10 फ़रवरी 2013

भारतीय संसद पर हमले की अजीबो-ग़रीब दास्तान: अरुंधति रॉय

आज सुबह द हिन्दू में प्रकाशित अरुंधती रॉय का आलेख इस विस्तृत ब्योरे पर एक टिप्पणी भर था. यह थोड़ा बड़ा है पर बड़ा तो हमारा ‘लोकतंत्र’ भी है, ‘दुनिया का सबसे बड़ा’. 'लोकतंत्र’ को मैं कॉमे के भीतर रख रहा हूं कि सनद रहे उसे वहीं रखूंगा और संभव है कि उसे वहां से भी गिरा दूं. अरुंधती रॉय का यह संदर्भित आलेख 2006 में आउटलुक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. जिसका अनुवाद जितेन्द्र कुमार ने आज पूरा किया है. इसे सृजन और सरोकार से यहां साभार प्रस्तुत किया जा रहा है.


इतना भर हम जानते हैं: 13 दिसम्बर, 2001 को भारतीय संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था। (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, एनडीए सरकार पर एक और भ्रष्टाचार के प्रवाद को लेकर हमले हो रहे थे) सुबह के साढ़े ग्यारह बजे पांच हथियारबंद आदमी एक सफ़ेद अम्बैसेडर कार में, जिसमें कामचलाऊ विस्फोटक उपकरण (इम्प्रोवाइज़्ड एक्सप्लोज़िव डिवाइस) लगा हुआ था, नई दिल्ली में संसद भवन के फाटक से होकर बढ़े। जब उनको रोका गया तो वे कार से कूदे और उन्होंने गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। इसके बाद की गोलीबारी में सारे-के-सारे हमलावर मार गिराये गये। आठ सुरक्षाकर्मी और एक माली भी मारा गया। पुलिस ने कहा कि मारे गये आतंकवादियों के पास संसद भवन को उड़ाने के लिए काफ़ी विस्फोटक पदार्थ और एक पूरी बटालियन का सामना करने के लिए गोला-बारूद था।1 अधिकतर आतंकवादियों के विपरीत, ये पांच अपने अपने पीछे सुराग़ों की जबरदस्त श्रृंखला छोड़ गये– हथियार, मोबाइल फ़ोन, फ़ोन नंबर, पहचान पत्र, फ़ोटो, सूखे मेवों के पैकेट, यहां तक कि एक प्रेम-पत्र भी।2
आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए हमले की तुलना अमरीका के 11 सितंबर के आक्रमण से की, जो सिर्फ़ तीन महिने पहले की घटना थी।
संसद पर आक्रमण के दूसरे दिन, 14 दिसम्बर, 2001 को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने ऐसे कई लोगों का पता लगा लिया है, जिन पर इस षडयंत्र में शामिल होने का संदेह है। एक दिन बाद, 15 दिसम्बर को उसने घोषणा की कि उसने ‘मामले को सुलझा लिया था’ : पुलिस ने दावा किया कि हमला पाकिस्तान आधारित दो आतंकवादी गुटों, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का संयुक्त अभियान था। इस षडयंत्र में 12 लोगों के शामिल होने की बात कही गयी। जैश-ए-मोहम्मद का ग़ाज़ी बाबा ( आरोपी नंबर -1), जैश-ए-मोहम्मद का ही मौलाना मसूद अज़हर ( आरोपी नंबर 2), तरीक़ अहमद ( पाकिस्तानी नागरिक ), पांच मारे गये ‘पाकिस्तानी आतंकवादी’( आज तक हम नहीं जानते कि वे कौन थे ) और तीन कश्मीरी मर्द एस.ए.आर. गिलान, शौकत गुरू और मोहम्मद अफ़ज़ल। इसके अलावा शौकत की बीबी अफ़सान गुरू। सिर्फ़ यही चार गिरफ़्तार हुए।3
उसके बाद के तनाव-भरे दिनों में संसद को स्थगित कर दिया गया। 21 दिसम्बर को भारत ने अपने राजदूत को पाकिस्तान से वापस बुला लिया, हवाई, रेल और बस संपर्क रोक दिये गये और हमारी वायु-सीमा से गुज़रने वाली पाकिस्तानी उडानोंपररोक लगा दी गयी। भारत ने युद्ध की जबरदस्त तैयारी शुरू कर दी और पांच लाख से ज़्यादा सैनिकों को पाकिस्तान की सीमा पर भेज दिया गया। विदेशी दूतावासों ने अपने कर्मचारियों को हटाना शुरू कर दिया और भारत आने वाले पर्यटकों को यात्रा की चेतावनी वाली सलाह जारी कर दी। परमाणु युद्ध के कगार की ओर बढ़ते उपमहाद्वीप को दुनिया सांस रोककर देखने लगी।4 भारत को इस सबकी क़ीमत जनता के दस हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च करके चुकानी पड़ी। कुछ सौ सैनिक तो हड़बड़ाहट-भरी तैनाती की प्रक्रिया में ही जान से हाथ धो बैठे।
लगभग साढे़ तीन साल बाद, 4 अगस्त, 2005 को इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना अंतिम फ़ैसला सुना दिया। उसने इस दृष्टिकोण की पुष्टि की कि संसद पर हमले को जंगी कार्रवाई के तौर पर लिया जाना चाहिए। उसने कहा ‘संसद पर आक्रमण की कोशिश निःसंदेह भारतीय राज्य और सरकार की, जो उसकी ही प्रतिरूप है, प्रभुसत्ता का अतिक्रमण है…मृत आतंकवादियों को जबरदस्त भारत विरोधी भावनाओं से भड़काकर यह कार्रवाई करने के लिए प्रेरित किया गया जैसा कि कार ( एक्स.पी डब्लू 1-8 ) पर पाये गये गृहमंत्रालय के नक़ली स्टिकर में लिखे हुए शब्दों से भी साबित होता है।’ न्यायालय ने आगे कहा, ‘कट्टर फ़ियादिनों ने जो तरीक़े अपनाये वे सब भारत सरकार के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की मंशा दर्शाते हैं।’
गृहमंत्रालय के नक़ली स्टिकर पर जो लिखा था, वह यह है :
‘हिन्दुस्तान बहुत ख़राब मुल्क है और हम हिन्दुस्तान से नफ़रत करते हैं, हम हिन्दुस्तान को बर्बाद कर देना चाहते हैं और अल्लाह के करम से हम ऐसा करेंगे अल्लाह हमारे साथ है और हम भरसक कोशिश करेंगे। यह मूरख वाजपेयी और आडवाणी हम उन्हें मार देंगे। इन्होंने बहुत से मासूम लोगों की जानें ली हैं और वे बेइन्तहा ख़राब इन्सान हैं, उनका भाई बुश भी बहुत ख़राब आदमी है, वह अगला निशाना होगा। वह भी बेकुसूर लोगों का हत्यारा है उसे भी मरना ही है और हम यह कर देंगे।’5
चतुराई-भरे शब्दों में लिखी गयी यह स्टिकर-घोषणा संसद की ओर जाते कार-बम के अगले शीशे पर लगा हुआ था। ( इस पाठ में जितने शब्द हैं उन्हें देखते हुए यह हैरत की बात है कि ड्राइवर कुछ देखने की स्थिति में रहा भी होगा। शायद यही कारण है कि वह उप-राष्ट्रपति की कारों के काफ़िले से टकरा गया था? )
पुलिस ने अपना आरोप-पत्र एक त्वरित-सुनवाई अदालत में दायर किया जो कि ‘आतंकवाद निरोधक अधिनियम’ ( पोटा ) के मामलों को निपटाने के लिए स्थापित की गयी थी। निचली अदालत ( ट्रायल कोर्ट ) ने 16 दिसम्बर, 2002 को गिलानी, शौकत और अफ़ज़ल को मौत की सज़ा सुनायी। अफ़सान गुरू को पांच वर्ष की कड़ी कैद की सज़ा दी गयी। साल भर बाद उच्च न्यायालय ने गिलानी और अफ़सान गुरू को बरी कर दिया। लेकिन शौकत और अफ़ज़ल की मौत की सज़ा को बरकरार रखा। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी रिहाइयों को यथावत् रखा और शौकत की सज़ा को 10 वर्ष की कड़ी सज़ा में तब्दील कर दिया। लेकिन उसने न केवल मोहम्मद अफ़ज़ल की सज़ा को बरक़रार रखा, बल्कि बढ़ा दिया। उसे तीन आजीवन कारावास और दोहरे मृत्युदंड की सज़ा दी गयी।
4 अगस्त, 2005 के अपने फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़-साफ़ कहा है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि मोहम्मद अफ़ज़ल किसी आतंकवादी गुट या संगठन का सदस्य है। लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा है : ‘जैसा कि अधिकांश षड्यंत्रों के मामले में होता है, उस सांठ-गांठ का सीधा प्रमाण नहीं हो सकता और न है जो आपराधिक षड्यंत्र ठहरती हो। फिर भी, कुल मिलाकर आंके जाने पर परिस्थितियां अचूक ढंग से अफ़ज़ल और मारे गये ‘फ़ियादीन’ आतंकवादियों के बीच सहयोग की ओर इशारा करती हैं।’
यानि सीधा कोई प्रमाण नहीं है, लेकिन परिस्थितिजन्य प्रमाण हैं।
फ़ैसले के एक विवादास्पद पैरे में कहा गया है : ‘इस घटना ने, जिसके कारण कई मौतें हुईं, पूरे राष्ट्र को हिला दिया था और समाज का सामूहिक अन्तःकरण तभी संतुष्ट होगा जब अपराधी को मृत्युदंड दिया जायेगा।’6
हत्या के अनुष्ठान को, जो  कि मृत्युदंड वास्तव में है, सही साबित करने की ख़ातिर ‘समाज के सामूहिक अन्तःकरण’ का आह्वान करना भीड़ द्वारा हत्या करने के क़ानून को मानक बनाने के बहुत नज़दीक आ जाता है। यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि यह हमारे ऊपर शिकारी राजनेताओं या सनसनी तलाशते पत्रकारों की ओर से नहीं आया ( हालांकि उन्होंने भी ऐसा किया है ), बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत की ओर से एक फ़रमान की तरह जारी हुआ है।
अफ़ज़ल को फांसी की सज़ा देने के कारणों को स्पष्ट करते हुए फ़ैसले में आगे कहा गया है, ‘अपील करने वाला, जो हथियार डाल चुका उग्रवादी है और जो राष्ट्रद्रोही कार्यों को दोहराने पर आमादा था, समाज के लिए एक ख़तरा है और उसकी ज़िंदगी का चिराग़ बुझना ही चाहिए।’
यह वाक्य ग़लत तर्क और इस तथ्य के निपट अज्ञान का मिश्रण है कि आज के कश्मीर में ‘हथियार डाल चुका उग्रवादी’ होने का क्या मतलब होता है।
सो : क्या मोहम्मद अफ़ज़ल की ज़िंदगी का चिराग़ बुझना ही चाहिए?
बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं, संपादकों, वकीलों और सार्वजनिक क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण लोगों के एक छोटे-से, लेकिन प्रभावशाली समूह ने नैतिक सिद्धांत के आधार पर मृत्युदंड का विरोध किया है। उनका यह भी तर्क है कि ऐसा कोई व्यावहारिक प्रमाण नहीं है जो सुझाता हो कि मौत की सज़ा आतंकवादियों के लिए अवरोधक का काम करती है। ( कैसे कर सकती है, जब फ़िदायीनों और आत्मघाती बमवारों के इस दौर में मौत सबसे बड़ा आकर्षण बन गई जान पड़ती हो? )
अगर जनमत-संग्रह ( ओपिनियन पोल ), संपादक के नाम पत्र और टीवी स्टूडियो के सीधे प्रसारण में भाग ले रहे दर्शक भारत में जनता की राय का सही पैमाना हैं तो हत्यारी भीड़ ( लिंच मॉब ) में घंटे-दर-घंटे इज़ाफ़ा हो रहा है। ऐसा लगता है मानो भारतीय नागरिकों की बहुसंख्यक आबादी मोहम्मद अफ़ज़ल को अगले कुछ वर्षों तक हर दिन फांसी पर चढ़ाये जाते हुए देखना चाहेगी, जिनमें सप्ताहांत की छुट्टियां भी शामिल हैं। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, अशोभनीय हड़बड़ी प्रदर्शित करते हुए, चाहते हैं कि उसे फ़ौरन से पेश्तर फांसी दे दी जाये, एक मिनट की भी देर किये बिना।7
इस बीच कश्मीर में भी लोकमत उतना ही प्रबल है। ग़ुस्से से भरे बड़े-बड़े प्रदर्शन बढ़ती हुई मात्रा मंय यह स्पष्ट करते जा रहे हैं कि अगर अफ़ज़ल को फांसी दी गयी तो इसके राजनैतिक परिणाम होंगे। कुछ इसे न्याय का विचलन मानकर इसका विरोध कर रहे हैं, लेकिन विरोध करते हुए भी वे भारतीय न्यायालयों से न्याय की अपेक्षा नहीं करते। वे इतनी ज़्यादा बर्बरता से गुज़र चुके हैं कि अदालतों, हलफ़नामों और इन्साफ़ पर उनका अब कोई विश्वास नहीं रह गया है। कुछ दसरे लोग भी हैं जो चाहते हैं कि मोहम्मद अफ़ज़ल मक़बूल बट्ट की तरह फांसी चढ़ जाये – कश्मीर के स्वतंत्रता-संघर्ष के एक गर्वीले शहीद के रूप में।8 कुल मिलाकर, ज़्यादातर कश्मीरी मोहम्मद अफ़ज़ल को एक युद्धबंदी की तरह देखते हैं, जिस पर क़ब्ज़ा करने वाली ताक़त की अदालत में मुक़दमा चल रहा है ( जो निस्संदेह सच है )। स्वाभाविक रूप से राजनैतिक दलों ने भारत में भी और कश्मीर में भी हवा को सूंघ लिया है और बेमुरव्वती से जस्त लगाये, शिकार पर झपट पड़ने के लिए बढ़ रहे हैं।
दुखद यह है कि इस पागलपन में लगता है अफ़ज़ल ने व्यक्ति होने का अधिकार गंवा दिया है। वह राष्ट्रवादियों, पृथकतावादियों और मृत्युदंड विरोधी कार्यकर्ताओं – सबकी कपोल-कल्पनाओं का माध्यम बन गया है। वह भारत का महा-खलनायक बन गया है और कश्मीर का महानायक – महज़ यह सिद्ध करते हुए कि हमारे विद्धज्जन, नीति-निर्धारक और शांति के गुरू चाहे जो कहें, इतने साल बाद भी कश्मीर में युद्ध को किसी भी तरह ख़त्म हुआ नहीं कहा जा सकता।
ऐसी परिस्थिति में, जो इतनी आशंका भरी हों और जिसका इस हद तक राजनीतिकरण कर दिया गया हो, यह मानने का लालच होता है कि हस्तक्षेप का समय आकर चला गया है। आख़िरकार, कानूनी प्रक्रिया चालीस महीने चली और सर्वोच्च न्यायालय ने उन साक्ष्यों को जांचा है जो उसके सामने मौजूद थे।  उसने आरोपियों में से दो को सज़ा सुना दी और दो को बरी कर दिया। निश्चय ही यह अपने आप में न्याय की वस्तुपरकता का प्रमाण हैं? इसके बाद कहने को क्या रह जाता है? इसे देखने का एक और तरीक़ा भी है। क्या यह अजीब नहीं है कि अभियोजन पक्ष आधे मामले में इतने विलक्षण ढंग से ग़लत साबित हुआ और आधे में इतने शानदार तरीक़े से सही?
मोहम्मद अफ़ज़ल की कहानी इसलिए ह्रदयग्राही है क्योंकि वह मक़बूल बट्ट नहीं है। ताहम, उसकी कहानी भी कश्मीर घाटी की कहानी से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। यह ऐसी कहानी है जिसके नियामक तत्व न्यायालय की चारदीवारी से और ऐसे लोगों की सीमित कल्पना से, जो स्वघोषित ‘महाशक्ति’ के सुरक्षित केन्द्र में रहते हैं, बहुत आगे तक फैले हुए हैं। मोहम्मद अफ़ज़ल की कहानी का उत्स ऐसे युद्ध-क्षेत्र में है जिसके नियम सामान्य न्याय-व्यवस्था के सूक्ष्म तर्कों और नाज़ुक संवेदनाओं से परे है।
इन सभी कारणों से यह महत्त्वपूर्ण है कि हम संसद पर 13 दिसम्बर की अजीब, दुखद और पूरी तरह अमंगलसूचक कहानी को सावधानी से जांचे-परखें। यह दरअसल हमें इस बारे में ढेर सारी बातें बतलाती है कि दुनिया का सबसे बड़ा ‘लोकतंत्र’ किस तरह काम करता है। यह सबसे बड़ी चीज़ों को सबसे छोटी चीज़ों से जोड़ती है। यह उन गलियों-पगडंडियों को चिह्नित करती है जो उस सबको जो हमारे पुलिस थानों की अंधेरी कोठरियों में होता है, उस सबसे जोड़ती है जो धरती के स्वर्ग की सर्द, बर्फ़ीली सड़कों पर हो रहा है; और वहां से उस निस्संग दुर्भावनापूर्ण रोष तक, जो राष्ट्रों को परमाणु युद्ध के कगार पर पहुंचा देता है। यह ऐसे स्पष्ट, सुनिश्चित सवाल उठाती है जिन्हें विचारधारा से जुड़े अथवा वाग्मितापूर्ण उत्तरों की नहीं, बल्कि स्पष्ट, सुनिश्चित उत्तरों की दरकार है।
इस साल 4 अक्टूबर को मैं भी उस छोटे-से समूह में शामिल थी जो मोहम्मद अफ़ज़ल को फांसी की सज़ा दिये जाने के ख़िलाफ़ नयी दिल्ली में जन्तर-मन्तर पर इकट्ठा हुआ था। मैं वहां इसलिए थी कि मैं मानती हूं कि मोहम्मद अफ़ज़ल एक बहुत ही शातिराना शैतानी खेल का महज़ एक मोहरा है। अफ़ज़ल वह राक्षस नहीं है जो कि उसे बनाया जा रहा है। वह तो राक्षस के पंजे का निशान भर है और अगर पंजे के निशान को ही ‘मिटा’ दिया जाता है तो हम कभी नहीं जान पाएंगे कि राक्षस कौन था। और है।
कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि उस दोपहर वहां विरोध करने वालों से ज़्यादा पत्रकार और टीवी के लोग थे। सबसे अधिक ध्यान फ़रिश्ते की तरह सुंदर अफ़ज़ल के बेटे ग़ालिब पर था। भले दिल वाले लोग, जो यह नहीं समझ पा रहे थे कि उस लड़के का क्या करें जिसका बाप फांसी के तख़्ते की तरफ़ जा रहा था, उसे आइसक्रीम और कोल्ड़ड्रिंक दिये जा रहे थे। वहां जमा लोगों की ओर देखते हुए मेरा ध्यान एक छोटे-से उदास ब्योरे पर गया। इस विरोध-प्रदर्शन का संयोजक दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी का प्राध्यापक एस.ए.आर. गिलानी था, छोटे क़द का गठीला आदमी जो थोड़े घबराये-से अन्दाज़ में वक्ताओं का परिचय दे रहा था और घोषणाएं कर रहा था। संसद पर आक्रमण के मामले में आरोपी नंबर तीन। उसे आक्रमण के एक दिन बाद, 14 दिसम्बर, 2001 को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल द्वारा गिरफ़्तार किया गया था। हालांकि गिलानी को गिरफ़्तारी के दौरान बर्बर यातनाएं दी गयी थीं, हालांकि उसके परिवार को – पत्नी, छोटे बच्चे और भाई – को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से हवालात में रखा गया था, फिर भी उसने उस अपराध को स्वीकार करने से मना कर दिया था, जो उसने किया नहीं था।
निश्चय ही उसकी गिरफ़्तारी के बाद के दिनों में अगर आपने अख़बार नहीं पढ़े होंगे तो आप यह सब जान नहीं पाये होंगे। उन्होंने एक सर्वथा काल्पनिक, अस्तित्वहीन स्वीकारोक्ति के विस्तृत विवरण छापे थे। दिल्ली पुलिस ने गिलानी को साज़िश के भारतीय पक्ष का दुष्ट सरग़ना ( मास्टर माइंड ) कहा था। इसके पटकथा लेखकों ने उसके ख़िलाफ़ नफ़रत-भरा प्रचार-अभियान छेड़ रखा था जिसे अति-राष्ट्रवादी, सनसनी-खोजू मीडिया ने बढ़ा-चढ़ाकर और नमक-मिर्च लगाकर पेश किया था। पुलिस अच्छी तरह जानती थी कि फ़ौजदारी मामलों में यह फ़र्ज़ किया जाता है कि जज मीडिया रिपोर्टों का नोटिस नहीं लेते। इसलिए पुलिस को पता था कि उसके द्वारा इन ‘आतंकवादियों’ का निर्मम मनगढ़न्त चरित्र-चित्रण जनमत तैयार करेगा और मुक़दमें के लिए माहौल तैयार कर देगा। लेकिन पुलिस क़ानूनी जांच-परख के दायरे से बाहर होगी।
यहां प्रस्तुत हैं कुछ विद्वेषपूर्ण, कोरे झूठ जो मुख्यधारा के समाचार-पत्रों में छपें:
‘गुत्थी सुलझी : आक्रमण के पीछे जैश’, नीता शर्मा और अरुण जोशी : द हिंदुस्तान टाइम्स, 16 दिसम्बर, 2001 :
‘दिल्ली में स्पेशल सेल के गुप्तचरों ने अरबी के एक अध्यापक को गिरफ़्तार कर लिया है जो कि ज़ाकिर हुसैन कॉलेज ( सांध्यकालीन ) में पढ़ाता है…इस बात के साबित हो जाने के बाद कि उसके मोबाइल फ़ोन पर उग्रवादियों द्वारा किया गया फ़ोन आया था।’
‘दिल्ली विश्वविद्यालय का अध्यापक आतंकवादी योजना की धुरी था’, द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 17 दिसम्बर, 2001 :
‘संसद पर 13  दिसम्बर का आक्रमण आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा की संयुक्त कार्रवाई था जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय का अध्यापक सैयद ए.आर. गिलानी दिल्ली में सुविधाएं जुटाने वाले ( फ़ैसिलिटेटर ) प्रमुख लोगों में से एक था। यह बात पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा ने रविवार को कही।’
‘प्रोफ़ेसर ने “फ़ियादीन” का मार्गदर्शन किया,’ देवेश के.पांडे, द हिंदू, 17 दिसम्बर, 2001 :
‘पूछताछ के दौरान गिलानी ने यह राज़ खोला कि वह षड्यंत्र के बारे में उस दिन से जानता था जब “फ़ियादीन” हमले की योजना बनी थी।’
‘डॉन ख़ाली समय में आतंकवाद सिखाता था,’ सुतीथो पत्रनवीस, द हिंदुस्तान टाइम्स, 17 दिसम्बर, 2001 :
‘जांच से यह बात सामने आयी है कि सांझ होने तक वह कॉलेज पहुंचकर अरबी साहित्य पढ़ा रहा होता था। ख़ाली समय में, बंद दरवाज़ों के पीछे, अपने या फिर संदेह में गिरफ़्तार किये गये दूसरे आरोपी शौकत हुसैन के घर पर वह आतंकवाद का पाठ पढ़ता और पढ़ाता था।’
‘प्रोफ़ेसर की आय’ द हिंदुस्तान टाइम्स, 17 दिसम्बर, 2001 :
‘गिलानी ने हाल ही में पश्चिमी दिल्ली में 22 लाख का एक मकान ख़रीदा था। दिल्ली पुलिस इस बात की जांच कर रही है कि उसे इतना पैसा किस छप्पर के फटने से मिला।’
‘अलीगढ़ से इग्लैंड तक छात्रों में आतंकवाद के बीज बो रहा था गिलानी,’ सुजीत ठाकुर, राष्ट्रीय सहारा, 18  दिसम्बर, 2001 :
‘जांच कर रही एजेंसियों के सूत्रों और उनके द्वारा इकट्ठा की गयी सूचनाओं के अनुसार गिलानी ने पुलिस को एक बयान में कहा है कि वह लंबे समय से जैश-ए-मोहम्मद का एजेंट था…गिलानी की वाग्विदग्धता, काम करने की शैली और अचूक आयोजन क्षमता के कारण ही 2000 में जैश-ए-मोहम्मद ने उसे बौद्धिक आतंकवाद फैलाने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी।’
‘आतंकवाद का आरोपी पाकिस्तानी दूतावास में जाता रहता था,’ स्वाती चतुर्वेदी, द हिंदुस्तान टाइम्स, 21 दिसम्बर, 2001 :
‘पूछताछ के दौरान गिलानी ने स्वीकार किया कि उसने पाकिस्तान को कई फ़ोन किये थे और वह जैश-ए-मोहम्मद से संबंध रखनेवाले आतंकवादियों के संपर्क में था…। गिलानी ने कहा कि जैश के कुछ सदस्यों ने उसे पैसे दिये थे और दो फ़्लैट ख़रीदने को कहा जिन्हें आतंकवादी कार्रवाई के लिए इस्तेमाल किया जा सके।’
