08 अक्टूबर 2013

भाषाओं पर घमंड से बेहतर है हम इनकी प्रकृति को समझें

तुषारकांति (लिंक: फेसबुक पेज)

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दुनिया में भाषाओं पर बहुत बवाल है। इंडियन एक्सप्रेस के 17 अगस्त के अंक के रविवारीय पत्रिका ‘‘आइ’’ में एक पुस्तक ‘बरी माई हार्ट एट वूंडेड नी’ के बहाने लेखक प्रतीक कांजीलाल ने नियामगिरी के डोंगरिया कोंढों का जिक्र किया है। अमेरिका के मूल निवासियों को किस तरह विजेता गोरों ने खत्म कर दिया उसी की मार्मिक कहानी है डी ब्राउन की उक्त पुस्तक में। मेरा ध्यान जातियों के विनाश के साथ साथ होते भाषा के विनाश की ओर अनायास चला गया। सिक्किम के माझीगांव के थाक मांझी माझी बोली के चार बोलने वालोंमें से एक हैं और सही मांझी भाषा के वे अकेले जानकार हैं। अंदमान में क्रमशः 2009 में आका कोरा और 2010 में आका बो नामक दो प्राचीन/आदिम भाषाओं का अंत हो गया, ज्येष्ठ बोअ की मृत्यु के बाद आका बो बोलने समझने वाला इस दुनिया में कोई न रहा । इसी तरह इससे करीब एक वर्ष पूर्व बोरो की मृत्यु के साथ ही आका कोरा भाषा का भी अंत हो गया। भाषाओं की भी मौत होती है। हर शै की तरह भाषाएं भी अस्तित्व में आती हैं, वजूद रखती हैं और एक समय विलुप्त हो जाती हैं। प्रकृति के हर कण की तरह भाषा भी इस नियम से अछूती नहीं। भारत में 11वीं सदी तक इस्तेमाल में रही प्राकृत भाषाओं का आज वजूद तक नहीं रह गया है । पाली भाषा का बौद्ध धर्म के साथ ही भारत में विलुप्त हो जाना महापंडित राहुल सांकृत्यायन के प्रयासों से आज हमारी जानकारी में आया। श्रीलंका और तिब्बत से पाली ग्रंथों के उद्धार के बाद अब कई विश्वविद्यालयों में इस पर शोध भी होने लगा है। आइये राजभाषा की साल गिरह पर भाषा के कुछ अनछुए पहलुओं पर बात करें।
भाषाएं अपनी मौत मरती हैं, मारी जाती हैं। दबंग भाषाओं का शिकार हो कर असमय लुप्त हो जाती हैं। बोलियों में से कुछ भाषा के रूप में विकसित होती हैं, कुछ बोलियों के रूप में सदियों तक बनी रहती हैं पर लिपि के अभाव में आगे नहीं बढ़तीं। वर्तमान भारत में करीब 780 भाषाएं और बोलियां वजूद में हैं । 1898 में जार्ज अब्राहम ग्रीयरसन नामक आइरिश भाषाविद ने भारत में शायद पहलीबार भाषा सर्वेक्षण किया था। उनके तीन वर्ष के प्रयासों के फलस्वरूप 179 भाषाओं और इससे कहीं ज्यादा संख्या में बोलियों के अस्तित्व के प्रमाण उस सर्वेक्षण में सामने आये। भारत में उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ में किये गये इस सर्वेक्षण के बाद भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय ने 2005-6 में, करीब एक सदी बाद ‘भारत भाषा विकास योजना’’ के नाम पर ऐसा ही एक प्रयास किया जिसे कथित तकनीकी कारणों से अधूरा ही छोड़ दिया गया। अभी हाल में वडोदरा में कार्यरत एक गैर सरकारी संस्थान ने 85 संस्थाओं और 3,000 स्वेच्छासेवी कर्मियों की मदद से पिछले चार साल के परिश्रम के बाद जो जानकारियां जुटाई हैं, उनके मुताबिक आज की तारीख में यहां 780 भाषाएं/बोलियां बोली जाती हैं, चाहे उनके बोलने वालों की संख्या कितनी ही नगण्य क्यों न हो।  
