अफज़ल गुरु को
हुई फांसी के बाद अब तक उठी तमाम बहसों में उसके द्वारा अपने वकील सुशील कुमार को
लिखी गई चिट्ठी का जि़क्र बार-बार आया है। यह चिट्ठी अब एक ऐतिहासिक दस्तावेज है,
क्योंकि इसमें एक आत्मसमर्पित आतंकवादी समूची
राज्य व्यवस्था पर कुछ सवाल खड़े करता है, उसके काम करने के तरीकों को उजागर करता है और आखिरकार यह स्वीकार
करता है कि उसकी नियति दरअसल अपने परिवार को बचाने की उसकी सदिच्छा का परिणाम थी।
यह चिट्ठी अक्टूबर 2006 में दिल्ली के
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा रखी गई एक प्रेस
कॉन्फ्रेंस में सार्वजनिक की गई थी जिसके आधार पर मैंने साप्ताहिक पत्रिका 'सहारा समय' के आखिरी अंक (8 अक्टूबर 2006) में एक स्टोरी
भी की थी। अफज़ल के मामले पर खर्च किए गए लाखों शब्दों पर यह इकलौती चिट्ठी भारी
पड़ती है। विडंबना यह है कि अक्टूबर 2006 से लेकर अब फांसी दिए जाने के बीच सात साल के दौरान हालांकि यह चिट्ठी मीडिया
में तकरीबन दबी ही रही, आज भले इसकी
चर्चा हो रही हो लेकिन उसका शायद कोई मोल नहीं है। साथ में उस वक्त की कुछ तस्वीरें
भी हैं। (अभिषेक श्रीवास्तव)
[जनपथ से इंट्रो सहित साभार]
अंग्रेज़ी में यह
पत्र पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
माननीय श्री
सुशील कुमार,
नमस्कार
मैं आपका बहुत
शुक्रगुजार हूं और अहसानमंद महसूस करता हूं कि आपने मेरे मुकदमे को अपने हाथ में
लेकर मेरा बचाव करने का फैसला लिया। इस मुकदमे की शुरुआत से ही मेरी उपेक्षा की गई
है और कभी भी मुझे मीडिया या न्यायालय के समक्ष सचाई उजागर करने का मौका नहीं दिया
गया। तीन अर्जियों के बावजूद अदालत ने मुझे वकील मुहैया नहीं करवाया। उच्च
न्यायालय में एक मानवाधिकार अधिवक्ता ने अदालत को बताया कि अफज़ल की इच्छा फांसी
से लटकने की बजाय नशीला इंजेक्शन लेने की है। यह बात सरासर गलत है। मैंने अपने
वकील को कभी ऐसा कुछ नहीं बताया था। चूंकि वह वकील मेरे या मेरे परिवार का चुनाव
नहीं था, बल्कि मेरी असहायता और एक
उपयुक्त वकील तक पहुंच न हो पाने का नतीजा था। उच्च सुरक्षा वाली जेल में कैद किए
जाने और उस मानवाधिकार अधिवक्ता से कोई संवाद न होने की स्थिति में मैं उसे बदल
नहीं सका या उच्च न्यायालय के सामने अपनी मृत्यु इच्छा संबंधी आपत्तियों को दर्ज
नहीं करा सका चूंकि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद ही यह बात मुझे पता चली।
संसद पर हमले
वाले मामले में मुझे कश्मीर की स्पेशल टास्क फोर्स ने गिरफ्तार किया था। यहां
दिल्ली में निर्धारित न्यायालय ने विशेष पुलिस के उस बयान के आधार पर मुझे फांसी
की सजा सुनाई जो एसटीएफ के साथ मिलकर काम करती है और जिस पर मीडिया का खासा प्रभाव
था जिसके समक्ष मुझे विशेष पुलिस एसीपी राजबीर सिंह के दबाव और खौफ के चलते अपराध
कबूल करवाया गया। इस खौफ और दबाव की पुष्टि न्यायालय के समक्ष 'आज तक' के साक्षात्कर्ता शम्स ताहिर ने भी की।
जब मुझे श्रीनगर
बस स्टैंड से गिरफ्तार किया गया तो मुझे एसटीएफ के मुख्यालय ले जाया गया। यहां से
एसटीएफ और विशेष पुलिस मुझे दिल्ली ले आई। श्रीनगर के पारमपोरा पुलिस स्टेशन पर
मुझसे मेरी सभी चीजें छीन ली गईं, मेरी पिटाई की गई
और मुझे धमकी दी गई कि यदि मैंने किसी के भी सामने सचाई बयान की तो मेरी पत्नी और
