महताब आलम
बटला हाउस ‘इनकाउंटर’ के चार साल पूरे हो गये। 19 सितंबर 2008 की सुबह, दिल्ली के जामिया नगर इलाके में बटला हाउस स्थित एल 18 फ्लैट में एक कथित पुलिस ‘इनकाउंटर’ के दौरान दो मुस्लिम नौजवान, जिनका नाम आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद, मारे गये थे। पुलिस के मुताबिक इन दोनों का संबंध आतंकी संगठन “इंडियन मुजाहिदीन” से था और इन्हीं लोगों ने 13 सितंबर 2008 को दिल्ली में हुए सीरियल धमाकों की घटना भी अंजाम दी थी। इस विवादित इनकाउंटर में पुलिस द्वारा कथित दो आतंकी के अलावा दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल का एक इंस्पेक्टर, जो ‘इनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के नाम से मशहूर था, मोहन चंद शर्मा और एक हवालदार भी घायल हुए थे। बाद में शर्मा की नजदीकी अस्पताल होली फेमिली में मौत हो गयी थी, जबकि हवालदार बच गया। पुलिस के दावे के अनुसार इस मौके पर दो आतंकी घटनास्थल से भागने में कामयाब हो गये जबकि उनके एक साथी मुहम्मद सैफ को वहीं से गिरफ्तार किया गया।
मारे जाने वाले दोनों नौजवानों का संबंध उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले से था और ये लोग यहां पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में आये थे। आतिफ अमीन की उम्र लगभग 24 साल थी और वो जामिया में एम ए (मानवाधिकार) प्रथम वर्ष का छात्र था, वहीं साजिद जिसकी उम्र 14 साल थी, दसवीं की पढ़ाई करके यहां ग्यारहवी में दाखिले के लिए आया था। उनके कुछ साथी जामिया नगर में भी रहते थे। फलस्वरूप, इस घटना के बाद जामिया नगर और आजमगढ़ से पुलिस द्वारा उनके साथियों, जानने वालों और दूसरे मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी का सिलसिला चल पड़ा। बहुत सारे लोग उठाये गये, जामिया नगर और आजमगढ़ को ‘आतंक की नर्सरी’ कह कर बुलाया जाने लगा।
लेकिन स्थानीय लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/संगठनों और कुछ पत्रकारों द्वारा इस ‘इनकाउंटर’ की सच्चाई पर पहले दिन से ही सवाल कायम है, जिसका जवाब आज तक नहीं मिल पाया है। इन व्यक्तियों ने पुलिस द्वारा जारी किये हुए विरोधाभासी बयानों को नकारते हुए पूरे मामले की न्यायिक जांच करने की मांग की, जिसे आज तक सरकार ने नहीं माना है। इसीलिए, आज भी, चार साल गुजर जाने के बावजूद इस मांग को लेकर जामिया नगर, लखनऊ और आजमगढ़ में कार्यक्रम हुए और हो रहे हैं। लोगों मानना है कि जब तक इस मांग को स्वीकार नहीं किया जाता हमारी लड़ाई जारी है।
क्या हैं वो सवाल?
पहला सवाल ये था कि क्या पुलिस को पहले से पता था कि उस जगह पर ‘खूंखार-आतंकी’ छिपे हैं? अगर हां, तो पुलिस ने अपने शुरुआती बयानों में क्यूं कहा कि वो तो सिर्फ रेकी करने गये थे। लेकिन क्यूंकि ‘आतंकियों’ ने गोली चला दी, इसलिए जवाबी कार्यवाही करनी पड़ी। और अगर नहीं, तो घटना के दो-तीन घंटे के अंदर ही कैसे पुलिस ने ये घोषित कर दिया कि मारे जाने वाले आतंकी थे? और यही नहीं, अहम सवाल ये है कि अगर पुलिस को पता था, जैसा कि पुलिस ने आतीफ अमीन के मोबाइल को 26 जुलाई 08 से सर्विलांस पर रखे होने का दावा किया था, तो इन लोगों 13 सितंबर का सीरियल ब्लास्ट कैसे किया? पुलिस ने उन्हें पहले गिरफ्तार क्यूं नहीं किया, क्या पुलिस उनके बम धमाकों के इंतजार में थी?
