05 मार्च 2014

मोदी का कच्चा चिट्ठा

रुद्रभानु प्रताप सिंह 

गुजरात के विकास की दुहाई पूरे देश में दी जा रही है और इस राज्य को मॉडल राज्य के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन पहले से विकसित इस राज्य की तस्वीर हाल के वर्षों में क्या सचमुच बदल गई है? क्या सचमुच वहां सर्वांगीण विकास हुआ है? या फिर विकास की आड़ में राज्य की कीमत पर किसी खास वर्ग को फायदा पहुंचाया गया है? रुद्रभानु प्रताप सिंह एक लंबी रपट:

‘तुम्हारी फाइलों में गांवों का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावे किताबी हैं. प्रख्यात आंचलिक कवि अदम गोंडवी की ये पंक्तियां गुजरात के विकास की असली तस्वीर पर सटीक बैठती हैं। गुजरात का हाल यह है कि मोदी के राज में विकास के नामत करीबन डेढ़ दर्जन औद्योगिक घरानों को हजारों एकड़ गोचर और बंजर भूमि कौड़ी के भाव में दी गई है जिससे राज्य सरकार को एक लाख करोड़ से अधिक नुकसान हुआ है। नरेंद्र मोदी का विकास मॉडल अकसर मीडिया की सुर्खियों में रहता है, मगर विकास के इन खोखले दावों की कुछ ऐसी तस्वीरें हमारे पास हैं, जिन पर आज तक राष्ट्रीय मीडिया में कोई खास चर्चा नहीं हुई। ‘लोकस्वामी, को कुछ ऐसे दस्तावेज और आंकड़े मिले हैं जो बताते हैं कि गुजरात में विकास के नाम पर किस तरह कॉरपोरेट समूहों को लाभ पहुंचाया गया। जमीन छिन जाने के बाद  अपने परंपरागत पेशे से हकाले गये किसान और मछुआरे बदहाली, बेरोजगारी की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। आखिर कॉरपोरेट समूहों पर इतनी मेहरबानी क्यों? यह सवाल प्रधानमंत्री की दौड़ में सबसे आगे खड़े गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से है, जिनके राज्य में यह खेल चल रहा है। यह कोई छोटा-मोटा मामला नहीं है, बल्कि पूरे एक लाख करोड़ रु. राजस्व हनि से जुड़ा ऐसा महत्वपूर्ण मामला है जिसे लंबी छानबीन, शोध तथा संबंधित लोगों से बातचीत के बाद, आंकड़ों और दस्तावेजों के साथ हम अपने पाठकों के सामने रख रहे हैं।
    सारी दुनिया में एक मसल मशहूरसिर्फ मशहूर ही नहींबल्कि इसका बखान लोकोक्तियों की तरह सर्वत्र किया; या करायाद्ध जाता है.राष्ट्रीय.अंतरराष्ट्रीय जगत की बड़ी.बड़ी कंपनियां भारत में अपने पांव जमाने के लिए सबसे पहले गुजरात की धरती की तरफ निहारती हैंबाद में दूसरे राज्यों के शहरों की तरफ रुख करती हैं। आप अमरीका, यूरोप या किसी भी देश में बैठे हों, वहां के भारतीय घरों, दफ्तरों व पार्टियों, जन समारोहों में इस बात की चर्चा आम बात है। इस तरह की चर्चाओं को कुछ वर्ष पूर्व उस समय भारी बल मिल गया जब टाटा ने नैनो की फैक्टरी; सिंगूर से हकाले जाने परद्ध के लिए गुजरात को चुना जबकि उस समय दूसरे कई राज्य बड़ी शिद्दत से निगाहें जमाए टाटा को तरह.तरह के लुभावने डोज.आमंत्रण दे रहे थे।
   ऊपर से देखने में यह सारी बातें रुपहरे-सुनहरे वर्कों में लिपटे वालायन की तरह दिख और मोह रहे थेए लेकिन तब किसी ने यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि गुजरात की ये जमीनें तथा सुविधाएं किन-किन की जेबों में सेंध लगा कर इन कॉरपोरेट घरानों, उनकी कंपनियों को माले-मुफ्त रेवडि़यों क तरह बांटी जा रही है। ये जमीनें किसी किसी किसान या मामूली लोगों की होंगी जहां वह खेती व दूसरे छोटे-छोटे धंधे कर अपना हजारों लोगों का पेट भरता है। खाद्यान्न गोदामों को तरह-तरह की फसलें आदि से भरता है। लेकिन उसके पेट पर लात मार कर उनकी जमीनों को औने-पौने दामों ले कर उससे भी कम-बहुत कम दर पर कॉरपोरेट कंपनियों में बांट दिया जाता रहा, ताकि वे वहां पर फैक्टरियां लगा कर दोनों हाथों अंधाधंुध कमाई करें और जिनकी जमीन हो वे बेचारे बदहाली की जिंदगी जीयें। तभी से यह यक्ष-प्रश्न उठता रहा कि बड़े व्यापक पैमाने पर हुई जमीनों की इस बंदरबांट के प्रति राज्य प्रशासन आंख मूंदे बैठा क्यों रहा। इसकी जांच के लिए बड़े स्तर पर कदम क्यों नहीं उठाया गया और गुनहगारों को भले ही वे कितने बड़े क्यों न हों, सजा क्यों नहीं दी गई।
