चौतरफी चर्चा लेकिन लगभग एकतरफा माहौल बनाने की कोशिशों के बीच पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब “अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय” पर युवा आलोचक-कहानीकार प्रवीण कुमार द्वारा की गई समीक्षा एक जरुरी पाठ सामग्री है जो किताब के वजनी और अंग्रेजी शब्दों और किताबों के संदर्भों की भरमार होने पर भी कहीं से आक्रांत नहीं है. पूरी समीक्षा एक किताब के बहाने हिन्दी की उस आलोचना परंपरा को कायदे से खुरचने की कोशिश है, जिस पर पुराने और स्थापित नाम-धातु आलोचकों की परत चढ़ जाने की वजह से कई जरुरी संदर्भ और मान्यताएं गंभीर शोध और परिचर्चा का विषय बनने के बजाय आस्था और अनास्था की मकड़जाल में उलझकर रह जाती है. इस किताब के साथ भी कई स्थलों पर ऐसा ही हुआ है. शायद यही कारण है कि कबीर पर हजारीप्रसाद द्विवेदी और अपने दूसरे पूर्ववर्ती आलोचकों से अलग और आगे निकलने की महत्वकांक्षा में लिखी गई ये किताब ऐसा करने की कोशिश में पूर्व स्थापित मान्यताओं की बारीक कताई( फाइन क्वालिटी) करके पेश करने में ही आखिर तक व्यस्त रह जाती है या फिर अपने आग्रह-दुरग्रह के पचड़े में पड़कर रह जाती है जो इस किताब को आस्था के बजाय अभिरुचि से पढ़ने से रोकती है.
परोसनि मांगे कंत हमारा
कवि स्वयं एक आलोचक भी होता है। कबीर हिन्दी साहित्य के इतिहास के संभवतः सबसे बड़े कवि-आलोचक हैं। परंतु कबीरदास के आलोचकों के साथ विडंबना यह रही है कि उन्होंने कबीर संबंधी मान्यताओं को जब-जब स्थिर और नियंत्रित करने की चाहत में एक कवि को आलोचक से और एक आलोचक को कवि से पृथक करना चाहा, तब स्वयं कवि-आलोचक कबीर बगावत कर गए। हिन्दी आलोचना के इतिहास की ओर मुडे़ तो देख सकते हैं कि आलोचना के अपने शुरूआती दौर में या कहें पहले दौर में कबीर कवि के रूप में कम स्वीकृत हुए और आलोचक, उपदेशक, सुधारक के रूप में ज्यादा। आलोचना के दूसरे दौर में आलोचक सुधारक रूप की स्वीकृति कम हुई और कवि रूप की स्वीकृति ज्यादा हुई। पहला सवाल, कि ऐसा क्यों हुआ?
राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में जब ‘प्रत्यक्षवाद’ की जमीन पर हिन्दी आलोचना का वटवृक्ष झूम रहा था और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ‘साधनावस्था’ को केन्द्र में रखकर तुलसी-साहित्य को जीवन-मूल्य के रूप में प्रस्तावित कर रह थे तब कबीर उन्हें खुरदरे भावभूमि के, अटपटी भाषा के कवि क्या, मुश्किल से कवि लगे थे, जो कुछ-कुछ समाज सुधार जैसी बातें जरुर कर रहे थे। कबीर के विचार दरअसल मिला नहीं रहे थे, पृथक कर रहे थे।
फिर हिन्दी आलोचना में एक और दौर चल पड़ा ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ का, ‘पूर्वग्रहों के शमन’ और ‘संतुलन’ का। इस तरह, कबीर दूसरे दौर में धीरे-धीरे कवि हो गए। कबीर के कई आलोचक हुए और कबीर ऐसे कवि हो गए कि जिसकी आँखों में अपने समय के सपने और धूल दोनों दिखने लगे परंतु इस प्रक्रिया में कबीर का चिंतन, शब्द-लोक और आलोचकीय दृष्टिकोण डाइल्यूट और शिथिल हो गया। यह नई ‘शिफ्टिंग’ शुक्लोत्तर आलोचना से शुरू हुई। इस तरह कबीर एक साहसी, ईमानदार और धवल-हृदय कवि बन गए जिनकी आँखें धार्मिक-सामाजिक असमानताओं पर छलछला जाती, तो कभी खीझ से “यह जग अंधा” कहकर बंद हो जाती। अंततः समाज को आधर बनाकर लड़ने और लिखने वाला व्यक्ति भावुक और निरीह कवि मूर्ति में तब्दील हो जाता है। फिर वही सवाल कि ऐसा क्यों हुआ?