‘सप्ताह का व्यक्ति,’ संडे टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 23 दिसंबर, 2001 :
‘एक सेलफ़ोन उसका दुश्मन साबित हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय का सैयद ए.आर. गिलानी 13 दिसम्बर के मामले में गिरफ़्तार किया जाने वाला पहला व्यक्ति था – एक स्तब्ध करने वाली चेतावनी कि आतंकवाद की जड़े दूर तक और गहरे उतरती हैं।’
ज़ी टीवी ने इन सबको मात कर दिया। उसने ‘13 दिसम्बर’ नाम की एक फ़िल्म बनायी, एक डॉक्यूड्रामा जिसमें यह दावा किया गया कि वह ‘पुलिस की चार्जशीट पर आधारित सत्य’ है। ( इसे क्या शब्दावली में अंतर्विरोध नहीं कहा जायेगा? ) फ़िल्म को निजी तौर पर प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को दिखलाया गया। दोनों ने फ़िल्म की तारीफ़ की। उनके अनुमोदन को मीडिया ने व्यापक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया।9
सर्वोच्च न्यायालय ने इस फ़िल्म के प्रसारण पर पाबन्दी लगाने की अपील यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि न्यायाधीश मीडिया से प्रभावित नहीं होते।10 ( क्या सर्वोच्च न्यायालय यह मानेगा कि भले ही न्यायाधीश मीडिया की रिपोर्टों से प्रभावित नहीं होते, क्या ‘समाज का सामूहिक अंतःकरण’ प्रभावित नहीं हो सकता? ) ‘13 दिसम्बर’ नामक फ़िल्म त्वरित-सुनवाई अदालत द्वारा गिलानी, अफ़ज़ल और शौकत को मृत्युदंड दिये जाने से कुछ दिन पहले ज़ी टीवी के राष्ट्रीय नेटवर्क पर दिखलायी गयी। गिलानी ने इसके बाद 18 महीने जेल में काटे; कई महीने फांसीवालों के लिए निर्धारित क़ैदे-तन्हाई में।
उच्च न्यायालय द्वारा उसे और अफ़सान गुरू को निर्दोष पाये जाने पर छोड़ा गया। ( अफ़सान गिरफ़्तारी के दौरान गर्भवती थी। उसके बच्चे का जन्म जेल में ही हुआ। उस अनुभव ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया। अब वह गंभीर मानसिक विकार से पीड़ित है। ) सर्वोच्च न्यायालय ने रिहाई के आदेश को बरक़रार रखा। उसने संसद पर आक्रमण के मामले से गिलानी को जोड़ने या किसी आतंकवादी संगठन से उसका संबंध होने का कोई प्रमाण नहीं पाया। एक भी अख़बार या पत्रकार या टीवी चैनल ने अपने झूठों के लिए उससे ( या किसी और से ) माफ़ी मांगने की ज़रूरत महसूस नहीं की। लेकिन एस.ए.आर. गिलानी की परेशानियों का अंत यहीं नहीं हुआ। उसकी रिहाई के बाद स्पेशल सेल के पास साज़िश तो रह गयी पर कोई ‘सरग़ना’ ( मास्टर माइंड ) नहीं बचा। जैसा कि हम देखेंगे, यह एक समस्या बन गयी।
इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि गिलानी अब एक आज़ाद इंसान था – प्रेस से मिलने, वकीलों से बात करने और अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब देने के लिए आज़ाद। सर्वोच्च न्यायालय की अंतिम सुनवाई के दौरान 8 फ़रवरी, 2005 की शाम को गिलानी अपने वकील से मिलने उसके घर जा रहा था। नीम-अंधेरे से एक रहस्यमय बंदूकधारी प्रकट हुआ और उसने गिलानी पर पांच गोलियां दाग़ी।11 चामत्कारिक ढंग से वह बच गया। कहानी में यह नया अविश्वसनीय मोड़ था। साफ़ तौर पर कोई इस बात को लेकर चिंतित था कि गिलानी क्या जानता था और क्या कहने वाला था। कोई भी सोच सकता था कि पुलिस इस उम्मीद में इस मामले की जांच को सर्वोच्च प्राथमिकता देगी कि इससे संसद पर हुए आक्रमण के मामले में नये महत्त्वपूर्ण सुराग़ मिलेंगे। उलटे स्पेशल सेल ने गिलानी से इस तरह व्यवहार किया मानो अपनी हत्या के प्रयत्न का मुख्य संदेहास्पद व्यक्ति वह ख़ुद ही हो। उन्होंने उसका कंप्यूटर ज़ब्त कर लिया और उसकी कार ले गये। सैकड़ों कार्यकर्ता अस्तपाल के बाहर जमा हुए और उन्होंने हत्या के प्रयास की जांच की मांग की, जिसमें कि स्पेशल सेल पर भी जांच की मांग शामिल थी। ( बेशक वह कभी नहीं हुई। साल भर से ज़्यादा गुज़र चुका है, कोई भी इस मामले की जांच में रुचि नहीं ले रहा है। अजीब बात है। )
सो अब यहां था वह, एस.ए.आर. गिलानी। इस भयावह विपदा से उबर आने के बाद, जन्तर-मन्तर में जनता के साथ खड़ा, यह कहता हुआ कि मोहम्मद अफ़ज़ल को फांसी नहीं लगनी चाहिए। उसके लिए कितना आसान रहा होता घर में दुबककर बैठे रहना। साहस के इस शांत प्रदर्शन से मैं बहुत गहराई तक प्रभावित हुई, जीत ली गयी।
एस.ए.आर. गिलानी की दूसरी ओर, पत्रकारों और फ़ोटोग्राफ़रों की भीड़ में, हाथ में छोटा टेप रिकार्डर लिये, नींबू के रंग की टी-शर्ट और गैबर्डीन की पतलून में पूरी तरह सामान्य दिखने की कोशिश करता हुआ एक और गिलानी था। इफ़्तेख़ार गिलानी। वह भी क़ैद भुगत चुका था। उसे 9 जून, 2002 को गिरफ़्तार किया गय़ा था और पुलिस हिरासत में रखा गया था। उस समय वह जम्मू के दैनिक ‘कश्मीर टाइम्स’ का संवाददाता था। उस पर ‘सरकारी गोपनीयता अधिनियम’ ( ऑफ़िशियल सीक्रेट्स ऐक्ट ) के तहत आरोप लगाया गया था।12 उसका ‘अपराध’ यह था कि उसके पास ‘भारत-अधिकृत कश्मीर’ में भारतीय सेना की तैनाती को लेकर कुछ पुरानी सूचनाएं थी। ( ये सूचनाएं, बाद में पता चला, एक पाकिस्तानी शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित आलेख था जो इंटरनेट पर खुल्लमखुल्ला उपलब्ध था। ) इफ़्तेख़ार गिलानी के कंप्यूटर को ज़ब्त कर लिया गया। इंटेलिजेंस ब्यूरों के अधिकारियों ने उसकी हार्ड डिस्क के साथ छेड़-छाड़ की, डाउनलोड फ़ाइलों को उलट-पुलट किया। यह एक भारतीय दस्तावेज़-सा लगे इसके लिए ‘भारत-अधिकृत कश्मीर’ को बदल कर ‘जम्मू और कश्मीर’ किया गया और ‘केवल संदर्भ के लिए। प्रसार के लिए पूरी तरह निषिद्ध।’ – ये शब्द जोड़ दिये गये, जिससे यह ऐसा गुप्त दस्तावेज़ लगे जिसे गृहमंत्रालय से उड़ाया गया हो। सैन्य गुप्तचर विभाग के महानिदेशालय ने – हालांकि उसे इस आलेख की एक प्रति उपलब्ध करवा दी गयी थी – इफ़्तेख़ार गिलानी के वकील द्वारा बार-बार किये गये अनुरोधों की अनदेखी कर पूरे छह महीने तक इस मामले को निपटाने की कोशिश नहीं की।
एक बार फिर स्पेशल सेल के विद्वेषपूर्ण झूठों को अख़वारों ने पूरी फ़र्माबरदारी से छाप दिया। उन्होंने जो लिखा, उसमें से कुछ पंक्तियां यहां दी जा रही हैं -
‘हुर्रियत के कट्टरपंथी नेता सैयद अली शाह गिलानी के 35 वर्षीय दामाद, इफ़्तिख़ार गिलानी ने, ऐसा विश्वास है कि शहर की एक अदालत में यह मान लिया है कि वह पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी का एजेंट था।’
-नीता शर्मा, द हिंदुस्तान टाइम्स, 11 जून, 2002
‘इफ़्तिख़ार गिलानी हिजबुल मुजाहिदीन के सैयद सलाहुद्दीन का ख़ास आदमी था। जांच से पता चला है कि इफ़्तिख़ार भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की गतिविधियों के बारे में सलाहुद्दीन को सूचना देता था। जानकार सूत्रों ने कहा कि उसने अपने असली इरादों को अपने पत्रकार होने की आड़ में इतनी सफ़ाई से छिपा रखा था कि उसका पर्दाफ़ाश करने में कई वर्ष लग गये।’
-प्रमोद कुमार सिंह, द पायनियर, जून 2002
‘गिलानी के दामाद के घर आयकर के छापों में बेहिसाब संपत्ति और संवेदनशील दस्तावेज़ बरामद’
-हिंदुस्तान, 10 जून, 2002
इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि पुलिस की चार्जशीट में उसके घर से मात्र 3450 रुपये बरामद होने की बात दर्ज़ थी। इस बीच दूसरी मीडिया रिपोर्टों में कहा गया कि उसका एक तीन कमरों वाला फ़्लैट है, 22 लाख रुपये की अघोषित आय है, उसने 79 लाख रुपये के आयकर की चोरी की है तथा वह और उसकी पत्नी गिरफ़्तारी से बचने के लिए घर से भागे हुए हैं।
लेकिन वह गिरफ़्तार था। जेल में इफ़्तिख़ार गिलानी को पीटा गया, बुरी तरह ज़लील किया गया। अपनी किताब ‘जेल में कटे दिन’ में उसने लिखा है कि किस तरह अन्य बातों के अलावा उससे अपनी कमीज़ से शौचालय साफ़ करवाया गया और फिर उसी कमीज़ को कई दिन तक पहनने के लिए मजबूर किया गया।13 छह महीने की अदालती जिरह और उसके मित्रों द्वारा दवाब बनाने के बाद जब यह स्पष्ट हो गया कि अगर उसके ख़िलाफ़ मामला चला तो इससे ज़बर्दस्त भद्द पिटने का ख़तरा है, उसे छोड़ दिया गया।14
अब वह वहां था। एक स्वतंत्र व्यक्ति, एक रिपोर्टर जो जन्तर-मन्तर पर एक आयोजन की ख़बरे इकट्ठी करने के लिए आया था। मुझे लगा कि एस.ए.आर. गिलानी, इफ़्तिख़ार गिलानी और मोहम्मद अफ़ज़ल – तीनों ही, एक साथ, एक ही समय पर तिहाड़ जेल में रहे होंगे ( दूसरे कई कम जाने-पहचाने कश्मीरियों के साथ, जिनकी कहानियां हम कभी नहीं जान पाएंगे )।
कहा जा सकता है और कहा भी जायेगा कि एस.ए.आर. गिलानी और इफ़्तिख़ार गिलानी, दोनों के मसले भारतीय न्याय-व्यवस्था की वस्तुपरकता और उसकी आत्म-संशोधन की क्षमता दिखलाते हैं, वे उसकी साख पर बट्टा नहीं लगाते। यह आंशिक रूप से ही सही है। एस.ए.आर. गिलानी और इफ़्तिख़ार गिलानी दोनॊं इस मामले में सौभाग्यशाली हैं कि वे दिल्ली में रहने वाले कश्मीरी हैं और उनके साथ मध्यवर्ग के मुखर संगी-साथी हैं; पत्रकार और विश्वविद्यालय के अध्यापक, जो उन्हें अच्छी तरह जानते थे और संकट की घड़ी में उनके साथ खड़े हो गये थे। एस.ए.आर. गिलानी की वकील नन्दिता हक्सर ने एक ‘अखिल भारतीय एस.ए.आर. गिलानी बचाव समिति’ बनायी  ( जिसकी एक सदस्य मैं भी थी )।15 गिलानी के पक्ष में खड़े होने के लिए कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों ने एकजुट होकर अभियान चलाया। जाने-माने वकील राम जेठमलानी, के.जी. कन्नाबिरन और वृंदा ग्रोवर अदालत में उसकी तरफ़ से पेश हुए। उन्होंने मुक़दमें की असली सूरत उजागर कर दी – गढ़े गये सबूतों से खड़ा किया गया बेहूदा अटकलों, फ़र्ज़ी बातों और कोरे झूठों का पुलिन्दा। सो बेशक, न्यायिक वस्तुनिष्ठता मौजूद है। लेकिन वह एक शर्मीला जन्तु है जो हमारी क़ानूनी व्यवस्था की भूल-भुलैया में कहीं गहरे में रहता है। बिरले ही नज़र आता है। इसे इसकी मांद से बाहर लाने और करतब दिखाने के लिए नामी वकीलों की पूरी टोली की ज़रूरत होती है। अख़बारों की भाषा में कहें तो यह भगीरथ प्रयत्न था। मोहम्मद अफ़ज़ल के साथ कोई भगीरथ नहीं था।
पांच महीने तक, उसकी गिरफ़्तारी से लेकर उस समय तक जब पुलिस ने उसके ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दाख़िल किया, एक उच्च सुरक्षा जेल ( हाई सिक्योरिटी प्रिज़न ) में बंद मोहम्मद अफ़ज़ल को किसी क़िस्म की क़ानूनी सहायता या क़ानूनी सलाह उपलब्ध नहीं थी। कोई नामी वकील नहीं, कोई बचाव समिति नहीं ( न भारत में, न कश्मीर में ) और कोई अभियान नहीं। चारों आरोपियों में उसकी स्थिति सबसे कमज़ोर थी, उसका मामला गिलानी के मामले से कहीं ज़्यादा जटिल था। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस दौरान ज़्यादातर वक़्त अफ़ज़ल के छोटे भाई हिलाल को कश्मीर में स्पेशल ऑपरेशन्स ग्रुप ( एस.ओ.जी.) ने ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से हिरासत में रखा हुआ था। उसे अफ़ज़ल के ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दाख़िल करने के बाद ही छोड़ा गया ( यह इस पहेली का एक सिरा है जो कहानी के आगे बढ़ने के साथ ही पकड़ में आयेगा )।