       कहते हैं कि गुजरात में पहली बार जब यह मुद्दा राज्य स्तर पर उठा तो मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने आनन-फानन में पूर्व न्यायाधीश एमबी शाह की अध्यक्षता में एक-सदस्यीय आयोग बनाकर उसे इस मामले की जांच का जिम्मा सौंप दिया। आयोग ने अनियमितता के 15 मामलों में से 9 मामलों में मोदी सरकार को क्लीन चिट दे दी। गौरतलब है कि आयोग ने अपना यह फैसला उस समय सुनाया जब गुजरात में विधानसभा चुनाव आसन्न था। आयोग के निर्णय से मोदी कैंप की बांछें खिल गईं और इस मुद्दे को तब हुए चुनाव में जोर-शोर से प्रचारित किया गया। लेकिन आयोग का यह फैसला तब विपक्ष और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के  गले नहीं उतर रहा था।
  
राजकोट से निर्वाचित लोकसभा सदस्य कुंवर जी भाई बावलिया और एक अन्य सांसद मुकेश भाई गडवी ने तब इस फैसले के विरुद्ध पुख्ता दस्तावेजों के साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग से शिकायत की। आयोग ने इस मामले को जांच के लिए राज्य सतर्कता आयोग के पास भेज दिया, लेकिन आयोग की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है। कुछ लोगों ने मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेकनीयती पर सवाल भी उठाया कि इतने बड़े घोटाले का पर्दाफाश होने के बावजूद उन्होंने मामले को सीबीआई को सौंपने की बजाय एक सदस्यीय आयोग से ही जांच क्यों कराना चाहा? कहा जाता है कि चूंकि इतने बड़े पैमाने पर जमीन आवंटन सीएमओ की स्वीकृति के बिना नहीं हो सकता था, इसलिए संभव है, उन्होंने अपना दामन साफ रखने और पूरे प्रकरण की लीपापोती के लिए यह राह चुनी होगी।
  नरेंद्र मोदी इन दिनों लोकसभा के चुनावी जंग में मतदाताओं क ो लुभाने के लिए जिस तरह से देश भर में घूम-घूम कर गुजरात के विकास की जो तस्वीर पेश कर रहें हैं, उससे ऐसा लगता है मानों सूबे में राम राज्य है और यह राज्य पूरे देश के लिए एक मॉडल है। इसी के बल पर वह पीएम इन वेटिंग हैं, संभवतरू भाजपा में इस समय सर्वाधिक कद्दावर नेता। मजेदार बात है कि  वे जहां-जहां भी जाते हैं वहां की स्थानीय समस्याओं को उठाते हैं, साथ ही यह भी कहने से नहीं चूकते कि उनकी सरकार बनेगी तो ये समस्याएं तुरंत दूर हो जाएंगी। वह यह भी कहते नहीं थकते कि जो काम कांग्रेस पिछले 67 वर्षों में नहीं कर पाईए उसे वे पांच वर्षों में करके दिखाएंगे। उनके इन दावों-वादों का असर भी साफ-साफ दिख रहा है। पूरे देश में नमो-नमो की गूंज हो रही है।
      यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस नमो-नमो के पीछे मुख्य रूप से दो शक्तियां ;आरएसएस और कॉरपोरेटद्ध काम कर रही हैं। दोनों के अपने-अपने स्वार्थ हैं, इसलिए योजनबद्ध ढंग से देश भर में मोदी की विजय का तानाबाना बुना जा रहा है। ऐसा करना भी उनके लिए लाजिमी है, क्योंकि संघ-आरएसएस के लिए जहां मोदी सत्ता के गलियारे में तुरुप का पत्ता हैं, वहीं कॉरपोरेट जगत के लिए कामधेनु। मोदी की पृष्ठभूमि को देखते हुए ही संघ ने उन पर काफी सोच-विचार कर दांव लगाया है। फिर सबसे बड़ी बात यह कि मोदी पिछड़ा वर्ग से हैं और देश के करीब पचास प्रतिशत मतदाता पिछड़ा वर्ग के हैं। इसलिए संघ को लगता है कि मोदी हिन्दुत्व के नाम पर अगड़ी और पिछड़ी-दोनों के ही वोट बटोरने में सफल होंगे और भाजपा 2014 की चुनावी वैतरणी पार कर जाएगी। साथ ही देश की राजनीति बहु-ध्रुवीय होने की बजाय दो-ध्रुवीय हो जाएगी।

जहां तक कॉरपोरेट जगत का सवाल है, इन औद्योगिक घरानों ने मोदी को शीशे में उतार रखा है। अकसर उन पर यह सवाल उठाया जाता रहा कि उन्होंने अपने 15-साल; 15 वर्षीय,  मुख्यमंत्रित्व काल में आंखें मूंद कर उनकी पूरी मदद करने के चक्कर में गरीबों एवं किसानों के हितों की हमेशा अवहेलना की। यहां तक कि कॉरपोरेट जगत को बसाने के लिए उन्होंने नियम कानून को भी ताक पर रख दिया। विकास के नाम पर गरीब और किसान भले ही उजड़ जाएं, लेकिन औद्योगिक घरानों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए और इसका उन्होंने भरपूर ख्याल रखा। उन्होंने उद्योग, व्यवसाय और औद्योगिक घरानों को स्थापित करने की कवायद में लोकहित और राष्ट्रहित की हमेशा अनदेखी की है, इसलिए तमाम बाहरी विरोधों और भीतरी तौर पर अनियमितताओं के बावजूद अब तक उनका बाल बांका नहीं हुआ है। हम गुजरात सरकार और औद्योगिक घरानों की साठगांठ के कुछ ऐसे आंकड़े पेश कर रहें हैं जो यह साबित करते हैं कि गुजरात में विकास के नाम पर कितना बड़ा खेल चल रहा है।
 अदानी पर मेहरबानी! क्यों?