हिन्दी आलोचना में फिर कबीर को लेकर तीसरा चरण शुरू हुआ, जहाँ डॉ. धर्मवीर की पुस्तक ‘कबीर के आलोचक’ ने हिन्दी आलोचना में बलवा मचा दिया। हिन्दी आलोचना ने इसे ‘स्तब्धकारी’ विचार माना और देर तक इस विचार को परखते रहे। सामाजिक न्याय और समानता के पहिए पर सवार इस युग में ‘कबीर के आलोचक’ को सीधी चुनौती देना तथाकथित आलोचक-सभा ने मुनासिब नहीं समझा। स्वाभाविक ही है, ऐसा करने में युग-द्रोही और अप्रगतिशील कहलाने का खतरा पैदा हो जाता। इस तरह, ‘देख दिनन के फेर’ को समझते हुए एक तीसरा रास्ता निकला जहां कबीर को फिर से हिन्दी आलोचना में साधने की कोशिश होने लगी और तीसरा रास्ता बना- कबीर की कविता और कवि व्यक्तित्व में ‘स्थाई भाव’ की पहचान ‘प्रेम’ के रूप में करके। पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब ‘अकथ कहानी प्रेम की ;कबीर की कविता और उनका समय’ इसी रणनीति की ओर लगाई गई अगली छलांग है। फिर वही तीसरा सवाल, ऐसा क्यों हुआ ?
भारतीय समाज और जाति-व्यवस्था में चल रहे समता और अधिकार के आंदोलन के समय में कबीर को ‘प्रेम’ के सहारे क्यों याद किया गया? जिस समय अधिकारों की मांग भारतीय इतिहास में सबसे तगड़े ढंग से उठी हुई है, ठीक उसी समय ‘प्रेम’ का विषय ही कबीर को नए सिरे से पहचानने का माध्यम क्यों बनाया जा रहा है, उनकी सामाजिक चेतना को क्यों नहीं? उनकी इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता ‘विषयांतर बहसों, लेखों, उद्धरणों, विद्वानों और उनके दृष्टिकोणों’ का पृष्टपेषण है। आप पाएंगे कि इस किताब में मार्कोपोलो, इब्नबतूता, कोलंबस, वास्कोडिगामा से लेकर इथोपिया, मिस्र, नाइजिरिया सबका उल्लेख है। पुराने पड़ गए विचारों, विचारकों का भी भरपेट उल्लेख है। समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र का ही नहीं नृशास्त्र, परंपरा, रेनेसां, एनलाइटमेंट से लेकर मिशेल फूको तक की तो चर्चा है ही, कई जगह तो यह भी लगेगा पुरुषोत्तम भूगोलशास्त्र पर अब बोले कि तब बोले। उनकी वाक्-पटुता की आदत ने किताब को बेवजह मोटी कर दी है। फिर भी, उन्होंने कबीर पर कुछ-कुछ लिखा जरूर है। सवाल यह है कि पुरूषोत्तम अग्रवाल ने कबीर-संबंधी मान्याताओं में इस किताब के माध्यम से क्या नया अवदान दिया है? वे क्या आज के सवाल और विशेष रूप से दलित-आलोचना के सवालों को तरजीह दे पाए हैं ? लेकिन वे उससे बचते हैं, युग उनके साथ नहीं। दरअसल पुरूषोत्तम अग्रवाल की परेशानी हिन्दू होते हुए कबीर को देखने और जानने की है और दलित-आलोचना का कबीर संबंधी सारा चिंतन हिन्दुत्व से इतर है। यह बुनियादी भेद हिन्दी आलोचना जान-बूझ कर समझना नहीं चाहती।
