-दिलीप ख़ान
बंबई में 1918 में जब आम हड़ताल हुई थी तो उसमें 1,20,000 से ज़्यादा मज़दूरों ने हिस्सा लिया था और हड़ताल को कुचलने के लिए
अंग्रेज़ों ने लगभग 200 मज़दूरों को पुलिसिया गोली से उड़ा दिया। भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन के किसी भी नेता ने उस समय तक मज़दूरों के मामले पर गंभीरता से
काम करना शुरू नहीं किया था। मज़दूरों की गोलबंदी स्थानीय स्तर पर स्थानीय नेताओं
द्वारा शुरू हुई और देश में लगातार फैलती गई। बंबई से लेकर असम के चाय बगान तक और
मद्रास से लेकर कानपुर के चमड़ा उद्योग तक। अप्रैल-जून 1921 तक अकेले बंबई 33
हड़तालों का गवाह बना और इसमें लगभग ढाई लाख मज़दूरों ने हिस्सा लिया। इसी आस-पास
कानपुर में चमड़ा और सूती वस्त्र उद्योग के मज़दूरों ने हड़ताल की और प्रबंधन से
मज़दूरी दर बढ़ाने, काम के तौर-तरीकों को बेहतर बनाने तथा मुनाफ़े में हिस्सेदारी
की मांग की। कानपुर में आज से लगभग 90 साल पहले, जब मज़दूर आंदोलन और औद्योगिक
समाज के भीतर भारत में मज़दूर चेतना आकार ही ले रही थी, उत्पादन में हिस्सेदारी की
मांग के साथ मज़दूर सड़क पर उतर गए थे। कांग्रेस सहित कई अन्य पार्टियों ने उस
वक्त इस मांग को ठीक बताया था। आज अगर मुनाफ़े में हिस्सेदारी की मांग मज़दूरों की
तरफ़ से उठे तो कॉरपोरेट घरानों के अलावा समूचा भारतीय मध्यवर्ग और सरकारी मशीनरी
मज़दूरों पर पिल पड़ेंगे। मानेसर में जब बीते साल मारुति सुज़ुकी के कामगारों ने
प्रबंधन प्रायोजित यूनियन की बजाए वास्तविक यूनियन बनाने सहित काम-काज की
स्थितियों को दुरुस्त करने और वेतन कटौती के त्रासद नियमों (1 मिनट देरी से आने
पर आधे दिन का वेतन और तीन दिन काम पर नहीं आने पर आधे महीने के वेतन में कटौती) में
परिवर्तन लाने की मांग की तो प्रबंधन को इसमें ‘विकास-विरोधी
नज़रिया’ दिखा था और कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपिंदर हुड्डा मज़दूरों का पक्ष
सुनने के बदले सुज़ुकी कंपनी का भरोसा जीतने टोक्यो पहुंच गए थे। कंपनी में
तालाबंदी थी और प्रबंधन इस बात को लेकर मज़दूरों पर लगातार दबाव बना रहा था कि ‘गुड कंडक्ट फॉर्म’ भरने वाले मज़दूर
ही कारखाने के अंदर जा सकते हैं। ‘गुड कंडक्ट फॉर्म’ का मतलब था-
मज़दूरों की बुनियादी मांग की हत्या।
मानेसर का मारुति-सुज़ुकी प्लांट |
बीते साल तीन बार हड़ताल हुई, काम से निकाले गए
कई मज़दूरों को वापस लेने के वायदे से प्रबंधन मुकर गया और हड़ताल की अगुवाई करने
वाले दोनों नेता खुद को कंपनी से अलग कर लिए। लेकिन, लंबी मशक्कत के बाद मारुति
सुज़की इंपल्वाइज यूनियन को मान्यता मिल गई। प्लांट के भीतर उन्हीं सवालों पर
संघर्ष अब भी जारी था जो बीते साल उठ रहे थे। इस पूरे वाकये को दौरान मारुति
सुज़ुकी कंपनी को गुजरात सरकार लगातार यह प्रलोभन देती रही कि वो उसे हरियाणा से
ज़्यादा ‘फ्रेंडली’ माहौल दे सकती है।
नरेंद्र मोदी और सुज़ुकी की बातचीत जारी थी और सुज़ुकी महोदय भी बीच-बीच में
मीडिया के जरिए यह बात उछाल रहे थे कि वो प्लांट को उठाकर गुजरात ले जाएंगे।
मानेसर के मज़दूरों में उस समय एक जुमला प्रचलित था कि प्लांट कोई लोटा-थाली नहीं