        अदानी समूह के मुद्रा विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए 30 विभिन्न आदेशों के माध्यम से 2005 से 2007 के बीच 5,46,56,819 वर्ग मीटर ;5465 हेक्टेयरद्ध जमीन बेची गई थी और इसके लिए सभी नियमों को ताक पर रख दिया गया। अदानी को 2.5 से 25 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से जो जमीनें बेची गईं, उनकी बाजार कीमत 1000 से 1500 रुपये प्रति वर्ग मीटर थी। लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए गुजरात सरकार ने कच्छ और भुज जिले में मूल्यांकन समिति का गठन भी किया, लेकिन समिति ने जमीन की बहुत कम कीमत तय की, ताकि उन्हें जमीन सस्ते दरों पर बेची जा सके। इस जमीन.बांट के सिलसिले में तो  जिला प्रशासन ने तो सारी लक्ष्मण रेखाएं ही लांघ दीं। उसने अधिकांश मामलों में मूल्यांकन समिति द्वारा निर्धारित दरों से भी कम कीमत पर जमीन बेची दी। गौरतलब है कि ये जमीनें जिला कलेक्टर के आदेश से आवंटित की गइंर्ए जबकि नियमतरू कोई भी कलेक्टर इतने बड़े पैमाने पर जमीन का आवंटन कर ही नहीं सकता है। नियमतरू इतनी जमीन बेचने के लिए उसे सार्वजनिक नीलामी का सहारा लेना पड़ेगा। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और नियमों को धता बताने के लिए नया फार्मूला इजाद कर लिया।
     बता दें कि 6 जून, 2006 को जारी गुजरात सरकार के राजस्व विभाग के संकल्प संख्या JMN/392003/454 (जो कि 1 अगस्त, 2001 से ही प्रभावी माना जाता है) के अनुसार कलेक्टर अपने अधिकार के तहत केवल 2 हेक्टेयर और 15 लाख रुपये मूल्य तक की जमीन बेचने की मंजूरी दे सकता है। इस आदेश के पहले कलेक्टर का अधिकार-क्षेत्र 2 हेक्टेयर और 6 लाख तक ही सीमित था। 15 लाख से ज्यादा और 25 लाख से कम मूल्य या 2.1 हेक्टेयर से 5 हेक्टेयर तक की जमीन के आवंटन का अधिकार केवल मुख्य सचिव/ अपर मुख्य सचिवध्सचिव के पास हैं। ऐसे में कच्छ के कलेक्टर ने जमीन के आवंटन के लिए सबसे पहले विशाल भू-खंड़ को तीस टुकड़ों में बांटा ताकि उसकी कीमत कम की जा सके और बेचने का अधिकार भी उसे मिल जाए। बावजूद इस कवायद के कलेक्टर के पास जमीन बेचने या आवंटित करने का अधिकार नहीं था, क्योंकि 2005 में जमीन के हर एक टुकड़े की समिति द्वारा तय कीमत 25 लाख से अधिक थी। अब सवाल उठता है कि क्या यह अनियमितता सिर्फ कलेक्टर के स्तर पर हुई या उसके  लिए आदेश ऊपर से आए। ऐसे में यह शंका उठना स्वाभाविक ही है कि उस जमीनी बंदर-बांट में कहीं कलेक्टर सिर्फ मोहरा भर तो नहीं था, जो ऊपरी आदेश को लागू भर कर रहा था! इस आशंका की पुष्टि कलेक्टर द्वारा दिए गए आदेशों से होती है। कच्छ के कलेक्टर के 28 आदेशों की प्रतिलिपि हमारे पास हैं जिनमें उसने राजस्व विभाग द्वारा 27 जून, 2005 को जारी एक ही संकल्पना आदेश संख्या लैंड/industry/5604/1534 के आधार पर 15 जुलाई, 2005 को 23 अलग-अलग आदेश जारी कर एक ही कंपनी को जमीन बाजार मूल्य से काफी कम दर पर बेच दी। 
     
  जिला प्रशासन की दरियादिली का यह खेल यहीं खत्म नहीं हुआ। आदेश संख्या लैंड/industry/ vashi/2313/2005 के अनुसार अदानी समूह ने कुल 8,33,885 वर्ग मीटर जमीन की मांग की थी, जबकि उसे सर्वेक्षण संख्या 183, 184 के जरिए 8,53,917 वर्ग मीटर गोचर भूमि एलॉट की गईए वह भी 2 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से।  ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी  है कि अदानी को 20,032 वर्ग मीटर अधिक जमीन देने की उदारता क्यों दिखाई गई, जबकि यह जमीन पशुओं के चारागाह के लिए सुरक्षित की गई थी। यह मामला छिपा नहीं रहा। चूंकि यह गोचर भूमि थी इसलिए हायतौबा मचना स्वाभाविक ही था और मचा भी। तब इस मामले को दबाने के लिए मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एमबी शाह की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया। आयोग में सरकार और प्रशासन के खिलाफ 15 आरोप लगाए गए।
      एमबी शाह आयोग के समक्ष कच्छ के एक स्थानीय जनप्रतिनिधि ने कहा कि 2005 में वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए जंत्री में भूमि की दर 1000 रुपये प्रति वर्ग मीटर निर्धारित थी, लेकिन राज्य सरकार की ‘दर समीक्षा समिति, ने 30 प्रतिशत प्रीमियम दर पर विचार करते हुए 300 रुपये प्रति मीटर की दर की बजाय केवल 7.5 रुपए प्रति मीटर की दर ही निर्धारित की। चूंकि जमीन गोचर भूमि थी, इसलिए नियमतरू सरकार को 1300 रु. प्रति मीटर की दर से कीमत वसूल करनी चाहिए थी, लेकिन इसकी जगह उसने केवल 7.50 रु. प्रति मीटर की दर ही तय की। 49.17 लाख वर्ग मीटर गोचर भूमि की कीमत सरकार द्वारा 147.46 करोड़ रु. तय की जानी चाहिए थी, लेकिन राज्य सरकार की समिति ने इसकी कीमत मात्र 3.68 करोड़ ही तय की। यह जानकारी भुज कलेक्ट्रेट के सूचना अधिकारी द्वारा 30 अगस्त, 2011 को  उपलब्ध कराई गई, जिसकी पत्र संख्या लैंड/5/आरटीआई/जि. नं. 166/2011 है। 
      गौरतलब है कि बेची गई जमीन का एक बड़ा हिस्सा चारागाह भूमि है, लेकिन क्षेत्र की पशुपालन संबंधी जरूरतों की अनदेखी करते हुए अदानी समूह को जमीन बेच दी गई। परियोजना क्षेत्र के 14 गांवों में रबारियों ;पशुपालन पर पूरी तरह आश्रित एक पारंपरिक समुदायद्ध की बड़ी आबादी है। गुजरात सरकार के सन् 2002 के एक आदेश के अनुसार हर गांव में 100 पशुओं के लिए 40 एकड़ गोचर भूमि होनी चाहिए। इन गावों में पहले से ही पशुओं के लिए गोचर भूमि कम थी। ऐसे में अदानी को गोचर जमीन की बिक्री किए जाने से रबारियों की मुख्य आजीविका पूरी तरह से नष्ट हो गई।
