06 मार्च 2014

. मीडिया का फांसी-वाद

बलात्कार के मामले और फांसी का विकल्प

[बलात्कार की मीडिया कवरेज को लेकर दुनिया भर में कई अहम शोध और अध्ययन हो चुके हैं। इस लेख में हम दक्षिणी दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद के हफ़्ते में हुई मीडिया कवरेज के सबसे प्रमुख पक्ष पर सैद्धांतिक बात करेंगे।] 

समाजशास्त्र और मीडिया स्टडीज़ में हुए कुछ अध्ययन हमें बताते हैं कि बलात्कार और महिला सुरक्षा के मसले पर मीडिया के तेवर काफ़ी हद तक महिला आज़ादी के पक्ष में नहीं रहे हैं। ये बात भी काफ़ी प्रमुखता से स्पष्ट हुई है कि रिपोर्टिंग में वीभत्सता, रोमांच और हिंसा के अलावा महिलाओं को लेकर मौजूद सामाजिक धारणाओं को प्राथमिक तौर पर उभारा जाता रहा है।1  इससे पहले कि हम 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में हुए बलात्कार की मीडिया कवरेज पर बात करें, हम दूसरे देश की एक घटना का मिसाल लेते हैं। 6 मार्च 1983 को अमेरिका के न्यू बेडफोर्ड, मैसाचुसेट्स शहर में रात के 9 बजे एक युवती 'बिग डैन्स' नामक बार में सिगरेट और ड्रिंक के लिए अंदर गई। 

लेकिन, कई घंटों बाद उसे किसी राहगीर ने अर्धनग्न हालात में रोते हुए सड़क पर पाया। उसके साथ बार में सामूहिक बलात्कार हुआ था और वहां से किसी तरह भागकर वो बाहर निकलने में कामयाब रही। बार में पूल टेबल के पास लड़कों के समूह ने उसके साथ बलात्कार किया और बाकी लोग उसे देखकर जाम टकराते रहे। किसी ने पुलिस को फोन नहीं किया। 14 मार्च 1983 को 12 महिला संगठनों ने मिलकर विरोधस्वरूप एक जुलूस निकाला, जिसकी संख्या न्यूयॉर्क टाइम्स ने 2,500 और न्यू ब्रेडफोर्ड स्टैंडर्ड टाइम्स ने 4,000 बताई। 

इसके बाद महीनों तक छपने वाली मीडिया सामग्रियों को लेकर कई अध्ययन हुए। एक अध्ययन में ये पाया गया कि शुरुआत में तो मीडिया का ज़ोर हमलावरों और तमाशबीनों पर था, लेकिन जैसे ही मामला अदालत में पहुंचा अख़बारों का फोकस भी शिफ़्ट होने लगा। अख़बारों की रिपोर्ट इस पर ज़्यादा तवज्जो देने लगी कि देर रात को महिला बार में क्यों गई थी, क्या वो वहां जाकर शराब पीती थी और वह अपने बच्चों को घर में छोड़कर बार कैसे जा सकती है? 3 
हिंसा मीडिया का पसंदीदा उत्पाद है

रिपोर्टिंग के यह नज़रिया कई सवाल उठाता है। क्या किसी राष्ट्र-राज्य के भीतर महिलाओं को सिर्फ़ इस आधार पर घूमने की आज़ादी नहीं होनी चाहिए कि उसके साथ बलात्कार हो सकता है? क्या बार जैसी जगह पर महिलाओं के जाने पर पाबंदी होनी चाहिए? क्या पारिवारिक ज़िम्मेदारी को बलात्कार के पक्ष में ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है? किसी देश के भीतर लोकतांत्रिक दायरे को मजबूत करने के लिए मीडिया को पहल करनी चाहिए या फिर महिलाओं को लेकर समाज में बनी यथास्थितिवादी धारणाओं को पुष्ट करना चाहिए? एकबारगी ऐसी रिपोर्टिंग ये एहसास दिलाती हैं कि बलात्कार जैसे संवेदनशील विषय को लेकर प्रचलित पुरुषवादी धारणा मीडिया के भीतर भी मौजूद है। 

क्या मीडिया अपनी संरचना में पुरुषवादी है और समाज के जिस वर्ग को वो लक्ष्य कर रहा है उनकी मानसिकता भी रिपोर्टिंग की भाषा और कथ्य के दायरे में फिट बैठती है? ज़्यादातर माध्यम अपने कार्यक्रम को पुरुष दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाते और पेश करते हैं। कई दफ़ा ये नियोजित होते हैं और कई दफ़ा अवचेतन में दर्शकों को लेकर बनी पुरुष छवि के चलते ऐसा होता है। इसके अलावा एक प्रमुख कारण ये भी है कि कार्यक्रम निर्माण से जुड़े लोगों में पुरुष बहुसंख्यक है, लिहाजा अपनी पूरी सामाजिकता और संस्कृति के साथ पुरुषवादी मानसिकता ऐसे कार्यक्रमों के जरिए उभरकर सामने आता है। 

