेरी पत्नी आकर कोई ऐसा समाचार सुनती है जिसके बारे में मैंने नहीं सुना होता है. जब मैं उससे पूछता हूँ कि उसने कहाँ से पढ़ा तो वह कहती है कि उसने ब्यूटी पार्लर में एक मैगज़ीन में पढ़ा. इसलिए मैं फैशन मैगजीन्स तथा औरतों की हर तरह की पत्रिकाएं, गॉसिप की पत्रिकाएं, सारी पढता हूँ. और मैं बहुत कुछ सीखता हूँ जो केवल उनको पढ़ने से ही सीखा जा सकता है. इसके कारण मैं बहुत व्यस्त रहता हूँ.

गाबो को अलविदा


गाब्रिएल गार्सिया मार्केस और उनके युवावस्था के पत्रकार मित्र प्लीनीयो आपूलेयो मेन्दोज़ा के बीच हुई एक लम्बी बातचीत पुस्तक फ्रेगरेंस ऑफ गुआवा  की शक्ल में छपी थी. उसी किताब से एक अध्याय. उनके परिवार के बारे में जानिए. 

अलविदा उस्ताद.
–कबाड़खाना

मेरे भीतर सबसे स्पष्ट और निरंतर स्मृति लोगों की बनिस्बत उस मकान की है आराकाटाका में जिसके भीतर मैं अपने नाना-नानी के साथ रहा था. यह लगातार आने वाला एक स्वप्न है जिसे मैं आज भी देखता हूं. और अपने पूरे जीवन में हर दिन में जब भी जागता हूं मुझे अनुभूति होती है, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, कि मैंने सपने में देखा है कि मैं सपने में उस घर के भीतर था. ऐसा नहीं है कि मैं वापस वहां गया होऊं; किसी भी उम्र में, या बिना किसी विशेष वजह के - पर मैं तो वहीं हूं - जैसे मैंने उसे कभी छोड़ा ही नहीं था. आज भी मेरे सपनों में रात समय का वह निषेध बनी हुई है जिसने मेरे पूरे बचपन को घेरा हुआ था. यह एक बेकाबू झुरझुरी थी जो हर शाम जल्दी शुरू होकर मेरे नींद को कोंचती रही थी जब तक कि मैं दरवाजे़ की दरार से भोर का होना नहीं देख लेता था. मैं बहुत ठीक-ठाक इसके बारे में नहीं बता सकता पर मेरे ख़्याल से वह निषेध इस तथ्य में निहित था कि रात के समय मेरी नानी के सारे प्रेत और आत्माएं साकार हो जाया करते थे. कुछ उस तरह का हमारा सम्बंध था. एक तरह का अदृश्य धागा जो हमें परामानवीय संसार से बांधे रखता था. दिन के समय मेरी नानी का जादुई संसार मुझे सम्मोहित किये रखता था - मैं उसमें डूबा रहता था, वह मेरा संसार था. लेकिन रात को वह मुझे भयभीत करता था. आज भी, जब मैं दुनिया के किसी हिस्से के किसी अजनबी होटल में अकेला सोया होता हूं, मैं अक्सर डरा हुआ जागता हूं, अंधेरे में अकेला होने के भय से हिला हुआ, और शांत होकर वापस सो जाने में हमेशा मुझे कुछ मिनट लगते हैं. वहीं मेरे नानाजी, नानी के अनिश्चितता भरे संसार में संपूर्ण सुरक्षा का प्रतिनिधित्व किया करते थे. उनके होने पर मेरी सारी चिंताएं गायब हो जाती थीं. मुझे दोबारा वास्तविक संसार के ठोस धरातल पर खड़े होने का बोध होता था. अजीब बात यह थी कि मैं अपने नाना जैसा होना चाहता था - यथार्थवादी, बहादुर, सुरक्षित - लेकिन नानी के संसार में झांकने का निरंतर लालच मुझे वहीं ले जाया करता था.

अपने नाना के बारे में मुझे बतलाओ. कौन थे वो? उनके साथ तुम्हारा कैसा रिश्ता था?