      यही नहीं मुद्रा विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध से अब तक मछुआरों के  56 गांव और 126 बस्तियां विस्थापित हो चुकी हैं। गौरतलब है कि कॉरपोरेट के विकास की कीमत बेचारे मछुआरों को भी चुकानी पड़ी है। इसकी वजह से उन्हें न सिर्फ अपने परंपरागत अधिकारों व धंधे से महरूम होना पड़ा, बल्कि क्षेत्र के किसानों की आजीविका भी छिन गई है। लेकिन इस महत्वपूर्ण मसले पर भी गुजरात सरकार ने चुप्पी साध रखी है। ऐसे में यह सवाल उठना जायज है कि सरकार के विकास का दायरा क्या केवल कॉरपोरेट समूहों तक ही सीमित है। आम आदमी के लिए इसमें कोई जगह नहीं है। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब नरेंद्र मोदी सरकार को देना है और अपने तथाकथित विकास के समृद्ध मॉडल को स्पष्ट करना है कि यह मॉडल किसके लिए बन रहा है- कॉरपोरेट के लिए या आम जनता के लिए। 
गांधीनगर में जमीन की बंदरबांट
गांधीनगर बनाने के लिए जब लोगों से जमीन ली गई थी तब यह तय किया गया था कि यहां सिर्फ सरकारी दफ्तरों, कर्मचारियों के आवास और सामाजिक क्षेत्र की प्राथमिक संस्थाओं के कार्यालयों के लिए ही इन जमीनों का उपयोग किया जाएगा। इसलिए निजी लोगों या कंपनियों के हाथों राजधानी की जमीनें नहीं बेची गई थीं। अगर किन्हीं विशेष कारणों से किसी निजी व्यक्ति या संस्था को जमीन बेची भी गई तो वह सार्वजनिक नीलामी के जरिए। कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में यह व्यवस्था उलट-पलट हो गई एक नहीं सात कंपनियों को औन-पौने दाम पर 17,67,441 वर्गमीटर जमीन दे दी गई जिससे सरकार को 51,97,16,22,317 करोड़ रु. का नुकसान हुआ। जिन कंपनियों को मोदी सरकार से गांधीनगर में जमीनें मिली उनमें रहेजा, डीएलएफ, टीसीएस, सत्यम कंप्यूटर, आईसीआईसीआई बैंक, टॉरेंट पावर और पुरी फाउंडेशन शामिल हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि निजी कंपनियों को जमीन देने में मोदी सरकार ने तनिक भी देर नहीं लगाई, जबकि वायु सेना को पश्चिमी कमान का  मुख्यालय खोलने के लिए सरकार से जमीन लेने में नाकों चने चबाने पड़े। यह रोचक बात है कि कंपनियों को जिस दर पर जमीन एलॉट की गई थी, वायुसेना द्वारा उससे सात गुना अधिक दर पर जमीन खरीदने का ऑफर देने पर भी सरकार उसे जमीन एलॉट करने में हीला-हवाला कर रही थी। जमीन के अधिग्रहण के लिए वायुसेना  अधिकारियों को सात साल तक सचिवालय के चक्कर लगाने पड़े, पर गुजरात सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। थक-हार कर वायुसेना को प्रधानमंत्री की शरण में जाना पड़ा। प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ही वायुसेना को उसी दर पर जमीन मिली जिस दर पर कंपनियों को जमीन दी गई थी।
टाटा को किया मालामाल
टाटा नैनो की फैक्टरी जब सिंगुर से उठ कर सानंद ;गुजरातद्ध आई तो मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी समाचार चैनलों पर सीना ठोंक कर दावा कर रहे थे कि हमारे यहां कोई समस्या नहीं है। लेकिन  यह कहना भूल गए कि टाटा नैनो को बसाने के लिए गुजरात की जनता को कितनी कुर्बानी देनी पड़ी है और भविष्य में कितनी देनी पड़ेगी। एक अनुमान के मुताबिक प्रत्येक नैनो के लिए गुजरात की जनता को साठ हजार रुपये जाया करने पड़ रहे हैं। नैनो की फैक्टरी लगाने के लिए गुजरात सरकार ने रातोंरात वह जमीन टाटा को हस्तांतरित कर दी जो पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय के लिए आरक्षित थी। उस समय इस जमीन की बाजार में कीमत दस हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर थी, लेकिन गुजरात सरकार ने मात्र 900 रुपये प्रति वर्गमीटर की दर से 1100 एकड़ जमीन हंसते-हंसते टाटा को मुहैया करा दी। इस डील से गुजरात सरकार को करीब 33 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। 
      इसके अलावा टाटा मोटर्स नगर बनाने के लिए सरकार ने अतिरिक्त सौ एकड़ जमीन अधिगृहीत कराने का आश्वासन दियाए साथ ही नैनो फैक्टरी को रेल मार्ग और स्टेट हाइ-वे से जोड़ने की जिम्मेवारी भी सरकार ने अपने ऊपर ले ली।  सरकार ने देश के उद्योगपतियों को यह संदेश देने के लिए कि गुजरात में उद्योग लगाने के लिए माहौल बहुत ही अच्छा और फायदेमंद है, टाटा नैनो पर सुविधाओं की वर्षा कर दी। सरकार ने कंपनी को रजिस्ट्री शुल्क और स्टांप ड्यूटी से मुक्त करने के साथ-साथ बिजली और 1400 क्यूबिक लीटर पानी प्रतिदिन उपलब्ध कराने का भी वादा किया। बता दें कि सानंद का वह इलाका, जहां नैनो की फैक्टरी स्थित है, डार्क जोन में पड़ता है और इस इलाके में भूमिगत जल के दोहन पर रोक लगी हुई है। लेकिन गुजरात सरकार ने टाटा को भूमिगत जल के दोहन की छूट भी दे रखी है।
      इस संदर्भ में सर्वाधिक दिलचस्प बात यह है कि किसी भी प्रोजेक्ट के लिए बैंक या स्टेट फाइनेंशियल कॉरपोरेशन कुल लागत का 70 से 80 प्रतिशत तक ही लोन देता है, लेकिन बतलाया जाता है, टाटा के मामले में सभी नियमों को ताक पर रख दिया गया। टाटा की नैनो कार परियोजना 2200 करोड़ रुपये की थी। सिंगुर से सानंद लाने पर उसकी लागत 700 करोड़ और बढ़ गई थी। अतरू कायदे से उसे 2500 करोड़ रुपये का ही लोन मिल सकता था, लेकिन गुजरात राज्य वित्त निगम ने सभी नियमों को धता बताते हुए टाटा नैनो को 9570 करोड़ रुपये का लोन मात्र 0.10 प्रतिशत की दर से 20 वर्षों के लिए मंजूर कर दिया। कहा जाता है कि इस सौदे को मूर्त रूप दिलाने में नीरा राडिया की भूमिका अहम भूमिका थी। बता दें कि यह वही नीरा राडिया हैं जो 2 जी मामले में फंसी हुई हैं। अब सवाल उठता है कि गुजरात सरकार ने जितनी दरियादिली टाटा के लिए दिखाई, क्या वही अन्य उद्यमियों के लिए भी दिखाएगी! अगर नहीं तो फिर राज्य को इतनी क्षति पहुंचा कर एक औद्योगिक घराने को इतने बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचाने का क्या अर्थ है?    
बेच दी सीड फार्म की भी जमीन!