पुरूषोतम अग्रवाल इतिहासकारों से उधार में लिए गए उद्धरणों का हवाला देते हैं कि सूरत की फैक्ट्रियों में काम करने वाले बहुत सारे मजदूर ब्राह्मण थे, इसी तरह मिथिला में अस्सी प्रतिशत से अधिक खेतीहर ब्राह्मण हैं। इसके पीछे उनका आग्रह यह है कि जातिवाद उतना कट्टर नहीं है, जितनी कि हम मानते हैं- न तो व्यावहारिक रुप में, न ही सैद्धांतिक रुप में। इसकी पुष्टि के लिए वे एम.एन. श्रीनिवासन सहित विदेशी विद्वान क्रूक तक के अध्ययनों का हवाला देते हैं। ध्यान रहे की एम.एन. श्रीनिवासन की जाति संबंधी अध्ययन दक्षिण-भारत तक ही सीमित है जबकि क्रूक महोदय की मान्यता थी कि ‘जाति कोई शाश्वत और अपरिवर्तनीय विचार नहीं’।[1] इस तरह जाति-व्यवस्था की बुनियादी समझ को निपटाकर पुरूषोत्तम अग्रवाल सभ्यता समीक्षा करते हैं। उनसे कोई सवाल करे कि आज पूरे भारत में ‘सिक्योरिटी गार्ड’ का जो चलन बढ़ा है उसमें बहुत सारे गार्ड तथाकथित उँची जातियों के हैं, इससे क्या फर्क पड़ गया क्या सुलभ इंटरनेशनल खोलने से दलितों पर होने वाले अत्याचार रूके। क्या ये लोग अन्य जातियों से उसी तरह घुलेमिले हैं जैसे बर्फ से पानी? दरअसल ‘जाति का दंभ’ और आर्थिक सुरक्षा-असुरक्षा भारतीय समाज में आज भी दो अलग-अलग मोर्चें है। ‘रामचरितमानस’ के तुलसी और ‘कवितावली’ के तुलसी के अध्ययन से हम इस फर्क को देख सकते हैं। एक तरफ तुलसी का चेहरा ब्राह्मण होने दंभ में दमक रहा है तो दूसरी तरह तुलसी आर्थिक-विपन्नता से अपमानित हैं। इसी मनःस्थिति में आज का भी भारतीय सवर्ण जी रहा है.... अनवरत...।
फिर भी, गरज यह कि इतिहास बोध से लैस पुरूषोत्तम अग्रवाल मानते हैं कि ‘वर्णाश्रम का सैद्धांतिक ढांचा सरल, बुनियादी श्रम विभाजन के दौर में विकसित हुआ था फिर उसे एक मॉडल या ‘नार्म’ बना दिया गया।‘[2] आश्चर्यजनक है कि वास्तव में वर्णाश्रम का कोई सरल-सैद्धांतिक ढांचा बना ही नहीं, बल्कि विवश करके बनवाया गया और यह बात प्राचीन भारत के इतिहास के स्थापित विद्वान रामशरण शर्मा ने बहुत पहले कही थी। इसी तरह, भक्तिकाल के उदय के संदर्भ में इरफान हबीब से उधर ली गई आर्थिक इतिहास-दृष्टि भी प्रो. पुरूषोत्तम को बहुत दूर तक नहीं ले गई। यह ठीक है कि वाणिज्य के विकास का दलित-वर्ग के साथ सीध संबंध रहा है, लेकिन इतिहास हमें यह भी बताता है कि इस देश में व्यापारिक वर्गों के हित बौद्धकाल और गुप्तकाल में आगे चलकर किधर की ओर मुड़ गए। संभवतः, लेखन इन दो युगों से, उसकी आर्थिक-प्रक्रियाओं और परिणामों से अनजान हैं। गुप्तकाल में जिस भागवत धर्म का व्यवस्थित पुनर्योदय हुआ और उस युग की आर्थिक उन्नति की स्तुति करते हुए भारतीय विद्वान नहीं थकते उसी गुप्तकाल के धर्मिक-साहित्यिक नींव पर जातिवाद की क्रूर संरचना और अधिक ठोस हुई। गुप्तकाल के बाद सामंतवाद के चरण के उभार में गुप्तकालीन दर्शन साहित्य का गहरा असर था, लेकिन पुरूषोत्तम अग्रवाल के साथ दिक्कत यह है कि वे इतिहास के ‘सेकेंडरी सोर्स’ को ‘प्राइमरी सोर्स’ के रूप में उपयोग करते चले गए- और वह भी बिना किसी अपराध-बोध के।
बहरहाल, कबीर संबंधी उनकी इस किताब में पहले अध्याय से अंतिम अध्याय तक जो शब्द लेखक का साथ नहीं छोड़ते, वे हैं-‘सर्वव्यापी’, ‘अखंड चेतन’, ‘मनुष्य-मात्र’, ‘लोक-वृत’, ‘प्रेम-तत्व’, ‘मानवीय’,’धर्मेतर’, ‘समग्र’ इत्यादि। ये सभी के सभी शब्द सब पर लागू होते हैं, सबके शब्द हैं। पुरूषोत्तम मानते हैं कि ‘कविता की प्राथमिक पहचान है-भाषा की सर्जनात्मकता।‘ साथ हीं वे यह भी मानते हैं कि कबीर की टर्मिनोलॉजी या पारिभाषिक शब्दावलियां कई धार्मिक-चिंतन परंपरा से आईं, परंतु कबीर उनके अर्थ नितांत वैयक्तिक चेतना और नए रूपों में विन्यास करते हैं’- अर्थात अखंड, समग्र वगैरह। गड़बड़ी यहीं से शुरू हुई। कबीर की नितांत वयैक्तिक चेतना के शब्दों के अर्थ को जहां डा. धर्मवीर या दलित आलोचना ने अपने आंदोलन के हथियार के रूप में देखते हुए उन शब्दों के विशेष चिह्नों और केंद्रों की पहचान कराते हैं, ठीक इसके उलट अग्रवाल कबीर के शब्दों के अर्थगर्भत्व को समाजिक चेतना की जमीन से नोंचकर सर्वव्यापी करने पर तुले हुए हैं। आश्यचर्यजनक है कि सर्जक के सृजन को यह आलोचक उससे छिटका देने के फेर में है।
वह भूल जाता है कि उनके यहां हिन्दू परंपरा के ढेरों शब्द हैं परंतु, उनके अर्थ कबीर के जिस नितांत व्यैक्तिक चेतना में विन्यस्त हैं, उसका एक बड़ा भाग अस्पृश्यता की मार से उधड़ा हुआ है। बतौर, डा. धर्मवीर कि ‘कबीर जैसे व्यक्ति ने भाषा का और छंदों का चुनाव बहुत सोच विचार कर किया है।‘[3] इसके पीछे वही पीड़ा है जिससे मुक्ति के लिए कबीर नए-पुराने शब्दों को निजी अनुभवों में पिरोते हैं। लेकिन, यह बात कबीर ने कभी सोची भी नहीं होगी कि इन्हीं शब्दों को आने वाली सदी में उसी पुरानी केंचुली में पुनः विन्यस्त करने का प्रयास होगा, जिससे निकलने का आग्रह कबीर बार-बार करते रहे। जिन पुराने शब्दों को जाति-व्यवस्था के क्रूर अनुभवों से रगड़कर कबीर ने नया किया उसे पुराने और सर्वव्यापी रूप में गढ़ने का सर्वोत्तम प्रयास किया है पुरूषोत्तम ने।
‘दस अवतार निरंजन कहिए, सो अपना न कोई’- यही तकलीफ है कबीर की और दलित आलोचना की भी। कहने वाला जितना पीडि़त है, सुनने वाला भी उतना ही पीडि़त है- यहां पीड़ा में एक समानता है। परंतु, पुरुषोत्तम अग्रवाल की आध्यात्मिक पीड़ा थोड़ी व्यापक है, वह अखिल भारतीय है, वर्ग-क्षेत्र-देश से उपर है। उन्होंने एक जगह लिखा है कि “ ‘हद बेहद दोउ तजे’ अध्याय में हमने देखा कि कबीर किसी एक धर्म की नहीं, संगठित धर्म की धरणा मात्रा की समीक्षा करते हुए धर्मेत्तर अध्यात्म की खोज करते हैं।“[4] इसी तरह दूसरी जगह लिखा कि “कबीर की कविता की सबसे बड़ी ताकत, उसकी कालजयिता ही है कि वह आपको संबोधित ही नहीं करती, आपको विषय भी बनाती है। शर्त यह है कि आत्मतुष्टता की बजाय आत्मबोध के साथ पढ़ी जाय।“[5] इस तरह उन्होंने कबीर के ‘पाठ’ को सशर्त( condition apply) बना दिया। यही नहीं तीसरी जगह यहां तक लिखा कि ‘कबीर की आलोचना को ‘आत्म’ द्वारा ‘अन्य’ की आलोचना तक सीमित करने की बजाय, अपने आप पर निगाह डालते हुए सुनी जाय,उसकी बेचैन आत्मा के सुविधजनक टुकडे़ करने की बजाय उसकी समग्रता से संवाद किया जाय तो समझते देर नहीं लगेगी।‘[6] तो, कुल मिलाकर ‘सशर्त’, ‘आत्मबोध’ और ‘समग्र दृष्टिकोण का आग्रह’ करते हुए आलोचक हमें इस निष्कर्ष तक पहुंचाता है कि कबीर की सारी पीड़ा ‘धर्मेतर’,’विषयेतर’, ‘वर्णेतर’ होने की है जो कि ब्रह्मांडेतर होने के करीब जान पड़ता है.
इस तरह सशर्त आत्मबोध के साथ कबीर की कविता कालजयी हुई। अब इस ‘आत्मबोध’ की कैसे व्याख्या करें, लेखक चुप रहता है खोलता नहीं क्योंकि इस ‘आत्म’ को खोलने के कई खतरे हैं। लेखक ने उपर्युक्त तीसरे उद्धरण में इस ‘आत्म’ को इशारे में परिभाषित किया है जहां ‘अन्य’ के साथ बटवारा न करने का आग्रह है- अर्थात उनकी आलोचना ने वही खेल किया है जिसकी उम्मीद थी और जो अब तक की प्रभु-आलोचना करती आई है। यहां डा. धर्मवीर के एक उद्धरण को केवल रख भर दें तो प्रो. अग्रवाल सरीखे विद्वानों की आलोचना परंपरा की गहरी राजनीति समझ आ जाएगी। उन्होंने लिखा है कि ‘ दलितों द्वारा किये गए धार्मिक विद्रोहों के सारे इतिहास को नाममात्र को और उपर-उपर से हिन्दुओं द्वारा अपने में समा लेने की गुप्त प्रक्रिया ही कबीर के पृथक धर्म की स्थापना में अड़चन और फलस्वरूप असफलता है।‘[7]
डा. धर्मवीर के इस आग्रह को साथ लेकर हम पुरूषोत्तम अग्रवाल की एक स्थापना देखें ‘बिना रूपासक्ति के कोई कवि नहीं हो सकता और कबीर कवि हैं इसीलिए अपने निर्गुण, निराकार राम को अपनी कवि-कल्पना में साकार बालम तो बनाते ही हैं, उनमें भी राम का रूप निहारते हैं। कबीर का निर्गुण मानवीय भाव का निषेध करनेवाला अमूर्तन नहीं है, जैसा कि भांति-भांति के आलोचकों द्वारा मान लिया गया है। राम की निर्गुणता पर कबीर का बल रामधरण को केवल अवतारी राम तक सीमित करने से इंकार की सूचना देता है, बस। कबीर की रामधरणा अवकाश देती है, उन्हें भी अर्थात स्वयं कबीर कोद्ध और श्रोता/पाठक को भी कि निर्गुण राम के प्रति ‘अविच्छिन्न अनुराग’ में अपने सगुण, वास्तविक प्रेमानुभव को भी भरा जा सके।[8] इस तरह पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कबीर के निर्गुण राम को सगुण राम ही बना डाला । हम यहां भक्तिकाल पर मुक्तिबोध की स्थापना को याद कर सकते हैं जहां वे सगुणवादी निर्गुण आंदोलन को निगलने का अरोप लगा था। ठीक यही प्रक्रिया थोडे़ सूक्ष्म रूप में प्रो. अग्रवाल भी अपनाते हैं। इस प्रक्रिया में वह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बहुत पास चले जाते हैं जहां वे लिखते हैं कि ‘ मूर्ति उपासना कबीर को बुरी लगती थी पर ऐसा जान पड़ता है कि मूर्तिवाला तत्व उन्हें मालूम ही न हो।[9]
स्वयं पुरुषोत्तम अग्रवाल का कहना है कि ‘कबीर का दुःख केवल जुलाहे का दुःख नहीं, किसी भी संवेदनशील मनुष्य का दुःख है।... सब कोई से छीनकर किसी एक सामाजिक समूह तक सीमित कर देना उस दुःख का भी अपमान है और उससे उत्पन्न सामाजिक चेतना का भी।‘[10] इस तरह, कबीर का सारा चिंतन सीमांत से उठकर ‘नो मैन्स लैंड यानि किसी की भूमि नहीं के खाते में चला जाता है। हिन्दी आलोचना की दिक्कत यही है जब-जब स्थापित आलोचना के सामने इतिहास से निकले बडे़ प्रश्न खड़े हुए तब वह ‘टेक्स्ट’ की बात करने लगती है और जब ‘टेक्स्ट’ से कोई बड़ा प्रश्न खड़ा होता है तब यह स्व-निर्मित,सेकेण्डरी हिस्ट्री के पन्नों में छिप जाती है। यहां पुरूषोत्तम पर ठीक वही आरोप लगाया जा सकता है जो आरोप डॉ. धर्मवीर ने आचार्य द्विवेदी पर लगाया गया था कि ‘इसका मतलब यह निकलता है कि कबीर किसी बात को साफ-साफ कहना चाह रहे हों परंतु डॉ. द्विवेदी का ब्राह्मण(सवर्ण) उसे साफ-साफ न समझना चाह रहा हो।‘[11] इसीलिए ‘कबीर ने वो भाषा बोलनी चाही थी जो उनके दलित समाज में दूर-दूर तक समझी जा सके।‘[12] आचार्य द्विवेदी का कबीरपरक चिंतन दुरूह और गहन क्यों है, यह प्रश्न डॉ. धर्मवीर ने उठाया है। क्या पुरूषोत्तम अग्रवाल की आलोचना में यह दुरूहता पुनर्जन्म नहीं ले रही?
आखिर, क्या वजह है कि आज भी हरिऔध का वह विचार कि ‘कबीर ने नवीन धर्म की स्थापना की लालसा से ही ऐसा किया’[13] आज भी हिन्दी विद्वानों के गले में कांटे की तरह अटका हुआ है, जिसे दलित आलोचना ने उठाया परंतु पुरूषोत्तम अग्रवाल ने उसे अपनी भारी-भरकम किताब में व्यवस्थित जगह देना जरूरी नहीं समझा। पुरूषोत्तम अग्रवाल पूर्ववर्ती आलोचकों से नहीं टकराते, बल्कि सुविधाजनक उद्धरण उठाते हैं। बस ,उन्होंने इतना भर नया किया है कि वे न तो श्याम सुंदरदास की तरह ‘कबीर द्वारा हिन्दू जाति हमला’[14] करने का रोना रोते हैं और न ही उसे ‘महान साहित्य का क्षणिक विचलन’ मानते हैं। कबीर की दार्शनिक-सामाजिक पहल को ‘बर्फ’ में जमा हुआ समय या ‘स्तब्ध मनोवृति का काल’ कहे जाने से बचाते हैं। लेकिन, लेखक का सारा जोर संपूर्ण भारतीय संस्कृति की विराट बहसों और परंपराओं पर ही केंद्रित है। शायद इसी वजह से, जहां दलित आलोचना ने कबीर का लक्ष्य ‘समाज’ बनाया था वहीं पुरूषोत्तम ने कबीर का लक्ष्य ‘समाज का व्यक्ति’ बना दिया और वे इस ‘व्यक्ति’ तत्व को कैसे ‘डील’ करते हैं, हम देख चुके हैं। तुर्रा यह कि ठीक इन्हीं बिंदुओं पर चर्चा करते हुए पुरूषोत्तम डॉ. धर्मवीर के पूछे गए सवालों का जवाब नहीं देते। भाषा की लय और शब्दों के ढोल में वे खुद इतने व्यस्त हैं कि वहां कोई भागीदार नहीं।
इस तरह, वे तमाम दलित आलोचना कि मान्यताएँ और प्रश्न, कबीर के वेद-वेदांत विरोधी विस्फोट, हिन्दू-विरोधी मान्यताएँ, कबीर के समाज-सुधार को ‘फोकट का माल’[15] या ‘बाइप्रोडक्ट’ कहने का विरोध आदि जितनी भी दलित स्थापनाएं और प्रश्न हैं, अनुत्तरित रह जाते हैं, या फिर सूक्ष्मता से मानवता और सर्वजन की तथाकथित विराट चेतना में विन्यस्त करने का प्रयास किया जाता है। मसलन, ‘कबीर को अकेला नहीं पढ़ा जा सकता’[16] तथा कबीर को धर्मगुरू बनाये जाने की बजाय उनके कवि-व्यक्तित्व के साथ संवाद करने की कोशिश की है’[17] में मिल जाती है।
यह बात बिल्कुल ही भुला दी गई है कि कबीर के यहां हिन्दू धर्म विरोधी होना और हिन्दू होकर हिन्दू संस्कारों का विरोधी होना, दोनों दो बातें हैं। जिस हिन्दू धर्म तमाम मानवीय चेहरे देने के प्रयास हुए सबके सब व्यवहारिक रूप में दलित संरचना के लिए अब तक ‘मिसफिट’ ही रहे। इसी वजह से डॉ. धर्मवीर ने कबीर को ‘सामाजिक क्रांति का नेता’[18] कहने का आग्रह किया था।
लेकिन, हिन्दी आलोचना की तमाम शाखाएं कबीर और उनकी कविता को उसके वास्तविक लक्ष्य से भटकाती रहीं। मार्क्सवादी आलोचना ने भी बस इतना भर किया कि ‘ताते हिन्दू राहिए’ के रामस्वरूप चतुर्वेदी की सांप्रदायिक जबडे़ से निकालकर ‘कबीर को भगवा?’ के नामवरी ‘सेक्युलर’ गोद में डाल दिया-बस। परंतु, बदलते भारतीय समाज में ‘सेकुलरवाद’ अब अकेला नारा नहीं। बहुसंख्यक समाज ‘सेकुलर’ के राजनीतिक एजेंडे से बहार निकलकर कुछ और चाहता है जिससे हिंदी प्रभु-आलोचकों के पसीने छूट रहे हैं। इसीलिए, वे कबीर, दलित-आलोचना और इतिहास इन तीनों को एक साथ रेखांकित करने की बजाय बाइपास करके महानता-मनुष्यता के राजमार्ग पर ‘रेस’ हो रहे हैं। ऐसा करने से उन्हें लगता है, कबीर इतने बडे़ हो जाएंगे कि उनको और उनकी कविता को आधार बनाकर लड़ने वाले दलित फ्रंट की जमीन दरक जाएगी। इसी वजह से इस कुटिल