प्रक्रिया की एक गंभीर अवहेलना करते हुए 20 दिसम्बर, 2001 को जांच अधिकारी, सहायक आयुक्त पुलिस राजबीर सिंह ने ( जिसे इतनी तादाद में ‘आतंकवादियों’ को एनकाउंटरों-मुठभेड़ों-में मारने के कारण प्रेम से ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट’-मुठभेड़ विशेषज्ञ कहा जाता है ) स्पेशल सेल में एक पत्रकार सम्मेलन बुलाया।16 मोहम्मद अफ़ज़ल को मीडिया के सामने अपना ‘अपराध स्वीकार’ करने के लिए मजबूर किया गया। पुलिस आयुक्त अशोक चन्द ने प्रेस से कहा कि अफ़ज़ल ने पुलिस के सामने पहले ही अपना अपराध मान लिया है। यह बात सच्ची साबित नहीं हुई। पुलिस के सामने अफ़ज़ल की औपचारिक स्वीकारोक्ति अगले दिन जाकर ही हुई ( जिसके बाद वह लगातार पुलिस हिरासत में रहा – यंत्रणा के आगे बेबस – जो कि एक और गंभीर प्रक्रियागत चूक थी ) मीडिया के सामने की गयी अपनी ‘स्वीकारोक्ति’ में अफ़ज़ल ने पूरी तरह से अपने को संसद पर आक्रमण में शामिल होने का दोषी मान लिया था।17
मीडिया के सामने की गयी इस स्वीकारोक्ति के दौरान एक अजीब बात हुई। एक सीधे प्रश्न के उत्तर में अफ़ज़ल ने कहा कि गिलानी का आक्रमण से कोई लेना-देना नहीं है, वह पूरी तरह से बेक़सूर है। इस पर एसीपी राजबीर सिंह ने चीख़कर उसे जबरन चुप करवा दिया और मीडिया से गुज़ारिश की कि अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति के इस हिस्से को नज़रअन्दाज़ कर दें। और उन्होंने मान भी लिया। यह कहानी, तीन महीने के बाद उस समय सामने आयी जब टीवी चैनल ‘आज तक’ ने स्वीकारोक्ति को ‘हमले के सौ दिन’ नामक कार्यक्रम में दुबारा प्रसारित किया और जाने कैसे इस हिस्से को भी बना रहने दिया। इस बीच सामान्य जनता की नज़रों में – जो क़ानून और दंड प्रक्रिया के बारे में बहुत कम जानती है – अफ़ज़ल की सार्वजनिक ‘स्वीकारोक्ति’ ने उसके अपराध की ही पुष्टि की। ‘समाज के सामूहिक अंतःकरण के फ़ैसले’ के बारे में कोई दूसरा अनुमान लगाना मुश्किल नहीं रहा होगा।
इस मीडिया स्वीकारोक्ति के अगले दिन, अफ़ज़ल की आधिकारिक स्वीकारोक्ति करवायी गयी। परिनिष्ठित अंग्रेजी में, डीसीपी अशोक चंद को बोलकर लिखवाये गये ( डीसीपी के शब्दों में ‘वह बतलाता गया और मैं लिखता गया’) निर्दोष ढंग से रचे, एकदम प्रवाहमान वक्तव्य को एक सीलबंद लिफ़ाफ़े में न्यायिक मैजिस्ट्रेट को दिया गया। अफ़ज़ल इस स्वीकारोक्ति में, जो अब अभियोजन पक्ष के मुक़दमें की रीढ़ हो गयी है, एक ग़ज़ब का किस्सा बुनता है जो ग़ाज़ी बाबा, मौलाना मसूद, अज़हर, तारिक़ नाम के एक आदमी और पांच मारे गये आतंकवादियों को जोड़ता है; उनका साज़-सामान, हथियार और गोला-बारूद, गृहमंत्रालय के अनुमति-पत्र, एक लैपटॉप और नक़ली पहचान-पत्र, ठीक-ठीक कौन-सा रसायन उसने कहां से ख़रीदा इसकी विस्तॄत सूची, वह ठीक-ठीक अनुपात, जिसमें उन्हें मिलाकर विस्फोटक बनाया गया और ठीक-ठीक समय जब उसने किस मोबाइल नम्बर को फ़ोन किया और किस नम्बर से उसे फ़ोन आया ( किसी कारणवश, तब तक अफ़ज़ल ने गिलानी के बारे में अपना दिमाग़ बदल लिया था और उसे षड्यंत्र में पूरी तरह से शामिल कर लिया था )।
‘स्वीकारोक्ति’ का हर बिंदु पुलिस द्वारा पहले ही से जमा किये गये साक्ष्य से हू-ब-हू मेल खाता था। दूसरे शब्दों में अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति उस प्रारूप में एकदम फ़िट बैठती थी, जो पुलिस ने कुछ दिन पहले प्रेस के सामने पेश किया था, जैसे कांच की जूती में सिंड्रेला का पैर ( अगर कोई फ़िल्म होती तो आप कह सकते थे कि यह ऐसी पटकथा थी जो अपने साज़-सामान का पिटारा ख़ुद अपने साथ लायी थी। दरअसल, जैसा कि अब हम जानते हैं, इस पर एक फ़िल्म बनायी भी गयी। ज़ी टीवी अफ़ज़ल को इसके लिए कुछ रॉयल्टी का देनदार है )।
अन्ततः, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय, दोनों ने अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति को ‘प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा उपायों में चूक और उनकी अवहेलना’ के कारण ख़ारिज कर दिया। लेकिन जाने कैसे, अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति अब तक बची रह गयी है – अभियोजन पक्ष की किसी भुतही आधारशिला की तरह। और इससे पहले कि यह स्वीकारोक्ति तकनीकी और क़ानूनी तौर पर ख़ारिज हो, यह क़ानून से इतर एक बड़ा उद्देश्य हासिल कर चुकी थी। 21दिसम्बर, 2001 को जब भारत सरकार ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध की तैयारी शुरू की, तो उसने कहा कि हमारे पास पाकिस्तान का हाथ होने के ‘स्पष्ट और अकाट्य प्रमाण’ हैं।18 अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति ही भारत सरकार के पास पाकिस्तान के शामिल होने का एकमात्र ‘प्रमाण’ थी। अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति। और स्टिकर घोषणा-पत्र। ज़रा सोचिये। पुलिस यंत्रणा के बल पर ली गयी इस ग़ैर-क़ानूनी स्वीकारोक्ति के आधार पर हज़ारों सैनिक जनता के ख़र्च पर पाकिस्तान की सीमा की ओर रवाना कर दिये गये और उपमहाद्वीप को परमाणु युद्ध के कगार पर पहुंचाने के खेल के सुपुर्द कर दिया गया, जिसमें सारी दुनिया बन्धक बनी हुई थी।
कान में कहा गया बड़ा सवाल : क्या इसका बिल्कुल उलट नहीं हुआ हो सकता था ? क्या स्वीकारोक्ति ने युद्ध को उकसाया या फिर युद्ध की ज़रूरत ने स्वीकारोक्ति की ज़रूरत को उकसाया ?
बाद में, जब ऊंची अदालतों ने अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति को ख़ारिज कर दिया तो जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा की सारी बाते बंद हो गयीं। पाकिस्तान से जुड़ाव का दूसरा तार पांच मारे गये फ़ियादिनों की पहचान का रह गया था। मोहम्मद अफ़ज़ल ने, जो पुलिस हिरासत में ही था, उनकी पहचान मोहम्मद, राना, राजा, हमज़ा और हैदर के रूप में की थी। गृहमंत्री ने कहा कि ‘वे पाकिस्तानियों जैसे लगते थे’, पुलिस ने कहा वे ‘पाकिस्तानी थे’, निचली अदालत के न्यायाधीश ने कहा वे पाकिस्तानी थे19 और यही मामले की स्थिति है ( अगर हमसे कहा जाता कि उनके नाम हैप्पी, बाउन्सी, लक्की, जॉली और किडिंगमनी थे और वे स्कैंडिनेवियाई थे, तो हमें वह भी मानना पड़ता )।
हम अब भी नहीं जानते कि वे सचमुच कौन हैं, या वे कहां के हैं। क्या किसी को कोई उत्सुकता है? लगता तो नहीं। उच्च न्यायालय ने कहा, ‘इस तरह मारे गये पांच आतंकवादियों की पहचान स्थापित मानी जाती है। न भी होने की स्थिति में भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। जो बात प्रासंगिक है, वह मारे गये लोगों के साथ आरोपी का संबंध है, न कि उनके नाम।’
अपने ‘आरोपी के वक्तव्य’ में ( जो कि स्वीकारोक्ति के विपरीत, नयायालय में दिया जाता है, पुलिस हिरासत में नहीं ) अफ़ज़ल का कहना है : ‘मैंने किसी भी आतंकवादी की शिनाख़्त नहीं की थी। पुलिस ने मुझे नाम बतलाये और मजबूर किया कि मैं उनकी शिनाख़्त करूं।20  लेकिन तब तक उसके लिए बहुत देर हो चुकी थी। मुक़दमें के पहले दिन, निचली अदालत द्वारा नियुक्त अफ़ज़ल के वकील ने ‘अफ़ज़ल द्वारा पहचाने शवों की शिनाख़्त और पोस्टमार्टम की रिपोर्टों को बिना किसी औपचारिक प्रमाण के अविवादित साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने’ के लिए सहमति दे दी थी। अफ़ज़ल के लिए इस चकरा देने वाले क़दम के गंभीर परिणाम होने वाले थे। सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को उद्धृत करें तो, ‘आरोपी अफ़ज़ल के ख़िलाफ़ पहली परिस्थिति यह है कि अफ़ज़ल जानता था मारे गये आतंकवादी कौन थे। उसने मारे गये आतंकवादियों के शवों की शिनाख़्त की थी। इस पहलू से जुड़े साक्ष्य अकाट्य हैं।’
निश्चय ही यह संभव है कि मारे गये आतंकवादी विदेशी लड़ाके हों। लेकिन इतनी ही संभावना है कि वे न हों। लोगों को मारकर ‘विदेशी आतंकवादियों’ के रूप में उनकी झूठी शिनाख़्त करना, या झूठे ही मृत लोगों की शिनाख़्त ‘विदेशी आतंकवादियों’ के रूप में करना, या झूठे ही जीवित लोगों की शिनाख़्त आतंकवादियों के रूप में करना, पुलिस या सुरक्षा बलों के लिए आम बात है चाहे कश्मीर में हो या दिल्ली की सड़कों पर।21
भरपूर दस्तावेज़ी सबूतों पर आधारित कश्मीर के अनेक मामलों में सबसे ज़्यादा जाना-माना मामला छत्तीसिंहपुरा हत्याकांड के बाद हुई मार-काट का है, जो आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय प्रवाद बन गया। 20 अप्रेल, 2000 की रात, अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के नयी दिल्ली पहुंचने के ठीक पहले, छत्तीसिंहपुरा गांव में ‘अनजाने बंदूकधारियों’ ने, जो भारतीय सेना की वर्दियां पहने हुए थे, 35 सिखों की हत्या कर दी थी।22 ( कश्मीर में कई लोगों को शंका है कि इस हत्याकांड के पीछे भारतीय सुरक्षा बल थे )। पांच दिब बाद एस.ओ.जी. और सेना की उपद्रव निरोधक इकाई ‘राष्ट्रीय राइफ़ल्स’ ने एक संयुक्त अभियान में पथरीबल नामक गांव के बाहर पांच आदमियों को मार गिराया था।23 अगले दिन उन्होंने घोषणा की वे पाकिस्तान के रहने वाले विदेशी आतंकवादी थे, जिन्होंने छत्तीसिंहपुरा में सिखों की हत्या की थी। शव जले हुए और शक्लें बिगाड़ी हुई थीं। अपनी ( बिना जली ) सैनिक वर्दियों के नीचे वे सामान्य सिविलियन कपड़े पहने हुए थे। बाद में पता चला कि वे स्थानीय लोग थे जिन्हें अनन्तनाग ज़िले में गिरफ़्तार किया गया था और निर्ममतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया था।
किस्से और भी हैं :
20 अक्टूबर, 2003 : श्रीनगर के अख़बार ‘अल-सफ़ा’ ने एक पाकिस्तानी ‘उग्रवादी’ की तस्वीर प्रकाशित की, जिसके बारे में 18वीं राष्ट्रीय राइफ़ल्स ने दावा किया कि उन्होंने उसे तब मारा जब वह एक सैनिक शिविर पर हमले का प्रयास कर रहा था। कुपवाड़ा के एक नानबाई वली ख़ान ने तस्वीर की पहचाण अपने बेटे फारूख़ अहमद के रूप में की, जिसे सैनिक दो महीने पहले जिप्सी में उठाकर ले गये थे। अन्ततः उसका शव एक साल बाद खोदकर निकाला गया।24
20 अप्रेल, 2004 : लोलाब घाटी में तैनात 18वीं राष्ट्रीय राइफ़ल्स ने एक घमासान मुठभेड़ में चार विदेशी उग्रवादियों को मार गिराने का दावा किया। बाद में पता चला कि चारों साधारण मज़दूर थे, जिन्हें सेना जम्मू से कुपवाड़ा लायी थी। एक बेनाम चिट्ठी के ज़रिये मज़दूरों के घरवालों को उनकी जानकारी मिली थी, जो कुपवाड़ा गये और अन्ततः मृतकों को खोदकर निकलवाया।25