सूरत के किसानों ने बीज उत्पादन के लिए, 108 साल, पहले अपनी जमीन मुहैया कराई थी। इस जमीन पर नवसारी कृषि विश्वविद्यालय के अधीन बीज उत्पादन की कई परियोजनाएं भी चल रही हैं। यह जमीन विश्वविद्यालय की संपत्ति थी, लेकिन कालांतर में सूरत के विकास के साथ-साथ इस जमीन का मूल्य भी बढ़ गया। अब इसके चारों तरफ कॉलोनियां बस गईं हैं। फलतरू इस जमीन पर कई सरकारी निकायों और निजी कंपनियों की नजर पहले से ही गड़ी रहीं, लेकिन 2005-06 में इस जमीन पर कब्जा पाने में सफल हुआ सिर्फ छतराला होटल समूह। दूसरी कार्पोरेट कंपनियो की ही तरह इस होटल समूह को भी बाजार भाव से काफी कम कीमत पर यह प्राइम लैंड मिला, जिससे सरकार को पूरे चार सौ करोड़ रुपये का चूना लग गया।
      बता दें कि इस जमीन पर सूरत नगर निगम वाटर प्लांट लगाना चाहती थी और उसने विश्वविद्यालय को 44 हजार प्रति वर्गमीटर की दर से कीमत देने का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उस समय विश्वविद्यालय ने यह कह कर प्रस्ताव ठुकरा दिया था कि यह जमीन अन्य कार्य के लिए हस्तांतरित नहीं की जा सकती है। इस बीच छतराला होटल समूह की नजर इस जमीन पर पड़ी तो उसने सीधे मुख्यमंत्री से संपर्क साधा।
    कहते हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय से सूरत के कलेक्टर को फरमान भेजा गया, लेकिन कलेक्टर ने यह कह कर हाथ खड़े कर दिए कि जमीन विश्वविद्यालय की है जो कृषि विभाग के अधीन है। इसके बाद छतराला समूह ने पुनरू मुख्यमंत्री कार्यालय से संपर्क साधा। कृषि विभाग ने त्वरित कार्रवाई करते हुए जमीन राजस्व विभाग को सौंप दी। राजस्व विभाग ने भी द्रुत गति से कार्रवाई करते हुए उक्त जमीन को 15 हजार प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से छतराला होटल समूह को देने की स्वीकृति प्रदान कर दी। लेकिन किसानों को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने यह कह कर विरोध किया कि उनकी दी हुई जमीन निजी कंपनियों को नहीं बेची जा सकती है। अगर सरकार बेचती है तो एक लाख रुपये प्रति वर्ग मीटर के हिसाब उन्हें मुआवजा दे। मामला जब सुप्रीम कोर्ट में गया तो उसने गुजरात सरकार से इस बारे में जवाब-तलब किया। सुप्रीम कोर्ट में गुजरात सरकार ने उक्त जमीन की संशोधित दर पेश कर दी जो 35 हजार रु. प्रति वर्ग मीटर थीए जबकि जमीन की कीमत एक लाख रुपये प्रति वर्ग मीटर थी। इस तरह सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपये का घाटा हुआ।

राष्ट्रीय हित से समझौता-


कंपनियों को फायदा पहुंचाने और अपनी राजनीतिक गोटी लाल करने के क्रम में नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय हित को भी ताक पर रख दिया। सन् 2004.05 में नरेंद्र मोदी को अपनी पार्टी के दिग्गजों से कुछ ज्यादा ही खतरा महसूस हो रहा था। उस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू थे। उसी समय दो कंपनियां अर्चियन केमिकल्स और सोलेरिस केम-टेक ने पाकिस्तान सीमा से सटे कच्छ में नमक और नमक आधारित केमिकल्स बनाने के लिए प्लांट लगाने हेतु गुजरात सरकार से जमीन की मांग की। नरेंद्र मोदी की नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने हंसते-हंसते अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट अर्चियन को 24021 हेक्टेयर और सोलेरिस को 26746 एकड़ जमीन 150 रुपये प्रति वर्ष की दर से किराये पर दे दी। कहा जाता है कि सुरक्षा एजेंसियों ने आपत्ति भी जताई थी, लेकिन उसे यह कह कर खारिज कर दिया गया कि ये कंपनियां वैसी नमक आधारित केमिकल्स बनाएंगी जिनका अभी तक आयात किया जाता था। इस संदर्भ में कुछ लोगों का कहना था कि यह सारा कुछ तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष वेंकैया नायडू को खुश करने के लिए किया गया, क्योंकि इन दोनों कंपनियों को नायडू का वरदहस्त प्राप्त है।
लार्सन एंड टूब्रो भी पीछे नहीं रही 
गुजरात में जब जमीन की बंदर-बांट हो रही थी तो भला लार्सन टूब्रो कैसे पीछे रह सकती थी। इसने भी बहती गंगा में जम कर हाथ धोये। दरअसल एलएंडटी की नजर हजीरा औद्योगिक क्षेत्र पर थी। इसके लिए उसने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय से संपर्क साधा। सीएमओ ने कंपनी के प्रस्ताव को स्वीकार कर एक रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से 8 लाख वर्ग मीटर जमीन एलएंडटी को आवंटित कर दिया। लेकिन कंपनी का मन नहीं भरा। उसने और जमीन की मांग की। इसके बाद मूल्य निर्धारण समिति ने सात सौ रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से कंपनी को 2 लाख 57 हजार वर्गमीटर जमीन देने की स्वीकृति प्रदान कर दी जो बाजार मूल्य से पांच गुना कम थी। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि एलएंडटी को 2008 से पहले इसी खसरा नं.446 में एक हजार रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर पर जमीन मिली थी। अब अगर कम दर पर जमीन दी गई तो इसके पीछे वजह क्या थी?  