कर्नल निकोलास रिकार्दो मारकेज़ मेहीया - यह उनका पूरा नाम था - एक ऐसे शख़्स थे जिनके साथ संभवतः मेरी सबसे बढि़या बनती थी और जिनके साथ मेरी आपसी समझदारी सबसे ज़्यादा थी. लेकिन करीब पचास साल बाद पलटकर देखता हूं तो लगता है कि उन्होंने संभवतः कभी भी इस बात का अहसास नहीं किया. पता नहीं क्यों पर इस अहसास ने, जो पहली बार मुझे किशोरावस्था में हुआ था, मुझे बहुत खिन्न किया है. यह बहुत कुंठित करने वाला होता है क्योंकि यह एक लगातार बनी रहने वाली कचोट के साथ जीने जैसा है जिसे साफ़-सपाट कर लिया जाना चाहिए था पर वह अब नहीं हो सकेगा क्योंकि मेरे नाना की मौत तब हो चुकी थी जब मैं आठ साल का था. मैंने उन्हें मरते हुए नहीं देखा क्योंकि उस वक्त मैं आराकाटाका से बहुत दूर था, और मुझे यह समाचार नहीं दिया गया हालांकि जहां मैं रह रहा था उस घर के लोगों को मैंने इस बाबत बात करते हुए सुना. जहां तक मुझे याद पड़ता है, मुझ पर इस समाचार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तो भी एक वयस्क के तौर पर जब भी मेरे साथ कुछ भी विशेषतः अच्छी घटना होती है तो मुझे अपनी प्रसन्नता सम्पूर्ण नहीं लगती क्योंकि मैं चाहता हूं कि मेरे नाना उसे जान पाते. इस तरह से एक वयस्क के तौर पर मेरी तमाम ख़ुशियों पर इस एक कुंठा का कीड़ा लगा रहता है, और ऐसा हमेशा होता रहेगा.

क्या तुम्हारी किसी किताब का कोई चरित्र उनके जैसा है?

‘लीफ़ स्टॉर्म’ का बेनाम कर्नल एकमात्र चरित्र है जो मेरे नानाजी से मिलता-जुलता है. असल में वह पात्र उनके व्यक्तित्व और आकृति की बारीक प्रतिलिपि है. हालांकि यह एक व्यक्तिगत सोच है क्योंकि उपन्यास में कर्नल का बहुत वर्णन नहीं है और संभवतः पाठकों के मन में बनने वाली छवि मेरी सोच से फ़र्क हो सकती है. मेरे नानाजी के एक आंख गंवाने की घटना किसी उपन्यास का हिस्सा बनने के लिहाज से अतिनाटकीय हैः वे अपने दफ्तर की खिड़की से एक सफेद घोड़े को देख रहे थे जब उन्हें अपनी बांई आंख में कुछ महसूस हुआ; उन्होंने अपना हाथ उस पर रखा और बिना किसी दर्द के उनकी बांई आंख की रोशनी चली गई. मुझे इस घटना की याद नहीं है पर बचपन में मैंने इसके बारे में बातें सुनी थीं और हर दफ़े आखिर में मेरी नानी कहा करती थीं, "उनके हाथ में आंसुओं के अलावा कुछ नहीं बचा." ‘लीफ़ स्टॉर्म’ के कर्नल में यह शारीरिक कमी बदल दी गई है - वह लंगड़ा है. मुझे पता नहीं मैंने उपन्यास में यह लिखा है या नहीं पर एक बात मेरे दिमाग़ में हमेशा थी कि उसका लंगड़ापन एक युद्ध की चोट का परिणाम था. इस शताब्दी के शुरूआती वर्षों में कोलंबिया में हुए ‘हज़ार दिनी युद्ध’ के दौरान क्रांतिकारी सेना में मेरे नाना ने कर्नल की पदवी हासिल की थी. उनकी सबसे स्पष्ट स्मृति मेरे लिए इसी तथ्य से सम्बंधित है. उनके मरने से ठीक पहले उनके बिस्तर पर उनका निरीक्षण करते हुए एक डॉक्टर ने (मुझे पता नहीं क्यों) उनके पेड़ू के पास एक घाव का निशान देखा था. "वो एक गोली थी" मेरे नाना बोले. उन्होंने मेरे साथ गृहयुद्ध के बारे में अक्सर बातचीत की थी और उन्हीं के कारण उस इतिहास-काल में मेरी दिलचस्पी पैदा हुई जो मेरी सारी किताबों में आता है लेकिन उन्होंने मुझे कभी नहीं बताया था कि वह घाव एक गोली का परिणाम था. जब उन्होंने डॉक्टर को यह बात बताई, मेरे लिये वह एक महान गाथा के प्रकट होने जैसा था.