9 नवंबर, 2004 : सेना ने नगरोटा, जम्मू में भारतीय सेना की 15वीं कोर के जनरल ऑफ़िसर कमांडिंग और जम्मू कश्मीर पुलिस के महानिदेशक की उपस्थिति में पत्रकारों के सामने आत्मसमर्पण करने वाले 47 ‘उग्रवादियों’ को पेश किया। जम्मू-कश्मीर पुलिस को बाद में पता चला कि उनमें 27 लोग बेरोज़गार आदमी थे, जिन्हें झूठे नाम और उपनाम दिये गये थे और जिन्हें इस बुझौवल में अपनी भूमिका निभाने के बदले सरकारी नौकरी देने का वादा किया गया था।26
ये सिर्फ़ इस तथ्य को उजागर करने के लिए जल्दी में दी गयी थोड़ी-सी मिसालें हैं कि दूसरे किसी भी सबूत की ग़ैर-मौजूदगी में, पुलिस जो कहती है वह किसी भी हालत में पर्याप्त नहीं होता।
त्वरित-सुनवाई अदालत में कार्रवाई मई, 2002 में शुरू हुई। हमें उस माहौल को नहीं भूलना चाहिए जिसमें मुक़दमा शुरू हुआ। 9/11 हमले से उपजा उन्माद अभी बरक़रार था। अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जीत की ख़ुशी मना रहा था। गुजरात साम्प्रदायिक आक्रोश में कांप रहा था। कुछ महीने पहले ही साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे नम्बर एस-6 को आग लगा दी गयी थी और उसके भीतर मौजूद 58 हिंदू तीर्थयात्री ज़िंदा जल गये थे। ‘प्रतिशोध’ में किये गये सुनियोजित जनसंहार में 2000 से ज़्यादा मुसलमानों की सरेआम बर्बर हत्या कर दी गयी थी और डेढ़ लाख से ज़्यादा मुसलमानों को उनके घर से भगा दिया था।
अफ़ज़ल के लिए हर वो चीज़ जो ग़लत हो सकती थी, ग़लत हुई। उसे उच्च सुरक्षा वाली जेल के सुपुर्द कर दिया गया। बाहरी दुनिया तक उसकी कोई पहुंच नहीं थी और न ही उसके पास अपने लिए कोई पेशेवर वकील करने का पैसा था। मुक़दमें के तीन सप्ताह बाद अदालत द्वारा नियुक्त महिला वकील ने इस केस से हटा दिये जाने की इजाज़त मांगी, क्योंकि अब उसे एस.ए.आर. गिलानी के बचाव के लिए गठित वकीलों की टोली में पेशेवराना तौर पर शामिलकर लिया गया था। अदालत ने अफ़ज़ल के लिए उसी के जूनियर, बहुत कम अनुभव वाले एक वकील को नियुक्त कर दिया। अपने मुवक्किल से बात करने के लिए वह एक बार भी जेल में उसने मिलने नहीं गया। उसने अफ़ज़ल के बचाव में एक भी गवाह प्रस्तुत नहीं किया और अभियोजन पक्ष के गवाहों से भी ज़्यादा सवाल-जवाब नहीं किये। उसकी नियुक्ति के पांच दिन बाद 8 जुलाई को अफ़ज़ल ने अदालत से दूसरा वकील दिये जाने की दरख़्वास्त की और अदालत को वकीलों की एक सूची दी – इस उम्मीद के साथ कि अदालत उनमें से किसी को नियुक्त करेगी। उनमें से हर एक ने इन्कार कर दिया। ( मीडिया में आक्रोश-भरे प्रचार को देखते हुए, यह ज़रा भी हैरानी की बात नहीं थी। मुक़दमें के दौरान आगे चलकर जब वरिष्ठ अधिवक्ता राम जेठमलानी ने गिलानी की ओर से मुक़दमें में पेश होना स्वीकार किया, तो शिवसेना की भीड़ ने उनके मुम्बई के दफ़्तर में तोड़-फोड़ की।)27 न्यायाधीश ने इस मामले में कुछ भी कर पाने में असमर्थता जतायी और अफ़ज़ल को गवाहों से सवाल-जवाब करने का अधिकार दे दिया। न्यायाधीश का यह उम्मीद करना भी हैरानी की बात है कि एक आपराधिक मुक़दमें में एक अनाड़ी नाजानकार आदमी गवाहों से सवाल-जवाब कर सकेगा। ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए यह असंभव काम था जो कुछ ही समय पहले बने ‘पोटा’ के साथ-साथ पुराने ‘साक्ष्य अधिनियम’ और ‘टेलिग्राफ़ क़ानून’ में किये गये संशोधनों और फ़ौजदारी क़ानून की गहरी समझ न रखता हो। यहां तक कि अनुभवी वकीलों को भी क़ानूनों के मामले में नवीनतम जानकारियों के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही थी।
अफ़ज़ल के ख़िलाफ़ निचली अदालत में अभियोजन के लगभग 80 गवाहों के बयानों की ताक़त पर मामला बनाया गया : इन गवाहों में मकान मालिक, दुकानदार, सेलफ़ोन कंपनियों के टेक्नीशियन और ख़ुद पुलिस शामिल थी। यह मुक़दमें का नाज़ुक दौर था, जब मामले की क़ानूनी बुनियाद रखी जा रही थी। इसमें सूक्ष्म और सतर्क और कड़ी क़ानूनी मेहनत की ज़रूरत थी, जिसमें ज़रूरी सबूतों को जुटाकर उन्हें दर्ज किया जाना था, बचाव-पक्ष के गवाहों को तलब किया जाना था और अभियोजन पक्ष के गवाहों से उनके बयानों पर जिरह करनी थी। अगर निचली अदालत का फ़ैसला अभियुक्त के ख़िलाफ़ चला ही जाता ( निचली अदालतें अपनी रूढ़िवादिता के लिए कुख्यात हैं ) तो भी वकील ऊपर की अदालतों में साक्ष्य पर काम कर सकते थे। इस बेहद महत्त्वपूर्ण अवधि के दौरान अफ़ज़ल की ओर से किसी ने पैरवी नहीं की। इसी चरण में यह हुआ कि उसके मामले की बुनियाद खिसक गयी और उसके गले में फंदा कस गया।
इसके बावजूद, मुक़दमें के दौरान स्पेशल सेल की पोल बड़े पैमाने पर शर्मनाक ढंग से खुलने लगी। यह साफ़ हो गया कि झूठों, जालसाजियों, जाली काग़ज़ात और प्रक्रिया में गंभीर लापरवाहियों का सिलसिला तफ़्तीश के पहले दिन से ही शुरू हो गया था। जहां उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों ने इन चीज़ों को चिह्नित किया है, वहीं उन्होंने पुलिस को सिर्फ़ डपटने के अंदाज़ में उंगली भर दिखाय़ी है या कभी-कभी इसे ‘बेचैन करने वाला पहलू’ बताया है, जो अपने आप में एक बेचैन कर देने वाला पहलू है। मुक़दमें के दौरान किसी भी दौर में पुलिस को गंभीर फटकार नहीं लगायी गयी, सज़ा देने की तो ख़ैर, बात ही छोड़िये। सच तो यह है कि हर क़दम पर स्पेशल सेल ने प्रक्रिया के नियमों की घनघोर अवहेलना की। जिस निर्लज्ज लापरवाही से तफ़्तीश की गयी उससे उनका यह चिंताजनक विश्वास उजागर होता है कि उन्हें कभी ‘पकड़ा’ नहीं जा सकेगा और अगर वे पकड़ में आ भी गये तो इससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लगता है उनका विश्वास ग़लत भी नहीं था।
तफ़्तीश के लगभग हर हिस्से में घालमेल किया गया है।28
गिरफ़्तारियों और बरामदगियों के समय और स्थान पर ग़ौर करें : दिल्ली पुलिस ने कहा कि गिरफ़्तारी के बाद गिलानी द्वारा दी गयी सूचनाओं के आधार पर अफ़ज़ल और शौकत को श्रीनगर में पकड़ा गया। अदालत का रिकार्ड बताता है कि अफ़ज़ल और शौकत को तलाश करने का संदेश श्रीनगर पुलिस को 15 दिसम्बर की सुबह 5.45 पर भेजा गया। लेकिन दिल्ली पुलिस के रिकार्ड के मुताबिक़ गिलानी को दिल्ली में 15 दिसम्बर की सुबह 10 बजे गिरफ़्तार किया गया था – श्रीनगर में अफ़ज़ल और शौकत की तलाश शुरू करने के चार घंटे के बाद। वे इस घपले के बारे में कुछ नहीं बता पाये हैं। उच्च न्यायालय का फ़ैसला यह बात दर्ज करता है कि पुलिस के विवरण में ‘महत्त्वपूर्ण अन्तर्विरोध’ हैं और उसे सही नहीं माना जा सकता। इसे बतौर एक ‘बेचैन करने वाला पहलू’ ( डिस्टर्बिंग फ़ीचर ) दर्ज किया गया है। दिल्ली पुलिस को झूठ बोलने की ज़रूरत क्यों पड़ी? यह सवाल न पूछा गया और न इसका जवाब दिया गया।
पुलिस जब किसी को गिरफ़्तार करती है, तो प्रक्रिया के तहत उसे गिरफ़्तारी के लिए सार्वजनिक गवाह रखने होते हैं जो पुलिस द्वारा बरामद किये गये सामान, नक़दी, कागज़ात या और किसी चीज़ के लिए ‘गिरफ़्तारी मेमो’ और ‘ज़ब्ती मेमो’ पर दस्तख़त करते हैं। पुलिस यह दावा करती है कि उसने अफ़ज़ल और शौकत को श्रीनगर में एक साथ 15 दिसम्बर को सुबह 11 बजे पकड़ा था। उसका कहना है कि दोनों जिस ट्रक में भाग रहे थे ( वह शौकत की बीवी के नाम पर रजिस्टर्ड था ) उसे पुलिस ने ‘कब्ज़े’ में ले लिया था। वह यह भी कहती है कि उसने अफ़ज़ल से एक नोकिया मोबाइल फ़ोन, एक लैपटॉप और 10 लाख रुपये बरामद किये। बतौर अभियुक्त अपने बयान में अफ़ज़ल का कहना है कि उसे श्रीनगर में एक बस स्टॉप से पकड़ा गया और उससे कोई मोबाइल फ़ोन या पैसा बरामद नहीं किया गया।
हद तो यह है कि अफ़ज़ल और शौकत दोनों की गिरफ़्तारी से संबंधित मेमो पर गिलानी के छोटे भाई बिस्मिल्लाह के दस्तख़त हैं, जो उस वक़्त लोधी रोड़ पुलिस स्टेशन में ग़ैरक़ानूनी हिरासत में था। इसके अलावा जिन दो गवाहों ने फ़ोन, लैपटॉप और 10 लाख रुपये के ज़ब्ती मेमो पर दस्तख़त किये थे, वे दोनों ही जम्मू-कश्मीर पुलिस के थे। उनमें से एक हैड कॉन्स्टेबल मोहम्मद अकबर ( अभियोजन का गवाह संख्या 62 ) है जो – जैसा कि हम बाद में देखेंगे – मोहम्मद अफ़ज़ल के लिए कोई अजनबी नहीं है, और न ही वह कोई आम पुलिसवाला है जो संयोगवश उधर से गुज़र रहा था। जम्मू-कश्मीर पुलिस की अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार भी उन्होंने अफ़ज़ल और शौकत को पहली बार परिमपुरा फल मंड़ी में देखा था। पुलिस इस बात का कोई कारण नहीं बताती है कि उसने उन्हें वहीं क्यों नहीं गिरफ़्तार किया। पुलिस का कहना है कि उसने अपेक्षाकृत कम सार्वजनिक जगह तक उनका पीछा किया – जहां कोई सार्वजनिक गवाह नहीं थे।
लिहाज़ा, यह अभियोजन के मामले में एक और गम्भीर अन्तर्विरोध है। इसके बारे में उच्च न्यायालय का फ़ैसला कहता है, ‘अभियुक्तों की गिरफ़्तारी के समय में गहरी शिकनें पड़ी हुई हैं।’ हैरान करने वाली बात यह है कि गिरफ़्तारी के इसी विवादित समय और जगह पर ही पुलिस षड्यंत्र में अफ़ज़ल को फंसाने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण सबूत बरामद करने का दावा करती है : यानि मोबाइल और लैपटॉप। एक बार फिर, गिरफ़्तारी के दिन और समय के मामले में और अपराधी ठहराने वाले लैपटॉप और 10 लाख रुपये की कथित बरामदगी के मामले में हमारे पास एक ‘आतंकवादी’ के बयान के बरअक्स सिर्फ़ पुलिस का ही बयान है।
बरामदगियां जारी रहीं : पुलिस का कहना है कि बरामद लैपटॉप में वे फ़ाइलें थी जिनसे गृह मंत्रालय के प्रवेश-पत्र और नक़ली पहचान-पत्र बनाये गये। उसमें कोई और उपयोगी जानकारी नहीं थी। उन्होंने दावा किया कि अफ़ज़ल उसे ग़ाज़ी बाबा को लौटाने श्रीनगर ले जा रहा था। जांच कर रहे अफ़सर एसीपी राजवीर सिंह ने कहा कि कम्प्यूटर की हार्डडिस्क को 16 जनवरी, 2002 को सील कर दिया गया था ( क़ब्ज़े में लेने के पूरे एक महीने बाद )। लेकिन कंप्यूटर दिखाता है कि उसके बाद भी उसे खोला गया। अदालतों ने इस पर विचार तो किया है, लेकिन इसका कोई संज्ञान नहीं लिया।
(अगर थोड़ी अटकल का सहारा लें तो क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं है कि कम्प्यूटर में अपराध साबित करने वाली एकमात्र सूचना नक़ली प्रवेश-पत्र और पहचान-पत्र बनाने के लिए इस्तेमाल की गयी फ़ाइलें थी? और संसद की इमारत दिखाने वाली ज़ी टीवी की एक फ़िल्म का टुकड़ा। अगर अपराध साबित करने वाली दूसरी सूचनाओं को मिटा दिया गया था, तो फिर इसे क्यों छोड़ा गया? और एक अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन के मुखिया ग़ाज़ी बाबा को ऐसे लैपटॉप की इतनी क्या ज़रूरत थी जिसमें सिर्फ़ एक घटिया सचित्र सामग्री थी?)
मोबाइल फ़ोन कॉलों के रिकॉर्ड को देखिये : लम्बे समय तक ग़ौर से देखने पर, स्पेशल सेल द्वारा पेश किये गये कई ‘पक्के सबूत’ संदिग्ध दिखने लगते हैं। अभियोजन की ओर से मामले की रीढ़ का संबंध मोबाइल फ़ोन, सिमकार्ड, कम्प्यूटरीकृत कॉल रिकॉर्ड और सेलफ़ोन कम्पनियों के अधिकारियों और उन दुकानदारों के बयानों से है जिन्होंने अफ़ज़ल और उसके साथियों को फ़ोन और सिमकार्ड बेचे थे। यह दिखाने के लिये कि शौकत, अफ़ज़ल, गिलानी और मोहम्मद ( मारे गये आतंकवादियों में से एक ) हमले के समय के बहुत पास एक-दूसरे के सम्पर्क में थे, जिन कॉल रिकॉर्डों को पेश किया गया, वे ग़ैर-सत्यापित कम्प्यूटर प्रिंट आउट थे, मूल काग़ज़ात की प्रतिलिपी नहीं थे। वे टेक्स्ट फ़ाइल के रूप में स्टोर किये गये बिलिंग सिस्टम के आउटपुट थे जिनसे किसी भी समय आसानी से छेड़छाड़ की जा सकती थी। उदाहरण के लिए, पेश किये गये कॉल रिकॉर्ड दिखाते हैं कि एक ही सिमकार्ड से एक ही समय में दो कॉल किये गये, लेकिन ये अलग-अलग हैंडसेट और आई.एम.ई.आई. नम्बर से किये गये थे। इसका अर्थ यह है कि या तो सिमकार्डों का क्लोन ( जुड़वां ) बना लिया गया था या कॉल रिकार्ड से छेड़छाड़ की गयी थी।
सिमकार्ड का मामला लें: अपनी कहानी को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने के लिए अभियोजन एक ख़ास नम्बर 9811489429 पर अत्यधिक निर्भर है। पुलिस का कहना है कि यह अफ़ज़ल का नम्बर है – वह नम्बर जो अफ़ज़ल को ( मारे गये आतंकवादी ) मोहम्मद से, अफ़ज़ल को शौकत से और शौकत को गिलानी से जोड़ता है। पुलिस का यह भी कहना है कि यह नम्बर मारे गये आतंकवादियों से मिले पहचान-पत्रों के पीछे लिखा हुआ था। कितना सुविधाजनक है ! बिल्ली का बच्चा खो गया है ! मम्मी को 9811489429 पर कॉल करो।
यहां यह बात बताने लायक़ है कि सामान्य प्रक्रिया के तहत अपराध की जगह से लिये गये सबूतों को सील करने की ज़रूरत होती है। पहचान-पत्रों को कभी सील नहीं किया गया और वे पुलिस के क़ब्ज़े में रहे और उनसे किसी भी समय छेड़छाड़ की गयी हो सकती थी।
पुलिस के पास एकमात्र सबूत कि 9811489429 नम्बर सचमुच अफ़ज़ल ही का नम्बर है, सिर्फ़ अफ़ज़ल की स्वीकारोक्ति है, जो, जैसा कि हम देख चुके हैं, कोई सबूत ही नहीं है। सिमकार्ड कभी नहीं मिला। पुलिस ने अभियोजन पक्ष की ओर से गवाह के रूप में कमल किशोर को ज़रूर पेश किया, जिसने अफ़ज़ल की पहचान की और बताया कि उसने 4 दिसम्बर, 2001 को एक मोटरोला फ़ोन और एक सिमकार्ड बेचा था। लेकिन अभियोजन पक्ष जिस कॉल रिकॉर्ड पर निर्भर था, वह दिखाता है है कि वह ख़ास सिमकार्ड 6 नवम्बर से काम में लाया जा रहा था, अफ़ज़ल द्वारा उसकी फ़र्ज़िया ख़रीद से पूरे एक महीने पहले से। यानी या तो गवाह झूठ बोल रहा है या फिर कॉल रिकॉर्ड ही ग़लत हैं। उच्च न्यायालय ने इस गड़बड़ की लीपा-पोती यह कहते हुए करता है कि कमल किशोर ने सिर्फ़ यह कहा था कि उसने अफ़ज़ल को एक सिमकार्ड बेचा था, न कि यही वाला सिमकार्ड। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला बड़ी ऊंचाई से कहता है, ‘अफ़ज़ल को सिमकार्ड अनिवार्य रूप से 4 दिसम्बर, 2001 से पहले बेचा गया होना चाहिए।’
अभियुक्तों की पहचान को लें : अभियोजन पक्ष की ओर से कई गवाहों ने, जिनमें से ज़्यादातर दुकानदार हैं, अफ़ज़ल की शिनाख़्त ऐसे व्यक्ति के रूप में की है, जिसे उन्होंने कई चीज़ें बेची थीं : अमोनियम नाइट्रेट, अल्यूमीनियम पाउडर, गंधक, सुजाता मिक्सी-ग्राइंडर, मेवों का पैकेट इत्यादि। सामान्य प्रक्रिया के तहत ज़रूरी है कि पहचान परेड हो जिसमें शामिल कई लोगों में से दुकानदार अफ़ज़ल को चुनें। ऐसा नहीं हुआ। बल्कि उनके द्वारा अफ़ज़ल की पहचान तब की गयी जब पुलिस की हिरासत में रहते हुए वह पुलिस को इन दुकानों में ‘ले’ गया और जब उसका संसद पर हमले के अभियुक्त के रूप में परिचय करवाया गया ( क्या हमें यह अंदाज़ा लगाने की छूट है कि दुकानों में पुलिस को वह ले गया या पुलिस उसे ले गयी? आख़िरकार, वह अब भी पुलिस की हिरासत में था, अब भी यातना के आगे बेबस था। अगर इन परिस्थितियों में उसका इक़बालियां बयान क़ानूनी तौर पर शंकास्पद हो जाता है, तो बाकी सब क्यों नहीं हो सकता? )।
जजों ने प्रक्रिया से संबंधित नियमों की इन अवहेलना पर विचार तो किया, लेकिन इसे उन्होंने पूरी गम्भीरता से नहीं लिया। उनका कहना था कि उन्हें यह नहीं समझ आता कि समाज के आम लोग एक निरपराध व्यक्ति को व्यर्थ ही क्यों दोषी ठहराएंगे। लेकिन क्या यह बात लागू हो सकती है, इस मामले में ख़ासतौर पर, जिसमें आम नागरिकों को भीषण मीडिया प्रचार का शिकार बनाया गया था? क्या यह बात इस बात को ध्यान में रखते हुए भी लागू हो सकती है कि सामान्त दुकानदार, ख़ासकर वे जो ‘ग्रे मार्केट’ में बिना रसीदों के सामान बेचते हैं, पूरी दिल्ली पुलिस के शिकंजे में होते हैं?
मैंने अब तक जिन अनियमितताओं की बात की है उनमें से कोई भी मेरी ओर से किसी बेमिसाल जासूसी का परिणाम नहीं है। इनमें से बहुत कुछ निर्मलांशु मुखर्जी द्वारा लिखी गयी एक शानदार किताब ‘दिसम्बर 13 : टेरर ओवर डेमोक्रेसी’ और पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, दिल्ली द्वारा प्रकाशित दो रिपोर्टों ( ट्रायल ऑफ़ एरर्स और बेलेंसिंग एक्ट ) और इन सबमें सबसे महत्त्वपूर्ण – निचली अदालत, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसलों के – तीन मोटे ग्रन्थों में दर्ज हैं।29 ये सभी सार्वजनिक दस्तावेज़ हैं, जो मेरी मेज़ पर रखे हुए हैं। ऐसा क्यों है कि जब यह पूरा-का-पूरा धुंधला ब्रह्मांड उजागर किये जाने को बेताब है, हमारे टीवी चैनल नाजानकार लोगों और लालची नेताओं के बीच खोखली बहसें आयोजित करवा रहे हैं? ऐसा क्यों है कि कुछ स्वतंत्र टिप्पणीकारों के अलावा हमारे अख़वार अपने मुखपृष्ठों पर ऐसी फ़ालतू ख़बरें छाप रहे हैं कि जल्लाद कौन होगा और मोहम्मद अफ़ज़ल को फांसी देने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली रस्सी की लंबाई ( 60 मीटर ) और उसके वज़न ( 3.75 किलो ) के बारे में बीभत्स ब्योरे परोस रहे हैं? ( इंडियन एक्सप्रेस, 16 अक्टूबर, 2006 )30
क्या हम अपने आज़ाद प्रेस की स्तुति करने के लिए क्षण भर रुकें?
