अनिल चमड़िया
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों और संस्थाओं और उनकी बनाई पार्टी भारतीय जनता पार्टी (पूर्व में जनसंघ) के इतिहास की जो थोड़ी भी जानकारी रखते हैं, वे जानते हैं कि उनकी दलितों समेत पिछड़ी जातियों को दिए जाने वाले संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ उन्मादी कार्रवाइयां हर मौके पर देखी गई हैं। अस्सी के दशक में गुजरात में दो बार आरक्षण-विरोधी उग्र आंदोलन हुए और मतदाताओं द्वारा चुनी गई सरकार को दो बार आसानी से पराजित किया गया।
बिहार में कर्पूरी ठाकुर के शासनकाल में 1978 में मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग को दिए गए आरक्षण का जबर्दस्त विरोध जनता पार्टी के घटक के रूप में जनसंघ ने किया और सरकार गिरा दी। उत्तर प्रदेश में भी इसे दोहराया गया। कर्पूरी ठाकुर को हटा कर एक दलित जाति के रामसुंदर दास को मुख्यमंत्री बना कर आरक्षण-विरोधी सरकार बनाई गई। संसदीय राजनीति का इतिहास बताता है कि पिछड़ों के बीच जातिवाद और पिछड़ा बनाम दलित की एक रेखा खींचने में मुख्यत: सवर्ण आधार वाली पार्टियों को महारत हासिल रही है।
पचास प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाली पिछड़ी जातियों को विशेष अवसर देने का जब कभी प्रयास किया गया तो उसके विरोध के लिए हिंदुत्व का ही सहारा लिया गया और मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववाद के हमले तेज हुए। अस्सी के दशक में गुजरात से लेकर बिहार के जमशेदपुर दंगे को इस सिलसिले में याद किया जा सकता है। पिछड़ों को आरक्षण देने के फैसलों और अल्पसंख्यक-विरोधीहमलों का एक सीधा संबंध है। 1990 के दशक में भी केंद्रीय सेवाओं में वीपी मंडल आयोग की अनुंशसाओं के अनुसार पिछड़ी जातियों को सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला हुआ तो लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या तक की रथयात्रा निकाली और विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
आरक्षण-विरोध के दौरान जो उग्रता पैदा हुई उसे 1980 के दशक में राम मंदिर अभियान की तरफ मोड़ा गया और उसे संचालित करने के लिए संघ ने कई नए संगठन बनाए। 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में हिंसक आरक्षण-विरोध और रथयात्रा के उन्मादी माहौल में मुसलमानों के खिलाफ देश भर में हमले हुए। संघ के निर्माण के इतिहास पर नजर डालें तो वह दलितों के राजनीतिक उभार की प्रतिक्रिया में ही बना था। महाराष्ट्र में डॉ भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व में हुए दलित आंदोलन की प्रतिक्रिया में महाराष्ट्र के कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी।
1990 के बाद पिछड़ी जातियों के लिए विशेष अवसर के खिलाफ हिंदुत्ववादी विरोध से एक स्थिति यह पैदा हुई कि पिछड़ी और दलित जातियों में विशेष अवसर का समर्थन करते हुए सत्ता का नेतृत्व करने का एक तरह का भरोसा विकसित हुआ। तब भाजपा ने अपनी रणनीति बदल ली, जो बाद में संघ के विचारक गोविंदाचार्य के सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के रूप में लोकप्रिय हुई। संघ की यह स्पष्ट राय बन रही थी कि पिछड़ी जातियों के भीतर ही एक उग्र हिंदुत्ववाद को विकसित किया जाए और दूसरी तरफ उनके भीतर सत्ता का नेतृत्व करने की जिस महत्त्वाकांक्षा को सामाजिक न्याय के नेताओं द्वारा लगातार विकसित किया जा रहा है उसे एक पड़ाव पर हिंदुत्व से मिलाने की रणनीति अख्यितार की जाए।