मैं हमेशा सोचता था कि कर्नल ऑरेलियानो बुएनदीया तुम्हारे नानाजी से मेल खाता होगा....

नहीं, कर्नल ऑरेलियानो बुएनदिया मेरे नाना की मेरी इमेज से बिल्कुल उलट है. मेरे नाना गठीले थे, उनकी रंगत दमकभरी थी और मेरी याददाश्त में वे सबसे बड़े भोजनभट्ट थे. इसके अलावा, जैसा मुझे बाद में ज्ञात हुआ, वे एक भीषण स्त्रीगामी थे. दूसरी तरफ़ कर्नल ऑरेलियानो बुएनदिया देखने में जनरल राफ़ाएल उरिबे उरिबे जैसा है और उन्हीं का जैसा सादगीपूर्ण जीवन का हिमायती भी. मैंने उरिबे उरिबे को कभी नहीं देखा पर नानी बताती थीं कि वे एक दफ़े आराकाटाका आये थे और उन्होंने अपने दफ्तर में मेरे नाना और अन्य पूर्व-सैनिकों के साथ कुछ बीयर की बोतलें पी थीं. उनकी जो छवि मेरी नानी की मन में थी वह ‘लीफ़ स्टॉर्म’ में उस फ्रांसीसी डाक्टर के वर्णन से मेल खाती है जो कर्नल की पत्नी आदेलाइदा के मन में हैः वह कहती है कि जब वह उसे पहली बार देखती है उसे वह एक सिपाही जैसा नजर आता है. गहरे भीतर मुझे पता है कि उसे वह जनरल उरिबे उरिबे जैसा नजर आता था.

अपनी मां के साथ अपने सम्बंधों को तुम किस तरह देखते हो?

मेरी मां के साथ मेरे संबंधों की सबसे बड़ी ख़ासियत बचपन से ही उसकी गंभीरता रही है. संभवतः वह मेरे जीवन का सबसे गंभीर संबंध है. मुझे यक़ीन है कि एक भी ऐसी बात नहीं है जो हम एक दूसरे को न बता पाएं और ऐसा कोई विषय नहीं जिस पर हम बात न कर सकें लेकिन हमारे दरम्यान हमेशा एक पेशेवर औपचारिकता जैसी रही है न कि अंतरंगता. इस बारे में बता पाना मुश्किल है पर यह ऐसा ही है. शायद ऐसा इस कारण भी था कि जब मैं नाना जी की मृत्यु के बाद अपने माता-पिता के साथ रहने गया तो मैं अपने बारे में सोच सकने लायक बड़ा हो चुका था. उनके लिये मेरे आने का मतलब यह रहा होगा कि उनके अनेक बच्चों के साथ (बाकी सारी मुझसे छोटे थे) एक बच्चा और आ गया है जिससे वह असल में बात कर सकती थीं और जो घरेलू समस्याओं का समाधान करने में उनकी सहायता करता. उनका जीवन कठोर और पुरुस्कारहीन था - कई दफ़े वे भीषण गरीबी में रही थीं. इसके अलावा हम बहुत लंबे समय तक एक छत के नीचे नहीं रहे क्योंकि कुछ साल बाद जब मैं बारह का था, पढ़ने के लिये मैं पहले बारान्कीया और फिर जि़पाकीरा चला गया. तब से हमारी मुलाकातें बहुत संक्षिप्त रही हैं, शुरू में स्कूल की छुट्टियों के वक्त और बाद में जब भी मैं कार्तागेना जाता हूं - वह भी साल भर में एक बार से ज़्यादा कभी नहीं होता और कभी भी दो सप्ताह से ऊपर नहीं. इसके कारण हमारा संबंध दूरीभरा हो गया है. इसने एक विशेष औपचारिकता का निर्माण भी किया है जिसके कारण हम एक दूसरे के साथ तभी खुल पाते हैं जब गंभीर होते हैं. हालांकि, पिछले बारह-एक सालों से, जब से मेरे पास साधन हैं, हर इतवार को एक ही समय पर मैं उन्हें टेलीफोन करता हूं, चाहे संसार के किसी भी हिस्से में होऊं. बहुत कम दफ़े जब मैं ऐसा नहीं कर पाया हूं, वह तकनीकी दिक्कतों के कारण हुआ है. ऐसा नहीं है कि मैं ‘अच्छा बेटा’ हूं जैसा कहा जाता है. मैं औरों से बेहतर नहीं हूं पर मैं ऐसा इसलिये करता हूं कि मैंने हमेशा सोचा है कि इतवार को टेलीफ़ोन करना हमारे संबंधों की गंभीरता है हिस्सा है.

