02 जुलाई 2012

जेल डायरी: अरूण फरेरा

भाग तीन  

इस बंद दुनिया में, बाहर की ओर खुलने वाली मेरी एकमात्र खिड़की मेरे लिए किताबें और पत्रिकाओं मुहैया कराती थी। हालाँकि, महाराष्ट्र के जेलों के पास प्रकाशित सामग्रियाँ, यहाँ तक कि आधिकारिक सरकारी प्रकाशनों तक को, ख़रीदने के लिए कोई कोष नहीं होता है। जेल का पुस्तकालय पूरी तरह से व्यक्तियों और स्वयंसेवी संस्थाओं के चंदों पर निर्भर है। किताबों के चयन बिल्कुल उटपटांग हैं, जिनमें अधिकतर धार्मिक किताबें ही हैं। पहले तो, मैं डाक के ज़रिये जितनी पत्रिकाओं के ग्राहक बना, वे मेरी कोठरी तक कभी नहीं पहुँच पाईं। जेलर तय करता कि कौन सी किताबें हमारे लिए उचित हैं। एक बार हमें जेम्स बॉन्ड के उपन्यास देने से इंकार कर दिया गया क्योंकि उसका मुखपृष्ठ उन्हें अश्लील लग रहा था। वे हर-हमेशा हमारी पत्रिकाएँ हम तक पहुँचने से रोक देते क्योंकि उसमें ‘माओवादी’ या ‘क्रांति’ शब्द होता था। यहाँ तक कि बहुत मोटा होने के कारण भारतीय संविधान भी हमें नहीं दिया गया।      
जब कभी किताबें हमारे हाथ लगतीं, अपराध-उपन्यास हमेशा हिट रहे। अदालत के कमरों में होने वाले जिन ड्रामा या एक्शन की हम तलाश करते थे उनकी नामौजूदगी में, ली चाइल्ड और जॉन ग्रिशम के उपन्यास ही काम में आए। मैंने स्टीग लार्सन और हेनिंग मंकेल के स्कैंनडिवियाई उपन्यास भी पढ़े।
जेल प्रशासन द्वारा दोस्तों और परिवार से मुलाक़ात की दुर्भावनापूर्ण अनुमति एक अन्य छूट थी। सज़ायाफ़्ता क़ैदियों को एक महीने में एक बार और अंडरट्रायल्स को एक हफ़्ते में एक बार मुलाक़ात करने की अनुमति होती है। जो परिवार दूर दराज़ के गाँवों से लंबी यात्रा करने के लिए पर्याप्त पैसों का इंतज़ाम कर मिलने आते हैं उन्हें जेल दरवाज़े के पास मुलाक़ात बूथ पर सुबह-सुबह सबसे पहले अपना नाम दर्ज़ कराना होता है। इसके लिए परिवारवालों को तीन या चार घंटे तक, चाहे कड़ी धूप हो या बरसात, बाहर खड़े रहना होता है। यहाँ जेल प्रशासन उनकी छानबीन करता है कि वे मुलाक़ात के लिए सुरक्षा के लिहाज़ से योग्य हैं कि नहीं और कि कहीं उन्होंने अपना कोटा तो नहीं पार कर लिया है। थकान भरी इंतज़ार के बाद, मुलाक़ातियों—अधिकतर महिलाएँ और बच्चे—को फिर बारी बारी से जालीनुमा खिड़कियों वाले एक कमरे में ले जाया जाता है। खिड़की की जालियों के उस पार हरेक के लिए क़ैदी इंतज़ार कर रहे होते हैं। वहीं पर दूसरी ओर, क़ैदियों को चेतावनी दी जाती है कि वे मुलाक़ात की निर्धारित समय-सीमा न लांघें। अंडरट्रायल्स को 20 मिनट और सज़ायाफ़्ता को 30 मिनट का वक़्त दिया जाता है। जाली के दोनों तरफ़ हमेशा ही एक ख़ास तरह की चिंता व्याप्त रहती है, क्योंकि क़ैदी और उनके परिवार के लोग इस कोशिश में रहते हैं कि सामने मिले छोटे से वक़्त में जो कुछ कहना है वह कहीं छूट न जाए।