मीडिया स्टडीज़ ग्रुप के एक सर्वे में जाहिर हुआ है कि देश में जिला स्तर पर महिला पत्रकारों की भागीदारी महज 2.7 फ़ीसदी है। देश के छह राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों में ज़िला स्तर पर महिला पत्रकारों की भागीदारी शून्य है। 4  किसी तबके को लेकर रिपोर्टिंग की भाषा और कथ्य में संवेदनशीलता के अभाव का बड़ा कारण उसकी हिस्सेदारी भी है। जिस मीडिया में महिलाओं की भागीदारी ही बेहद कम हो, उसमें महिलाओं को लेकर पुरुषवादी नज़रिए का हावी होना बहुत चौंकाता नहीं है। बलात्कार की रिपोर्टिंग पर अगर हम सतही नज़र दौड़ाए तो कई दफ़ा जो तस्वीर हमारे बीच उभरकर सामने आती है उसमें पीड़िता 'गंदी लड़की', "सामाजिक मान्यताओं को नकारने वाली', "बदचलन' और 'इस अंजाम के लायक' नज़र आती है। 

दिल्ली सामूहिक बलात्कार कांड में हालांकि ये धारणा प्रमुखता से नहीं उभरी, लेकिन मीडिया का एक हिस्सा ये सवाल पूछने में पीछे नहीं रहा कि लड़की देर रात अपने ब्वायफ्रेंड के साथ सिनेमा देखने क्यों जा रही थी? ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग में शहर, समाज और समय की संस्कृति को देखते हुए मीडिया अपना स्टैंड चुनता है। दिल्ली जैसे महानगर में मीडिया के लिए ब्वायफ्रेंड के साथ रात को सिनेमा देखने जाना इसलिए सबसे प्रमुख सवाल नहीं बना क्योंकि यहां के समाज के लिए वो बहुत असहज करने वाला मसला नहीं है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि भारतीय और ख़ासकर दिल्ली का मीडिया महिला मुद्दों को लेकर ज़्यादा उदार है। 

हां, देश के बाकी शहरों से ये अलग हो सकता है लेकिन ऐसे कई मामले हैं जब पीड़िता पर मीडिया ने उसी तरह के प्रहार किए जैसे उदाहरण ऊपर दिए गए हैं। आरुषि तलवार हत्याकांड में बलात्कार होने और न होने की कहानी के साथ-साथ आरुषि के चरित्र को लेकर मीडिया ने जिस तरह कयासों के आधार पर रिपोर्टिंग की वो तकरीबन न्यू बेडफोर्ड मामले में पीड़िता पर लगाए गए तमाम तरह के लांछणों से कम नहीं था। साल दर साल आरुषि का मामला मीडिया की सुर्खियां बटोरता रहा। रोज़ाना घटना में रोमांच, हिंसा, सेक्स और नैतिकता के अलग-अलग मसालों के ज़रिए रिपोर्टिंग के एंगल बनते रहे। 

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16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार का मसला निश्चित तौर पर बेहद अमानवीय और क्रूर घटना थी और इसके खिलाफ़ लोगों ने जिस तरह का प्रदर्शन किया उसके बाद मीडिया के लिए विस्तृत कवरेज ज़रूरी था। लेकिन पूरी घटना के बाद दो-तीन अहम सवाल उभरते हैं। पहला, किसी घटना को मीडिया पहले बड़ा बनाता है या फिर लोग आकर उससे पहले जुटते हैं और फिर मीडिया उसको फॉलो करता है? दूसरा, स्वत:स्फूर्त विरोध-प्रदर्शन में मीडिया किस आधार पर जनता की मांग को एक रंग में रंग देता है? तीसरा, यौन हिंसा और बलात्कार की कवरेज के दौरान मीडिया देश-समाज के सामने लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ाता है या फिर लोगों के गुस्से को हवा देकर हिंसक फौरी निपटारे के पक्ष में मुहिम को समर्थन देता है? एल रॉवेल ह्यूसमैन और लैरामी डी टेलर ने अपने शोध अध्ययन द रोल ऑफ मीडिया वायलेंस इन वायलेंट बिहैवियर में ये बताया है कि टीवी समाचार चैनलों में हिंसक घटनाओं की ख़बरों के प्रसारण से समाज में हिंसा की मानसिकता और ज़्यादा फैलती है। 5  

