19 जुलाई 2012

बासागुड़ा: सैन्य बलों द्वारा जनसंहार की एक कहानी

                                                                                             --कोत्तागुड़ा से लौटकर चन्द्रिका    
                                                         
बासागुड़ा, छत्तीसगढ़ में बीजापुर का एक आदिवासी बहुल इलाका है. सरकार उसे माओवादी बहुल इलाका कहती है. पिछले कुछ वर्षों में आदिवासी बहुलता माओवादी बहुलता में बदल गयी है. बीजापुर, दांतेवाड़ा जिले के एक हिस्से को काटकर बनाया गया जिला है, जहां 28 जून को सैन्य बलों द्वारा 17 माओवादियों को मारे जाने का दावा दिया गया. हालांकि इसके ठीक उलट ग्रामीण और मृतकों के परिजन उनके माओवादी होने से इनकार कर रहे हैं. यहां घने जंगलों और छोटी पहाड़ियों के बीच ये गांव बसे हैं.
सीआरपीएफ की गोली के शिकार हुए इरपम दिनेश
की पत्नी इरपम जानकी
इन इलाकों में रहते हुए कोई भी, दिन और तारीखें भूल सकता है. शायद तारीखें तेज जीवन गति की जरूरत हैं. कुछ बरस बाद बीजापुर के कोत्तागुड़ा गांव में लोग 28 जून के रात की सामूहिक हत्या की कहानियों को ऐसे ही बता पाएंगे. सलवा-जुडुम के हमले, उनका विस्थापन और फिर से गांव में लौटना उन्हें इसी तरह याद है. तारीख घटनाओं को याद रखने का एकमात्र तजुर्बा नहीं है. उनके लिए ये मानवीय आपदाओं के मौसम रहे हैं. सरकारी सुरक्षा बन्दोबस्त से पैदा हुए भय और आतंक से असुरक्षित रहने का समय. 6 बरस पहले गर्मी में उजड़ने का मौसम और तीन बरस पहले धान की खेती के समय लौटने का मौसम. जो तारीखें नहीं याद रख सकते वे इस देश की न्याय व्यवस्था में गवाह भी बनने के काबिल नहीं हैं. एक मां को अपने बेटे के मौत की तारीख याद रखनी होगी. जबकि वोटिंग कार्ड में उनके जन्म की तारीखें दर्ज नहीं हैं. ये बगैर तारीखों के पैदा हुए लोग हैं जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं. लाशों को माओवादी न होने के सुबूत देने होंगे पर माओवादी होना किसी की देह पर दर्ज नहीं होता. शोर तो ऐसा है कि अगर वे माओवादी होते तो मानो इनकी हत्याएं मान्य थी. देश के अपने ही लोगों की सैन्य बलों द्वारा की जा रही हत्याएं देशभक्ति की मिसाल बन रही हैं. आखिर यह कौन और कहां की नस्ल है जो लाल किले पर लोकतंत्र और आज़ादी वाले सम्बोधनों की गिनती के साथ हर बरस बढ़ रही है. पर वे माओवादी नहीं थे यह त्थ्यों से पता चलता है. उनके राशन कार्ड में दर्ज नाम, स्कूलों के हॉस्टल में दर्ज पते और वोटिंग कार्ड इसके गवाह हैं. उनकी पत्नियां तस्वीरें लिए घूम रही हैं जो कहीं किसी स्टूडियो में खिचाए गए हैं. वे हमारे सामने माओवादी न होने के कितने तो सुबूत पेश करते हैं. माओवादी होने की कठिन जीवनशैली को यहां का हर आदिवासी जानता है. सारे सुबूत उस जीवनशैली से अलग हैं. ये राज्य व्यवस्था के साथ जुड़ाव रखने की प्रक्रियाओं के सुबूत हैं. इससे अलग हमारे सामने ही मृतकों के परिजन और गांव के लोग 7 जुलाई को पहुंचे एस.डी.एम. से चीखते हुए कह रहे थे कि गांव के सभी जिंदा बचे लोग माओवादी हैं, ठीक अपने उन्ही बच्चों जैसे, अपने उन्ही लोगों जैसे जिनकी हत्याएं उस रात सैन्य बलों द्वारा की गई. यह सब कहते हुए वे दुखी हैं, क्रोधित हैं और उनमे भय बेहद कम बचा है. सरकार को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे वाले रजिस्टर में एक पन्ना और जोड़ लेना चाहिए कि सामूहिक हत्याओं ने वहां भय को निरस्त कर दिया है. 