दुनिया में भाषाओं के वजूद में आने, कुछ समय तक इस्तेमाल में रहने और किसी समय मिट जाने का सिलसिला नया नहीं है। सिंधुघाटी सभ्यता यानी वर्तमान से करीब साढ़ेतीन हजार वर्ष पहले आज के पाकिस्तान और भारत के पश्चिमी सीमांत राज्यों में फैले इलाके में जिस भाषा का इस्तेमाल होता था उसे आज करीब सौ बरस की कोशिशों के बाद भी पूरी तरह समझा नहीं जा सका है। फिनलैंड के भारतविद् प्रोफेसर आस्को परपोला और तमिलनाडु के प्राचीन तमिल ब्राह्मी लिपि के ज्ञाता अइरावतम महादेवन की कोशिशों से आज काफी हद तक इसे समझने में सफलता मिली है। इन विद्वानों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आर्यों के आगमन के पहले की लिपि है, दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती है और इनमें चित्र लिपि के काफी अंश मौजूद हैं। यह निष्कर्ष अब आमतौर पर सर्वस्वीकार्य है। हम जानते ही हैं कि जब आर्य अफगानिस्तान और फिर पेशावर आदि जगहों पर पहुंचे तब तक ही नहीं, बिहार पहुंचने के बाद भी उनके भाषा की कोई लिपि न थी। गौतम बुद्ध के वचनों को भी उनके निर्वाण के करीब पांचसौ बरस बाद तब लिपिबद्ध किया जा सका जब लिपि का इस्तेमाल करने में हमको महारत हासिल हो चुकी थी। कहने में कोई हर्ज नहीं कि वेदों को जुबानी याद रखने की परंपरा भी इसी कारण पड़ी। 
आधुनिक मानव के अस्तित्व में आये करीब डेढ़लाख वर्षों के काल खंड के साथ तुलना करें तोे साढ़े तीन हजार वर्ष तो बहुत ही मामूली सा समय होता है और हम अपने पूर्वजों की एक भाषा भी पढ़ने समझानें में अक्षम नजर आते हैं। दुनियां में फिलहाल करीब छः हजार भाषाएं हैं जिनमें से अमेरिकी महाद्वीपों में करीब एक हजार भाषाएं, योरप और एशिया में एक हजार, अफ्रीका महाद्वीप में दो हजार, ऑस्ट्रेलिया एवं एशिया-प्रशांतसागरीय द्वीपों में करीब एक हजार और न्यूगिनी द्वीप समूह में एक हजार भाषाएं बोली जाती हैं। इन आंकड़ों पर अधिकतर भाषाविदों में सहमति है। वैसे भिन्न कार्यविधियों के चलते भाषाओं की सटीक संख्या तीन हजार से आठ हजार तक कही गयी है, पर अधिकांश विद्वान उपरोक्त संख्या को ही सही मानते हैं।  चलते चलते विलुप्त और मृत भाषाओं के अंतर पर भी एक नजर डाल लें। इन दो श्रेणियों में विद्वानों के बीच काफी असपष्टता है। विलुप्त भाषा: जिन भाषाओं का एक भी उपयोगकर्ता जिंदा नहीं है या जिसका वर्तमान समय में इस्तेमाल नहीं है, उसे हम विलुप्त भाषा कहेंगे। पर उन भाषाओं को, जिनका साधारण बोलचाल के लिए सामान्य तौर पर उपयोग नहीं होता, पर खास शोध अथवा वैज्ञानिक संदर्भों में जिनका आज भी इस्तेमाल होता है, जिनको समझा जाता है और जिनका खास कर लिखित रूप आज भी काम में आता है उन्हें हम मृत भाषाएं कहेंगे। आज दुनिया की मुख्य लिपियों का इस्तेमाल एक नजर में:                  
अंग्रेजी को किलर लैंग्वेज कहते हैं जो अकारण नहीं। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदियों में जहां जहां साम्राज्यवाद की भाषा के तौर पर अंग्रेजी गयी वहां की लोक भाषाओं को लील गयी। अकेले उत्तरी अमेरिका में दर्जनों लोक भाषाओं का सफाया कर अंग्रेजी हावी हो गयी, इस तथ्य से हम वाकिफ हैं ही।  अंग्रेजी के अलावा पोर्चुगीज़, स्पैनिश, फ्रेंच, या डच भाषाओंने भी उपनिवेशों में यही भूमिका निभयी। विलुप्त भाषाओं के लिए दो आंसू रो कर  हम आगे बढ़ें तो मृत भाषाओं पर अपना ध्यान वापस केंद्रित कर सकते हैं।  
मृत भाषाएं: मृत भाषाएं वे हैं जिनको बोलने-व्यवहार करने वाले साधारणजन में तो कोई नहीं मिलते पर धार्मिक कारणों से, न्यायव्यवस्था, कानूनों आदि में, वैज्ञानिक अनुसंधान आदि में इनका इस्तेमाल आज भी बखूबी जारी है। वैदिक, अर्धमागधी, पुरातन चर्च स्लेवोनिक, अवेस्ता, बाइबल-हिब्रू, पुरातन ग्रीक (यूनानी), पाली, और संस्कृत के अलावा लातीनी ऐसी ही मृत भाषाएं हैं। 
अब भाषाओं के विलोप और मृत्यु के पीछेके कारणों पर नजर डालें। लोग अन्य भाषाओं के संपर्क में काफी समय तक रहने और प्रभवित होने के कारण अपनी मूल भाषा में उन आततायी भाषाओं के शब्दों/मुहावरों को शामिल करते हुए लंबे समय बाद अपनी मूल भाषा को इतना बदल डालते हैं कि वह गुणात्मक रूप से बदल कर एक नयी भाषा का रूप अख्तियार कर लेता है। आज भारत में हम जिन भाषाओं से रूबरू हो रहे हैं, उनमें से शायद ही कोई हजार साल का इतिहास रखता हो। हिंदी तो डेढ़ सदी से भी कम उम्र की है। सही अर्थों में क्लासिकीय हिंदी के जिन महाकवियों के नाम गिनाये जाते हैं उनमें से एक भी जिस अर्थ में हम आज हिंदी की बात करते हैं, उस भाषा के कवि नहीं कहे जा सकते। वे या तो अवधी के या ब्रज भाषा के या फिर मैथिली जैसी मध्ययुगीन भाषाओं के रचनाकार रहे हैं। इसमें शक नहीं कि इन्हीं विरासतों की बदौलत आज हिंदी समझने वालों की तादात इतनी बड़ी है। सामान्य कालगणना (ग्रेगेरियन कैलेंडर ही आज सर्वमान्य है) की पहली सहस्राब्दि में बोली/लिखी जानेवाली कोई भी भाषा, शायद एक आदि तमिल का अपवाद छोड़ कर, आज अस्तित्व में नहीं है। पर साथ ही गुणात्मक रूपांतरण के बाद इन्हीं भाषाओं से जन्मी भाषाओं को हम आज देख रहे हैं। किसी भाषा के मामले में यह रूपांतरण अपेक्षकृत कम अंतराल में होता है, तो अन्य के विषय में एक दो हजार साल भी लग जाता है। 
लातीनी, पाली, अवेस्ता, बाइबल का ग्रीक, हिब्रू आदि संस्कृत ही की तरह मृत भाषाएं हैं। इनका इस्तेमाल कर्मकांडों, धार्मिक अनुष्ठानों, वैज्ञानिक और शास्त्रीय अध्ययनों आदि में भले ही आज भी जारी है, पर सामान्य जनमें इन्हें बोलने वाले कोई नहीं। संस्कृत तो इस मायने में और भी खास है। वह इतिहास के किसी भी चरण में आम जन की भाषा रही ही नहीं। अपने पूर्ववर्ती भाषाओं और समसामयिक भाषाओं से भी शब्द भंडार ग्रहण कर, राज काज और भटों विदूषकों के उपयोग में सदा ही रहती आयी इस भाषा में वैसे तो सुंदर काव्यों की भी रचनाएं की गयीं, पर वह पंडिताऊ भाषा ही रही; अन्य भाषाओं के मामले में ऐसा नहीं कहा जा सकता। 
शासक वर्ग अपने साथ अपनी भाषा भी उनके शासनाधीन जन पर थोंपते रहे हैं। अंग्रेजी का इतिहास अभी हाल का होने के कारण हम उसके सर्वभक्षी रूप से भलीभांति परिचित हैं। पर यही प्रक्रिया आज से तीन साढ़े तीन हजार साल पहले भारत में आदिवासियों को झेलनी पड़ी। बैगा जनजाति एक आदिम जनजाति है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में विभाजित उनके इलाके को बैगा चक कहते हैं। पर सतपुड़ा और विंध्य के बीच फैली इस जाति की भाषा वे भुला चुके हैं। वे अब छत्तीसगढ़िया का एक भिन्न रूप बोलते हैं। वैसे आम बोलचाल में बैगा को गांवों की जमीन के विवरणों का जानकार कहा जाता है और विवाद में उन्हीं की राय को अंतिम माना जाता है। सामाजिक दर्जा होने के बावजूद दबंग खेतिहर जातियों की बढ़त के कारण बैगाओं को अपनी भाषा खोनी पड़ी। बैगा धरती को मां का दर्जा देते हैं और मांके सीने पर नागर (हल) फेरने को गलत मान कर केवल झूम खेती करते हैं। ऐसे सैकड़ों मिसाल केवल भारत में ही मिल जाएंगे जहां दबंग जातियों/शासकों की भाषा बाकी भाषाओं को मिटा कर हावी हो गयी। मध्य भरत के पूर्वी आधे हिस्से में गोंड जातियों का निवास है और पश्चिमी आधे हिस्से में भीलों का। पर वहारू सोनावने भील होने के बावजूद अपनी कविता कहने के लिए मराठी में लिखने को मजबूर हैं। तेलंगाना के उत्तरी जिले आदिलाबाद के उटनूर इलाके में मरसकोले देवरा के लोग नागोबा की आराधना करते हैं। पिछले वर्ष इसी उत्सव के सिलसिले में इकट्ठा इस उपजाति के बड़ेबूढ़ों को गोंडी लिपि में लिखे बारह प्राचीन ग्रंथ मिले। पर गोंडवाना आज महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और ओड़ीशा राज्यों में बंटा है। गोंडी भाषा देवनागरी या तेलुगु लिपि पर आश्रित है और स्थानीय दबंग भाषाओं में अपनी पहचान खोने की कगार पर है। भीलों का भी यही हाल पश्चिम में है। वे राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में बंट कर अपनी पहचान क्रमशः खो रहे हैं। सर्वांगीण संुदर संस्कृति से नवाजी गयी होने के बावजूद ये भाषाएं संकट झेल रही हैं।
सतरहवीं और अठारहवीं सदी में पैर पसार कर योरप के तिजारती वर्गों ने एशिया, अफ्रीका और अमेरिकी महाद्वीपों में किस तरह साम्राज्य कायम किये, यह एक अलग आलेख का विषय है। इस तिजारती पूंजी और नग्न लूट से इकट्ठा पूंजी से जहां योरप में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात किया वहीं उपनिवेशों में उसने किस तरह आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक साम्राज्य के साथ साथ भाषाई वर्चस्व भी कायम किया यहां हम यह याद करना चाहेंगे। यह दौर सही अर्थों में पहले भूमंडलीकरण का था। पिछली सदी के अंतिम दो दशकों में अमेरिकी महाशक्ति की अगुआई में भूमंडलीकरण का वर्तमान दौर शुरू हुआ। आधुनिक तकनीकी सामर्थ्य (कम्प्यूटर, सैटेलाइट, मोबाइल फोन, टेलिविज़न आदि) के चलते सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई क्षेत्रों में उसकी घुसपैठ अपेक्षाकृत रूप से तीव्रता के साथ और विशाल पैमाने पर हुई। इस आक्रामक साम्राज्यवाद के सर्वभक्षी स्वभाव के चलते अब उन भरतीय/विश्व की इतर देशीय भाषाओं पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं, जो खुद भाषाई दबंगई के लिए जाने जाते हैं। इसी कड़ी में हमें हिंग्लिश के प्रदुर्भाव और प्रसार माध्यमों में उसके असंतुलित फैलाव को देखना होगा। हिंदी को चालीस करोड़ बोलनेवालों की भाषा कह कर इठलाने वालों को याद रखना होगा कि कथित हिंदी पट्टी के बिहार जैसे राज्यसे कमअसकम छः भाषाओं को स्वतंत्र पहचान देने की मांग के क्या मायने हैं। मगही, अंगिका वज्जिका, भोजपुरी और मैथिली भाषाई पहचान की मांग का संकुचित दृष्टि के चलते जो महानुभाव विरोध कर हिंदी की जयकार करते हैं उन्हें अवश्य ही आसन्न संकट का अनुमान नहीं। एक अनुमान के अनुसार आज की गति से अगर भाषाओं पर हमला जारी रहे तो 2050 तक भारत की अधिकांश भषाएं मिट जाएंगी। अतः जनवादी जमीर रखनेवाले भाषा प्रेमियों को संकुचित दृष्टि के चश्मे उतार कर हर भाषा को समान दर्जा देने की विशालहृदयता दिखलानी होगी। अंगिका, बंजारा, भोजपुरी, भोटी, भूटिया/भोटिया, बुदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, धतकी, इंग्लिश, गढ़वाली, गोंडी, गुज्जर/गुर्ज्जरी, हो, काचाछी, कामतापुरी, कार्बी, खासी, कोड़वा/कुर्गी, कोक-बराक, कुमाऊनी, कुरक, कुरमाली, लेप्चा, लिंबू, मिजो/लुशाई, मगही, मुंदरी, नागपुरी, निकोबारीज़, हिमाचली पहाड़ी, पाली, राजस्थानी, संबलपुरी/कोसली, शौरसेनी/प्राकृत, सिरइकी, तेनयिड़ि और तुलू भाषा भाषियों ने संविधान की आठवीं सूची में क्रमशः अपनी भाषाओं को शामिल करने की मांग कर रखी है। 
हिंदी और उर्दू 19 वीं सदी में अपने विभाजन के पहले एक ही भाषा हिंदवी मानी जाती थीं। फ्रांसेस्का ओरसिनी द्वारा संपादित 2010 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘बिफोर द डिवाइड हिंदी एण्ड उर्दू लिटररी कल्चर’’ नामक पुस्तक में विद्वानों ने काफी गहन अनुसंधान की बुनियाद पर यह स्थापित किया है कि उर्दू के अरबीकरण और हिंदी के संस्कृत तत्सम/तद्भव पर निर्भर होते जाने का सिलसिला अभी हाल ही का है। रामचरित मानस की रचना में तुलसीदासजीने अपने पूर्ववर्ती/समसामयिक अवधी सूफी संतों की ही परंपरा का सहारा लिया है,  संस्कृत साहित्य की परंपरा का नहीं। 
कहने का तात्पर्य यही कि हम जब भाषा की बात करते हैं तो क्षेत्रीय एवं सामयिक प्रभावों से वशीभूत हो कर इतर भाषाओं को हेय मान कर संकीर्णता के शिकार हो जाते हैं। पर चंदरोज बाद हमारी इस संकीर्णता पर आनेवाली पीढ़ियों में कहीं हमारी जगहंसाई नहीं होगी - इसबात को हमारे आज के कदम ही सुनिश्चित कर सकते हैं। आइये हिंदी दिवस के इस मौके पर हम हमारे नजरिये को विशालता प्रदान करें। भाषा एक माध्यम है रिश्ते बनाने का, इसका ऐसा ही इस्तेमाल करें। गौतम बुद्ध ने कहा था ‘‘नाव नदी पार होने के लिए है। भिक्खुओं, सिर पर उठाकर ढोने के लिए नहीं’’।  

संदर्भ:- 
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[1] Before the Divide  Hindi and Urdu Literary Culture  edited by Francesca orsini , orient Blackswan; 2010

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