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को देखे तो बीते कुछ वर्षों के अनुभव हमें साफ बताते हैं कि संगठनात्मक ढांचे के बगैर कोई आंदोलन स्वत:स्फूर्त तरीके से बिना मीडिया कवरेज के नहीं चल सकता। अण्णा आंदोलन का मीडिया ने जिस तरह मिशनरी भूमिका में साथ दिया, उसको लेकर विश्लेषकों के बीच कई तरह के पक्ष उभरकर सामने आए, लेकिन इस बात पर तकरीबन सहमति है कि मीडिया ने अण्णा आंदोलन को प्रोत्साहित करने में योगदान दिया। कई टीवी चैनलों के लिए यह टीआरपी का मामला था। 6   इस लेख में बलात्कार के खिलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों के मीडिया कवरेज पर आपत्ति नहीं जताई जा रही है, बल्कि लेखक का मानना है कि ऐसे हर प्रदर्शन को अनिवार्य तौर पर मीडिया में जगह मिलनी चाहिए, ताकि लोकतांत्रिक चेतना का विकास हो। लेकिन, 16 दिसंबर के बाद मीडिया ने विरोध प्रदर्शन को जिस रंग में रंगा उसमें आरोपितों को फांसी देने की मांग सबसे प्रमुख हो गई।7  
16 दिसंबर 2012 की घटना के बाद फांसी के पक्ष में नारे

फांसी के पक्ष में लगातार मीडिया ने रिपोर्टिंग की। कई टीवी चैनलों के पत्रकार बार-बार इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर रहे लोगों के बीच जाकर ये सवाल उछालते कि ‘आप फांसी चाहते हैं कि नहीं?’ लिहाजा प्रदर्शन के माहौल के बीच लोगों का गुस्सा ज़्यादातर मामलों में नकार के रूप में सामने नहीं आया और तक़रीबन हर सवाल के जवाब में ‘हां’ का उत्तर टीवी स्क्रीन पर सामने आता रहा। इंडिया टीवी के एक पत्रकार ने तो यहां तक पूछ दिया कि ‘आप तालिबानी अंदाज़ में सज़ा चाहते हैं कि नहीं?’ प्रदर्शन में जिस तरह सनसनी और फांसी के तत्व पर ज़ोर देकर टीवी हमारे ड्रॉइंग रूम में पहुंच रहा था, उसमें ये अंतर स्पष्ट करना मुश्किल था कि ये रिपोर्टिंग और स्टूडियो कमेंट्री क्राइम रिपोर्टिंग और क्राइम शो से किस तरह अलग है? 

मिसाल के तौर पर हिंदी में दूसरा सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले अख़बार दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग पर ग़ौर करे तो ये साफ़ हो जाएगा कि फांसी अख़बार की आधिकारिक लाइन थी। भास्कर ने पीड़िता के पक्ष में ‘महाअभियान” की शुरुआत की। दैनिक भास्कर ने अगले दिन से इस महाअभियान का स्लग रखा- ‘देश को इस ग़ुस्से का अंजाम चाहिए’। अंजाम के तौर पर दैनिक भास्कर ने फांसी को विकल्प बनाया। जगह-जगह से भास्कर की रिपोर्टिंग में ये बातें स्पष्ट हो रही थीं। इंदौर में विरोध प्रदर्शन पर भास्कर ने शीर्षक रखा- “फांसी से कम बर्दाश्त नहीं, देश को गुस्से का अंजाम चाहिए!- युवाओं ने लगाए भारत सरकार हाय-हाय के नारे” 8  

23 दिसंबर को दैनिक भास्कर ने रविवार को छपने वाले जैकेट पेज की पहली स्टोरी का उपशीर्षक दिया : सबकी बस एक ही मांग- आरोपियो को फांसी दे सरकार। नीचे ख़बर में लिखा था- यह प्रदर्शन पूरी तरह अप्रत्याशित और स्वत:स्फूर्त था। कई मायनों में अभूतपूर्व भी। जत्थों में सुबह 7 बजे से इंडिया गेट पर एकत्र हो रहे इन नौजवानों का न कोई नेता था, न ही वे अपनी मांगों को लेकर एकमत और स्पष्ट थे। यानी रिपोर्टिंग ये कह रही है कि आंदोलन कर रही जनता के बीच सज़ा को लेकर आम-सहमति नहीं है, लेकिन शीर्षक में भास्कर ये बता रहा है कि सारे लोग फांसी मांग रहे हैं! जाहिर है ये विरोधाभास इसलिए पैदा हो रहा था क्योंकि सज़ा के तौर पर फांसी की मुहिम को दैनिक भास्कर ने सांस्थानिक तौर पर स्वीकृत कर लिया था। उसी दिन पहले पन्ने पर दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संपादक कल्पेश याज्ञनिक ने ‘धोखा’ शीर्षक से विशेष संपादकीय लिखा। इस संपादकीय का निचोड़ ये है कि जब तक आरोपितों को फांसी नहीं दी जाती, तब तक कोई भी वादा या दावा जनता के साथ विश्वासघात है। 