है कि जब मन करे कहीं भी उठा ले चलेंगे! सुज़ुकी के इसी फैसले को टालने के लिए
भूपेंदर हुड्डा जापान गए थे ताकि सरकार की तरफ़ से कंपनियों को अब तक मिले
प्रोत्साहन में बट्टा न लगे। इस तरह मारुति-सुज़ुकी के पास दो अलग-अलग राज्यों की
अलग-अलग पार्टियों के मुख्यमंत्री मनुहार लगा रहे थे। कंपनी प्रबंधन के पास
मज़दूरों की मांग नहीं मानने के लिए ज़रूरी आत्मविश्वास बरास्ते सरकार जमा हो रहा
था। इसके बाद हड़ताल, प्रदर्शन और किसी भी तरह के जमावड़े को रोकने के लिए प्रबंधन
ने बड़ी संख्या में बाउंसरों की भर्ती की। मतलब खाए-पिए-अघाए लोग ‘फ्रेश’ होने के लिए जब
डांस क्लब में जाते हैं, तो छेड़खानी या फिर हंगामा वगैरह को नियंत्रित करने के
लिए जिन बाउंसरों का इस्तेमाल होता है उन्हीं बाउंसरों को बुनियादी मांग उठा रहे
मज़दूरों के सामने खड़ा कर दिया गया। कंपनी में काम-काज बाउंसरों की पृष्ठभूमि में
होने लगा। अगजनी या फिर प्रबंधक की मौत निश्चित तौर पर एक दुखद चित्र हमारे सामने
पेश करता है लेकिन ज़्यादा महत्वपूर्ण होगा इसके कारणों का पता लगाना। जातिसूचक
गाली देने वाले व्यक्ति की पिटाई एक तरह से जातिगत वर्चस्व की संरचना को तोड़ता है
और इस वजह से मैं इसे सकारात्मक ही मानूंगा। मध्यवर्गीय समाज हिंसा-अहिंसा की बहस
को सुविधानुसार समय में उठाता है। किसान-मज़दूरों का प्रदर्शन जब कभी उग्र हो जाए
तो सरकार से लेकर मीडिया तक के दिमाग में औचक विचार आता है कि ये तो हिंसा का
रास्ता है और इसलिए ग़ैर-संवैधानिक है! पिछले साल हुड्डा के जापान से लौटने के
बाद जब मज़दूरों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस ने लाठी भांजी तो उस समय
संवैधानिक और ग़ैर-संवैधानिक वाली बहस नहीं उठी। संविधान के दायरे में मिले
अधिकारों को तो कॉरपोरेट के साथ मिलकर खुद सरकार मटियामेट कर रही है। नौकरी की
ठेका प्रथा पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और देश के संविधान में जो बातें कही गई
हैं क्या उसे भारत के किसी भी कोने में सरकार लागू करवा रही है?
मानेसर में मारुति-सुज़ुकी का यह प्लांट लगभग 3000 एकड़ में फैला है। 2002 में चौटाला सरकार ने 2.25 लाख रुपए प्रति एकड़ की दर
से स्थानीय लोगों से ज़मीन ली थी। उस वक्त राज्य सरकार ने वादा किया था था कि
ज़मीन देने वाले हरेक घर से एक व्यक्ति को नौकरी दी जाएगी। काम शुरू होने के बाद
कंपनी ने नौकरी देने से इनकार कर दिया। जो लोग नौकरी की आस लगाए बैठे थे उन लोगों
ने चाय की भट्टी और छोले-भटूरे की दुकान खोल ली। कुछ लोग रिक्शा और टैम्पो चलाने
लगे। उनकी कमाई का जरिया मारुति-सुज़ुकी का यह प्लांट ही है। यहां काम करने वाले
लोग ही उनके ग्राहक हैं। इसलिए उनका संकट ये है कि अगर प्लांट मानेसर से कहीं और
शिफ्ट होता है तो उनमें से ज़्यादातर लोग बेरोज़गार हो जाएंगे। प्रबंधन, सरकार और
मीडिया से जिस तरह की बातें छन कर उन लोगों तक पहुंची उसका अर्थ यही था कि प्लांट
के मज़दूर नहीं चाहते कि प्लांट चले! इस भाव को अगल-बगल के गांव के सरपंचों (हरियाणा
के सरपंच को आप किस रूप में जानते हैं? संदर्भ- खाप) ने और स्थाई बना दिया।