जीएसपीसी को बनाया मालिक से हिस्सेदार
गुजरात राज्य पेट्रोलियम निगम राज्य की नवरत्न कंपनी है। गैस और तेल के उत्पादन के लिए घरेलू जोन में निगम को 51 ब्लॉक्स आवंटित किए गए जिनमें 13 ब्लॉक्स में पर्याप्त मात्रा में तेल और गैस पाए गए। निगम ने कई स्त्रोतों से ऋण लेकर  4933.50 करोड़ रुपये का निवेश भी किया। उस समय कहा जा रहा था कि निगम को आवंटित ब्लॉक्स में हजारों करोड़ क्यूबिक मीटर गैस हैं जिससे गुजरात की सूरत बदल जाएगी और जीएसपीसी देश की प्रमुख कंपनियों में शुमार हो जाएगी। 31 मार्च, 2009 तक निगम ने तेल और गैस का उत्पादन भी किया और उसे 290 करोड़ रुपये की आय भी हुई। लेकिन अचानक निगम ने बहुराष्ट्रीय कंपनी जियो ग्लोबल के साथ समझौता कर लिया है। लोगों को यह भी पता नहीं है कि किन परिस्थितियों में जीएसपीसी को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से हाथ मिलाना पड़ा है। इसलिए शंका हो रही है कि कहीं निगम को बीमार कर उसे औने-पौने दाम पर बेचने की साजिश तो नहीं हो रही है। 
मोदी का सामंती अंदाज-
मोदी भले ही यह कह कर कि उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ, वह आम लोगों की सहानुभूति बटोरने में सफल हो जांय, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में उनका जो अंदाज है उससे उनकी पृष्ठभूमि नहीं झलकती है। बता दें कि गुजरात सरकार के पास अपना बारह सीटों वाला जेट एयर क्राफ्ट और सुविधा संपन्न हेलीकॉप्टर है जिसका उपयोग राज्यपाल और मुख्यमंत्री उन जगहों के लिए करते हैं जहां कॉमर्शियल फ्लाइट उपलब्ध नहीं हैं। सन् 2003 तक राज्य के सभी मुख्यमंत्री दिल्ली आने के लिए कॉमर्शियल फ्लाइट का ही उपयोग करते थे, पर मोदी ने पुरानी परंपरा को तोड़ कर नई परंपरा कायम की है। वह देश में कहीं भी जाने या विदेश यात्रा के लिए अकसर औद्योगिक घरानों के सुपर लग्जरियस विमानों का ही इस्तेमाल करते हैं। इस संबंध में सूचना के अधिकार के तहत जब गुजरात सरकार से जानकारी मांगी गई तो असमर्थता जता दी गई। लेकिन डीजीसीए ने विस्तार से बताया कि मोदी ने दो सौ से अधिक बार औद्योगिक घरानों के विमानों की सेवाएं ली हंै। अब यह प्रश्न सहसा उठता है कि आखिर कॉरपोरेट हाऊस मोदी पर इतना मेहरबान क्यों है? वैसेकोई भी बिजनेस हाऊस बिना फायदा  किसी पर एक पैसा भी जया नहीं करता है इसलिए यह जांच का विषय है।
विकास का सच
गुजरात के विकास मॉडल की चर्चा देश भर में हो रही है। मोदी जहां भी रैली करते हैं अपने राज्य के विकास मॉडल की चर्चा जरूर करते हैं और यह कहने से नहीं चूकते कि केंद्र में उनकी सरकार बनी तो सारी समस्याएं छूमंतर हो जाएंगी। लेकिन गुजरात का विकास मॉडल क्या है यह न तो गुजरात और न ही देश के लोगों को ही समझ में आ रहा है। यह मोदी की दिमागी उपज है और वे ही इसे भलीभंति जानते, क्योंकि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात किसी भी क्षेत्र में अव्वल नहीं हो पाया है। आंकड़ों पर गौर करें तो मोदी के राज में गुजरात विकास मामले में पिछड़ ही गया है।
मोदी हर वर्ष भारी तामझाम के साथ ‘वायबे्रंट गुजरात, का नारा देकर निवेशक सम्मेलन का आयोजन करते हैं, लेकिन जितने निवेश का दावा किया जाता। उसके अनुपात में वास्तविक निवेश करीब दस फीसदी ही होता है। नतीजतन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामले में गुजरात पांचवें स्थान पर महाराष्ट्र, कर्नाटक, दिल्ली और तमिलनाडु के बाद है। विकास को समग्र रूप में देखा जाता है न कि एकांगी रूप में। अगर सचमुच गुजरात में विकास की गाड़ी तीव्र गति से चलती होती तो आज राज्य में करीब 40 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर नहीं कर रहे होते। गरीबी दूर करने के मामले में भी गुजरात पांचवें स्थान पर है, जबकि राजस्थान पहले पायदान पर है। इतना ही नहीं बच्चों के कुपोषण, नवजात शिशु मृत्यु दर और जच्चा मृत्यु दर के मामले में भी गुजरात कई छोटे राज्यों से आगे है।
जहां तक गुजरात के विकास की बात है तो इस मामले में इसकी तस्वीर कुछ अच्छी नहीं दिख रही है। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से गुजरात पांचवंे स्थान पर है जबकि दिल्ली पहले नम्बर पर है। प्रतिव्क्ति आय मामले में महाराष्ट्र, गोवा, पुडुचेरी भी गुजरात से आगे है। विकास दर मामले में भी गुजरात आठवें नम्बर पर है जबकि बिहार पहले स्थान पर है। मध्य प्रदेश, और उत्तर प्रदेश भी इससे आगे है। इतना ही नहीं सॉफ्टवेयर निर्यात के मामले में गुजरात कहीं नहीं ठहरता है। मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में गुजरात क्रमशरू दसवें और ग्यारहवें स्थान पर है, जबकि इन क्षेत्रों में मेघालय अव्वल है। बिहार और गोवा भी उससे आगे है। वैसे तो गुजरात के छोटे-छोटे शहरों में भी बड़ी संख्या में छोटे और मझोले उद्योग हैं, लेकिन इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि पिछले एक दशक में इस राज्य के साठ हजार छोटे उद्योग बंद हो गए हैं। यही वजह है कि गुजरात में दस लाख शिक्षित लोग बेरोजगार हैं।
अकसर इस बात की दुहाई दी जाती है कि  गुजरात में उद्योग और व्यवसाय के लिए अनुकूल माहौल है। लेकिन हकीकत कुछ और ही है। डीजल और पेट्रोल पर 26 फीसदी, सीएनजी पर 15 फीसदी, ऊर्वरक पर 5 फीसदी वैट लागू है। इसके अलावा बिजली पर भी 20 प्रतिशत शुल्क लिया जाता है। कहा जाता है कि गुजरात शांतिप्रिय राज्य है। 2002 के दंगों को छोड़ दिया जाए तो राज्य में शांति का माहौल रहा। लेकिन क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात अपराध के लिए बदनाम राज्यों बिहार और यूपी से भी आगे है। कुल मिला कर देखा जाए तो नमो के राज अगर सचमुच में कोई पल्लवित और पुष्पित हुआ है तो वह है कॉरपोरेट जगत। राज्य के अधिकांश स्थानीय उद्यमी और व्यवसायी विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसे में गुजरात को देश का विकास मॉडल कैसे बनाया जा सकता है! 
साक्षात्कार
तानाशाह हैं मोदी
मोदी के राज में बड़े पैमाने पर हुईं अनियमितताओं के बारे में राजकोट से लोकसभा सदस्यए कुंवर जी भाई बावलिया ने  लोकस्वामी से विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत है कुछ अंश-

गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार के कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ आपने केंद्रीय सतर्कता आयोग में शिकायत दर्ज कराई ये शिकायतें क्या हैं?