23 दिसंबर को ही पहले पन्ने पर भास्कर में गृहमंत्री के बयान के हवाले से जो ख़बर छापी है, उसका शीर्षक है- कड़े क़ानून की बात कही, पर फांसी का ज़िक्र नहीं। 9वें पेज पर एक फोटो छपी है। हिंदू सिख जागृति सेना से जुड़ी महिलाओं की ये फोटो है जो सामूहिक बलात्कार मामले के विरोध सड़क पर प्रदर्शन कर रही हैं। अख़बर ने फोटो का कैप्शन लगाया है- महिलाओं ने आरोपियों को जल्द से जल्द फांसी देने की मांग की। फोटो में कोई प्लेकार्ड नहीं, कोई पोस्टर नहीं है और न ही कोई बैनर है जिसमें इस तरह की एक भी मांग हो, लेकिन अख़बार ने फांसी को कैप्शन बनाया। फोटो में महिलाओं के हाथ में सैंडिल है और सैंडिल को किस तरह अख़बार ने फांसी के रूप में डिकोड किया इसपर संचार के दृष्टिकोण से शोध किया जाना चाहिए। 
प्रदर्शनकारियों का बड़ा हिस्सा अपराधियों को सज़ा दिलाने के पक्ष में था। मीडिया ने पढ़ा- फांसी दिलाने के पक्ष में।

इससे पहले इसी अख़बार ने 109 सांसदों और 9 मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था जिसमें फांसी की वकालत की गई थी। बाद में अख़बार ने आह्वान किया है कि वो अपने पाठकों से सांसदों को चिट्ठी लिखवाएगा जो फांसी के समर्थन में होंगी और सांसदों पर दबाव बनाने का काम करेगी। वाकई, कई नेताओं ने इसके बाद फांसी की पुरज़ोर वकालत की। लोक सभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने खुलकर फांसी के पक्ष में बयान दिया।9  भास्कर के साथ-साथ और भी कई हिंदी अख़बारों ने इस पूरी मुहिम को हवा दी। पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स के साथ-साथ 'दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला अख़बार' दैनिक जागरण भी ख़बर की पूरी एंगल को इसी तरफ़ मोड़ रहे थे। जागरण ने ख़बर चलाई – रेप के सभी आरोपियों को मिलेगी फांसी। यह ख़बर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की मांग पर आधारित थी। यानी फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का अनुवाद फांसी में हो रहा था। इस मुहिम में तकरीबन हर बड़ा अख़बार शामिल था। नवभारत टाइम्स ने नारे की शक्ल में शीर्षक लगाया- रेप के आरोपियों को फांसी दो10  

सवाल ये है कि ऐसे मामलों को कवर कर रहा मीडिया ख़बरों के बीच अपना नज़रिया यदि पैबस्त करता है तो उसकी दिशा क्या होनी चाहिए? समाज के भीतर भी यदि ‘लिंग काट लेने’, ‘चौराहे पर फ़ांसी देने’, ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डालने’ की बात उठती है तो क्या मीडिया को उन्हें लगातार उछालते रहना चाहिए? दूसरा सवाल ये है कि बलात्कार और महिला सुरक्षा के मसले को मीडिया घटना के तौर पर रिपोर्ट क्यों करता है? 16 दिसंबर से कुछ हफ़्ते पहल ही अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू ने दिल्ली में छेड़छाड़ और यौन शोषण के मुद्दे पर श्रृंखला में स्टोरी की। इनमें पत्रकारों के निजी अनुभवों को भी शामिल किया गया। लेकिन ज़्यादातर अख़बारों में सामाजिक विश्लेषण और यौनिकता को बड़े संदर्भ में देखने की कोशिश नज़र नहीं आती। फांसी को लेकर हुए कुछ अध्ययन बताते हैं कि सामाजिक विकास के पायदान के साथ इसका गहरा संबंध है। अमेरिका में वक़्त के साथ-साथ समाज और मीडिया, दोनों में मृत्युदंड को लेकर अस्वीकृति का भाव बढ़ा है। 