मेरे पहले मुलाक़ाती मेरे माता-पिता और मेरा भाई था। हालांकि, मेरी पत्नी मुझसे मिलना चाहती थी, लेकिन पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए जाने के ख़तरे को देखते हुए हमने तय किया कि ऐसा करना ठीक नहीं होगा। पहली मुलाक़ात में, मेरे माता-पिता जालियों के पीछे मुझे एक छायाचित्र की तरह सिर्फ़ देख सके। उन्होंने मेरी सिर्फ़ आवाज़ से मुझे पहचान लिया। तार लगी जालियाँ किसी भी तरह के आश्वस्तकारी आलिंगन की राह में आड़े डटी रहीं। जब मेरी हिरासत खिंचती चली गई तो मेरे परिवार ने हर दो महीनों में मुझसे मिलने का प्रबंध किया। हमने तय किया कि अदालत में मेरी पेशी के वक़्त हमलोग मिलेंगे। यद्यपि, मेरे साथ रहने वाले सुरक्षाकर्मी कभी कभी इस सुविधा की अनुमति देने से इंकार कर देते थे। मेरे जेल के सालों में मेरे बच्चे ने मुझे कभी नहीं देखा। वह नहीं जानता था कि मैं क़ैद में हूँ। अगर वह आता तो उसे हथकड़ियाँ लगाए पिता का एक छायाचित्र ही देखना पड़ता। हमने सोचा कि दो साल के बच्चे के लिए यह समझना कुछ ज़्यादा हो जाएगा।  
मेरा परिवार घर की ख़ुशियों से मुझे भरने की कोशिश करता, और मैं जेल जीवन की झांकियों से उन्हें वाक़िफ़ कराता। लेकिन, जैसे जैसे मुझ पर आरोपित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही थी, वैसे ही हर मुक़दमे की प्रगति चकरा देने वाली थी, और मेरे बूढ़े माँ-बाप के साथ उनकी चर्चा करना मुश्किल होता जा रहा था। अंततः, मुलाक़ातें मेरी चीज़ों की एक सूची उन्हें देने और उनके द्वारा अगली मुलाक़ात में उन्हें लाने और हमेशा चिट्ठी लिखते रहने के वादे तक सीमित हो गईं।
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नागपुर जेल में मैंने महसूस किया कि अधिकतर क़ैदी एक ‘अपराधी’ की किसी परिचित परिभाषा में फ़िट नहीं बैठते। उन्हें जेल में इसलिए रखा गया है, क्योंकि या तो उन्हें पुलिस ने झूठे मामलों में फंसाया है या फिर अक्सर किसी पारिवारिक झगड़े के दौरान ग़ुस्से के वशीभूत होकर उन्होंने किसी पर कोई हमला बोल दिया है। कमज़र्फ़ क़ानूनी सलाह के कारण उन्हें अपने मुक़दमों में सज़ा होती है।      
प्रारंभिक सदमे वाली सज़ा के बाद, लंबे सालों तक जेल में रहने के लिए उन्हें उदासीनतापूर्वक एक आज्ञाकारी दिनचर्या के अनुकूल ढलना होता है——आजीवन कारावास के मामले में महाराष्ट्र में औसतन 17-18 साल जेल में गुज़ारने होते हैं।
प्रार्थना और उपवास, पूजा, नमाज़ और रोज़ा के कठोर कार्यक्रमों से अधिकतर लोगों को दिलासा मिलती है। क़ैद आध्यात्मिकता को पालती-पोषती है। इसमें अलौकिक शक्तियों को मानते हुए उनके सामने अपना सब कुछ फेंक देने से कम से कम तात्कालिक तौर पर एक क़िस्म की प्रेरित करने वाली शांति प्रदान करने का गुण होता है। रिवाज़ों को धूम-धड़ाकों से मनाने से प्रशासनिक अनुमोदन भी पवित्र हो जाते हैं।  यह जेल-प्रबंधन द्वारा अनुमोदित धार्मिक समारोहों में क़ैदियों को प्रदर्शित होने, या संगठित होने देने तक का लाभ देता है।
