05 अक्टूबर 2013

प्यार करना एक राजनैतिक काम है.

कीर्ति सुन्द्रियाल
समाज में प्रेम कहानियों के अनगिनत किस्से और मिशालें दी जाती रही हैं। फिल्मों के पर्दों से लेकर सामाजिक बहसों में बड़ा वर्ग प्रेम के साथ खड़ा हुआ दिखता है। इसके बावजूद जब हरियाणा के एक गांव में दो प्रेमियों की हत्याएं होती हैं और हत्याओं के समर्थन में पूरा गांव खड़ा होता है, तो वह हत्याओं को वाजिब करार देता है। घर के लोग और रिश्तेदार इस हत्या को जायज मानते हैं। ये वे लोग हैं जिनके पास मध्यम वर्ग की सभी सुविधाएं, आधुनिकता के सारे माध्यम मौजूद हैं। फिर यह कैसा समाज है जो प्यार करने पर जान ले लेता है? भारतीय समाज असफल प्रेम कहानियों पर आंसू बहाने वाला समाज रहा है। हीर रांझा जैसी जोड़ियों को प्यार की मिशाल के तौर पर पेश करना एक चालाकी भी है, क्योंकि असफल प्रेम कहानियों से पितृसत्तात्मक व्यवस्था और संस्कृति को किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं होता। प्यार शायद ऐसा रिश्ता है जिसमें यथास्थितिवाद को तोड़ने का मौलिक गुण है, इसलिए जड़ व्यवस्थाएं इससे डरती हैं। इसलिए प्यार एक राजनीतिक काम हो जाता है। खासतौर से उनके लिए जो व्यवस्था के बदलाव के पक्ष में खड़े होते हैं। उनके लिए भी जो व्यवस्था बदलाव के पक्ष में नहीं हैं पर प्रेम करते हैं या करना चाहते हैं।
कहानियों, फिल्मों से इतर भारतीय समाज में प्यार करना अभी भी अच्छा नहीं माना जाता। जब कोई प्यार करता है तो समाज के कैमरे में उसकी हर गतिविधि कैद होती है और यहां कुछ तो आपके सामने कहा जा रहा होता है और कुछ चटकारे लेते हुए फुसफुसाहटों के साथ बताया जा रहा होता है। ऐसा क्यों है कि प्यार की लोग घंटों चीड़फाड करते हैं? युवा समूहों में भी प्यार के बारे में सबसे ज्यादा बातचीत होती है पर वह बातचीत सेक्सुअल प्लेजर लेने के लिए ज्यादा होती है। इस मुद्दे पर गम्भीर बहसों के बजाय वे सबसे ज्यादा इन्हीं चीजों पर बात करते हैं, क्योंकि वे इसे राजनीतिक काम के रूप में कभी नहीं देखते। यह उनके जीवन में राजनीति से एक इतर प्रसंग होता है। भारतीय समाज में प्यार को पा लेना एक कठिन लड़ाई है। यह लड़ायी हमें अपने आसपास के लोगों, मां-बाप, भाई-बहन, रिश्तेदारों, दोस्तों से लड़नी पड़ती है। बड़े रूप में यह लड़ाई राज्य के साथ बनती है क्योंकि अपने छोटे संस्थानों पर हुए हमले से वह हिलता है।
अगर दो लोगों के प्रेम संबंधों में जाति, वर्ग, सामाजिक हैसियत की साम्यता है तो भी ऐसे सम्बन्धों को सम्मान और मान्यता समाज नहीं देता जितना वह परिवार द्वारा तय किये गये रिश्तों को देता है। अगर प्रेम संबंध इन सब के विपरीत है यानि उनके बनाए गए मापदंडों के जो जाति, भाषा, संस्कृति, वर्ग और सुन्दरता के तथाकथित मानकों को तोडते हैं, तो वे प्रेम निश्चित ही अपने चरित्र में परिवर्तन कामी होते हैं। समाज के डर से ऐसे लाखों प्रेम आखों में पैदा होते हैं और वहीं पर खत्म भी हो जाते हैं। कुछ लोग जो थोडा साहस करते हैं, वह प्यार को वास्तविकता में जीने का प्रयास करते हैं, लेकिन जैसे ही उसे सार्वजनिक करने की बात आती है तो वे समाज के डर से पीछे हट जाते हैं। समाज के डर के अलावा उनके भीतर भी जाति और वर्ग की सत्ता काम कर रही होती है, उससे कई लोग लड़ना नहीं चाहते क्योंकि वह समाज की गैरबाराबरी की सत्ता से टकराना नहीं चाहते। बल्कि इसी व्यवस्था में समाहित होकर सुविधाजनक जीवन जीना चाहते हैं। इसलिए वे एक समय के बाद प्रेम को भी अपने स्वार्थ के हिसाब से तौलने लगते हैं, और जैसे ही प्यार का पलड़ा हल्का होता है उसे जीवन से उठाकर फेंक देते हैं। लेकिन बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने प्यार के प्रति हमेशा प्रतिबद्ध रहते हैं। वे लोग प्यार को जीवन और समाज से जोड़कर देखते हैं। इसलिए वह अपने प्रेम संबंधों को जीने के लिए किसी भी तरह के खतरे को स्वीकारते हैं। वह स्थापित प्यार विरोधी संस्थाओं परिवार, पितृसत्ता, जाति, वर्ग, धर्म सभी मान्य और मजबूत मठों को चुनौती देते हैं, क्योंकि वह समाज की हर मान्यता को खारिज करते हैं इसलिए वह सब कुछ नये तरह का चाहते हैं। समाज, संस्कृति, राजनीतिक व्यवस्था वह सब कुछ को बदलते देखना चाहते हैं। वह इस तरह का समाज चाहते हैं जिसमें समानता हो और प्यार करने