दुनिया के कई देशों में मृत्युदंड के प्रावधान को ख़त्म कर दिया गया है। पश्चिमी यूरोप के ज़्यादातर देशों का अनुभव यह बताता है कि मृत्युदंड के प्रावधान ख़त्म होने के बाद वहां अपराधों की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। अलबत्ता दुनिया के सबसे शांत और मानव विकास सूचकांक में हमेशा शीर्ष स्थान हासिल करने वाले स्कैंडेनेवियन देशों में मृत्युदंड के प्रावधान नहीं है। अमेरिका में मृत्युदंड और टेलीविज़न पर इसके तीव्र कवरेज के दौरान कई लोगों की ये दलील थी कि वहां हत्या जैसे अपराधों पर ये लगाम कसने में कारगर साबित होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अपराध के लिए मृत्युदंड और टीवी पर इसके पक्ष में अभियान साथ-साथ चलता रहा लेकिन अपराध कम नहीं हुए।11   कहने का मतलब ये कि जिस तरह मृत्युदंड को अपराध ख़त्म करने के लिए ज़रूरी कदम के तौर पर भारतीय मीडिया पेश कर रहा है उसे सामाजिक और राजनीतिक विज्ञान के अलावा मीडिया स्टडीज़ में भी सैद्धांतिक तौर पर नकारा जा चुका है। अगर बलात्कारियों को फांसी देने से इस अपराध में कमी आती तो धनंजय चटर्जी की फांसी के बाद दिल्ली में इतनी बड़ी घटना न घटी होती और न ही उस दौरान दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बलात्कार के और मामले सामने आते जब 16 दिसंबर की घटना को लेकर दिल्ली की सड़कों पर मीडिया में उबाल मचा हुआ था। 

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हिंसा और रोमांच के प्रति मीडिया के लगाव के चलते ही ये मुमकिन होता है कि मृत्युदंड को मीडिया अभियान के तौर पर चलाता है। मृत्युदंड के हर मामले की पृष्ठभूमि में या तो हत्या होती है या फिर अन्य जघन्यतम अपराध। जाहिर है मीडिया मृत्युदंड पर बात करते वक्त मामले को उस पृष्ठभूमि से काटकर नहीं देखता, इसलिए मृत्युदंड की कवरेज का मतलब है उस हिंसा की कवरेज। फांसी जैसी सज़ा में मीडिया दोहरे स्तर पर हिंसा को लोगों के सामने पेश करता है। पहला, आरोपी द्वारा अंजाम दी गई वास्तविक घटना की रिपोर्टिंग और उसका कथ्य और दूसरा, फांसी की हिंसक घटना की उम्मीद और उसके विवरण। इसलिए फांसी कवरेज में ज़्यादातर दो-तीन बातों पर ज़ोर दिया जाता है। अपराध का अलहदापन, अपराधी की आख़िरी भंगिमा, आख़िरी रात, आख़िरी मुलाकात, आख़िरी चाहत और फांसी की प्रक्रिया की नाटकीयता के साथ-साथ अपराधी के मूल कृत्य का विवरण मीडिया में प्रमुखता पाते हैं। दूसरी तरफ़ मृत्युदंड की कतार में खड़े आरोपितों की दलील तक को मीडिया उचित जगह नहीं देता। अगर किसी की क्षमा याचना को मंजूरी मिल जाए या फिर मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल दिया जाए तो मीडिया में रोष का स्तर काफी बढ़ जाता है। 
जितनी हिंसा, उतना हिट वीडियो गेम

असल में हिंसा और यौनिकता मीडिया के टिकाऊपन और लोकप्रियता की बड़ी धुरी है और किसी भी तरह मीडिया इन मामलों को लंबे समय तक स्पेस देना चाहता है। मीडिया के जरिए जब हिंसा लोगों तक पहुंचती है तो मीडिया और हिंसा, दोनों टिकाऊ हो जाते हैं। डगलस ए जेंटिल और क्रेग ए एंडरसन ने बच्चों पर मीडिया हिंसा को रेखांकित करते हुए ‘वायलेंट वीडियो गेम्स: द न्यूएस्ट मीडिया वायलेंस हजार्ड’ में ये बताया कि समाज में मीडिया और नई तकनीक लोगों के भीतर हिंसा का पुट पैबस्त कराने में मदद कर रहे हैं।12   ख़ासकर बच्चों पर किए गए अध्ययन में उन्होंने पाया कि हिंसक वीडियो का उनके ऊपर ज़्यादा गहरा असर पड़ता है। इसी किताब में सिल्वर्न और विलियमसन के हवाले से उन्होंने ये बात भी बताई कि हिंसक वीडियो गेम के मुकाबले टीवी के हिंसक दृश्य लोगों पर टिकाऊ और गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। 