यहां पहुचने के दो रास्ते हैं. बासागुड़ा थाने से तीन किमी की दूरी और आंध्र प्रदेश के चेरला तहसील से होते हुए जंगल के 70 किमी. का रास्ता जैसा कुछ. गांव तीन पारों में बंटा हुआ है, कोत्तागुड़ा, राजपेटा और सारकेगुड़ा. ये उजड़े हुए लोग थे जो फिर से बसने का प्रयास कर रहे थे. 2005 में जब सलवा-जुडूम चलाया गया उस बरस पूरा गांव उजड़ गया, 35 घरों को आग के हवाले कर दिया गया था और कुछ लोगों की हत्याएं की गयी थी. सलवा-जुडुम को मुख्य मंत्री रमन सिंह सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसके बंद किए जाने का आदेश आने तक 'शांति स्थापना' का आंदोलन कहते रहे. इस शांति अभियान से फैली अशांति के बीच पूरा गांव यहां से 70 किमी दूर आंध्र प्रदेश के चेरला तहसील चला गया, वहां वे 4 बरस तक रहे. लोग दूसरे के खेतों में मिर्च तोड़ने का काम करते थे. यह एक कड़ुआ अनुभव था, जो बीत चुका. 2009 में वनवासी चेतना आश्रम के हिमांशु कुमार ने इनमे से कुछ को वापस बसाया और रमन सिंह सरकार ने इस कृत्य को देखते हुए हिमांशु कुमार के आश्रम को ही उजाड़ दिया. चेरला से आदिवासी धीरे-धीरे वापस अपने गांव लौट आए. तकरीबन 10 परिवार अभी भी नहीं लौट पाए. 
काका सरस्वती के पिता काका रामा अब तस्वीरों में
ही सरस्वती को देख पाएंगे
गांव के अलग-अलग लोगों से हुई बातों के आधार पर यह उस घटना की यह एक सामूहिक गवाही सी है कि 28 जून की शाम 8 बजे एक तयशुदा मीटिंग थी. जिसमे तीनों पारों से हर घर का लगभग एक सदस्य शामिल था. बारिस कुछ दिन पहले ही शुरु हुई थी और धान के खेती की यह सामूहिक तैयारी थी. इस पूरे इलाके में आदिवासी सामूहिक श्रम की खेती करते हैं. रास्तों से गुजरते हुए हमने यह भी देखा कि खेत उनके अपने नहीं बल्कि गांव के हैं और कई महिलाएं और बच्चे एक साथ मिलकर उन खेतों में हल चला रहे हैं. बारिस की शुरुआत देर से हुई इसलिए यह मीटिंग भी मौसम की देरी के साथ थी. कारण यह भी था कि गांव के पुजारी जो फसल के पहले पूजा के लिए मीटिंग आयोजित करते थे कुछ दिनों पहले उनकी मौत हो चुकी थी. वह स्थान जहां मीटिंग आयोजित थी तीनों पारों के बीच की जगह है. आसपास महुआ और ताड़ के कुछ पेड़ हैं जिनकी एक दूसरे के बीच की दूरी 20 मीटर से भी अधिक है. यानि यह एक खुला हुआ मैदान है. मिट्टी की हल्की ऊंची एक पट्टी है जो घास से ढंकी हुई है और बगल के महुआ के पेड़ की जड़ें उभरी हुई हैं. गांव की मीटिंग में बैठने के लिए यह एक सहूलियत की जगह है. मड़ियम राकेश बताते हैं कि खाना खाने के बाद लोग इस मैदान में इकट्ठा होने लगे. तीनों पारे के लोगों को आवाज लगाकर इकट्ठा किया गया था. यह कोई छुपी हुई मीटिंग नहीं थी. एक घंटे के बाद बातचीत शुरू हो गयी. जिसमे यह तय होना था कि किसके खेत में कौन काम करेगा, किसके पास क्या बीज है और गांव के लिए पिछले तीन सालों से बड़ी मुश्किल यह है कि बैल बहुत कम हैं. सलवा-जुडूम ने जब इस गांव को उजाड़ा और जलाया था तो बैल और जानवर जंगली बन