अगर नब्बे के दशक के बाद की प्रमुख घटनाओं को याद करें तो एक पिछड़ी जाति से आए कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार के वायदे के बावजूद अयोध्या में बाबरी मस्जिद को सुरक्षा नहीं मिल सकी।
इसी कड़ी में पिछड़ी जातियों के नेताओं में विनय कटियार से लेकर उमा भारती की गतिविधियों और बयानों का अध्ययन करें तो पाते हैं कि वे कैसे उग्र हिंदुत्ववाद के सबसे बड़े प्रतिनिधि के तौर पर सामने आए। इस उग्रता का सिरा गुजरात में मिलता है जब नरेंद्र मोदी की सरपरस्ती में 2002 में मुसलिम विरोधी हमले हुए। उग्र हिंदुत्ववाद का एक नया खूंखार चेहरा सामने आया।
यहां इन तथ्यों को भी देख लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्रित्व-काल में जिन हमलों की शुरुआत हुई उनमें मारे गए और गिरफ्तार हुए लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या रही है? एक शोध से ये तथ्य सामने आए हैं कि गुजरात में 1 मार्च 2002 से 4 जून 2002 के दौरान हुई गिरफ्तारियों में 2,945 लोग अमदाबाद के तैंतीस थाना क्षेत्रों से थे। इनमें जिन 1577 हिंदुओं को गिरफ्तार बताया गया उनमें 747 केवल अनुसूचित जाति के थे और पिछड़ों की तादाद 797 थी। ब्राह्मण और बनिया केवल दो-दो और पटेल जाति के उन्नीस लोग थे।
गुजरात प्रयोग के बाद संघ को लगा कि कल्याण सिंह, उमा भारती, लालकृष्ण आडवाणी से भी ज्यादा उग्र एक पिछड़ी जाति का नेतृत्व उसके सपनों को साकार करने के लिए उसके हाथों में आ गया है। इसीलिए यह हैरानी नहीं होनी चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने वैचारिक संगठन होने का जो परदा डाल रखा था, नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए उसे उठा दिया।
संघ अपने वैचारिक धरालत पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की सत्ता और संसद को दोयम दर्जे का समझता है। उसके सांगठनिक ढांचे में भी लोकतांत्रिक चुनाव की कोई परंपरा नहीं रही है। कोई भी राजनीतिक संगठन अपने ढांचागत चरित्र के अनुरूप ही शासन व्यवस्था का ढांचा विकसित करना चाहता है और संघ भी एक राजनीतिक संगठन है। भले वह खुद के सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन होने के दावे को तकनीकी स्तर पर सही ठहरा लेता है क्योंकि संघ के नाम से चुनाव नहीं लड़ा जाता है।
संसदीय राजनीति में किसी वर्ग, धर्म या जाति के प्रतिनिधित्व का विश्लेषण संख्या के आधार पर तो किया जा सकता है लेकिन संख्या को आधार बना कर विचारधारात्मक विकास के विश्लेषण का तरीका सही नहीं हो सकता। 1984 में हुए सिख-विरोधी हमलों के बाद भाजपा को लोकसभा की महज दो सीटों पर जीत मिलीं। लेकिन संसदीय इतिहास में हिंदुत्ववादी राजनीति का वह चरम रूप था जब कांग्रेस को दो तिहाई से ज्यादा सीटों पर कामयाबी मिली। हिंदुत्ववादी राजनीति का प्रतिनिधित्व पार्टी के रूप में बदलता रहा है और संघ उसके साथ रहा है। 1984 का विश्लेषण यह होना चाहिए कि उसने संसदीय राजनीति में हमले और उग्र हिंदुत्ववाद का एक रिश्ता विकसित कर लिया। मंडल आयोग की सिफारिशों से आए राजनीतिक उभार ने यह चेतना जगाई कि देश की सत्ता की बागडोर पिछड़ों को मिलनी चाहिए। यह राजनीति तो चलाई पिछड़ी और दलित जातियों के खंडों में बंटे नेतृत्व ने, लेकिन उसे भुनाने की योजना संघ ने तैयार की।