भ्रम और हक़ीकत के बीच, उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच, लुका-छिपी का ये खेल किसी क़ैदी के अस्तित्व का लगभग आधार होता है। ये चाल चलने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि चुभते भ्रमों में तथ्यों की इजाज़त नहीं है, और नाउम्मीदी को उम्मीद के ऊपर जीत हासिल करने की इजाज़त नहीं है। एक बार क़ैदी यह मान जाएँ तो उनके संतुलन को बनाए रखना उतना मुश्किल नहीं होता है।
एक अंडरट्रायल के बतौर, आपको ख़ुद से कहना होता है कि मुक़दमा ठीक-ठाक चल रहा है, सारे गवाह [आपके ख़िलाफ़] नाकाम हो गए हैं, और आपको छूटना ही छूटना है। अगर आपको सज़ा हो जाती है, तो ऊँची अदालतो पर आपको अपनी उम्मीद टिकाए रखनी होती है। और इस मामले में, भारतीय न्यायिक व्यवस्था की अंतहीन देरियाँ वास्तविक वरदान होती हैं। उच्चतम न्यायालय पहुँचने तक उम्मीद बची रहती है। इस वक़्त तक आप महसूस करने लगते हैं कि आपकी सज़ा अंत की ओर पहुँच रही है, और इसे अब ख़त्म हो जाना चाहिए। फिर आप छूटों और माफ़ी के लिए आगे ताकते रहते हैं।
आप अपनी लिखान पर आख़िरी निर्णय के इस पेचीदा, फिर भी उम्मीद-भरे दौर के इंतज़ार में प्रवेश करते हैं। लिखान हर लंबी सज़ा पाए मुज़रिम की जेल न्यायिक विभाग द्वारा तैयार की गई समीक्षा-फ़ाइल के लिए प्रचलित एक शब्द है। यह दस्तावेज़ राज्य सरकार को क़ैदी की सज़ा की समीक्षा और समय-पूर्व रिहा करने के आदेश हासिल करने के लिए भेजा जाता है। इसमें जेल में क़ैदी के व्यवहार की रिपोर्ट और उन छूटों का हिसाब होता है जिनके लिए वह योग्य है। इसमें जेल, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की अनुशंसाएँ भी होती हैं। चूंकि, सरकार के समय-पूर्व रिहाई के नियम काफ़ी जटिल हैं, इसलिए कोई क़ैदी विरले ही आकलन कर पाता है कि अंततः उसके लिखान में क्या होगा।
मंत्रालय को निर्णय लेने में सालों लग जाते हैं। तब तक आप कुछ अंदाज़ा लगाते हैं कि आप अंततः कब अपनी रिहाई की अपेक्षा कर रहे हैं। और तब आप उल्टी गिनती शुरू करते हैं, घर जाने के बचे हुए दिनों में निशान लगाने लगते हैं।
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इन सबके बाद, जबकि आप अपना संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं, उम्मीद और निराशा का अटल प्रतीक है, लाल गेट, अर्थात लाल निकास दरवाज़ा। यह गप्पबाज़ियों में, मामूली बातचीत में, मज़ाक़ में और, यक़ीनन, सपनों में भी बार-बार प्रकट होता है। यह एक अवरोध है जो आपको अंदर बांधे रखता है और आपको बाहर की ओर ले जाने के रास्ते खोलता है। इसका राज़ ये होता है कि आपको अवरोधों को नज़रअंदाज़ करना होता है और सिर्फ़ दरवाज़ा देखना होता है। इससे सामान्य ज़िंदगी के कुछ आभास को बनाए रखने में मदद मिलती है।
लेकिन कुछ लोगों के लिए, जेल-जीवन के वो लंबे साल बाहरी दुनिया से थोड़े-से संपर्क या संचार के बग़ैर ही होते हैं। ग़रीबी उन्हें उतने पैसों के इंतज़ाम करने में भी बाधा बनती है जितना कि एक क़ैदी को छुट्टी या पैरोल पर भेजने के लिए राज्य को ज़मानतदारी में चाहिए होता है।