आलोचना ने कबीर के कई रूप गढे़। कबीर उपदेश-सुधारक-आलोचक से होकर ‘कवि’ तक की यात्रा करते हैं। फिर, उनके भीतर मौजूद तमाम तरह के सामाजिक आग्रहों, दर्शन-चिंतन, शब्द-भंडार, लक्ष्य सबको इस ‘प्रेमतत्व’ के ‘महाभाव’ में विलीन करने का प्रयास होता है। इससे स्वयं हिन्दी आलोचना की उस परंपरा की भी क्षति होती है जिसने माना है कि भक्ति एक सामाजिक हथियार है। शब्दों को अपनाने की लड़ाई किस समय और किस इतिहास में नहीं लड़ी गई? क्या राष्ट्रीय आंदोलन ने अपने शब्द, अर्थ, प्रतीक, मिथक, चिंतन, दर्शन, प्रेरणाओं आदि को नही गढ़ा? क्या मार्क्सवादी आलोचना ने यह काम नहीं किया, या कलावादियों-कुलीनतावादियों ने नहीं किया? फिर, दलित समाज क्यों न लडे़? शब्दों, प्रतीकों, मिथकों, बिंबो, कथाओं-प्रेरणाओं को अपने अनुभव के हिस्से में खींचने की लड़ाई हर युग में लड़ी गई, तो हम दलित आंदोलन और आलोचना से क्यों उम्मीद करें वह इस तरह की दावेदारी न करे, जबकि वे वास्तविक हकदार हैं? उनके लिए वह केवल विचार का प्रश्न नहीं, जीवन-मरण का प्रश्न है। क्या कबीर को दलित आलोचना समाज और आलोचना से छीनने का यह प्रयास इतिहास और मनुष्यता विरोधी नहीं?
मूलतः प्रकाशितः पत्रिका “बहुरि नहिं आवना” त्रैमासिक, संयुक्तांक( अप्रैल, 2012- मार्च, 2013) प्रधान संपादक- प्रो. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, संपादक- डॉ. दिनेश राम
संदर्भ ग्रंथ सूचि-
[1] द ट्राइव्स एण्ड कास्ट ऑफ नार्थ वेस्टर्न इंडिया, विलियम क्रूक,कॉस्मो पब्लिकेशन, दिल्ली, संस्करण 1975 खंड, पृ. 74-75
[2] अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय,पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2009, पृ. 30
[3] कबीर के आलोचक, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, तृतीय संस्करण 2004, पृ. 78
[4] अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय,पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2009, पृ. 398
[5] वही पृ. 399
[6] वही पृ. 400
[7] कबीर के आलोचक, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, तृतीय संस्करण 2004, पृ. 40
[8] अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय,पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2009, पृ. 407
[9] कबीर, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी ग्रंथ रत्नालय, बम्बई, संस्करण 1950, पृ. 115
[10] अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय,पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2009, पृ. 407
[11] कबीर के आलोचक, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, तृतीय संस्करण 2004, पृ. 77
[12] वही पृ. 61
[13] कबीर रचनावली, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, नागरी प्राचारिणी सभा काशी, ग्यारहवां संस्करण, पृ. 63-64
[14] कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ. श्यामसुंदर दास, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, सातवां संस्करण सम्वत् 2016, प्रस्तावना से
[15] कबीर, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी ग्रंथ रत्नालय, बम्बई, संस्करण 1950, पृ. 221