गए. अब गांव में जितने बैल हैं उन्हीं की जुताई पर पूरे गांव की खेती होनी है. गांव वालों की बैठक रात के दस बजे तक चलती रही और तब तकरीबन 70-80 लोग उस समय मौजूद थे जब सैन्य बलों ने घेर कर गोलियां चलानी शुरु कर दी. गांव वालों को उनके आने का पता तक न चला न ही सैन्य बलों द्वारा कोई चेतावनी दी गयी. चलती गोलियों के बीच लोग घरों की तरफ भागने लगे. किसी भी घर की दूरी यहां से तकरीबन 150 मीटर है. 150 मीटर की दूरी पार करने के लिए 300 कदम तो दौड़ना ही था. इस बैठक में उपस्थित लोगों में से 23 लोगों को गोलियां लगी जिसमे 17 लोगों की मौत हो गई. यह सबकुछ महज आधे घंटे से एक घंटे के भीतर हुआ. गोलीबारी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आसपास के ज्यादातर पेड़ों में गोलियों के निशान हैं, गोली लगने से मरी हुई एक सूअर की हड्डिय़ां अभी वहीं बिखरी पड़ी हैं, गोली से मृत दो गायों को गांव वालों ने थोड़ी दूर जंगल में फेंक दिया है, उनमें एक बैल अभी जख्मी और जिंदा है. महुआ के पेड़ की जड़ पर रिसे हुए खून के बस धब्बे बचे हैं, मृतकों की फटी हुई कमीज और बनियान है जो मिट्टी से लिपटी मैदान में पड़ी हैं. गोलीबारी के तुरंत बाद सैन्य बलों ने एक डम्फरनुमा गाड़ी में घायलों और मृतकों को एक दूसरे के ऊपर फेंक दिया. गांव वालों का कहना है कि जब उन्हें लादा जा रहा था तो उनमे से ज्यादातर लोग जख्मी और जिंदा थे. यह कहते हुए गांव के लोग संभावना जता रहे थे कि उनकी मौत अमानवीय तरीके से गाड़ी में लादे जाने और रक्तश्राव से हुई. वे यह भी बता रहे थे कि एक मृतक के कंधे पर कुल्हाड़ी औरीक के सिर पर पत्थर से मारे जाने के निशान भी थे. उन्हें ऐसी आशंका है कि कुछ जख्मी लोगों को थाने ले जाकर प्रताड़ित करके उनकी हत्या की गयी. गोलीबारी के बाद कई घरों की तलाशी ली गई और सैन्य बलों द्वारा लूटपाट भी किया गया. गांव की काका कमला ने बताया कि इरपा ललिता जो अपने घर में सोई हुई थी सैन्य बलों ने उन्हें निर्वस्त्र किया और उनके साथ बुरा किया. इस तलाशी के दौरान कई महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई. इरपा पुष्पा को उनके घर से घसीट कर पीटा गया. मड़कम शांति जिनके पति की सलवा-जुडुम ने 2005 में हत्या कर दी थी उनके साथ भी सैन्य बलों ने बदसलूकी की. कम्मा सरस्वती, इरपा तुलसी, सारिका काका, बारसे मारुति गांव के अलग-अलग लोगों ने इनके नाम भर गिना दिए. वे सबके बारे में नहीं बता पा रहे कि क्या हुआ, गांव की सामूहिक हत्याओं में शायद यह सबकुछ उनके लिए बेहद सहज और मामूली सा हो गया है. शायद न भी हो, जिन घटनाओं पर वे चुप हैं, जिसके बारे में कुछ पूछने पर वे धीरे-धीर वे अपने घरों की तरफ चले जाते हैं, उन्हें कुरेदना वाजिब नहीं. गोलीबारी के ज्यादातर साक्ष्यों को दूसरे दिन सुबह सैन्य बलों द्वारा खुद ही मिटा दिया गया. वे जमीन पर गिरे खून की मिट्टी तक उठा कर ले गए. पेड़ों में गोलियों के सुराख हैं पर उनमे कोई भी गोली नहीं है.