तर्क ये है कि ज़्यादातर वीडियोगेम के ग्राफिक्स गुणवत्ता के मामले में बहुत सजीव नहीं होते। लिहाजा, उनके पात्रों के भीतर लोग वास्तविक दुनिया के पात्रों के अक्स नहीं देख पाते। इसके अलावा वीडियो गेम में कई दफ़ा काल्पनिक चरित्र और काल्पनिक हमलों को अंजाम दिया जाता है। मिसाल के लिए दानवाकार चरित्र पर गोली बरसाना या फिर अंतरिक्ष से आ रहे हमलावरों को मिसाइल से उड़ाना। टेलीविजन के मामले में परिदृश्य बिल्कुल अलहदा हो जाता है। हिंसक फ़िल्मों और धारावाहिकों में किए जाने वाले स्टंट कहीं ज़्यादा सजीव और वास्तविक होते हैं। ये हमारे आस-पास के वातावरण की कहानियां समेटे होते हैं, लिहाजा हिंसा और हिंसा के कारणों के साथ लोगों को तादात्म्य बैठाने में असहजता नहीं होती। 

असल में यह माध्यम की विश्वसनीयता से जुड़ा मसला भी है। जिस माध्यम की कहानियां दर्शकों को जितनी वास्तविक लगेगी वो उसी शिद्दत के साथ उससे निकलने वाले संदेश को स्वीकार करेगा। इस कड़ी को विस्तार दें तो जिस आधार पर वीडियो गेम से ज़्यादा विश्वसनीयता फ़िल्मों और धारावाहिकों को हासिल है, ठीक उसी तर्ज पर फ़िल्मों और धारावाहिकों से ज़्यादा विश्वसनीय समाचार चैनल हैं। समाचार चैनलों में रोज़ाना दिखने वाले दृश्यों को लोग एकबारगी चुनौती देने के पक्ष में नहीं होते। वो मानकर चलते हैं कि जो टीवी पर दिख रहा है वो सच है और उसी मात्रा और नज़रिए से सच है जैसा कि दिखाया जा रहा है। समाचार चैनलों को ये विश्वसनीयता देश-दुनिया में मीडिया की अब तक की लंबी विरासत से हासिल हुई है। ऐसे में अगर मीडिया के जरिए फांसी की पुरज़ोर मांग अगर श्रोताओं तक पहुंचती है तो वो उसे उसी रूप में आत्मसात करने की स्थिति में होते हैं। 

फांसी और बलात्कार के बीच मीडिया के लिए जो साझी चीज़ है वो हिंसा और यौनिकता का मिश्रण। मीडिया में जब बलात्कार जैसे मसले पर बात होती है तो उसे महज एक घटना के तौर पर पेश करना और अपराध रिपोर्टिंग की तर्ज पर उसके निपटारे का आग्रह कई सवाल छोड़ते हैं। आज से तीन दशक पहले, 1981 में, महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले हिंसात्मक फ़िल्मी दृश्यों को लेकर नील एम मलामथ और जेम्स वीपी चेक ने अपने शोध में दिखाया कि पुरुष दर्शकों को उनमें ज़्यादातर दृश्यों पर कोई ख़ास आपत्ति नहीं थी। कई दृश्यों पर उन्होंने बेहद सकारात्मक करार दिया। यौन हिंसा में उन्हें कोई ग़लती नज़र नहीं आई।13   यानी ऐसे दृश्य और ख़बरों को दर्शक-पाठक अपने मुताबिक़ डिकोड करता है और उसका किसी रूप में दर्शकों पर असर पड़ेगा, ये उनके डिकोड करने की दिशा पर निर्भर करता है। 
फांसी और 'अपराध में कमी' का कोई संबंध नहीं

नील एम मलामथ ने ही बलात्कार को लेकर एक दूसरा शोध किया- ‘रेप प्रोक्लिविटी एमंग मेल्स’14   इसमें शोध में कॉलेज के छात्रों को लक्ष्य बनाया गया। शोधकर्ता ने छात्रों से पूछा कि अगर नहीं पकड़े जाने की गारंटी हो तो बलात्कार के बारे में उनका क्या रुझान होगा? 35 फ़ीसदी छात्रों ने ये जवाब में कहा कि ऐसी स्थिति में वो बलात्कार की कोशिश करेंगे। जाहिर है बलात्कार को एक बड़े तबके के बीच जिस तरह की सामाजिक या यों कहे कि मनोवैज्ञानिक स्वीकृति मिली हुई है उसे हमलावर तरीके से फांसी की मांग के जरिए मिटाया नहीं जा सकता। इसे हमारे सामाजिक संरचना में जेंडर मुद्दों पर लोगों को संवेदनशील बनाने के दीर्घकालीन लेकिन सतत कार्यक्रम के जरिए दूर किया जा सकता है। 24x7 मीडिया के दौर में समाज में गति और रोमांच को जिस तरह पेश किया गया है उसमें किसी भी दीर्घकालीन कार्यक्रम को उबाऊ और बासी की श्रेणी में डाल दिया गया है। सबकुछ फास्ट मोड में है। दो मिनट में नास्ता तैयार हो रहा है और चार घंटे में क्रिकेट मैच ख़त्म हो जा रहा है। नतीजों की हड़बड़ी का ये दौर है। लिहाजा गंभीर और संवेदनशील मुद्दे भी जल्दबाज़ी के शिकार में ग़लत अंजाम हासिल कर रहे हैं। 