[16] अकथ कहानी प्रेम कीः कबीर की कविता और उनका समय,पुरुषोत्तम अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लिमिटेड, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2009, भूमिका से
[17] वही, भूमिका से
[18] कबीर के आलोचक, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली, तृतीय संस्करण 2004, पृ. 95
पेशे से अध्यापक प्रवीण कुमार (तदर्थ प्रवक्ता,शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय), रुझान से इतिहास, अवधारणा और साहित्य के गंभीर शोधार्थी तथा अपनी मूल प्रवृत्ति में उभरते कहानीकार हैं. पिछले दिनों “नया पथ” के कहानी विशेषांक में छपी इनकी कहानी “लादेन ओझा की हसरतें” खासी चर्चा में रही. अब जल्द ही अपनी नयी और लंबी कहानी “नया जफरनामा ”के साथ हमारे बीच होंगे. नया पथ, वाक्,कथादेश और उद्भावना जैसी पत्रिकाओं में नियमित छपते रहे प्रवीण कुमार का लेखन प्रस्तावित करता है कि मठाधीशी आलोचना के बावजूद थोड़ी ही सही, ये गुंजाइश अब भी बची हुई है कि आलोचना की नई जमीन तैयार करने के लिए देव-आलोचकों की संस्तुति अनिवार्य नहीं है.
pसबसे पहले तो धन्यवाद् की आपने ये पोस्ट लगा दी जिसे लगाने का सहस किसी ने नहीं किया .
जवाब देंहटाएंbahoot bahoot badhai sir. sachhai ka dusra paksha bhi der se hi sahi aaya to. bahoot hi sargarbhit lekh hai aapka. "prabhoo aalochna" jaisi avdharna bhi hai sahity jagat me iski bhi jankari mili.
जवाब देंहटाएंअग्रवाल आलोचना भंडार से निकली कबीर की आलोचना आखिर में जाकर उसी पंडे-पुजारियों की मान्यताओं पर जाकर ठहर जाती है जहां आस्था के रेशे बहुत ही बारीक बुने गए हैं.बहुत बधाई प्रवीणजी आपको,आप जैसे नए लोग ही आलोचना की अधेड़ जमीन पर कुछ नया कर सकते हैं.
जवाब देंहटाएंshukriya prveen....
जवाब देंहटाएंबहुत अरसे बाद एक बेहतरीन समीक्षा पढ़ने को मिला.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
shukriya....
हटाएंबहुत साहस किया है सर आपने आलोचना को उसके वास्तविक रूप में लाने के लिए। आज के समय में आलोचना का पैमाना ही बदल चुका है । आलोचना के रूप में प्रशंसा का पलड़ा अधिक भारी दिखाई देता है। लोग सच्ची और स्वस्थ आलोचना करने से घबराते हैं, इस डर से कि कहीं बिगाड़ ना हो जाए । किसी भी कृति को उसके समवेत रूप में देखना और उसका मूल्यांकन किया जाना स्वतः ही आलोचना के बिंदुओं को रेखांकित करता चलता है । हम जिस समय में आलोचना को समझने की चेष्टा कर रहे हैं वहां तो कुछ भी दोष नहीं दीखता सब कुछ बस अच्छा और बेहतरीन दिखाई देता है। ऐसे में समग्र रचना के भीतर निहित गुण दोष जो कि आलोचना करने की पहली शर्त है, कहीं छिप जाता है। लेकिन आपका दृष्टिकोण इस संदर्भ में बिलकुल स्पष्ट है जो कि आलोचना में होनी चाहिए। शुभकामनाएं सर।
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति , इस पुस्तक को मैं अपने Mफिल के दरमियाँ उधार माँग कर पढ़ा था। जिसकी किताब थी उसने इतना दबाव बना दिया कि किताब को 5 दिन में समाप्त कर दिया गया। किताब ने राजू गाइड का ज़िक्र दिलचस्प है। प्रवीण sir की समीक्षा ने किताब को जिस प्रकार खोला है । वह हमें साहित्य की दुनिया से होते हुए समाज विज्ञान की दहलीज़ के आर पार
जवाब देंहटाएंले जाती है । बहुत बधाई ....