काका रमेश और काका पार्वती अपने जख़्म दिखाते हुए

अब उनकी लाशें गांव के अलग-अलग किनारों पर दफन कर दी गई हैं. गांव का कोई भी युवक उस तालाब तक लेकर जाता है और कहता है कि बताओ ये सब माओवादी थे. जैसे गांव के अपने लोगों के लिए वह आपकी गवाही चाहता हो. मैदान के सबसे नजदीकी झोपड़ी में कुछ महिलाएं रेला के अलाप के साथ विलाप कर रही हैं और झोपड़ी के चौखट पर दो मिट्टी के दिए जल रहे हैं यह उनके मृतक होने के बाद का संस्कार है. जहां इरपा जानकी जो मृतक इरपा दिनेश की पत्नी हैं वे रो रही हैं. दिनेश इरपा की उम्र 30 बरस के आसपास थी. दूसरे दिन जब गांव वालों ने बासागुड़ा थाने को घेर कर शोर मचाया तब शाम 6 बजे मृतकों की लाशें गांव वालों को लौटाई गई. जिसकी कुल संख्या 16 थी. पुलिस द्वारा इरपा दिनेश की लाश तक वापस नहीं की गयी. थोड़ी देर बाद जानकी अपने 2 साल के बच्चे को कंधे पर उठाए आती हैं और तेलगू में कुछ कहती हैं. वे कहती हैं कि माओवादी बीबी-बच्चों के साथ घर बनाकर कहां रहते हैं. काका सरस्वती जो 12 साल की एक बच्ची थी उसके पिता काका रामा चुप हैं. कहने के लिए उनके पास सरस्वती की एक तस्वीर है जिसे लेकर वे मैदान के एक किनारे पर बैठे हैं, उन्हें हिन्दी नहीं आती इसलिए कुछ भी पूछने पर तस्वीर दिखाते हैं. मृतक समैय्या काका की उम्र 31 बरस थी ऐसा उनके वोटिंग कार्ड से आंकलन किया जा सकता है. जिसमे जन्म की तारीख के स्थान को Xxxxxxxxx xxx  से भर दिया गया है और वर्ष की जगह 1979 दर्ज है. इरपा नारायण के जन्म की तारीख और बरस दोनों का पता इनके वोटिंग कार्ड में दर्ज नहीं है. यहां 1 जनवरी 1995 को निर्वाचन आयोग ने इन्हें 35 बरस का माना है. इरपा नारायण 4 बच्चों के पिता थे. उनकी हत्या के बाद जब सैन्य बलों ने घरों की छानबीन की तो उनके घर में रखे 30 हजार रूपए भी उठा ले गए. मड़कम मुत्ता जो नागेश और सुरेश के पिता हैं उन्होंने अपने दोनों बेटों को दफ्न कर दिया है. इसी तरह इरपा राजू ने भी अपने दो बेटे इरपा मुन्ना और इरपा दिनेश को खो दिया है. इन चारो की उम्र 25 से 30 साल के बीच थी. कुल 17 मृतकों की अलग-अलग कहानियां हैं. हर मृतक की मां, पत्नी, पिता अपने साथ सुबूत लिए खड़े हैं. माओवादी न होने के सुबूत. सरकारी द्स्तावेजों में मृतकों के नाम जहां-जहां मौजूद हैं अपनी झोपड़ियों से वे सब उठा लाए हैं. जैसे वे इसे पेश करते हैं कि माओवादी नहीं है इसलिए इन्हें जिंदा कर दो. कैमरे के सामने वे अपने बच्चों की तस्वीरें रखते हैं और फिर उसे गमछे से पोछते हुए उठा लेते हैं.