दूसरा अहम सवाल : क्या इस मुठभेड़ में शामिल पुलिस पार्टी ने बुलेट-प्रूफ जैकेट पहन रखा था? और अगर पहन रखा था तो मोहन चंद शर्मा और बलवंत कैसे घायल हुए? और अगर नहीं, जैसा कि पुलिस के दावा किया था, तो इतने अहम मामले में इतनी असावधानी क्यूं बरती गयी और क्या उन्हें मालूम नहीं था कि वो ‘खूंखार-आतंकी’ उन पर गोली चला सकते हैं और ऐसे में रिस्क लेना उचित नहीं होगा? पुलिस का एक बयान ये भी कहता है कि पुलिस पार्टी बुलेट प्रूफ जाकेट इसलिए पहन कर नहीं गयी क्यूंकि बात फैल जाती और आतंकी भांप लेते और फरार हो जाते। लेकिन उसी समय इस घटना की एफआईआर में कहा गया है कि पुलिस ने रेड करने से पहले दो स्थानीय लोगों को अपने साथ लेना चाहा, पर वो नहीं आये, क्या ऐसा करने बात नहीं फैलती?
तीसरा अहम सवाल : साजिद और आतिफ के शरीर पर मिली चोट, जख्म और गोलियों के निशान क्या बताते हैं? दोनों को दफनाने से पहले, उनके शरीर की ली गयी तस्वीरों से पता चलता है कि वो किसी मुठभेड़ में नहीं मारे गये हैं। साजिद के सर में ऊपर से चार गोलियों के निशान हैं, ये कैसे संभव हुआ? क्या ये निशान ये नहीं दर्शाता कि उसे बिठाकर, उसके सर पर ऊपर से गोली मारी गयी है? या फिर पुलिस वालों ने छत से चिपक कर ऊपर से गोली मारी? इसी प्रकार सवाल ये भी है कि आतिफ की पीठ की चमड़ी पूरी तरह कैसे छिली? उसके पैर पर भी ताजे जख्म के निशान पाये गये, ये सब कैसे मुमकिन हुआ?
चौथा सवाल : एक अहम सवाल ये भी है कि दो ‘आतंकी’ कैसे भागे? जबकि पुलिस का खुद का दावा है कि उन्होंने कार्यवाही से पहले उस गली को पूरी तरह से जाम कर दिया था। यहां पर एक उल्लेखनीय बात ये भी है कि जिस बिल्डिंग में ये घटना हुई, उसमें अंदर जाने और बाहर निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता है, और ये घटना चौथी मंजिल पर हुई थी, जहां से भागने का भी कोई रास्ता नहीं है। क्या वो वहां से जिन्न या भूत बनकर भाग गये?
पांचवा सवाल : पुलिस ने दावा किया कि साजिद, जिसकी उम्र 14 साल थी, बम बनाने में माहिर था। सवाल ये उठता है कि अगर ऐसा था तो वहां से ऐसी कोई चीज बरामद क्यूं नहीं हुई? आपको जानकर हैरानी होगी कि पुलिस ने जिन चीजों की बरामदगी दिखायी है, उसमें पंचतंत्र की कहानियों की किताब भी है! आखिर सवाल ये है कि पुलिस क्या साबित करना चाहती है? सवाल ये भी है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की गाइडलाइंस के अनुसार प्रत्येक अप्राकृतिक मौत की तरह इस घटना की भी न्यायिक जांच क्यूं नहीं करवायी गयी? क्यों लेफ्टिनेंट गवर्नर ने इस पर रोक लगा दी? कुल मिलाकर सवाल बहुत हैं और इन्हीं सवालों ने इस घटना के फर्जी होने पर, या कम से कम इसकी वास्तविकता पर सवालिया निशान खड़ा किया हुआ है। और पूरी घटना की न्यायिक जांच की मांग अभी तक जारी है। लेकिन सरकार है कि उसके कान पर जूं ही नहीं रेंगती।
सरकार का जांच न कराने के पीछे बुनियादी तर्क ये है कि वो इस मसले की जांच इसलिए नहीं करवा सकती क्यूंकि इससे पुलिस का ‘मोरल डाउन’ हो जाएगा! सरकार ये भी तर्क देती है क्यूंकि एनएचआरसी जांच कर चुकी है इसलिए मामला साफ हो चुका है। कभी-कभी सरकार ये भी तर्क देती है कि क्यूंकि इस घटना में एक पुलिस वाला भी मारा गया, इसलिए ये साबित होता है कि मामला वास्तविक था और इस पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता!