सरपंचों ने मिलकर ‘महापंचायत’ बैठाई और फैसला
किया कि ‘लाल झंडे’ वालों को सबक
सिखाने में वो दूसरे पक्ष का साथ देंगे। समाज का जिस तरह से (अ)राजनीतिकरण हो रहा
है उसमें तत्कालिक आवेश ज़्यादा अहम हो चला है। दुनिया के किसी भी कारखाने में काम
करने वाला कोई भी मज़दूर यह कभी नहीं चाहेगा कि वह कारखाना ठप्प हो जाए और यह बेहद
सामान्य-सी बात है। हां, अपने अधिकार के लिए वो लड़ेगा ज़रूर। अगर प्लांट के चारों
तरफ के गांव वाले इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं तो जाहिर है कंपनी के प्रोपेगैंडा
के बीच यह पक्ष उन तक नहीं पहुंच रहा है। जिस बेरोज़गारी के डर से गांव वाले
पंचायत बैठा रहे हैं उस आधार पर तो वो मज़दूरों के ज़्यादा करीब है। प्लांट बंद
होने पर उनकी तरह मज़दूर भी बेरोजगार हो जाएंगे। अधिकारों के लिए लड़ रहे मज़दूरों
को कंपनी धोखा दे रही है और गांव वालों को नौकरी नहीं देकर वो पहले ही धोखा दे
चुकी है। सवाल ये है कि बीते साल हड़ताल को अंदरुनी मामला बताने वाला ‘तटस्थ समाज’ आखिरकार कंपनी के
पक्ष में अचानक कैसे चला जाता है? क्या तटस्थता का पूरा मामला अंतत: शक्तिशाली के पांत
में ही खड़ा होना है? दिल्ली से लेकर बंबई तक के कॉलेज में पढ़ रहे
फंकी युवाओं की हमदर्दी कंपनी के साथ क्यों रहती है? ‘उदारीकृत’ आर्थिक व्यवस्था
में समाज में निरपेक्ष दिखने वाले तबके का राजनीतिकरण किस दिशा में हो रहा है। यह
व्यवस्था की चौहद्दी में हुई मानसिक बुनावट है या फिर पक्षधरता तय कर ली है समाज
ने?
बाइक पर अन्ना समर्थक युवा-शहरी-मध्यवर्ग |
25 जुलाई 2005 को होंडा मोटरसाइकिल के कामगारों
पर लाठी चार्ज हुआ था। उस वक्त लगभग 800 मज़दूर होंडा सिटी के कारखाने में जमा
होकर यूनियन बनाने और निकाले गए मज़दूरों की पुनर्बहाली को लेकर प्रदर्शन कर रहे
थे। प्रबंधन उनकी यूनियन को मान्यता नहीं दे रहा था और मज़दूरों को बहाल करने में
आना-कानी बरत रहा था। 2005 में होंडा कंपनी से लेकर 2011-12 में मारुति-सुज़ुकी तक
जो लकीर खिंची है उसमें बहुत फ़र्क़ कहां है? मारुति में भी
शुरुआती आंदोलन इन्हीं दो सवालों से पैदा हुआ था। यह संयोग है कि 25 जुलाई को
उस घटना की सालगिरह थी और इसी दिन प्रणब मुखर्जी ने देश के नए राष्ट्रपति के तौर
पर शपथ ली और अन्ना हज़ारे एंड कंपनी ने जंतर-मंतर पर मोर्चा खोला। 2005 के बाद से
हर साल मानेसर और गुड़गांव की ऑटोमोबाइल कंपनियों के मज़दूर इस दिन लाठी चार्ज के
विरोध में प्रदर्शन करते हैं। इनमें मारुति सुज़ुकी, हीरो मोटोकॉर्प, रिको, सोना
कोया, एफसीसी रिको, सुज़ुकी पावरट्रेन, सुज़ुकी मोटरसाइकिल और मार्क एक्झॉस्ट के
मज़दूर अमूमन हर साल शामिल होते रहे हैं, लेकिन इस बार 24 जुलाई को गुड़गांव पुलिस
ने यह घोषणा की कि 25 तारीख़ को मानेसर में धारा 144 लागू कर दी गई है और पांच से
ज़्यादा व्यक्ति एक साथ इकट्ठा नहीं हो सकते। मज़दूरों के मार्च को रोक दिया गया।
फिर भी कंपनी के भीतर लगभग 8,000 मज़दूर जमा हुए। जो मीडिया सौ लोगों की महापंचायत
को दिखा रहा था उसने आठ हज़ार मज़दूरों के प्रदर्शन को नहीं दिखाया।
इस बीच मीडिया में इस तरह की ख़बरें लगातार आती
रही कि मानेसर बंद होने से कौन सी कार बाज़ार में आउट-ऑफ-स्टॉक हो जाएगी, डीज़ल
कार की क़ीमत पर इससे क्या असर होगा और मारुति-सुज़ुकी को इस तालाबंदी से कितना
घाटा होने वाला है! वगैरह, वगैरह। मारुति सुज़ुकी के सीओओ मयंक
पारीख ने 25 जुलाई को ही घोषणा की कि उनका दो सबसे ज़्यादा बिकने वाला मॉडल
स्विफ्ट और डिज़ायर आउट ऑफ स्टॉक हो गया है। अगले दिन इस मुद्दे पर कुछ चैनलों ने
लोगों की रायशुमारी ली जिसमें मध्यवर्ग छाती कूटता दिख रहा था। यह चर्चा लगातार
ज़ोर पकड़ने लगी कि मारुति-सुज़ुकी में हुई हिंसा से ‘भारत की छवि’ धूमिल हुई है।
सार्क चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अध्यक्ष विक्रमजीत सिंह साहनी ने देश की
छवि पर पड़ने वाले असर पर भारी चिंता जताई। बंगाल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड
इंडस्ट्री के अध्यक्ष हर्ष झा ने कहा कि मानेसर के दोषियों पर आपराधिक क़ानून के
तहत मुकदमा चलना चाहिए और इसे औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत नहीं देखा जाना
चाहिए। झा ने दावा किया कि पूरा मामला पूर्वनियोजित मालूम पड़ता है! औद्योगिक घराना उस
वक़्त आपराधिक क़ानून का जुमला नहीं उछालता जब सेज़ के लिए ज़मीन अधिग्रहण के
वास्ते फ़ौजी बंदूक का सहारा लेकर गांव वालों को वो खदेड़ता है। उस समय उन्हें
निजी कंपनियों की सुरक्षाकर्मी की तरह चाक-चौबंद होकर गांव खाली कराने वाली सरकार चाहिए।
कंपनी के अध्यक्ष आर सी भार्गव ने यह बार-बार
जताया है कि कंपनी मानेसर में ही रहेगी लेकिन तालाबंदी के बाद मौका ताड़कर इस बार
सुज़ुकी से मिलने के लिए नरेंद्र मोदी ने जापान का रास्ता नापा। वे अपनी तईं पूरा
ज़ोर लगा रहे हैं कि गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले मारुति-सुज़ुकी को अपने राज्य
में खींचकर ले जाने में वो सफल हो पाएं। आख़िरकार वो कौन-सी शर्तें होंगी जिनके
बिना पर मारुति-सुज़ुकी गुजरात जाने का फैसला करेगी। मज़दूरों की हड़ताल के अलावा
मारुति-सुज़ुकी को अब तक मानेसर में कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। तो क्या हड़ताल को
क्रश करने का भरोसा दिलाने मोदी जापान पहुंचे? ‘विकसित राज्य’ तक पहुंचने का
रास्ता इन्हीं वायदों से होकर गुजरता है। मध्यवर्ग को सिर्फ़ इससे मतलब है कि उनके
घर के सामने स्विफ्ट और डिज़ायर पहुंचने में देर नहीं होनी चाहिए। उनके लिए कंपनी
कार की जननी है और मज़दूर अड़ंगा डालने वाला प्राणी। यही मध्यवर्ग गाल पर तिरंगा
छापकर अन्ना हज़ारे के साथ भ्रष्टाचार पर आवाज़ बुलंद करने पहुंचता है। इनका
मुद्दा सिर्फ़ वहीं तक सीमित है जो सीधे-सीधे इनसे टकराता हो। मज़दूरों के मामले
से इनको कोई लेना-देना नहीं है, अल्पसंख्यक-दलित-आदिवासियों का मामला इनको
आउटसाइडर जैसा मालूम पड़ता है। सरकार इनको साफ़ सुथरी चाहिए, कोई भ्रष्टाचार नहीं
चाहिए और सुज़ुकी के साथ गलबहियां डालने वाले नेता को उनके जनसंहार के लिए क्लीन
चिट देते हुए यह पूरा वर्ग उसमें विकास के अक्स ढूंढता है।
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