घटना में जो छः लोग जख्मी हैं उनमे काका पार्वती जिनकी उम्र 13 बरस है और काका रमेश जिनकी उम्र 15 बरस है. काका पार्वती के बांए हांथ में गोली लगी है और रमेश के हाथ व पीठ दो जगह. अपने जख्मों पर पट्टियां बंधवा कर वे जगदलपुर से गांव वापस लौट आए हैं. रमेश को उसी गाड़ी में लादकर ले जाया गया था जिसमे घायल और मृतकों को साथ में लादा गया. अपने शर्ट को उठाए हुए वे कुछ बुदबुदाते हैं और फिर रोने लगते हैं. रमेश के पिता दो बरस पहले पास की ही तालपेरू नदी में अचानक आयी बाढ़ में बह गए. घायलों में एक 12 साल का बच्चा आपका छोटू है जिसके पिता का नाम बुधराम है और इरपा चिनक्का जो इरपा नरसा की पत्नी है दोनों जगदलपुर अस्पताल में हैं. जिसे बड़े माओवादी के रूप में प्रचारित किया जा रहा है वह काका सेंटी और सोमा मड़कम हैं. ये दोनो घायल हैं और रायपुर के किसी अस्पताल में हैं. काका सेंटी की उम्र 18 बरस है और उनके माता-पिता नहीं हैं. बुधराम ने बताया कि घटना के तीन दिन पहले से सेंटी अपने घर में महुआ के फलों से छिलके निकाल रहे थे. हालांकि उन्होंने यह नही पूछा कि एक बड़ा माओवादी ग्रीनहंट जैसे अभियान के समय इतने इत्मिनान से कैसे रहेगा. जबकि लोग कुछ बताने के बजाए किसी भी व्यक्ति से ऐसे ही सवाल पूछ रहे हैं. सोमा मड़कम के पत्नी का नाम कमला है जो अभी गर्भवती हैं. सोमा के कुल तीन बच्चे हैं. वे गांव के कुछ लोगों के साथ रायपुर जाना चाहती थी पर गांव के लोगों ने उन्हें रोक दिया. गांव के लोग पहले इन्हें मृत मान चुके थे पर अखबारों की कतरनों को वे दोनों के जिंदा होने के सबूत के तौर पर रखे हुए हैं.  
7 जुलाई को भोपालपट्टनम के एस.डी.एम. आर.ए. कुरुवंशी दो ट्रक राहत सामाग्री लेकर गांव पहुंचे थे. एक तम्बू लगाकर वे गांव वालों का इंतजार करते रहे. 5 घंटे बाद गांव के लोग एक साथ होकर उनके पास आते हैं. वे अपने सत्रह लोग लेने आए हैं. वे कहते हैं कि हमारे 17 लोगों को हमे वापस करो. मृतकों की पत्नियां और गांव के लोग चीख रहे हैं. वे अपने छोटे बच्चों को उनके सामने घसीटते हुए लाते हैं और गोली चलाने को कहते हैं. वे चिल्ला रहे हैं कि हम सब माओवादी हैं हम पर गोलियां चलवा दो. काका कमला कहती हैं कि सरकार ने माओवादियों के लिए राशन-कपड़े क्यों भेजे हैं. चिल्लाते-चिल्लते कुछ महिलाएं फिर से सुबकना शुरु कर देती हैं. एस.डी.एम. कुरुवंशी तम्बू को उतारने और वापस लौटने का आदेश देते हैं.   
हत्या की घटना को एक हफ्ते से ज्यादा गुजर चुके हैं. हर रोज बाहर से पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आना जारी है और हर रोज उन्हें पूरी कहानी दुहरानी पड़ती है. गांव को सैन्य बलों ने घेर रखा है. जंगल की तरफ से जब हम गांव में घुसने को थे कि सैन्य बल अपने हथियार की नली हमारी तरफ घुमाते हुए मुस्तैद हो गए. गांव के लोगों को रात में कहीं निकलने नहीं दिया जाता. किसी भी बाहरी व्यक्ति के आने पर सैन्य बल देर तक उससे पूछताछ करते हैं. नजदीकी गांव पाकेला, पुसुबाका के लोगों का बासागुड़ा बाजार और स्कूल जाने का यही रास्ता है. उन गांव के लोगों ने इधर से जाने का रास्ता छोड़ दिया है. तीन किमी. जाने के बजाय वे 70 किमी. दूर चेरला जाने लगे हैं. वे किसी सामान को खरीदने पैदल भी चले जाते हैं. जिंदगियां दूरी और समय से ज्यादा कीमती हैं. कई बच्चे भय के कारण पिछले कुछ दिनों से स्कूल नहीं गए हैं. तालपेरू नदी का पानी धीरे-धीरे बारिश के कारण बढ़ रहा है और ऐसे में वे चिंतित हैं. जंगल एकमात्र सहारा है और जंगलों में जाना खतरनाक भी

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