ज़्यादातर लोगों के लिए ऐसा करना आसान नहीं है, लेकिन अगर आप कर सकते हैं तो पल भर के लिए ख़ुद को इस अवधारणा से अलग कर लें कि सिद्धांततः ‘पुलिस अच्छी है/आतंकवादी शैतान हैं।’ पेश किये गये सबूतों से अगर वैचारिक साज-सज्जा हटा दी जाये तो उनसे भयावह संभावनाओं के गर्त खुल जाते हैं। सबूत ऐसी दिशा की ओर संकेत करते हैं, जिधर हममे से अधिकतर लोग नहीं देखना चाहेंगे।
पूरे मामले में ‘सर्वाधिक उपेक्षित क़ानूनी दस्तावेज़’ का इनाम क्रिमिनल प्रोसीजर कोड ( दंड प्रक्रिया संहिता ) की धारा 313 के तहत लिये गये अभियुक्त मोहम्मद अफ़ज़ल के बयान को जाता है। इस दस्तावेज़ में अदालत ने सबूतों को उसके सम्मुख सवालों के रूप में रखा है। वह या तो सबूत को स्वीकार कर सकता है या उन पर आपत्ति कर सकता है और उसे अपने ही शब्दों में अपनी कहानी का पक्ष रखने की छूट भी है। अफ़ज़ल के मामले में यह देखते हुए कि उसे अपनी सुनवाई का कोई मौक़ा नहीं मिला, यह दस्तावेज़ उसकी आवाज़ में उसकी कहानी बयान करता है।
इस दस्तावेज़ में अफ़ज़ल अपने ख़िलाफ़ अभियोगी पक्ष द्वारा कगाये गये कुछ आरोप स्वीकार करता है। वह स्वीकार करता है कि वह तारिक़ नाम के एक आदमी से मिला था। वह स्वीकार करता है कि तारिक़ ने उसका परिचय मोहम्मद नाम के एक आदमी से करवाया। वह स्वीकार करता है कि उसने दिल्ली आने और एक पुरानी सफ़ेद अम्बैसेडर कार ख़रीदने में मोहम्मद की मदद की। वह स्वीकार करता है कि मोहम्मद संसद पर हमले में मारे गये पांच फ़िदायीनों में से एक था। ‘आरोपी के रूप में अफ़ज़ल के बयान’ में सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ यह है कि वह कहीं भी ख़ुद को पूरी तरह निर्दोष साबित करने की कोशिश नहीं करता। लेकिन वह अपने कार्यों को जिस संदर्भ में रखता है, वह ध्वस्त कर देने वाला है। अफ़ज़ल का वक्तव्य संसद पर हमले में उसके द्वारा निभायी गयी हाशिये की भूमिका का ब्योरा देता है। लेकिन वह हमें उन संभावित कारणों की एक समझ की ओर भी ले जाता है कि जांच इतने ढुलमुल ढंग से क्यों करायी गयी, वह सबसे महत्त्वपूर्ण स्थानों पर ठिठककर खड़ी क्यों हो जाती है और यह क्यों ज़रूरी है कि इसे महज़ अक्षमता और घटिया कहकर नज़रअन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिए। अगर हम अफ़ज़ल पर भरोसा न भी करें, तो भी मुक़दमें और स्पेशल सेल की भूमिका के बारे में हम जो जानते हैं उसे देखते हुए, अफ़ज़ल जिस दिशा की ओर संकेत कर रहा है, उस ओर न देखना अक्षम्य है। वह स्पष्ट सूचनाएं देता है : नाम, जगहें और तारीख़ें ( यह आसान नहीं रहा होगा, इस बात के मद्दे-नज़र कि उसका परिवार, उसका भाई, उसकी पत्नी और अबोध बेटा कश्मीर में रहते हैं और अफ़ज़ल ने जिनका नाम लिया है, उनका आसान शिकार बन सकते हैं )।
अफ़ज़ल के शब्दों में :
‘मैं जम्मू-कश्मीर में सोपोर में रहता हूं और सन् 2000 में जब मैं वहां था, फ़ौज मुझे लगभग रोज़ाना परेशान करती थी…राजा मोहन राय नाम का एक आदमी मुझे उग्रवादियों के बारे में उसे सूचनाएं देने के लिए कहता था। मैं समर्पण कर चुका उग्रवादी था और ऐसे सभी उग्रवादियों को हर इतवार आर्मी कैम्प में हाज़िरी लगाने जाना पड़ता है। मझे शारीरिक रूप से प्रताड़ित नहीं किया जाता था। वह मुझे बस धमकाता ही था। ख़ुद को बचाने के वास्ते मैं उसे छोटी-छोटी जानकारियां देता था, जिन्हें मैं अख़वारों से इकट्ठा करता था। जून/जुलाई 2000 में मैं अपना गांव छोड़कर बारामूला चला गया। मेरी सर्जिकल औज़ारों की एक दुकान थी, जिसे मैं कमीशन के आधार पर चला रहा था। एक दिन जब मैं अपने स्कूटर पर जा रहा था, एसटीएफ ( स्पेशल टास्क फ़ोर्स ) के लोग आये और मुझे उठा ले गये और उन्होंने पांच दिनों तक मुझे लगातार प्रताडि़त किया। किसी ने एसटीएफ को सूचना दी थी कि मैं फिर से उग्रवादी कामों में लग गया हूं। उस आदमी का मुझसे सामना हुआ और उसे मेरी मौजूदगी में छोड़ दिया गया। फिर मुझे उन लोगों ने क़रीब 25 दिन तक अपनी हिरासत में रखा और मैंने एक लाख रुपये देकर ख़ुद को छुड़ाया। स्पेशल सेल वालों ने इस घटना की पुष्टि की थी। उसके बाद मुझे एसटीएफ वालों ने सर्टिफ़िकेट दिया था और उन्होंने मुझे छह महीनों के लिए स्पेशल पुलिस अफ़सर बनाया। वे जानते थे कि मैं उनके लिए काम नहीं करूंगा। तारिक़ मुझसे पालहलन एसटीएफ कैम्प में मिला था जहां मैं एसटीएफ की हिरासत में था। तारिक़ मुझे बाद में श्रीनगर में मिला और उसने बताया कि बुनियादी रूप से वह एसटीएफ के लिए काम कर रहा था। मैंने उसे बताया कि मैं भी एसटीएफ के लिए काम कर रहा हूं। संसद के हमले में मारा गया मोहम्मद भी तारिक़ के साथ था। तारिक़ ने मुझे बताया कि वह कश्मीर के केरान इलाक़े का रहनेवाला था और उसने मुझे कहा कि मैं मोहम्मद को दिल्ली ले जाऊं, क्योंकि मोहम्मद को कुछ समय बाद दिल्ली से देश के बाहर जाना है। मैं नहीं जानता कि 15 दिसम्बर, 2001 को श्रीनगर पुलिस ने मुझे क्यों पकड़ा? मैं तब श्रीनगर बस स्टॉप से घर जाने के लिए बस में चढ़ रहा था जब पुलिस ने मुझे पकड़ लिया। उस गवाह अकबर ने, जिसने कोर्ट में कहा था कि उसने शौकत और मुझे श्रीनगर में पकड़ा था, दिसम्बर 2001 से क़रीब एक साल पहले मेरी दुकान पर छापा मारा था और मुझसे कहा था कि मैं सर्जरी के नक़ली औज़ार बेच रहा था और उसने मुझसे 5000 रुपये लिये थे। मुझे स्पेशल सेल में प्रताड़ित किया गया और एक भूपसिंह ने मुझे पेशाब पीने को भी मजबूर किया और मैंने एस.ए.आर. गिलानी के परिवार को भी वहां देखा, गिलानी की हालत बहुत ख़राब थी। वह खड़े होने की स्थिति में नहीं था। हम जांच के लिए डॉक्टर के पास ले जाये जाते, लेकिन हमें निर्देश था कि हमें डॉक्टर को बताना था कि सब ठीक-ठाक था। हमें धमकी दी जाती कि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमें फिर से सताया जायेगा।’
यहां उसने अदालत से कुछ और जानकारी जोड़ने की इजाज़त मांगी :
‘संसद पर हमले में मारा गया आतंकवादी मोहम्मद मेरे साथ कश्मीर से आया था। जिस आदमी ने उसे मुझे सौंपा, वह तारिक़ था। तारिक़ सुरक्षा बल और जम्मू-कश्मीर पुलिस की एसटीएफ के साथ काम कर रहा है। तारिक़ ने मुझे कहा था कि अगर मोहम्मद की वजह से मैं किसी परेशानी में पड़ा तो वह मेरी मदद करेगा, क्योंकि वह सुरक्षा बलों और एसटीएफ को अच्छी तरह जानता है…तारिक़ ने कहा था कि मुझे सिर्फ़ मोहम्मद को दिल्ली छोड़ना है और कुछ नहीं करना है और अगर मैं मोहम्मद को अपने साथ दिल्ली नहीं ले गया तो मुझे किसी दूसरे मामले में फंसा दिया जायेगा। मैं इन हालात में मजबूरन मोहम्मद को दिल्ली लाया, यह जाने बग़ैर कि वह आतंकवादी है।’
तो अब हमारे सामने ऐसे आदमी की तस्वीर उभर रही है जो इस प्रकरण में मुख्य खिलाड़ी हो सकता है। ‘गवाह अकबर’ ( अभियोजन पक्ष का गवाह 62 ), मोहम्मद अकबर, हेड कॉन्स्टेबल, परिमपोरा पुलिस स्टेशन, जम्मू-कश्मीर का वह पुलिसवाला जिसने अफ़ज़ल की गिरफ़्तारी के समय ‘बरामदगी मेमो’ पर दस्तख़त किये। सर्वोच्च न्यायालय के अपने वकील सुशील कुमार को लिखे गये एक पत्र में अफ़ज़ल मुक़दमें के दौरान एक दहलाने वाले लम्हे का ब्योरा देता है। अदालत में गवाह अकबर, जो कश्मीर से ‘बरामदगी मेमो’ के बारे में बयान देने आया था, अफ़ज़ल को कश्मीरी में आश्वस्त करता है कि ‘उसका परिवार ख़ैरियत से है।’ अफ़ज़ल फ़ौरन समझ जाता है कि यह एक छिपी हुई धमकी है। अफ़ज़ल यह भी कहता है कि श्रीनगर में पकड़े जाने के बाद उसे परिमपोरा पुलिस स्टेशन ले जाकर पीटा गया और उससे साफ़ कहा गया कि अगर वह सहयोग नहीं देगा तो उसकी पत्नी और परिवार को गंभीर नतीजे भुगतने होंगे ( हम पहले ही जानते हैं कि अफ़ज़ल के भाई हिलाल को कुछ महत्त्वपूर्ण महीनों के दौरान एस.ओ.जी. द्वारा ग़ैरक़ानूनी हिरासत में रखा गया था )।
इस पत्र में अफ़ज़ल बताता है कि उसे एसटीएफ कैम्प में किस तरह प्रताड़ित किया गया था – उसके गुप्तांगों पर बिजली की छड़े लगाकर और गुदा में मिर्च और पेट्रोल डालकर। वह पुलिस के डिप्टी सुपरिटेंडेंट द्रविन्दर सिंह का नाम लेता है जिसने उससे कहा था कि दिल्ली में ‘एक छोटे-से काम’ के लिए मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। वह यह भी कहता है कि चार्जशीट में दिये गये कुछ नंबर खोजे जाने पर कश्मीर में एक एसटीएफ कैम्प के साबित होंगे।
यह अफ़ज़ल की दास्तान है जो हमें कश्मीर घाटी में जीवन के असली रूप की झलक दिखाती है। यह तो उन बचकानी कथाओं में ही होता है – जो हम अपने अख़बारों में पढ़ते हैं – कि सुरक्षा बल उग्रवादियों से लड़ते हैं और निरपराध लोग दोनों तरफ़ की गोलीबारी की ज़द में फंस जाते हैं। वयस्कों के क़िस्सों में कश्मीर घाटी उग्रवादियों, भगोड़ों, गद्दारों, सुरक्षा बलों, दोहरे एजेंटों, मुख़बिरों, पिशाचों, ब्लैकमेल करने वालों, ब्लैकमेल होने वालों, जबरन वसूली करने वालों, जासूसों, भारत और पाकिस्तान दोनों की गुप्तचर एजेंसियों के लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, ग़ैर-सरकारी संगठनों और अकल्पनीय मात्रा में बिना हिसाब-किताब वाले पैसों और हथियारों से भरी हुई है। ऐसी साफ़ लकीरें हमेशा मौजूद नहीं होतीं, जो इन सारी चीज़ों और लोगों को अलग-अलग करने वाली चारदीवारियों को चिह्नित करें। यह बताना आसान नहीं है कि कौन किसके लिए काम कर रहा है।
कश्मीर में सच्चाई संभवतः किसी भी दूसरी चीज़ से ज़्यादा ख़तरनाक है। जितना गहरे आप खोदेंगे, उतना बुरा हाल मिलेगा। गड्ढे में सबसे नीचे, एस.ओ.जी. और एस.टी.एफ. हैं, जिनकी अफ़ज़ल बात करता है। ये कश्मीर में भारतीय सुरक्षा तंत्र के सबसे निर्मम, अनुशासनहीन और डरावने तत्व हैं। नियमित बलों के विपरीत ये लोग उस धुंधले इलाके में काम करते हैं जहां पुलिसवालों, आत्मसमर्पण कर चुके उग्रवादियों, भगोड़ों और आम अपराधियों का राज है। वे स्थानीय लोगों को शिकार बनाते हैं जो 1990 के दशक की शुरूआत में हुए अराजक विद्रोह में शामिल हुए थे और अब आत्मसमर्पण करके सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं।
1989 में जब अफ़ज़ल ने उग्रवादी के रूप में प्रशिक्षण लेने के लिए सीमा पार की थी, तब वह सिर्फ़ 20 साल का था। वह बिना किसी प्रशिक्षण के, अपने अनुभवों से निराश होकर वापस आ गया। उसने अपनी बंदूक छोड़ दी और दिल्ली विश्वविद्यालय में भर्ती हो गया। 1993 में नियमित उग्रवादी न होते हुए भी उसने स्वेच्छा से बी.एस.एफ़. के सम्मुख आत्मसमर्पण किया। अतार्किक ढंग से उसके दुःस्वप्नों की शुरूआत इसी बिन्दु से हुई। उसके आत्मसमर्पण को अपराध माना गया और उसका जीवन नरक बन गया। अगर कश्मीरी नौजवान अफ़ज़ल की कहानी से यह सबक लें कि हथियार डालना और ख़ुद को भारतीय राज्य की उन अनगिनत क्रूरताओं के हवाले कर देना न सिर्फ़ मूर्खता होगी, बल्कि पागलपन ही कहा जायेगा, जो भारतीय राज्य के पास उन्हें देने के लिए है, तो क्या उन्हें दोष दिया जा सकता है?