आख़िरकार 16 दिसंबर बलात्कार कांड के बाद मीडिया ने क्यों फांसी को ही समाधान के तौर पर पेश किया? क्या फांसी और बलात्कार के बीच कोई सैद्धांतिक जुड़ाव भारतीय मीडिया स्थापित करना चाहता है? मृत्युदंड और अपराध की कमी वाला सिद्धांत बहुत कारगर नहीं रह गया है।15   लिहाजा पश्चिम के कई देशों में इस मुद्दे पर मीडिया का स्टैंड बदला है। साल 2000 में न्यूयॉर्क टाइम्स में मृत्युदंड पर 235 सामग्रियां छपीं और इनमें से ज़्यादातर मृत्युदंड की आलोचना में थीं। 16 

1990 के दशक के आखिर और 21वीं सदी की शुरुआत में अमेरिकी मीडिया में मृत्युदंड को लेकर आलोचनात्मक स्वर मुखरता से उठने लगे। 1960 से लेकर 2000 के बीच मीडिया के बड़े हिस्से की रिपोर्टिंग का न सिर्फ़ स्टैंड बदला बल्कि मृत्युदंड संबंधी ख़बरों को लेकर चौकसी, निगरानी और विमर्श भी तेज हुए। 1960 में न्यूयॉर्क टाइम्स के पहले पेज पर मृत्युदंड को लेकर सिर्फ़ 1 ख़बर, 1970 में दो, 1980 में चार, 1990 में 8 और 2000 में 19 ख़बरें छपीं।17  जाहिर है मृत्युदंड को लेकर आलोचनात्मक होने के बावजूद इस मसले को बड़ी ख़बर के तौर पर अख़बार ने जगह दी। 

मोटे तौर पर अमेरिका में पिछले 50 साल की बहस मृत्युदंड के जिन आयामों पर केंद्रित रही उनमें दंड के कौशल, नैतिकता, वस्तुनिष्ठता, संवैधानिकता, लागत, मृत्युदंड के तरीके और अंतरराष्ट्रीय मानदंड के अलावा इसके बाद अपराध की तादाद में होने वाली कमी-बेसी प्रमुख हैं। 1960 से लेकर 2005 के बीच मृत्युदंड के पक्ष में सबसे ज़्यादा 48 फीसदी लेखों और समाचारों में नैतिकता को सबसे मजबूत आधार माना गया जबकि 52 फीसदी लेखों/समाचारों में माना मृत्युदंड के तरीके बदलकर इसे कायम रखने की वकालत की गई। इसी दौरान 84 फीसदी सामग्रियों में अंतरराष्ट्रीय क़ानून और 81 फीसदी स्टोरीज़ में वस्तुनिष्ठता के आधार पर मृत्युदंड को चुनौती दी गई। 18  

स्कैंडिनेविया के देश दुनिया के सबसे शांत इलाकों में से हैं।
अब सवाल ये है कि बलात्कार मामले की रिपोर्टिंग में मीडिया की दिशा क्या होती है? कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी ख़बरों में यौनिकता के पहलू को जानने की पाठकों की जिज्ञासा बेहद तेज़ होती है। लिहाजा बलात्कार के तरीकों का विवरण मीडिया में प्रमुखता पाते हैं। इसे सैक्सुअलिटी और कई दफ़ा सैक्सुअल प्लेज़र तक खींच दिया जाता है। डब्लू विल्सन की ये स्थापना है कि मीडिया उद्योग का मनोरंजन पक्ष सेक्स और हिंसा की बदौलत ही स्थायित्व हासिल कर रहा है।19  बलात्कार और फांसी के एक साथ मीडिया में पेश होते ही दोनों लक्ष्य हासिल होते दिखते हैं। टीवी एक बड़े माध्यम के तौर पर दुनिया भर में उभरा है। 