क्या यह सच है कि तुम्हारे उपन्यासों की चाभी उन्हें आसानी से मिल जाती है?

हां, मेरे तमाम पाठकों में सबसे अधिक ‘इंन्स्टिंक्ट’ और निश्चय ही सबसे अधिक सूचनाएं उन्हीं के पास होती हैं और वे मेरी किताबों के चरित्रों के पीछे के वास्तविक लोगों को पहचान लेती हैं. यह आसान नहीं है क्योंकि मेरे तकरीबन सारे पात्र कई अलग-अलग लोगों और थोड़ा बहुत ख़ुद मेरे हिस्से की बनी पहेलियों जैसे होते हैं. इस बाबत मेरी मां की विशेष प्रतिभा इस बात में वैसी ही है जैसे किसी पुराशास्त्री को उत्खनन के दौरान पाई गई चन्द हड्डियों की मदद से किसी प्रागैतिहासिक जीव का पुनर्निर्माण करना होता है. जब वे मेरी किताबें पढ़ती हैं तो स्वतः ही उन सारे हिस्सों को मिटा देती हैं जो मैंने जोड़े होते हैं और वे उस मुख्य हड्डी को, उस केंद्रबिंदु को पहचान लेती हैं, जिसके इर्द-गिर्द मैंने अपने पात्र का सृजन किया होता है. कभी-कभी जब वे पढ़ रही होती हैं आप उन्हें कहते हुए सुन सकते हैं, "ओह बेचारा मेरा कोम्पाद्रे , तुमने उसे एक वास्तविक पैंज़ी के फूल में बदल दिया है", मैं उन्हें कहता हूं कि वह पात्र उनके कोम्पाद्रे जैसा नहीं है, लेकिन ऐसा मैं यूं ही कहने के लिये कह देता हूं क्योंकि वे जानती हैं कि मैं जानता हूं कि वे जानती हैं.


तुम्हारा कौन सा स्त्री-पात्र उन जैसा है?

‘क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फोरटोल्ड’ तक मेरा कोई भी पात्र उन पर आधारित नहीं था. ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ़ सोलिड्यूड’ की उर्सुला इगुआरान में उनके चरित्र के कुछ हिस्से हैं पर उर्सुला और भी कई स्त्रियों से बनी हैं जिन्हें मैंने जाना है. सच तो यह है कि उर्सुला मेरे लिये इस लिहाज़ से एक आदर्श स्त्री है कि उसमें वे सारी बातें हैं जो मेरे हिसाब से एक स्त्री में होनी चाहिये. आश्चर्य की बात यह है कि इसका बिल्कुल विपरीत सच है. जैसे-जैसे मेरी मां बूढ़ी होती जा रही हैं वे उर्सुला की उस विराट छवि जैसी बनती जा रही हैं और उनका व्यक्तित्व उसी दिशा में बढ़ रहा है. इस कारण ‘क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फोरटोल्ड’ में उनका प्रकट होना उर्सुला के पात्र का दोहराव लग सकता है पर ऐसा नहीं है. यह पात्र मेरी मां की मेरी इमेज का ईमानदार चित्र है और इसीलिये उसका नाम भी वही है. उस पात्र के बारे में उन्होंने एक ही बात कही जब उन्होंने देखा कि मैंने उनका दूसरा नाम, सांटियागा, इस्तेमाल किया है. "हे ईश्वर" वे बोलीं "मैंने पूरी जि़न्दगी इस भयानक नाम को छिपाने की कोशिश में बिताई है और अब यह सारी दुनिया में तमाम भाषाओं में फैल जाएगा."

तुम कभी भी अपने पिता के बारे में बात नहीं करते. उनकी क्या स्मृतियां हैं तुम्हारे पास? अब तुम उन्हें कैसे देखते हो?

जब मैं तैंतीस साल का हुआ तो मुझे अचानक अहसास हुआ कि मेरे पिताजी भी इतने ही सालों के थे जब मैंने उन्हें अपने नाना-नानी के घर में पहली बार देखा था. मुझे यह बात अच्छी तरह याद है क्योंकि उस दिन उनका जन्मदिन था और किसी ने उनसे कहा, "अब तुम्हारे उम्र ईसामसीह जितनी हो गई है." सफ़ेद ड्रिल सूट और स्ट्रा बोटर पहने हुए वे छरहरे, गहरी रंगत वाले एक बुद्धिमान और दोस्ताना व्यक्ति थे. तीस के दशक के एक आदर्श कैरिबियाई ‘जैन्टलमैन’. मजे़ की बात यह है कि हालांकि अब वे अस्सी के हैं और काफी ठीकठाक हालत में हैं, मैं अब भी उन्हें वैसा नहीं देखता जैसे वे अब हैं बल्कि वे हमेशा मुझे वैसे ही दिखते हैं जैसा उन्हें मैंने पहली बार अपने नाना जी के घर में देखा था. हाल ही में उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा था कि मैं सोचता था कि मैं शायद उन मुर्गियों में से था जो बिना किसी भी मुर्गे की मदद से पैदा हो जाती हैं. उन्होंने यह बात मज़ाक में कही थी. उनका परिष्कृत ‘ह्यूमर’ शायद थोड़ी सी उलाहना से भी भरा था क्योंकि मैं हमेशा अपनी मां के साथ अपने संबंधों के बारे में बात करता हूं - उनके साथ कभी-कभार ही. वे सही भी हैं. लेकिन मैं उनके बारे में बात इसलिये नहीं करता क्योंकि असल में मैं उन्हें जानता ही नहीं, कम से कम उतना तो नहीं जानता जितना मां को जानता हूं. ऐसा अब जाकर हुआ है जब हम दोनों करीब-करीब एक ही उम्र के हैं (जैसा मैं कभी-कभी उनसे कहता भी हूं) कि हमारे बीच शांत समझदारी का एक बिंदु आया है. मैं इसके बारे में बता सकता हूं शायद. जब आठ की उम्र में मैं अपने माता-पिता के साथ रहने गया था मेरे भीतर पहले ही से पिता की एक मजबूत छवि बन चुकी थी - मेरे नानाजी की, न सिर्फ़ मेरे पिता मेरे नानाजी जैसे नहीं थे वे उनके बिल्कुल उलटे थे. उनका व्यक्तित्व, अधिकार के बारे में उनके विचार और बच्चों के साथ उनका संबंध - सब कुछ बिल्कुल भिन्न था. यह बिल्कुल मुमकिन है कि उस उम्र में मैं अचानक आये उस परिवर्तन से प्रभावित हुआ होऊं और इसी कारण किशोरावस्था तक मुझे अपना संबंध उनके साथ बहुत मुश्किल लगने लगा हो. मुख्यतः ग़लती मेरी थी. उनके साथ कैसे व्यवहार किया जाये मुझे निश्चित कभी पता नहीं होता था. मुझे नहीं पता था उन्हें ख़ुश कैसे किया जाय और उनके कठोर स्वभाव को मैंने ग़लती से समझदारी की कमी समझ लिया था. इसके बावजूद मेरे विचार से हमने इस संबंध को ठीक-ठाक निभा लिया क्योंकि हमारे बीच कोई गंभीर झगड़ा कभी नहीं हुआ.