व जीने की आजादी हो। यहीं से प्यार व्यवस्था विरोध का एक नया मोड लेता है। व्यक्तिगत प्यार के आड़े रोज व्यस्थायें टकराती हैं, शहर, गांव, गली-मुहल्लों और कस्बों में प्यार करने वाले पितृसत्ता और जाति व्यवस्था से टकराते हैं। रोहतक के प्रेमी युगल की तरह उन्हें अपनी हत्या के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। भारतीय समाज में प्यार करना बेशर्मी जैसा बना हुआ है, इसीलिए शायद यहां दो लोगों के प्यार करने पर परिवार की इज्जत चली जाती है। किसी पुरूष के बलात्कार करने पर यहां परिवार की इज्जत नहीं जाती पर अन्तर्जातीय, अन्तधर्मीय गरीब-अमीर के आपस में प्यार करने से इस समाज की इज्जत चली जाती है। प्यार करना एक व्यक्तिगत फैसला भले ही हो पर यह राजनीतिक मसला ही बनता है। आपके न चाहते हुए भी प्यार सत्ताओं के संबंधों से ही संचालित होता है। जड़ समाज के लिए यह गंभीर मसला है क्योंकि यह सामाजिक बदलाव का एक दरवाजा खोलता है, स्थापित सत्ता संबन्धों को चुनौती देता है, और जब भी प्यार से इस तरह की चुनौती मिलती है उसका गला घोंट दिया जाता है। इसलिए जो लोग प्यार करने में विश्वास रखते हैं, उन्हें प्यार को गंम्भीरता से लेना चाहिए। प्यार को राजनीतिक दायरे में सोचना चाहिए, प्यार करने की स्वतंत्रता के लिए व्यक्तिगत संघर्ष जितना जरूरी है, उसे बचाये रखने लिए सामुहिक संघर्ष भी उतना ही जरूरी है। प्यार में होना ही प्यार किये जाने के लिए काफी नहीं होता, इसके लिए हमें अपने समाज और राजनीतिक संरचना को समझना भी जरूरी है, तभी हम प्यार को बचा सकते हैं और सामाजिक बदलाव के हिस्से के रूप में उसकी भूमिका बना सकते हैं। नहीं तो कुछ समय बाद अन्य रिश्तों की तरह प्रेम भी नीरस, परेशान करने वाला और जीवन में बोझिल सा हो जाता है। और अन्त में जब बदलाव और असहमतियों की गुंजाइश खत्म हो जाती है तो यही प्यार उत्पीडक हो जाता है। जिस उत्पीड़न का बड़ा हिस्सा महिलाओं के ही हिस्से में आता है। कुछ लोग या तो इसका समाधान संबंध तोडने में खोजते हैं या फिर इसे सामंती समाज की तरह वह भी इज्जत का मामला बना देते हैं और उसके साथ घिसटते रहते हैं।
जिस तरह लोग प्यार किये जाने को स्वीकार नहीं करते उसी तरह प्यार करने वाले प्यार के टूट जाने को भी स्वीकार नहीं कर पाते हैं। सामंती समाजों की तरह यह भी उनके लिए इज्जत का ही रूप बनता है। इस दबाव में कई लोग बिना प्यार के कई सालों तक साथ गुजार देते हैं, वे अपने जीवन को जीने के बजाय सामाजिक बंधनों और सामंती मूल्यों को ही जी रहे होते हैं। यह उनके अराजनीतिक नजरिये से प्यार को देखने का ही परिणाम होता है। समाज की बजाय प्रेम संबंधों में रहने वाले व्यक्तियों के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होता है कि अब उनके बीच प्यार नहीं रहा। प्यार क्यों था और अब क्यों नहीं रहा, इसका विश्लेषण करने की बजाय वह इसे ढ़ोते रहना चाहते हैं। प्यार करना उनके लिए मायने रखता है, लेकिन खत्म होने को वे विश्लेषित ही नहीं करना चाहते, क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया होती है आत्मविश्लेषण व समाज और व्यक्ति के बीच संघर्ष की। उनमे प्रेम को बचाने की कोई तड़प भी नहीं होती। अन्य रिश्तों की तरह प्यार को भी ढ़ोने की आदत लोगों को ज्यादा सुविधाजनक लगती है। जबकि अन्य रिश्तों से अलग यह उनका चुनाव होता है, यह थोपा गया नही होता, इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों की ज्यादा गुंजाइश इसमे बनती है। इसलिए कठिन सवालों से वही प्रेमी टकराने की कोशिश करते हैं जो प्रेम को राजनीतिक मानते हैं, और उसे अन्य राजनीतिक मसलों की तरह महत्व देते हैं। दो लोगों का प्रेम एक मजबूत प्रतिरोधी सत्ता का निर्माण करती है, जिनकी जड़े सामाजिक राजनैतिक संरचनाओं में होती हैं। अगर प्रेम संबंधों में विरुद्ध की सत्ता को समझने और इसे कमजोर करने का प्रयास नहीं होता तो जाति, वर्ग, पितृसत्ता की ही जीत होती है, क्योंकि उनके अनुभवों और मान्यताओं का इतिहास बड़ा है। ऐसे में प्यार जोकि अपने शुरूआती समय में समानता और सम्मान की पराकाष्ठा पर होता है, वह एक ठंडी बर्फ की नदी में बदल जाता है।
साभार- यहाँ से  संपर्क- kirtisundriyal.ht@gmail.com

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