परिवार के लिए नतीजे बुरे होंगे। यहां तक कि मेरे छोटे भाई हिलाल अहमद गुरु को भी
बगैर किसी वारंट इत्यादि के गिरफ्तार कर लिया गया और 2-3 महीनों तक पुलिस हिरासत में रखा गया। यह बात सबसे पहले
मुझे राजबीर सिंह ने बताई थी। विशेष पुलिस ने मुझसे कहा कि यदि मैं उनके मुताबिक
बयान देता हूं तो मेरे परिवार को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा और यह झूठा आश्वासन भी
दिया कि वे मेरे मुकदमे को कमजोर कर देंगे जिससे कुछ दिनों बाद मैं रिहा हो
जाऊंगा।
अफ़ज़ल का बेटा |
मेरी प्राथमिकता
मेरे परिवार को सुरक्षित रखने की थी क्योंकि पिछले सात साल से मैं देख रहा हूं कि
किस तरह एसटीएफ के लोग कश्मीरियों की हत्या कर रहे हैं, उन्होंने युवाओं को गायब किया है और उसके बाद पुलिस हिरासत
में उन्हें मार डाला है। इन तमाम प्रताड़नाओं और हिरासत में मौतों का मैं एक
जीता-जागता प्रत्यक्षदर्शी हूं और खुद एसटीएफ के खौफ और प्रताड़ना का शिकार हूं।
चूंकि, मैं पहले जेकेएलएफ का
आतंकवादी था और मैंने आत्मसमर्पण कर दिया था, मुझे विभिन्न सुरक्षा एजेंसियों जैसे सेना, बीएसएफ और एसटीएफ ने मिलकर उत्पीड़ित, प्रताड़ित और खौफज़दा किया है। लेकिन, चूंकि एसटीएफ असंगठित बल है और राज्य सरकार
द्वारा संरक्षित लुटेरों का एक गुट है, वे कश्मीर के किसी भी घर और किसी भी परिवार में किसी भी वक्त घुस जाते हैं।
अगर एसटीएफ ने किसी को भी उठा लिया और उसके परिवार को इसकी जानकारी मिल जाती है,
तो फिर परिजन सिर्फ लाश की ही उम्मीद रखते हैं
और उसका इंतजार करते हैं। लेकिन अमूमन वे यह कभी नहीं जान पाते कि अपहृत व्यक्ति
का ठिकाना क्या है। छह हजार जवान लड़के इस तरीके से गायब हो चुके हैं।
इन्हीं
परिस्थितियों और भयपूर्ण वातावरण में मेरे जैसे लोग एसटीएफ के हाथों कोई भी गंदा
खेल खेलने को तैयार हो जाते हैं जिससे कम से कम जान बची रहे। जो लोग पैसे खिलाने
की क्षमता रखते हैं, उन्हें मेरी तरह
बुरे काम करने को मजबूर नहीं किया जाता चूंकि मैं पैसे देने में अक्षम रहा था।
यहां तक कि पारमपोरा पुलिस स्टेशन के एक पुलिसकर्मी अकबर ने तो मुझसे 5 हजार रुपए फिरौती की मांग की थी। यह बात संसद
पर हमले से बहुत पहले की है। उसने मुझे धमकी दी थी कि फिरौती की रकम न मिलने पर वह
मुझे नकली दवाएं और चिकित्सीय उपकरण बेचने के आरोप में गिरफ्तार कर लेगा। मैं 2000 में सोपोर में इनका व्यापार करता था। वह भी
यहां निर्धारित न्यायालय के समक्ष पेश हुआ था और उसने मेरे खिलाफ बयान दिया था।
संसद पर हमले से बहुत पहले से वह मुझे जानता था। अदालत के कक्ष में उसने मुझे
कश्मीरी में बताया कि मेरा परिवार सही सलामत है। दरअसल, यह एक छुपी हुई धमकी थी जिसे अदालत समझ नहीं पाई थी,
नहीं तो मैंने जरूर अदालत के समक्ष उससे सवाल
पूछा होता जब उसने अपना बयान दर्ज कराते वक्त यह बात मुझे बताई थी। पूरे मुकदमे के
दौरान मैं मूक और असहाय दर्शक बना रहा जबकि सभी गवाह, पुलिस और यहां तक कि जज भी मिलकर मेरे खिलाफ एक हो गए थे।
मैं अपने और अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर लगातार चिंतित और असमंजस में रहा। अब
मैंने अपने परिवार को बचा लिया है, भले ही यह झूठ
बोलने के लिए मुझे मौत दी जा रही है तो क्या!
1997-98 में मैंने
दवाइयों और चिकित्सीय उपकरणों का एक व्यापार कमीशन के आधार पर चालू किया, चूंकि एक आत्मसमर्पित आतंकवादी होने के नाते
मुझे सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती थी। आत्मसमर्पित आतंकवादियों को नौकरियां नहीं
मिलतीं। उन्हें या तो एसटीएफ के साथ विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) के तौर पर काम
करना होता है या सुरक्षा बलों और पुलिस के संरक्षण में लुटेरों की मंडली में शामिल
होना होता है। रोज ही ये विशेष पुलिस अधिकारी आतंकवादियों के हाथों मारे जाते थे।
ऐसी स्थिति में मैंने अपना कमीशन आधारित व्यापार शुरू किया जिससे महीने में 4-5 हजार की कमाई हो जाती थी। चूंकि, एसपीओ अक्सर उन आत्मसमर्पित आतंकवादियों को
प्रताड़ित करते हैं जो एसटीएफ के साथ काम नहीं करते, लिहाजा 1998 से 2000 के बीच मुझे अमूमन 300 से 500 रुपए स्थानीय
एसपीओ को देने पड़ते जिससे मैं अपना काम-धंधा जारी रख सकता था। नहीं तो ये एसपीओ
मुझे सुरक्षा एजेंसियों के सामने ले जाते। एक एसपीओ ने तो मुझे एक दिन बताया भी था
कि उसे अपने अधिकारियों को पैसे देने पड़ते हैं। मैंने मेहनत से काम किया और मेरा
व्यापार चमक गया। एक दिन सुबह 10 बजे मैं दो
महीने पहले ही अपने नए खरीदे स्कूटर से जा रहा था। मुझे एसटीएफ के लोगों ने घेर
लिया और एक बुलेटप्रूफ जिप्सी में पलहल्लन शिविर ले गए। वहां डीएसपी विनय गुप्ता
ने मुझे प्रताड़ित किया, बिजली के झटके
दिए, ठंडे पानी में डाला,
पेट्रोल और मिर्च का इस्तेमाल भी किया।
उन्होंने मुझे बताया कि मेरे पास हथियार हैं। शाम को उनके एक इंस्पेक्टर फारुक ने
मुझे कहा कि यदि मैं उन्हें 10 लाख रुपए दे
देता हूं तो मुझे छोड़ दिया जाएगा अन्यथा वे मुझे जान से मार देंगे। इसके बाद वे
मुझे हमहामा एसटीएफ शिविर में ले गए जहां डीएसपी दरविंदर सिंह ने भी मुझे
प्रताड़ित किया। उन्हीं के एक इंस्पेक्टर शैंटी सिंह ने नंगा करके मुझे तीन घंटों
तक मुझे बिजली के झटके दिए और उसी दौरान जबर्दस्ती पानी भी पिलाया।
अफज़ल गुरु की पत्नी |
आखिरकार मैं
उन्हें दस लाख रुपए देने को तैयार हो गया जिसके लिए मुझे अपनी पत्नी के सोने के
गहने बेचने पड़े। इसके बावजूद केवल 80 हजार का ही इंतजाम हो पाया। इसके बाद वे मेरा स्कूटर ले गए जो मैंने 2-3 महीने पहले ही 24 हजार रुपए में खरीदा था। एक लाख रुपए पाने के बाद उन्होंने
मुझे छोड़ा लेकिन अब मैं पूरी तरह टूट चुका था। उसी हमहामा एसटीएफ शिविर में तारिक
नाम का एक और शिकार था उसने मुझे सलाह दी थी कि मैं हमेशा एसटीएफ का सहयोग करूं,
नहीं तो वे मुझे प्रताड़ित करेंगे और सामान्य
जिंदगी नहीं जीने देंगे। यह मेरे जीवन का एक निर्णायक मोड़ था। मैंने वैसे ही जीने
का फैसला कर लिया जैसे मुझे तारिक ने बताया था। 1990 से 1996 तक मैंने दिल्ली
विश्वविद्यालय में पढ़ाई की थी और विभिन्न कोचिंग सेन्टरों और घरों पर जाकर ट्यूशन
पढ़ाता था। यह जानकारी बड़गाम के एसएसपी अशफ़ाक हुसैन के साले अल्ताफ़ हुसैन को थी,
चूंकि इसी ने मेरे परिवार और हमहामा के डीएसपी
दरविंदर सिंह के बीच दलाल की भूमिका निभाई थी। अल्ताफ़ ने मुझे कहा कि मैं उसके दो
बच्चों को पढ़ाऊं चूंकि आतंकवादियों के खौफ़ की वजह से वे ट्यूशन पढ़ने नहीं जा
पाते। इनमें एक दसवीं में था, दूसरा बारहवीं
में। इस तरह अल्ताफ से मेरी नजदीकियां बढ़ीं। एक दिन अल्ताफ मुझे डीएसपी दरविंदर
सिंह के पास ले गया और बताया कि मुझे उनके लिए एक छोटा सा काम करना पड़ेगा।
काम यह था कि एक
आदमी को दिल्ली ले जाना था और उसे वहां एक किराए का घर दिलवाना था, चूंकि मैं दिल्ली को बेहतर तरीके से जानता था।
मैं उस व्यक्ति को नहीं जानता था, लेकिन मुझे संदेह
था कि वह कश्मीरी नहीं है क्योंकि वह कश्मीरी नहीं बोलता था। लेकिन मैं असहाय था
और मुझे दरविंदर का काम करना ही था। मैं उसे दिल्ली ले गया। एक दिन उसने मुझसे कहा
कि वह एक कार खरीदना चाहता है। मैं उसे करोलबाग लेकर गया। उसने कार खरीदी। दिल्ली
में वह तमाम लोगों से मिलता था और हम दोनों को दरविंदर सिंह के फोन कॉल आते रहते
थे। एक दिन मोहम्मद ने मुझे बताया कि अगर मैं कश्मीर जाना चाहूं तो जा सकता हूं।
उसने मुझे पैंतीस हजार रुपए भी दिए और कहा कि यह मेरे लिए एक उपहार है।
छह या आठ दिन
पहले मैंने इंदिरा विहार में अपने परिवार के लिए एक किराए का कमरा ले लिया था।
चूंकि मैंने फैसला कर लिया था कि मैं अब दिल्ली में ही रहूंगा क्योंकि मैं अपने इस
जीवन से संतुष्ट नहीं था। मैंने किराए के मकान की चाबियां अपनी मकान मालकिन को थमा
दीं और उसे बताया कि मैं ईद के बाद 14 दिसंबर को लौटूंगा क्योंकि संसद पर हमले के बाद वहां काफी तनाव था। मैंने
श्रीनगर में तारिक से संपर्क किया। शाम को उसने मुझसे पूछा कि मैं कब वापस आया।
मैंने बताया कि मुझे आए हुए सिर्फ एक घंटा हुआ है। अगली सुबह जब मैं सोपोर जाने के
लिए बस स्टैंड पर खड़ा था, श्रीनगर पुलिस ने
मुझे गिरफ्तार कर लिया और पारमपोरा पुलिस थाने ले गई। तारिक वहां एसटीएफ के साथ
मौजूद था। उन्होंने मेरी जेब से 35000 रुपए निकाल लिए, मेरी पिटाई की और
सीधे मुझे एसटीएफ मुख्यालय ले गए। वहां से मुझे दिल्ली लाया गया। मेरी आंखों को
कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। यहां मैंने खुद को विशेष पुलिस के उत्पीड़न कक्ष में
पाया।
...और उसने अपना परिवार बचा लिया : अफज़ल के परिजन और अधिवक्ता एनडी पंचोली (सबसे दाएं) |
शाम के वक्त
राजबीर सिंह ने मुझसे पूछा कि क्या मैं परिवार से बात करना चाहता हूं। मैंने हां
में जवाब दिया। फिर मैंने अपनी पत्नी से बात की। फोन करने के बाद उन्होंने मुझे
बताया कि यदि मैं अपनी पत्नी और परिवार को जिंदा देखना चाहता हूं तो हर कदम पर
उनका सहयोग करूं। वे मुझे दिल्ली में तमाम जगहों पर ले गए। वहां उन्होंने मुझे वे
जगह दिखाईं जहां से मोहम्मद ने तमाम चीजें खरीदी थीं। वे मुझे कश्मीर ले गए और हम
वहां से बगैर कुछ किए वापस आ गए। उन्होंने मुझसे कम से कम 200-300 कोरे कागजों पर दस्तखत करवाए।
मुझे निर्धारित
कोर्ट में अपनी कहानी सुनाने का मौका ही नहीं दिया गया। जज ने मुझे बताया कि
मुकदमे के अंत में मुझे बोलने का पूरा मौका दिया जाएगा, लेकिन आखिरकार न तो उन्होंने मेरे बयानों को दर्ज किया और न
ही अदालत ने दर्ज किए गए बयान मुझे मुहैया कराए। यदि ध्यान से रिकॉर्ड किए गए फोन
नंबरों को देखा जाता तो अदालत यह जान जाती कि वे एसटीएफ के फोन नंबर थे।
अब मुझे उम्मीद
है कि उच्चतम न्यायालय मेरी असहाय स्थिति और उस सचाई को समझ सकेगा जिससे मैं गुजरा
हूं। एसटीएफ ने अपने और कुछ अन्य अज्ञात लोगों द्वारा निर्मित और निर्देशित इस
आपराधिक गतिविधि में मुझे बलि का बकरा बना दिया। इस पूरे खेल में विशेष पुलिस
निश्चित तौर पर एक हिस्सा है चूंकि हर वक्त उन्होंने मेरे ऊपर चुप रहने का दबाव
डाला। मुझे भरोसा है कि मेरी इस चुप्पी को सुना जाएगा और मुझे न्याय मिलेगा।
मैं एक बार फिर
आपको दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हूं कि आपने मेरा बचाव किया।
सत्यमेव जयते।
मोहम्मद अफज़ल
पुत्र हबीबुल्ला गुरु
वार्ड न. 6 (उच्च सुरक्षा वार्ड)
जेल न. 1, तिहाड़
नई दिल्ली-110064
पुत्र हबीबुल्ला गुरु
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लेख को पढकर, एक दर्द, एक बेचेनी का आलम है। लगता नहीं कि ये दुनियां सत्य पर टिकी है। यहां तो हर जगह असत्य ही ताकतवर नजर आ रहा है। जिसमे अपफWजल को पफंसाने वाले, खुद उसके ही मजहबी, आतंकी और भzष्ट व्यवस्था के तलुवे चाटते नौकरशाह। न्याय की दहलीज पर, नाइन्सापफी का आलम। इस पर, भzष्ट राजनीति का अपना-अपना लाभ-हानि का गणित।
जवाब देंहटाएंऔर ये मानव खून के भूखे........अपने कुकृत्यांे की जंग के सहारे, वर्ष दो हजार चौदह की तैयारी कर रहे है। काश, अपफजल ने मरते वक्त, असत्यमेव जयते कहा होता।