इसके अलावे, कई परिवार ऐसे होते हैं जो महीने की मुलाक़ात के लिए जेल आने का ख़र्च नहीं उठा सकते। निरक्षरता या पारिवारिक संबंधों के विघटन का मतलब होता है कि चिट्ठी-पत्री तक नहीं भेजी जा सकती। जैसे जैसे तन्हाई के ये साल बढ़ते जाते हैं, वैसे वैसे इन क़ैदियों को निष्ठुरता (और पागलपन) से अलग करने वाली रेखा तेज़ी से धुंधलाने लगती है।
तिरसठ-साल-के-बूढ़े किथूलाल एक ऐसे ही व्यक्ति थे। सामान्य ज़िंदगी की कुछ झलकियों के लिए वे समय को ठेंगा दिखाते रहे। वे ख़ुद को समझाते रहते थे कि उन्होंने अपना समय पूरा कर लिया है और कि भली सरकार जल्द ही एक विशेष छूट की घोषणा करने जा रही है जिससे उनकी रिहाई हो जाएगी। गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस के तीन-चार महीने बारीक़ी से उम्मीद की फ़सल बोए जाने का दौर होते थे; जो भी इन पर ग़ौर करने की परवाह करता, उससे कहा जाता था कि सरकार एक असाधारण स्थगनादेश की घोषणा करेगी और उसे इस महान दिवस को लाल गेट से बाहर जाने दिया जाएगा।
जैसे ही दिन आते और चले जाते, वैसे ही इस बारे में सबसे ज़्यादा उत्साही क़ैदियों पर एक असामान्य ख़ामोशी तारी हो जाती थी।
फिर उन्हें अन्य तरीक़े ईजाद करने होते थे। वे स्पष्टतः अतार्किक गतिविधियों के झोंके में बह जाते थे, मानो कि पर्याप्त मात्रा में बिखरी हुई मिठाई दर्द को दूर भगाने वाली हो। उपवास और अन्य रिवाज़ों के सामान्य मुग़ालते बड़े आयामों को समेटे हुए होते हैं।   
थोड़े समय बाद, वे अपनी रिहाई की अगली तारीख़ पर अपनी उम्मीद सहेजना शुरू कर देते थे।
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क़ानून का ख़याल रखते हुए, मैंने अगस्त 2007 में ज़मानत की अर्ज़ी दी। हालांकि, मुझे यह महसूस हो गया था कि भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में तेज़ी से मुक़दमों का निपटारा एक विलासिता थे। एक मुक़दमे को पूरा होने में औसतन तीन से पाँच साल लगते हैं। तक़रीबन डेढ़ साल तक हथियारबंद पुलिसकर्मियों के साथ पुलिस वाहन में बैठकर मैं लगभग रोज़ाना नागपुर से गोंदिया या चंद्रपुर तक सात घंटे की यात्रा करता रहा।       
अदालत पहुँचने पर मुझे पता लगता कि मुझे देरी से लाया गया है या फिर न्यायाधीश महोदय छुट्टी पर होते थे। मेरे वक़ीलों और मेरी यात्राएँ अक्सर बेकार हो जाती थीं, क्योंकि अभियोजन पक्ष के गवाह ही हाज़िर नहीं होते थे।
एक ख़ास मामला तीन सालों तक खिंचता रहा और अंततः सिर्फ़ एक गवाह के बयान के बाद मुझे बरी किए जाने के साथ ख़त्म हो गया। मुझे क़ैद करने वाले क़ानून की मुनासिब प्रक्रियाओं का इस्तेमाल लोग  मुझे दंडित करने के लिए कर रहे थे। मेरी एकमात्र उम्मीद हरेक मामले को बड़े धीरज से पूरा करने और अंततः रिहा होने में लगी हुई थी।