जो एजेंडा संसदीय राजनीति में तात्कालिक फायदे के लिए तैयार किया जाता है उसका दूरगामी इस्तेमाल बराबर विचारधारात्मक संगठन ही कर सकते हैं। मंडल और कमंडल का नरेंद्र मोदी के रूप में मिश्रण संघ के हाथों में देखा जा रहा है। एक महत्त्वपूर्ण बात समझने की है कि मंडल आयोग के बाद संघ की सोशल इंजीनियरिंग में यह नीति समाहित है कि पूरे विचारधारात्मक ढांचे में बिना किसी छेड़छाड़ के प्रतिनिधित्व की गुंजाइश बनाना क्योंकि उसे विचारधारा के विस्तार के लिए जरूरी माना गया। प्रतिनिधित्व महज प्रतिनिधित्व होता है और वह उस जमात के काम तभी आ सकता है जब विचारधारात्मक ढांचे में उसकी पर्याप्त जगह हो।
नरेंद्र मोदी भाजपा में बतौर पिछड़े वर्ग सत्ता-शीर्ष पर भी जा सकते हैं लेकिन वे विचारधारा के स्तर पर हिंदुत्ववादी हैं। गुजरात में मोदी के शासनकाल का अध्ययन क्या बताता है? गुजरात में दंगों के लिए दलितों-पिछड़ों की गिरफ्तारी तो इसका एक उदाहरण है। दूसरा उदाहरण यह भी है कि देश में सबसे कम न्यूनतम मजदूरी गुजरात में ही दी जाती है।
दलित और पिछड़ी जातियों में जाति आधारित राजनीति करने वाले नेताओं के भाजपा की तरफ जाने के कई उदाहरण मिल रहे हैं। मंडल आयोग के बहाने पूरे उभार को समानता के विचार विकसित करने के लिए नहीं बल्कि एक दूसरे के मुकाबले जातियों के भीतर वर्चस्व स्थापित करने की होड़ दिखाई देती है। जिन जातियों ने मंडल उभार में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ताकत हासिल की, उन्हें हिंदुत्व के रूप में वर्चस्व में हिस्सा चाहिए। जिन जातियों की सत्ता-शीर्ष पर पहुंच नहीं हो पाई है उन जातियों के प्रतिनिधियों द्वारा भी यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि हिंदुत्व के रास्ते सत्ता पर वर्चस्व में हिस्सेदारी हासिल की जा सकती है।
सन 1990 के बाद वर्चस्ववादियों की राजनीति ही मुख्यधारा के रूप में उपस्थित होती चली गई। इसका एक कारण सोवियत संघ का विघटन भी है। उसे समाजवाद की विचारधारा का मनोबल समझा जाता था। विचारधाराएं ही मुख्य होती हैं। समाजवादी और वामपंथी विचारों से प्रभावित पार्टियां और आंदोलन कमजोर पड़ते चले गए। ऐसे ही समय में भूमंडलीकरण की परियोजना के जरिए समाज पर वर्चस्व रखने वाली ताकतों का एक आक्रामक अभियान शुरू हुआ। देशों, सामाजिक समूहों, लोकतांत्रिक संस्थाओं आदि पर बेफ्रिक होकर हमलों के अभियान चले।
भारत में भी यह दौर चला। उस दौर में संघ को वर्चस्ववादियों को आक्रामक रूप में संगठित करने का अनुकूल समय मिला। भूमंडलीकरण की पूरी परियोजना सामाजिक स्तर पर भी वर्चस्ववाद को विस्तार देने में सहायक हुई। दुर्घटना यह हुई कि समाजवादी और वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में सक्रिय पार्टियों और संगठनों ने भी उस परियोजना को अपरिहार्य मान लिया। संसदीय राजनीति का मुख्य स्वर वर्चस्ववाद और उसकी विचारधारा की तरफ मुड़ गया। इसीलिए कल की दमित और पिछड़ी जातियों के बीच का महत्त्वाकांक्षी नेतृत्व अपने सामने किसी किस्म की चुनौती और खतरा महसूस नहीं कर रहा है और धड़ल्ले से वर्चस्ववादी विचारधारा पर आधारित पार्टियों के नेतृत्व को स्वीकार कर रहा है।
अगर विश्लेषण करें तो तमाम स्तरों पर जो वंचित थे, गैर-बराबरी के शिकार थे और समानता की बात करते थे उनके बीच में वर्चस्ववादी विचारधारा के प्रभाव के कारण आक्रामकता दिखती है। यह राजनीति वंचितों को अधिकार देने के बजाय राहत और लालच देने को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करती है।
(मूल रूप से जनसत्ता में प्रकाशित)
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