तो क्या सरकारी दावे सही हैं?
पहला दावा कि इसकी जांच कराने से पुलिस का ‘मोराल डाउन’ हो जाएगा। आखिर सरकार किस पुलिस से मोराल की बात कर रही है, जिसकी करतूतें जगजाहिर है। और इस केस के संदर्भ में बात करें, तो मामला और साफ है कि सरकार जिस स्पेशल सेल को बचाना चाह रही है, अब सब जानते हैं कि उनका असल काम मासूम लोगों को फंसाना, वाहवाही बटोरना और पैसे कमाना है। कल ही प्रकाशित हुई जामिया टीचर्स सॉलिडरिटी असोसिअशन (JTSA) की रिपोर्ट से साफ जाहिर होता है कि ये लोग फर्जी केस बनाने और फर्जी मुठभेड़ करने में माहिर हैं। JTSA की ये रिपोर्ट कोई हवाबाजी या बयानों का पुलिंदा नहीं है बल्कि कोर्ट द्वारा दिये गये फैसलों पर आधारित एक शोध है, जो स्पेशल सेल की करतूतों को उजागर कर देता है। दूसरा दावा, कि एनएचआरसी ने इस मामले की जांच की है, बिलकुल झूठा है। एनएचआरसी ने इस मामले में कोई खोजबीन नहीं की है, बस रुटीन कार्यवाही की है। और वो कार्यवाही ये है कि आयोग ने उसी पुलिस डिपार्टमेंट को नोटिस भेज दिया, जिसने ये सब कुछ किया। सो जवाब जो मिलना था सो मिला।
यही नहीं, आयोग ने न ही घटनास्थल कर दौरा किया, न संबंधित व्यक्तियों से मुलाकात की, न उन लोगों से मिले जो लगातार सवाल उठा रहे थे, बावजूद इसके आयोग के अध्यक्ष से हमने समय भी मांगा था। और बिना ये सब किये, पुलिस के जवाब के आधार पर इस पूरे मामले को सही घोषित कर दिया! अगर आपको यकीन नहीं आता हो आज भी आप ये रिपोर्ट देख सकते हैं। क्या इसी को मामले की जांच कहते हैं? और बाद में RTI एक्टिविस्ट अफरोज आलम साहिल द्वारा सूचना के अधिकार के तहत इसी आयोग से निकाली गयी पोस्ट मार्टम रिपोर्ट ने और कई सारे सवाल खड़े दिये।
रही बात इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की मौत की, तो हम भी ये जानना चाहते हैं कि उसकी मौत कैसे और किन हालत में हुई? आखिर उसे हॉस्पिटल पहुंचाने में उतनी देर क्यूं लगी ताकि वह पहुंचते ही मर जाए? जबकि साक्ष्य बताते हैं कि जब उसको ले जाया जा रहा था, तो वह पूरे होशो-हवास में था। साथ ही यहां पर इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि यही मोहन चंद शर्मा कम से कम 8 ऐसे केस में लिप्त है, जिसमें इसने मासूम लोगों को फंसा कर उनकी जिंदगियां बर्बाद कर दी हैं। और ये सारे केस किसी बाटला हाउस ‘इनकाउंटर’ से कम नहीं हैं। फलतः ऐसे व्यक्ति द्वारा अंजाम दी गयी कार्रवाई पर शक का गहराना और लाजिम है।
इसीलिए सरकार को चाहिए, कुछ पुलिस वालों की नौकरी बचने के चक्कर में न्यायिक जांच की मांग कर रहे हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों का मोराल डाउन न करें क्यूंकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है और उसकी मांग को ठुकराना लोकतंत्र की हत्या है। और इस वक्त जनता की मांग बटला हाउस मामले की निष्पक्ष और उच्चस्तरीय जांच है।