एल स्टॉसेल ने 1997 में अपने शोध में पाया कि अमेरिकी व्यक्ति अपने खाली समय का एक तिहाई हिस्सा टीवी देखने में ख़र्च करता है। दुनिया भर में खाली समय में टीवी देखने की मात्रा को लेकर इसके बाद भी कई शोध और सर्वेक्षण हुए हैं। भारत में टीवी की बढ़ती संख्या के कारण इसकी शक्ति भी लगातार मज़बूत होती जा रही है। लिहाजा इससे निकलने वाले संदेश जिस संस्कृति को बढ़ावा देते हैं उसको नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े नवमार्क्सवादी थियोडोर एडर्नों ने संस्कृति उद्योग की अवधारणा में ये जाहिर किया कि पॉपुलर माध्यमों में दिखनी वाली चीज़ों ने संरचनागत उद्योग की शक्ल ले ली है और ये एक ख़ास तरह की संस्कृति निर्मित करने की क्षमता रखने लगी हैं।20  इस लिहाज से देखें तो मीडिया से जो आउटपुट बाहर निकल रहा है वो फांसी को सामाजिक बदलाव के टूल्स के तौर पर हमारे बीच स्थापित कर रहा है, जबकि सामाजिक बदलाव और फांसी के बीच के संबंध हमें बताते हैं कि इनमें सच्चाई नहीं है। 
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 1. Sarah N Keller and Jane D Brown, Media Interventions to Promote Responsible Sexual Behavior, The Journal of Sex Research, Vol, 39, No.-1. Page 67-72 और Jana Bufkin and Sarah Eschholz, Images of Sex and Rape: A Content Analysis of Popular Film, http://www.d.umn.edu/cla/faculty/jhamlin/3925/4925HomeComputer/Rape%20myths/Images%20of%20Sex%20and%20Rape.pdf (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 2.  New Bedford, Massachusetts, March 6, 1983- March 22, 1984: The "Before and after" of a Group Rape Author(s): Lynn S. Chancer,  Gender and Society, Vol. 1, No. 3 (Sep., 1987), pp. 239-260

 3. k bumiller, 1990, fallen angels: the representation of violence against women in legal culture, International Journal of the sociology of low, 18, page- 125-142

 4.   Conspicuous by her absence, 13 november 2013, Media Studies group, Web link- http://mediastudiesgroup.org.in/msginnews/detailmsginnews.aspx?TID=15 (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)
 5.     वेब लिंक- http://www.thepci.org/articles/The%20Role%20of%20Media%20Violence%20in%20Violent%20Behavior.pdf (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 6.   Rahul Bhatia, Fast and furious, 1 December 2012, The Caravan, Web link- http://www.caravanmagazine.in/reportage/fast-and-furious (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 7.   Arnika Thakur, Delhi Gang rape: A case for the death penalty, December 21, 2013, India insight, Web link- http://blogs.reuters.com/india/2012/12/22/delhi-gang-rape-a-case-for-the-death-penalty/ (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 8.   वेब लिंक- http://www.bhaskar.com/article/MP-OTH-c-8-747892-NOR.html (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 9.   http://www.dnaindia.com/india/report-delhi-gang-rape-sushma-swaraj-demands-capital-punishment-for-all-four-rapists-1886961 (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 10.   वेब लिंक- http://navbharattimes.indiatimes.com/condemning-accused-of-rape/articleshow/17722458.cms (आख़िरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 11.   William C Bailey:  Murder, Capital Punishmenta and Television: Execution Publicity and Homicide Rates, American Sociological Review, Vol. 55, No. 5, PP. 628-633

 12.   Douglas A Gentile and Craig A Anderson, Violent video games: The newest media violence hazard, 2003, वेब लिंक- http://www.psychology.iastate.edu/faculty/caa/abstracts/2000-2004/03GA.pdf (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 13.   Neil M. Malamuth and James V P Check, The Effects f Mass Media exposure on acceptance of violence against women: A field Experiment, Journal of Research in Personlaity, 1981, page- 15

 14.   Neil M Malamuth, Rape proclivity among males, journal of social issues, vol- 37, 4 November, 1981 

 15.   http://dakhalkiduniya.blogspot.in/2013/03/20.html (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 16.   Frank R Baumgartner, Suzanna Linn, Amber E Boydstun, वेब लिंक- http://www.unc.edu/~fbaum/Innocence/Winning_with_words_ch9.pdf (आखिरी बार 10-02-2014 को देखा गया)

 17.   वही

 18.   वही

 19.   W Wilson, 1994, Sexuality in the Land of Oz : searching for safer sex at the movies, university press of America, page-3 

 20.   Theodor W. Adorno, The Culture industry: Selected essays on mass culture, 1991, Routledge publication

(दिसंबर 2012 में लिखे गए लेख को रोहित जोशी के कहने पर सुधारा गया।)

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