मोहम्मद अफ़ज़ल की कहानी ने कश्मीरियों में आक्रोश पैदा कर दिया है, क्योंकि उसकी कहानी उनकी भी कहानी है। उसके साथ जो हुआ है, हज़ारों युवा कश्मीरियों और उनके परिवारों के साथ हो सकता है, हो रहा है या हो चुका है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि उनकी कहानियां संयुक्त पूछताछ केन्द्र की अंधेरी कोठरियों, फ़ौजी कैम्पों और पुलिस थानों में घट रही हैं जहां उन्हें दाग़ा जाता है, पीटा जाता है, बिजली के झटके दिये जाते हैं, उन्हें ब्लैकमेल किया जाता है और मार दिया जाता है। उनके शवों को ट्रकों के पीछे से फैंक दिया जाता है जहां वे राहगीरों को मिलते हैं। जबकि अफ़ज़ल की कहानी को किसी मध्यकालीन नाटक की तरह राष्ट्रीय मंच पर दिन-दहाड़े, एक ‘न्यायपूर्ण मुक़दमें’ की क़ानूनी मंज़ूरी, ‘स्वतंत्र प्रेस’ के खोखले फ़ायदों और तथाकथित लोकतंत्र के सारे आडम्बर और अनुष्ठानों के साथ, खेला जा रहा है।
अगर अफ़ज़ल को फांसी दे दी जाती है तो हमें इस असली सवाल का जवाब कभी नहीं मिलेगा कि भारतीय संसद पर आख़िर किसने आक्रमण किया? क्या वह लश्कर-ए-तैयबा था? जैश-ए-मोहम्मद था? या फिर इसका उत्तर इस देश के गुप्त ह्रदय में गहरे कहीं छिपा है, जिसमें हम सब रहते हैं और जिसे हम अपने ही सुंदर, जटिल, विविध और कंटीले ढंग से प्रेम और घृणा करते हैं।
13 दिसम्बर को संसद पर हुए आक्रमण की संसदीय जांच होनी ही चाहिए। जब तक जांच हो, सोपोर में अफ़ज़ल के परिवार की रक्षा की जाये, क्योंकि इस अजीबो-ग़रीब कहानी में वे असुरक्षित बंधक हैं।
यह जाने बग़ैर कि दरअसल क्या हुआ था, अफ़ज़ल को फांसी पर चढ़ाना ऐसा दुष्कर्म होगा जो आसानी से भुलाया नहीं जा पायेगा। न माफ़ किया जा सकेगा। किया भी नहीं जाना चाहिए।
दस फ़ीसदी वृद्धि-दर के बावजूद।

संदर्भ :
1. संसद के हमले और उसके बाद की अदालती कार्रवाई के लिए देखें, नन्दिता हक्सर, फ्रेमिंग गिलानी, हैंगिंग अफ़ज़ल : पेट्रिऑटिज़म इन द नेम ऑफ़ टेरर ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2007 ); प्रफ़ुल्ल बिदवई, 13 डिसेम्बर-ए रीडर : द स्ट्रेंज केस ऑफ़ दी अटैक ऑन दी इंडियन पार्लियामेंट ( नयी दिल्ली : पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2006 ); सैयद बिस्मिल्लाह गिलानी, मैन्युफ़ैक्चरिंग टेरिज़्म : कश्मीरी एनकाउंटर्स विद मीडिया एंड द लॉ ( नई दिल्ली, प्रॉमिला, 2006 ); निर्मलांशु मुखर्जी, डिसेम्बर 13 : टेरर ओवर डेमोक्रेसी ( नयी दिल्ली, प्रॉमिला, 2005 ); पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, बैलेंसिंग एक्ट : हाई कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 डिसेम्बर, 2001 केस ( नयी दिल्ली : 19 दिसम्बर, 2003 ); पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल ऑफ़ एरर्स : ए क्रिटिक ऑफ़ द पोटा कोर्ट जजमेंट ऑन द 13 दिसम्बर केस ( नई दिल्ली, 15 फ़रवरी, 2003 )।
2. न्यायाधीश एस.एन. ढींगरा, विशेष पोटा अदालत का फ़ैसला, मोहम्मद अफ़ज़ल बनाम राज्य ( दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ), 16 दिसम्बर, 2002।
3. गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का बयान, 18 दिसम्बर, 2001 । पाठ भारतीय दूतावास (वाशिंगटन) की बेबसाइट पर उपलब्ध है : http://www.indianembassy.org/new/parliament_doc_12_01.html ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया ) ( अब यह उपलब्ध नहीं है – प्रस्तुतकर्ता )।
4. देखें, सूज़न मिलिगन, ‘डिस्पाइट डिप्लोमेसी, कश्मीर ट्रूप्स ब्रोस’, बॉस्टन ग्लोब, 20 जनवरी, 2002, पृ. A1; फ़राह स्टॉकमैन एंड ऐंटनी शदीद, ‘सेक्शन फ़्यूएलिंग आयर बिटवीन इंडिया एंड पाकिस्तान’, बॉस्टन ग्लोब, 28 दिसम्बर, 2001, पृ. A3;  ज़ाहिद हुसैन, ‘टिट फ़ॉर टैट बैन्स रेज़ टेन्शन ऑन कश्मीर’, द टाइम्स (लंदन), 28 दिसम्बर, 2001; और ग़ुलाम हसनैन और निकोलस रफ़र्ड, ‘पाकिस्तान रेज़ेज़ कश्मीर न्यूक्लियर स्टेक्स’, संडे टाइम्स (लंदन), 30 दिसम्बर, 2001 ।
5. ढींगरा, विशेष पोटा कोर्ट का फ़ैसला।
6. देखें, सोमिनी सेनगुप्ता, ‘इंडियन ओपिनियन स्प्लिट्स ऑन कॉल फ़ॉर एक्सीक्यूशन’, इंटरनेशनल हेरल्ड ट्रिब्यून, 9 अक्टूबर, 2006; और सोमिनी सेनगुप्ता और हरी कुमार, ‘डेथ सेंटेस इन टेरर अटैक पुट्स इंडिया ऑन ट्रायल’, न्यूयार्क टाइम्स, 10 अक्टूबर, 2006, पृ. A3 ।
7. ‘आडवाणी क्रिटिसाइज्ड डिले इन अफ़ज़ल एक्जुक्यूषन’, द हिंदू, 13 नवम्बर, 2006 ।
8. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक संस्थापक मक़बूल बट्ट को 11 फ़रवरी, 1984 को दिल्ली में फांसी दी गयी। देखें, ‘इंडिया हैंग्स कश्मीरी फ़ॉर स्लेयिंग बैंकर’, न्यूयार्क टाइम्स, 12 फ़रवरी, 1984, सेक्शन 1, पृ. 7 । मक़बूल बट्ट के बारे में विवरण इंटरनेट पर उपलब्ध है : http://www.maqboolbutt.com और http://www.geocities.com/jklf-kashmir/maqboolstory.html ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया ) ( अब यह साइट बंद हो गई है – प्रस्तुतकर्ता )।
9. लक्ष्मी बालकृष्णन, ‘रीलिविंग अ नाइटमेयर’, द हिंदू, 12 दिसम्बर, 2002, पृ. 2 । बिदवई तथा अन्य, 13 दिसम्बर ‘ए रीडर’ में शुद्धब्रत सेनगुप्ता, ‘मीडिया ट्रायल एंड कोर्टरूम ट्रिब्युलेशन्स’, इन बिदवई, पृ. 46 भी देखें।
10. प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, ‘एस सी ( सुप्रीम कोर्ट ) अलॉउज़ ज़ी ( टीवी ) टू एयर फ़िल्म ऑन पार्लियामेंट अटैक’, Indiainfo.com, 13 दिसम्बर, 2002 ।
11. ‘फ़ाइव बुलेट्स हिट गिलानी, सेज फ़ॉरेंसिक रिपोर्ट’, हिंदुस्तान टाइम्स, 25 फ़रवरी, 2005 ।
12. देखें, ‘पुलिस फ़ोर्स’, इंडियन एक्सप्रेस, 15 जुलाई, 2002; ‘एडिटर्स गिल्ड सीक्स फ़ेयर ट्रायल फ़ॉर इफ़्तिख़ार’, इडियन एक्सप्रेस, 20 जून, 2002, ‘कश्मीर टाइम स्टेफ़र्स डिटेंशन इश्यू रेज्ड इन लोकसभा’, बिजनेस रिकॉर्डर, 4 अगस्त, 2002 ।
13. इफ़्तिख़ार गिलानी, ‘माई डेज इन प्रिजन’ ( नयी दिल्ली : पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2005 )। 2008 में इस किताब के उर्दू अनुवाद को साहित्य अकादमी से भारत का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार मिला। http://www.indianexpress.com/news/iftikhar-gilani-wins-sahitya-akademi-award/424871 ।
14. दूरदर्शन ( नई दिल्ली ), ‘कोर्ट रीलीज़ेज़ कश्मीर टाइम्स जर्नलिस्ट फ्रॉम डिटेंशन’, बीबीसी मॉनिटरिंग साउथ एशिया, 13 जनवरी, 2003 ।
15. स्टेटमेंट ऑफ़ सैयद अब्दुल रहमान गिलानी, नयी दिल्ली, 4 अगस्त, 2005 । इंटरनेट पर उपलब्ध : http://www.revolutionarydemocracy.org/parl/geelanistate.htm ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )। बशरत पीर, ‘विक्टिम्स ऑफ़ डिसेम्बर 13′, द गार्डियन, (लंदन), 5 जुलाई, 2003, पृ. 29 ।
16. ‘स्पेशल सेल एसीपी फ़ेसेज़ चार्जेज ऑफ़ एक्सेसेज़, टार्चर’, हिंदुस्तान टाइम्स, 31 जुलाई, 2005। सिंह की बाद में ( मार्च, 2008 में ) – एक विवाद में जो व्यापक रूप से विश्वास किया जाता है कि अपराधियों की दुनिया और ज़मीन-जायदाद से संबंधित था – हत्या कर दी गयी। देखें, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट राजबीर सिंह शॉट डेड’, हिंदुस्तान टाइम्स, 25 मार्च, 2008 ।
17. देखें लेख, ‘टेरेरिस्ट्स वर क्लोज़-निट रिलिजियस फ़ेनैटिक्स’ और ‘पुलिस इम्प्रेस विद स्पीड बट शो लिटल एविडेंस’, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 21 दिसम्बर, 2001 । इंटरनेट पर उपलब्ध : http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/1600576183.cms और http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/1295243790.cms ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )।
18. एमिली वैक्स और रमा लक्ष्मी, ‘इंडियन ऑफ़िशियल पॉइंट्स टू पाकिस्तान’, वॉशिंगटन पोस्ट, 6 दिसम्बर, 2008, पृ. A8 ।
19. मुखर्जी, 13 दिसम्बर, पृ. 43 ।
20. श्री एस.एन. ढींगरा की अदालत में आपराधिक मामलों की धारा 313 के तहत मोहम्मद अफ़ज़ल का बयान, एएसजे, नयी दिल्ली, राज्य बनाम अफ़जल गुरू और अन्य, एफआईआर 417/01 सितम्बर, 2002 । इंटरनेट पर उपलब्ध : http://www.outlookindia.com/article.aspx?232880 और http://www.revolutionarydemocracy.org/afzal/azfal6.htm ( 29 मार्च, 2009 को देखा गया )।
21. एजाज़ हुसैन, ‘किलर्स इन ख़ाकी’, इंडिया टुडे, 11 जून, 2007 । ‘पीयूडीआर पिक्स सेवरल होल्स इन पुलिस वर्ज़न ऑन प्रगति मैदान एनकाउंटर’, द हिंदू, 3 मई, 2005, और पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, एन अनफ़ेयर वरडिक्ट : ए क्रिटिक ऑफ़ स रेड फोर्ट जजमेंट ( नयी दिल्ली, 22 दिसम्बर, 2006 )  और क्लोज़ एनकाउंटर : ए रिपोर्ट ऑन पुलिस शूट-आउट्स इन डेल्ही ( नयी दिल्ली, 21 अक्टूबर, 2004 ) भी देखें।
22. देखें, ‘ए न्यू काइंड ऑफ़ वॉर’, एशिया वीक, 7 अप्रेल, 2000, और रणजीत देव राज, ‘टफ़ टॉक कंटीन्यूज़ डिस्पाइट पीस डिमांड्स’, इंटर प्रेस सर्विस, 19 अप्रेल, 2000 ।
23. देखें, ‘फ़ाइव किल्ड आफ़्टर छत्तीसिंहपुरा मैसेकर वर सिवियन्स’, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, 16 जुलाई, 2002 और ‘ज्यूडिशियल प्रोब ऑर्डर्ड इनटू छत्तीसिंहपुरा सिख मैसेकर’, 23 अक्टूबर, 2000 ।
24. पब्लिक कमिशन ऑन ह्यूमन राइट्स, श्रीनगर, 2006, ‘स्टेट ऑफ़ ह्यूमन राइट्स इन जम्मू एंड कश्मीर 1990-2005′, पृ. 21 ।
25. ‘प्रोब इनटू अलेज्ड फ़ेक किलिंग ऑर्डर्ड’, डेली एक्सेल्सियर ( जनिपुरा ), 14 दिसम्बर, 2006 ।
26. एम.एल.काक, ‘आर्मी क्वायट ऑन फ़ेक सरेंडर बाई अल्ट्राज़’, द ट्रिब्यून ( चंडीगढ़ ), 14 दिसम्बर, 2006 ।
27. ‘स्टार्म ओवर अ सेंटेस’, द स्टेट्समेन ( इंडिया ), 12 फ़रवरी, 2003 ।
28. जो विश्लेषण आगे दिया जा रहा है वह भारत के सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय और पोटा विशेष अदालत के फ़ैसलों पर आधारित है।
29. मुखर्जी, डिसेम्बर 13 । पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, ट्रायल ऑफ़ एरर्स एंड बेलेंसिंग एक्ट।
30. ‘ऐज मर्सी पेटिशन लाइज़ विद कलाम, तिहार बाइज़ रोप फ़ॉर अफ़ज़ल हैंगिंग’, इंडियन एक्सप्रेस, 16 अक्टूबर, 2006 ।

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