बटला हाउस ‘इनकाउंटर’ के चार साल पूरे हो गये। 19 सितंबर 2008 की सुबह, दिल्ली के जामिया नगर इलाके में बटला हाउस स्थित एल 18 फ्लैट में एक कथित पुलिस ‘इनकाउंटर’ के दौरान दो मुस्लिम नौजवान, जिनका नाम आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद, मारे गये थे। पुलिस के मुताबिक इन दोनों का संबंध आतंकी संगठन “इंडियन मुजाहिदीन” से था और इन्हीं लोगों ने 13 सितंबर 2008 को दिल्ली में हुए सीरियल धमाकों की घटना भी अंजाम दी थी। इस विवादित इनकाउंटर में पुलिस द्वारा कथित दो आतंकी के अलावा दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल का एक इंस्पेक्टर, जो ‘इनकाउंटर स्पेशलिस्ट’ के नाम से मशहूर था, मोहन चंद शर्मा और एक हवालदार भी घायल हुए थे। बाद में शर्मा की नजदीकी अस्पताल होली फेमिली में मौत हो गयी थी, जबकि हवालदार बच गया। पुलिस के दावे के अनुसार इस मौके पर दो आतंकी घटनास्थल से भागने में कामयाब हो गये जबकि उनके एक साथी मुहम्मद सैफ को वहीं से गिरफ्तार किया गया।
मारे जाने वाले दोनों नौजवानों का संबंध उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले से था और ये लोग यहां पढ़ाई-लिखाई के सिलसिले में आये थे। आतिफ अमीन की उम्र लगभग 24 साल थी और वो जामिया में एम ए (मानवाधिकार) प्रथम वर्ष का छात्र था, वहीं साजिद जिसकी उम्र 14 साल थी, दसवीं की पढ़ाई करके यहां ग्यारहवी में दाखिले के लिए आया था। उनके कुछ साथी जामिया नगर में भी रहते थे। फलस्वरूप, इस घटना के बाद जामिया नगर और आजमगढ़ से पुलिस द्वारा उनके साथियों, जानने वालों और दूसरे मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी का सिलसिला चल पड़ा। बहुत सारे लोग उठाये गये, जामिया नगर और आजमगढ़ को ‘आतंक की नर्सरी’ कह कर बुलाया जाने लगा।
लेकिन स्थानीय लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं/संगठनों और कुछ पत्रकारों द्वारा इस ‘इनकाउंटर’ की सच्चाई पर पहले दिन से ही सवाल कायम है, जिसका जवाब आज तक नहीं मिल पाया है। इन व्यक्तियों ने पुलिस द्वारा जारी किये हुए विरोधाभासी बयानों को नकारते हुए पूरे मामले की न्यायिक जांच करने की मांग की, जिसे आज तक सरकार ने नहीं माना है। इसीलिए, आज भी, चार साल गुजर जाने के बावजूद इस मांग को लेकर जामिया नगर, लखनऊ और आजमगढ़ में कार्यक्रम हुए और हो रहे हैं। लोगों मानना है कि जब तक इस मांग को स्वीकार नहीं किया जाता हमारी लड़ाई जारी है।
क्या हैं वो सवाल?
पहला सवाल ये था कि क्या पुलिस को पहले से पता था कि उस जगह पर ‘खूंखार-आतंकी’ छिपे हैं? अगर हां, तो पुलिस ने अपने शुरुआती बयानों में क्यूं कहा कि वो तो सिर्फ रेकी करने गये थे। लेकिन क्यूंकि ‘आतंकियों’ ने गोली चला दी, इसलिए जवाबी कार्यवाही करनी पड़ी। और अगर नहीं, तो घटना के दो-तीन घंटे के अंदर ही कैसे पुलिस ने ये घोषित कर दिया कि मारे जाने वाले आतंकी थे? और यही नहीं, अहम सवाल ये है कि अगर पुलिस को पता था, जैसा कि पुलिस ने आतीफ अमीन के मोबाइल को 26 जुलाई 08 से सर्विलांस पर रखे होने का दावा किया था, तो इन लोगों 13 सितंबर का सीरियल ब्लास्ट कैसे किया? पुलिस ने उन्हें पहले गिरफ्तार क्यूं नहीं किया, क्या पुलिस उनके बम धमाकों के इंतजार में थी?