दूसरी तरफ़, साहित्य के प्रति मेरी रुचि के लिए मैं बहुत सीमा तक उनका आभारी हूं. अपनी युवावस्था में वे कविताएं लिखा करते थे, और हमेशा छुप कर नहीं; और जब आराकाटाका में टेलीग्राफ़ आपरेटर थे वे वायलिन बजाया करते थे. उन्हें साहित्य सदा पसंद आया है और वे बढि़या पाठक हैं. जब हम उनके घर जाते हैं हमें कभी नहीं पूछना होता कि वे कहां होंगे क्योंकि हमें पता होता है कि वे अपने शयनकक्ष में कोई किताब पढ़ रहे होंगे. उस पागल घर में वही इकलौती शांत जगह है. आपको कभी पक्का पता नहीं होता कि खाने पर कितने लोग होंगे क्योंकि वहां अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त असंख्य बच्चों, पोते-पोतियों, भतीजे-भतीजियों की बढ़ती-घटती जनसंख्या का आवागमन लगा रहता है. पिताजी को जो मिलता है, उसे पढ़ते हैं - श्रेष्ठ साहित्य, अख़बार-पत्रिकाएं, विज्ञापनों के हैण्डआउट, रेफ़्रीजरेटर की मैनुअल - कुछ भी. मुझे और कोई नहीं मिला जिसे साहित्य के कीड़े ने इस कदर काटा हो. बाक़ी की बातों के हिसाब से देखें तो उन्होंने अल्कोहल की एक बूंद नहीं पी, न सिगरेट पी लेकिन उनके सोलह वैध बच्चे हुए और भगवान जाने कितने और. आज भी वे मेरी जानकारी में सबसे फु़र्तीले और स्वस्थ अस्सी वर्षीय व्यक्ति हैं और ऐसा लगता नहीं कि उनका तौर-तरीक़ा बदलेगा - बल्कि ठीक उल्टा ही सच है.


तुम्हारे सारे दोस्तों को तुम्हारे जीवन में मेरसेदेज़ की भूमिका के बारे में पता है. मुझे बताओ तुम्हारी मुलाकात कहां हुई, तुम्हारी शादी कैसे हुई और ख़ास तौर पर यह कि तुम यह दुर्लभ काम - एक सफल विवाह कैसे कर सके?

मेरसेदेज़ से मेरी मुलाकात सुक्रे में हुई, जो कैरीबियाई तट के बस भीतरी इलाक़े का एक क़स्बा है जहां हम दोनों के परिवारों ने कई साल बिताये थे और जहां हम दोनों अपनी छुट्टियों में जाया करते थे. उसके पिता और मेरे पिता लड़कपन के दोस्त थे. एक दिन, ‘स्टूडेंट्स डांस’ के दौरान, जब वह केवल तेरह की थी, मैंने उससे शादी करने का प्रस्ताव किया. अब मुझे लगता है कि वह प्रस्ताव एक तरह से ऐसा था कि सारे पचड़े खत्म किये जाएं और उस संघर्ष से बचा जाये जो उन दिनों एक गर्लफ्रैंड ढूंढ़ने के लिये करना पड़ता था. उसने उसे ऐसा ही समझा होगा क्योंकि हमारी मुलाकातें कभी-कभार होती थीं और बेहद हल्की-फुल्की, लेकिन मेरे ख़्याल से हम दोनों में से किसी को भी इस बात का संदेह नहीं था कि सब कुछ एक दिन वास्तविकता बन जाएगा. वास्तव में यह कहानी, बिना किसी सगाई वगैरह के, दस वर्ष बाद असलियत बनी. बिना जल्दीबाज़ी और हड़बड़ी के हम सिर्फ दो लोग थे जो अंततः उस निश्चित घटना का इंतज़ार कर रहे थे. हमारे विवाह के पच्चीस साल होने को हैं और हमारा कोई भी गंभीर विवाद नहीं हुआ है. मैं समझता हूं कि इसका रहस्य यह है कि हम चीज़ों को अब भी उसी तरह देखते हैं जैसे शादी से पहले देखा करते थे. विवाह, जीवन की ही तरह अविश्वसनीय रूप से मुश्किल होता है क्योंकि आप को हर रोज़ नये सिरे से शुरूआत करनी होती है और ऐसा जि़न्दगी भर किये जाना होता होता है. यह एक सतत और अक्सर क्लांत कर देने वाला युद्ध होता है, पर अंततः उसके लायक भी. मेरे एक उपन्यास का एक पात्र इस बात को अधिक कच्चे शब्दों में यूं कहता हैः "प्यार एक ऐसी चीज़ है जिसे आप सीखते हैं."

क्या मेरसेदेज़ ने तुम्हारे किसी चरित्र की रचना को प्रेरित किया है?