मैंने और सांसद मुकेश भाई गडवी ने पुख्ता दस्तावेजों के साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग से शिकायत की थी। कुल 15 ऐसे मामले हैं जिनमें साफ तौर पर कॉरपोरेट समूहों को लाभ पहुंचाया गया है। इससे राज्य को लाखों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने इस मामले को जांच के लिए राज्य सतर्कता आयोग के पास भेज दिया है, लेकिन आयोग की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है।
मोदी अपनी रैलियों में राज्य के विकास के संदर्भ में जो दावे करते हैं, उनमें कितनी सच्चाई है?
अपनी रैलियों में वे विकास के जो भी दावे वे करते हैं, आप उनकी एक लिस्ट बना लीजिए और मुद्देवार जांच कीजिए, सच्चाई सामने आ जाएगी।
जब मामला इतना बड़ा है तो इसे आप मुद्दा क्यों नहीं बना पाए?
हमने राज्य में इस मामले को जोर-शोर से उठाया, लेकिन मीडिया ने कभी साथ नहीं दिया। सूबे की मीडिया भी नरेंद्र मोदी के हिसाब से चलती है। कॉरपोरेट जब मोदी के हमदर्द हैं तो फिर सवाल ही नहीं उठता कि इसे कोई मुद्दा बना पाएगा। आज देश भर में जहां कहीं भी मोदी की रैली होती है उसकी व्यवस्था कोई न कोई कॉरपोरेट घराना ही करता है। आप मोदी से पूछिए कि अदानी, अंबानी और टाटा से उनके कैसे और किस तरह के संबंध हैं?
लेकिन जनता के प्रतिनिधि होने के नाते क्या आपने नरेंद्र मोदी से यह सवाल पूछा?
प्रदेश में नरेंद्र मोदी का रवैया बिलकुल तानाशाहों जैसा है। उनके पास इतना समय ही नहीं रहता कि वह विपक्ष के नेताओं की बात सुन सकें। पार्टी के नेताओं ने कई बार उनसे मिलने की कोशिशें कीं, लेकिन कोई फयदा नहीं हुआ। उनके लोगों की सलाहें न सुनने के इसी रवैये का नतीजा है कि प्रदेश में छोटे उद्योग धंधे दम तोड़ रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मोरवी का सेरामिक उद्योग है। जब सेरामिक उद्योग से जुड़े लोगों ने मोदी से गैस पर से वैट को कम करने की मांग की तो मुख्यमंत्री ने न केवल साफ मना कर दिया, बल्कि यह चेतावनी दे डाली कि ‘बंद करना है तो कर दो, पर टैक्स कम नहीं होगा।, वहीं दूसरी तरफ कॉरपोरेट समूहों को वह हर प्रकार के टैक्स माफ करने या छूट देने से पीछे नहीं हटते।

 कुछ अन्य मामले जहां पहुंचाया गया अवैध लाभ
1.     एस्सार समूह नरेंद्र मोदी के पसंदीदा समूहों में से एक है। इस समूह को गुजरात सरकार ने सर्वे संख्या 434 ; हजिरा-के आधार पर 2,07,60,000 वर्ग मीटर जमीन का आवंटन अत्यंत कम कीमत पर किया। गौरतलब है कि यह जमीन तटीय विनियमन क्षेत्र और वन भूमि के अंतर्गत आती है। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार इस तरह की जमीन का आवंटन औद्योगिक उपयोग के लिए नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में वयारा के वन उप संरक्षक ने भारतीय वन अधिनियम के तहत शिकायत भी दर्ज कराई है।
2.     गुजरात सरकार ने अहमदाबाद के सरखेज-गांधीनगर हाइवे पर स्थित 21,300 वर्ग मीटर बेशकीमती जमीन भारत होटल लिमिटेड को पंच सितारा होटल बनाने के लिए महज 4,424 रुपये वर्ग मीटर की दर पर बिना सार्वजनिक नीलामी के ही बेच दी। सूत्रों के अनुसार इस जमीन की बाजार कीमत उस समय एक लाख रु. प्रति वर्ग मीटर थी। यदि सरकार इस जमीन की नीलामी करती तो कम से कम 213 करोड़ रुपये सरकार की तिजोरी में जमा होते।
3.     यह मामला 2008 का है। गुजरात के कृषि एवं मत्स्य पालन मंत्री पुरुषोत्तम सोलंकी के आदेश से सूबे के 38 डैमों में मछली मारने का ठेका-.अधिकार बिना सार्वजनिक नीलामी के कुछ विशेष लोगों को दे दिया गया वह भी केवल 3,53,780 रुपये में। तब इस फैसले से नाराज लोगों ने गुजरात हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने मंत्री के आदेश को निरस्त कर, नीलामी के द्वारा मछली मारने का ठेका आवंटन करने का आदेश दिया। नीलामी से पहले जो अधिकार महज साढ़े तीन लाखों रुपये में दे दिया गया था, नीलामी के बाद सरकार को 15 करोड़ रुपये की आय हुई। इतना बड़ा मामला होने के बाद भी मुख्यमंत्री ने संबंधित मंत्री के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
4.     पशुचारा घोटाला गुजरात में 2010 में हुआ, लेकिन उसकी कहीं कोई भी चर्चा नहीं हुई। सरकार ने उन कंपनियों से पशुओं के लिए चारे खरीदे, जो पहले से ही सरकारी एजेंसियों द्वारा ब्लैक लिस्टेड थे। इस मामले में भी सरकारी निर्णय के खिलाफ गुजरात हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई। सुनवाई के दौरान सरकार ने माना कि टेंडर देते समय आवश्यक पारदर्शिता नहीं बरती गई। सरकार ने कोर्ट को आश्वासन दिया कि वह दोषियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करेगी, लेकिन आज तक किसी के भी विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई। 
5.     गुजरात सरकार के जल संसाधन मंत्रालय संचालित महत्वाकांक्षी परियोजना ह्यसुजलम सुफलम योजना, के हिसाब-किताब व काम-काज में भी विधानसभा की लोकलेखा समिति और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार का मामला उजागर किया।

जयनारायण व्यास
पूर्व मंत्री और प्रवक्ता गुजरात भाजपा
राज्य सरकार एक नीति के तहत कॉरपोरेट जगत को जमीन देती है। इसका मुख्य मकसद होता है औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों को गति देना ताकि भविष्य में राज्य का राजस्व बढ़े। नरेंद्र मोदी के काल में मंत्रिमंडल के निर्णय के बाद ही कॉरपोरेट जगत को जमीन दी गई है। यह कोई नई बात नहीं है। हर राज्य में सरकार उद्योग लगाने के लिए जमीन देती है। गुजरात में तो कांग्रेस के शासन में मोदी के काल से ज्यादा जमीन बांटी गई थी। जहां तक अदानी समूह का सवाल है तो इस समूह को केशूभाई पटेल और कांग्रेस के शासन में अधिक लाभ मिला था। वैसे भी अगर उद्योग लगाने के लिए उद्यामियों को रियायतें नहीं दी जाएंगी तो वे क्यों अपना पैसा लगाएंगे। विपक्ष का आरोप बेबुनियाद है। मोदी सरकार ने जो भी निर्णय लिया है वह राज्य के हित में है।

कॉरपोरेट के बल पर गरजते हैं मोदी
गुजरात में उजागर हुए घोटालों और नरेंद्र मोदी की कार्य शैली पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अर्जुन मोदवाडिया ने लोकस्वामी संवाददाता कुबूल अहमद से खुल कर बातचीत की। पेश हैं अंश- 
नरेंद्र मोदी सरकार पर कॉरपोरेट घरानों को अवैध लाभ पहुंचाने के आरोप लगते रहे हैं, इनमें कितनी सच्चाई है?
नेरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री बनने के बाद से केवल कॉरपोरेट घरानों को ही लाभ पहुंचाने का काम किया है। करोड़ों की कीमत वाली जमीन उन्होंने एक रु पये से लेकर बत्तीस रु पये प्रति मीटर तक में बेच दी है। टाटा कंपनी को उन्होंने तंैतीस हजार करोड़ का लाभ दिया है। सुजूकी और फोर्ड को 20-20 हजार करोड़ के लाभ पहुंचाए हैं। मोदी के समय में 17 बड़े भ्रष्टाचार के मामले हैं, जिनमें 1लाख  करोड़ का भ्रष्टाचार हुआ। सिर्फ कैग ने 32 हजार करोड़ का घोटाला उजागर किया है।
उद्योगपतियों को इतना बड़ा लाभ पहुंचाने की वजह क्या है?
जिन उद्योगपतियों को उन्होंने लाभ पहुंचाया है, आज वही कॉरपोरेट घराने उनकी रैलियों में फंडिंग कर रहे हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव में भी मोदी ने काफी धन खर्च किया था। ये पैसे कहां से आए?
इतने बड़े भ्रष्टाचार के मुद्दे को आप और आपकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर उठाने में असफल रहीए क्यों ?
यह बात सही है कि इसे हम राष्ट्रीय स्तर पर उठाने में असफल रहे हैं। लेकिन शुरुआती स्तर पर यह मुद्दा राज्य स्तर का था। इसलिए हमलोगों ने इसे स्टेट लेबल पर काफी बेहतर ढंग से उठाया। इससे हमारे वोट बैंक में भी इजाफा हुआ और हमारी सीटें भी बढ़ी हैं। भले ही हम जीत नहीं पाए, लेकिन गुजरात में यह मुद्दा हमने बेहतर ढंग से उठाया है। मीडिया मोदी के भ्रष्टाचार के मामले को ज्यादा नहीं उठा रही है और गुजरात में खोजी पत्रकारिता नहीं हो रही है, वरना मोदी की सारी सच्चाई सबके सामने होती।  हिंदुस्तान में कहीं भी कोई भी ऐसा मंत्रालय नहीं देखा होगा जिसका मंत्री सजायाफ्ता हो। लेकिन बाबू गोपीलिया जो कैबिनेट मिनिस्टर हैं, उन्हें मंत्री रहते हुए तीन साल की सजा हुई।

कहा जा रहा है कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं का हित मोदी और कॉरपोरेट घराने से जुड़ा हुआ है। इसी वजह से इसे मुद्दा नहीं बनाया गया?
यह सरासर गलत बात है। काफी बड़ी संख्या में कांग्रेस के नेता मेरे नेतृत्व में राष्ट्रपति से मिले और उनसे शिकायत की। हमने सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में राज्य सरकार ने अड़ंगा लगाया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दबाव के बाद लोकायुक्त नियुक्त करना ही पड़ा। इसके अलावा जो 17 बड़े घोटाले के मामले हैं उसकी लड़ाई भी हमलोग लड़ रहे हैं और इन मामलों में से 3 में कोर्ट से आदेश भी लाए हैं जो सरकार के खिलाफ हैं।
इतने बड़े मामले उजागर होने पर भी सिर्फ सीवीसी तक क्यों सीमति रहे?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ सीवीसी तक ही सीमित रहे हैं। गुजरात हाईकोर्ट में पीआईएल दायर है और उनमें से कई पीआईएल ऐसी हुईं जिनमें जजमेंट भी आए।  पुरु षोत्तम सोलंकी जो मोदी के कैबिनेट में मंत्री हंै उनके खिलाफ एफआईआर भी दर्ज हुआ है। उन पर चार सौ करोड़ के घेटाले के आरोप हैं। इसके अलावा आनंदीबेन पटेल पर भी कई मामले दायर किए गए हैं।
नरेंद्र मोदी गुजरात के विकास का ढिढोरा पूरे देश में पीट रहे हैं उसमें कितनी सच्चाई है?
 यहां गुड गवर्नेंस नाम की कोई चीज  नहीं है। मोदी खुद मानते हैं कि राज्य की एक तिहाई जनसंख्या बीपीएल वाले हैं। यानी गुजरात में एक तिहाई लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जी रहे हैं। इनमें शहरी लोग 16 रुपये से कम और ग्रामीण 11 रुपये से कम प्रतिदिन कमाते हैं। यही गुजरात का विकास मॉडल है। इतना ही नहीं यहां 55 प्रतिशत महिला और 45 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और गुजरात  शिक्षा मामले में 28वें नंबर पर है। फिर कैसे कहा जा सकता है कि यह एक अच्छा मॉडल है। इस मुद्दे पर कभी डिबेट तो होता नहीं है, वरना दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए। मोदी एकतरफा बातें करते हैं।
अदानी और मोदी का जो संबंध है इसकी वजह क्या है?
अदानी ग्रुप 2003 में तंैतीस सौ करोड़ की कंपनी थी । आज नब्बे हजार करोड़ की बन गई है। कौन सा चमत्कार हुआ कि कम समय में इतनी बड़ी कंपनी बन गई। मोदी के अदानी से निजी संबंध हैं।  मोदी की मेहरबानी के चलते ही इतना बड़ा कारोबार खड़ा किया है।   
(लोकस्वामी पत्रिका में प्रकाशित)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें