11 फ़रवरी 2013

नज़रबंदी का लेखा-जोखा

-इफ़्तिख़ार गिलानी
(अफ़जल गुरु को फ़ांसी दिए जाने के कुछेक घंटे बाद नामालूम वजहों से दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने अंग्रेज़ी दैनिक डीएनए के सहायक संपादक इफ़्तिख़ार गिलानी को मोहल्ले के भीतर नज़रबंद कर दिया। यही नहीं, उनके बच्चों को उनसे अलग दूसरे घर में बंद कर रखा गया। कुल पांच घटों के बाद गिलानी को छोड़ा गया। इफ़्तिख़ार ने ये पोस्ट मूलत: अंग्रेज़ी में लिखी है। हिंदी अनुवाद: दिलीप खान)

सुबह 10.30 बजे ऑफिस जाने के लिए मैं कार में बैग रख ही रहा था कि मैंने देखा दो लोग मेरे पास आए हैं। वे मुझसे गिलानी साहब के घर के बारे में जानना चाहते थे। मैंने ये सोचते हुए कि ये लोग किसी कूरियर एजेंसी से आए होंगे, पूछा कि आप लोग किस गिलानी साहब का पता पूछ रहे हैं? उन्होंने जवाब दिया कि इसी मोहल्ले में रहने वाले कश्मीरी नेता का पता। मैंने कहा कि वे दूसरे ब्लॉक में रहते हैं और ये कहते हुए उन्हें दिशा समझाने लगा। उनमें से एक ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उनके साथ वहां तक चलूं। मैंने वैसा ही किया। रास्ते में उन्होंने मुझे बताया कि वो दिल्ली स्पेशल सेल से ताल्लुक रखते हैं। 
इफ़्तिखार गिलानी को पहले भी 2002 में ऑफिसियल सीक्रेट
एक्ट के तहत फ़र्जी तौर पर गिरफ़्तार किया गया था
जब हम खिरकी एक्सटेंशन के जेडी 18ई ब्लॉक पहुंचे तो मैंने देखा कि गली में सादे कपड़ों में कुछ लोग पहले से जमा हैं। मैंने पहले तल्ले की तरफ़ उंगली से इशारा किया और कहा कि जिस गिलानी साहब को वो खोज रहे हैं वो वहां रहते हैं। जैसे ही ये कहकर मैं चलने को हुआ, उन लोगों ने मुझे पकड़ लिया और कहा कि उन्हें बात करने के लिए बस कुछेक मिनट और चाहिए। इसके बाद तकरीबन घसीटते हुए मुझे पहले तल्ले पर ले जाया गया। उन लोगों ने मेरा पर्स, पहचान पत्र, चाबी वगैरह जब्त कर लिया। लेकिन, तब तक मेरा फोन उन लोगों के हत्थे नहीं चढ़ा था। फ्लैट पर पहुंचते ही मैंने देखा कि वहां पहले से और भी लोग मौजूद हैं। जैसे ही वो आपस में बातचीत करने में मशगूल हुए मैं बाथरूम चला गया और वहां से अपने दफ़्तर और कुछ दोस्तों को एसएमएस भेजने में कामयाब हुआ। जैसे ही मैं बाहर निकला, उन लोगों की निगाह फोन पर पड़ी और फिर उन लोगों ने उसे अपने कब्जे में कर लिया।  
15 मिनट बाद मैंने देखा कि सादे कपड़े पहने दो मर्द पुलिसवालों के साथ मेरी पत्नी भी वहां पहुंच रही हैं। घर पर मेरे बच्चे तन्हा थे। मैंने उनसे बार-बार जानना चाहा कि मुझे नज़रबंद करने का वो कारण बताएं। ऐसा पूछने पर हर बार वो काफी उखड़ जाते और मुझे गंभीर परिणाम की चेतावनी देते हुए धमकाने लगते। मैं ये भी जानना चाहता था कि अगर नज़रबंद ही करना था तो मुझे मेरे अपने घर की बजाय सैयद अली शाह गिलानी के घर पर क्यों किया गया, और मेरे बच्चों को हमसे दूर क्यों रखा गया? 
प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मार्कंडेय काट्जू को पहले इफ़्तिख़ार
गिलानी ने चिट्ठी लिखी और बाद में काट्जू ने गृह सचिव को
चिट्ठी लिखकर पुलिस वालों को निलंबित करने की अपील की है।
[लगभग] पांच घंटे बाद बाहर मैंने कई आवाज़ें सुनीं। एक अधिकारीनुमा व्यक्ति भीतर आया और ज़ोर से कहा कि मैं आज़ाद हूं और अपने घर जा सकता हूं। बाजू की गली में मैंने हिंदुस्तान टाइम्स के औरंगजेब नक़शबद्नी (Aurangzeb Naqashbadni) और ब्यूरो प्रमुख सैकत दत्ता सहित दफ़्तर के कई लोगों को देखा। वे लोग गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस में अपने हर मुमकिन संपर्क का इस्तेमाल कर चुके थे। जब मैं घर पहुंचा तो देखा कि मेरे ड्राइंग और लिविंग रूम में 7-8 लोग मौजूद है। उन लोगों ने हमारे बच्चों को बेडरूम में बंद कर रखा था। 
हम लोगों के वहां पहुंचने के बाद एक-एक कर वो बाहर निकलने लगे। अगर मैं सिर्फ ये कहूं मेरे बच्चे दहशत में थे तो ये मामले के असर को कम करना होगा। उन्होंने (बच्चों ने) हमें बताया कि किस तरह हमारी ग़ैरमौजूदगी में वे लोग दरवाज़े को धड़ाम से मारते हुए उन्हें बेडरूम में कैद कर दिया। 
सार्वजनिक तौर पर मैं बार-बार कह चुका हूं कि अपने ससुर सैयद अली गिलानी की राजनीति से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। पिछले दो दशक से ज़्यादा समय से मैं दिल्ली में पत्रकारिता करते हुए जी रहा हूं। सुरक्षा एजेंसियों और ख़ासकर दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के रवैये से मैं बुरी तरह खिन्न और व्याकुल हूं। मैं काफ़ी डरा हुआ महसूस कर रहा हूं। अपने बच्चों को शांति और करुणा के माहौल में पालने की मैं पूरी कोशिश करता हूं। मैं नहीं जानता कि एक शांतिप्रिय और क़ानून को मानने वाले व्यक्ति के तौर पर खुद को साबित करने के लिए मुझे क्या करना होगा। जैसा कि फ्रेडरिक डगलस ने कहा है कि एक राष्ट्र का जीवन तभी तक सुरक्षित है जब तक वह ईमानदार, सच्चा और भद्र हो। मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा कि इससे बयानबाजी पर उतारू (आक्रामक) वर्ग को तात्कालिक लाभ तो मिलता दिखेगा लेकिन लंबे समय में दमन, उत्पीड़न और (नागरिकों के) अधिकारों को रौंदने से कोई राष्ट्र कमज़ोर और असुरक्षित ही होगा। 

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