मेरे किसी भी उपन्यास का कोई भी पात्र मेरसेदेज़ जैसा नहीं है. वह ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑ सॉलीट्यूड’ में अपने ही रूप में अपने ही नाम के साथ एक कैमिस्ट के बतौर दो बार आती है और उसी तरह वह दो दफ़े ‘क्रोनिकल ऑफ़ ए डैथ फ़ोरटोल्ड’ में भी आती है, मैं उसका बहुत अधिक साहित्यिक इस्तेमाल नहीं कर पाया हूं - इसके पीछे एक ऐसा कारण है जो बहुत काल्पनिक लग सकता है पर है नहीं - मैं अब उसे इतनी अच्छी तरह जानता हूं कि मुझे जरा भी गुमान नहीं कि वास्तव में वह कैसी है?

तुम्हारे सारे दोस्तों को तुम्हारे जीवन में मेरसेदेज़ की भूमिका के बारे में पता है. मुझे बताओ तुम्हारी मुलाकात कहां हुई, तुम्हारी शादी कैसे हुई और ख़ास तौर पर यह कि तुम यह दुर्लभ काम - एक सफल विवाह कैसे कर सके?

मेरसेदेज़ से मेरी मुलाकात सुक्रे में हुई, जो कैरीबियाई तट के बस भीतरी इलाक़े का एक क़स्बा है जहां हम दोनों के परिवारों ने कई साल बिताये थे और जहां हम दोनों अपनी छुट्टियों में जाया करते थे. उसके पिता और मेरे पिता लड़कपन के दोस्त थे. एक दिन, ‘स्टूडेंट्स डांस’ के दौरान, जब वह केवल तेरह की थी, मैंने उससे शादी करने का प्रस्ताव किया. अब मुझे लगता है कि वह प्रस्ताव एक तरह से ऐसा था कि सारे पचड़े खत्म किये जाएं और उस संघर्ष से बचा जाये जो उन दिनों एक गर्लफ्रैंड ढूंढ़ने के लिये करना पड़ता था. उसने उसे ऐसा ही समझा होगा क्योंकि हमारी मुलाकातें कभी-कभार होती थीं और बेहद हल्की-फुल्की, लेकिन मेरे ख़्याल से हम दोनों में से किसी को भी इस बात का संदेह नहीं था कि सब कुछ एक दिन वास्तविकता बन जाएगा. वास्तव में यह कहानी, बिना किसी सगाई वगैरह के, दस वर्ष बाद असलियत बनी. बिना जल्दीबाज़ी और हड़बड़ी के हम सिर्फ दो लोग थे जो अंततः उस निश्चित घटना का इंतज़ार कर रहे थे. हमारे विवाह के पच्चीस साल होने को हैं और हमारा कोई भी गंभीर विवाद नहीं हुआ है. मैं समझता हूं कि इसका रहस्य यह है कि हम चीज़ों को अब भी उसी तरह देखते हैं जैसे शादी से पहले देखा करते थे. विवाह, जीवन की ही तरह अविश्वसनीय रूप से मुश्किल होता है क्योंकि आप को हर रोज़ नये सिरे से शुरूआत करनी होती है और ऐसा जि़न्दगी भर किये जाना होता होता है. यह एक सतत और अक्सर क्लांत कर देने वाला युद्ध होता है, पर अंततः उसके लायक भी. मेरे एक उपन्यास का एक पात्र इस बात को अधिक कच्चे शब्दों में यूं कहता हैः "प्यार एक ऐसी चीज़ है जिसे आप सीखते हैं."

क्या मेरसेदेज़ ने तुम्हारे किसी चरित्र की रचना को प्रेरित किया है?

मेरे किसी भी उपन्यास का कोई भी पात्र मेरसेदेज़ जैसा नहीं है. वह ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑ सॉलीट्यूड’ में अपने ही रूप में अपने ही नाम के साथ एक कैमिस्ट के बतौर दो बार आती है और उसी तरह वह दो दफ़े ‘क्रोनिकल ऑफ़ ए डैथ फ़ोरटोल्ड’ में भी आती है, मैं उसका बहुत अधिक साहित्यिक इस्तेमाल नहीं कर पाया हूं - इसके पीछे एक ऐसा कारण है जो बहुत काल्पनिक लग सकता है पर है नहीं - मैं अब उसे इतनी अच्छी तरह जानता हूं कि मुझे जरा भी गुमान नहीं कि वास्तव में वह कैसी है?
(कबाड़खाना से साभार)