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जेल में अपने पहले साल के दौरान, अंडा बैरक के अकेलेपन में, मेरे सह-आरोपी और मुझे दूसरे अन्य क़ैदियों से दूर रखा जाता था क्योंकि जेल प्रशासन हमें बहुत ख़तरनाक मानता था इसलिए उनके साथ [मिलने-जुलने की अनुमति] नहीं देता था।     
यह इशारा करने के लिए कि हम औरों से जुदा थे, सभी कथित नक्सली क़ैदियों को जेल के लिबास के साथ बाँह में हरी पट्टी बाँधने को मज़बूर किया जाता था। अप्रैल 2008 में, हममें से सभी 13 लोग एक अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए। हमारी माँगें थीं: हमें अलग-थलग, अकेले में नहीं रखा जाए, सामाजिक कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी कहकर उनकी गिरफ़्तारी बंद की जाए, और अंडरट्रायल्स को यूनीफ़ॉर्म पहनने के लिए मज़बूर न किया जाए।
हमें तोड़ने के लिए, अलग अलग बैरकों में हमें फेंक दिया गया। मुझे फांसी यार्ड में स्थानांतरित कर दिया गया। (फांसी यार्ड मौत की कतार में खड़े क़ैदियों का होता है।)
हमारी हड़ताल 27 दिनों तक चली। हमारी कोई एक माँग पूरी नहीं की गई। बदले में, इस मामले की जाँच कर रहे पुलिस अफ़सर ने जेल अधिकारियों को सलाह दी कि हमें विभिन्न जेलों में अलग अलग भेज देना चाहिए। हमारे ख़िलाफ़ एक और आपराधिक मामला दर्ज़ कर लिया गया—आत्महत्या की कोशिश का मामला। यह नौवाँ मामला था जिससे मुझे निपटना था।
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सितंबर 2011 में, अदालतों ने अंततः मेरे ख़िलाफ़ लगाए गए अंतिम नौ मामलों को ख़ारिज़ कर दिया। जेल का सहज ज्ञान कहता है कि जेल के कुछ शुरुआती और कुछ आख़िरी महीने सर्वाधिक ख़ौफ़नाक़ होते हैं। जैसे-जैसे आज़ादी क़रीब आती जाती थी, वैसे ही दिन लंबे और रातें बग़ैर नींद की होती जा रहीं थीं। अदालत में पेश करने की तारीख़ें भी कम होती जा रही थीं। सारा पढ़ना और लिखना बेहद बोझिल होता जा रहा था। मैंने लाल गेट से आगे की ज़िंदगी की योजनाएँ बनानी शुरू कर दी थीं।
27 सितंबर को मैंने जेल छोड़ा। मैं अपने माता-पिता को बाहर खड़े देख सकता था। पत्रकारों और मेरे वक़ीलों के साथ वे मुझे देख ही रहे थे कि सादे कपड़ों में पुलिस के एक दल ने मुझे बिना किसी नंबर वाले वाहन में धकेला और कहीं दूर ले गए। पुलिस ने मेरे ऊपर दो और नक्सल संबंधी मामले थोप दिए, और मुझे वापस जेल भेज दिया।
यातना, ज़मानत अर्ज़ी और मुक़दमे की तारीख़ों के अंतहीन इंतज़ार के फिर उसी [पीड़ित] दौर से गुज़रने के बारे में सोचकर मैं ढह गया। लेकिन इस बार, शुक्र था, कि यह जल्दी निपट गया। जेल के बाहर, देश-दुनिया से लोगों की एक सशक्त आवाज़ और मेरे वक़ीलों के हुनर ने मेरा साथ दिया।
4 जनवरी 2012 को आख़िरी बचे मामले में मैं ज़मानत पर रिहा हुआ। चार साल, आठ महीनों के बाद, मैं एक आज़ाद व्यक्ति बन लाल गेट के बाहर आ गया।

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