दूसरा अहम सवाल : क्या इस मुठभेड़ में शामिल पुलिस पार्टी ने बुलेट-प्रूफ जैकेट पहन रखा था? और अगर पहन रखा था तो मोहन चंद शर्मा और बलवंत कैसे घायल हुए? और अगर नहीं, जैसा कि पुलिस के दावा किया था, तो इतने अहम मामले में इतनी असावधानी क्यूं बरती गयी और क्या उन्हें मालूम नहीं था कि वो ‘खूंखार-आतंकी’ उन पर गोली चला सकते हैं और ऐसे में रिस्क लेना उचित नहीं होगा? पुलिस का एक बयान ये भी कहता है कि पुलिस पार्टी बुलेट प्रूफ जाकेट इसलिए पहन कर नहीं गयी क्यूंकि बात फैल जाती और आतंकी भांप लेते और फरार हो जाते। लेकिन उसी समय इस घटना की एफआईआर में कहा गया है कि पुलिस ने रेड करने से पहले दो स्थानीय लोगों को अपने साथ लेना चाहा, पर वो नहीं आये, क्या ऐसा करने बात नहीं फैलती?
तीसरा अहम सवाल : साजिद और आतिफ के शरीर पर मिली चोट, जख्म और गोलियों के निशान क्या बताते हैं? दोनों को दफनाने से पहले, उनके शरीर की ली गयी तस्वीरों से पता चलता है कि वो किसी मुठभेड़ में नहीं मारे गये हैं। साजिद के सर में ऊपर से चार गोलियों के निशान हैं, ये कैसे संभव हुआ? क्या ये निशान ये नहीं दर्शाता कि उसे बिठाकर, उसके सर पर ऊपर से गोली मारी गयी है? या फिर पुलिस वालों ने छत से चिपक कर ऊपर से गोली मारी? इसी प्रकार सवाल ये भी है कि आतिफ की पीठ की चमड़ी पूरी तरह कैसे छिली? उसके पैर पर भी ताजे जख्म के निशान पाये गये, ये सब कैसे मुमकिन हुआ?
चौथा सवाल : एक अहम सवाल ये भी है कि दो ‘आतंकी’ कैसे भागे? जबकि पुलिस का खुद का दावा है कि उन्होंने कार्यवाही से पहले उस गली को पूरी तरह से जाम कर दिया था। यहां पर एक उल्लेखनीय बात ये भी है कि जिस बिल्डिंग में ये घटना हुई, उसमें अंदर जाने और बाहर निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता है, और ये घटना चौथी मंजिल पर हुई थी, जहां से भागने का भी कोई रास्ता नहीं है। क्या वो वहां से जिन्न या भूत बनकर भाग गये?
पांचवा सवाल : पुलिस ने दावा किया कि साजिद, जिसकी उम्र 14 साल थी, बम बनाने में माहिर था। सवाल ये उठता है कि अगर ऐसा था तो वहां से ऐसी कोई चीज बरामद क्यूं नहीं हुई? आपको जानकर हैरानी होगी कि पुलिस ने जिन चीजों की बरामदगी दिखायी है, उसमें पंचतंत्र की कहानियों की किताब भी है! आखिर सवाल ये है कि पुलिस क्या साबित करना चाहती है? सवाल ये भी है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की गाइडलाइंस के अनुसार प्रत्येक अप्राकृतिक मौत की तरह इस घटना की भी न्यायिक जांच क्यूं नहीं करवायी गयी? क्यों लेफ्टिनेंट गवर्नर ने इस पर रोक लगा दी? कुल मिलाकर सवाल बहुत हैं और इन्हीं सवालों ने इस घटना के फर्जी होने पर, या कम से कम इसकी वास्तविकता पर सवालिया निशान खड़ा किया हुआ है। और पूरी घटना की न्यायिक जांच की मांग अभी तक जारी है। लेकिन सरकार है कि उसके कान पर जूं ही नहीं रेंगती।
सरकार का जांच न कराने के पीछे बुनियादी तर्क ये है कि वो इस मसले की जांच इसलिए नहीं करवा सकती क्यूंकि इससे पुलिस का ‘मोरल डाउन’ हो जाएगा! सरकार ये भी तर्क देती है क्यूंकि एनएचआरसी जांच कर चुकी है इसलिए मामला साफ हो चुका है। कभी-कभी सरकार ये भी तर्क देती है कि क्यूंकि इस घटना में एक पुलिस वाला भी मारा गया, इसलिए ये साबित होता है कि मामला वास्तविक था और इस पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता!
तो क्या सरकारी दावे सही हैं?
पहला दावा कि इसकी जांच कराने से पुलिस का ‘मोराल डाउन’ हो जाएगा। आखिर सरकार किस पुलिस से मोराल की बात कर रही है, जिसकी करतूतें जगजाहिर है। और इस केस के संदर्भ में बात करें, तो मामला और साफ है कि सरकार जिस स्पेशल सेल को बचाना चाह रही है, अब सब जानते हैं कि उनका असल काम मासूम लोगों को फंसाना, वाहवाही बटोरना और पैसे कमाना है। कल ही प्रकाशित हुई जामिया टीचर्स सॉलिडरिटी असोसिअशन (JTSA) की रिपोर्ट से साफ जाहिर होता है कि ये लोग फर्जी केस बनाने और फर्जी मुठभेड़ करने में माहिर हैं। JTSA की ये रिपोर्ट कोई हवाबाजी या बयानों का पुलिंदा नहीं है बल्कि कोर्ट द्वारा दिये गये फैसलों पर आधारित एक शोध है, जो स्पेशल सेल की करतूतों को उजागर कर देता है। दूसरा दावा, कि एनएचआरसी ने इस मामले की जांच की है, बिलकुल झूठा है। एनएचआरसी ने इस मामले में कोई खोजबीन नहीं की है, बस रुटीन कार्यवाही की है। और वो कार्यवाही ये है कि आयोग ने उसी पुलिस डिपार्टमेंट को नोटिस भेज दिया, जिसने ये सब कुछ किया। सो जवाब जो मिलना था सो मिला।
यही नहीं, आयोग ने न ही घटनास्थल कर दौरा किया, न संबंधित व्यक्तियों से मुलाकात की, न उन लोगों से मिले जो लगातार सवाल उठा रहे थे, बावजूद इसके आयोग के अध्यक्ष से हमने समय भी मांगा था। और बिना ये सब किये, पुलिस के जवाब के आधार पर इस पूरे मामले को सही घोषित कर दिया! अगर आपको यकीन नहीं आता हो आज भी आप ये रिपोर्ट देख सकते हैं। क्या इसी को मामले की जांच कहते हैं? और बाद में RTI एक्टिविस्ट अफरोज आलम साहिल द्वारा सूचना के अधिकार के तहत इसी आयोग से निकाली गयी पोस्ट मार्टम रिपोर्ट ने और कई सारे सवाल खड़े दिये।
रही बात इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा की मौत की, तो हम भी ये जानना चाहते हैं कि उसकी मौत कैसे और किन हालत में हुई? आखिर उसे हॉस्पिटल पहुंचाने में उतनी देर क्यूं लगी ताकि वह पहुंचते ही मर जाए? जबकि साक्ष्य बताते हैं कि जब उसको ले जाया जा रहा था, तो वह पूरे होशो-हवास में था। साथ ही यहां पर इस बात का उल्लेख भी जरूरी है कि यही मोहन चंद शर्मा कम से कम 8 ऐसे केस में लिप्त है, जिसमें इसने मासूम लोगों को फंसा कर उनकी जिंदगियां बर्बाद कर दी हैं। और ये सारे केस किसी बाटला हाउस ‘इनकाउंटर’ से कम नहीं हैं। फलतः ऐसे व्यक्ति द्वारा अंजाम दी गयी कार्रवाई पर शक का गहराना और लाजिम है।
इसीलिए सरकार को चाहिए, कुछ पुलिस वालों की नौकरी बचने के चक्कर में न्यायिक जांच की मांग कर रहे हजारों नहीं बल्कि लाखों लोगों का मोराल डाउन न करें क्यूंकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है और उसकी मांग को ठुकराना लोकतंत्र की हत्या है। और इस वक्त जनता की मांग बटला हाउस मामले की निष्पक्ष और उच्चस्तरीय जांच है।
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