रंजीत वर्मा
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बीजापुर में सीआरपीएफ आदिवासियों को माओवादी बता कर जब मार रही थी, तो हिंदी साहित्य के एक तबके में इस बात पर चिंता ज़ाहिर की जा रही थी कि भारत भवन का पराभव होने के बावजूद कुछ लेखक उसके आयोजनों में शिरकत क्यों कर रहे हैं। सब कुछ अपने समय से अलग, कटा हुआ, गोया हिंदी के लेखक समाज ने जान-बूझ कर दुनिया-जहान की ओर पीठ कर रखी हो। साहित्य से इंसानी जि़ंदगी के बेदखल हो जाने की वजह आखिर क्या है?
गुंटर ग्रास की कविता 'जो कहा जाना चाहिये' जब हिंदी में अनूदित होकर आयी तो इसने अपनी तरह से एक बहस खड़ी की। इस कविता के पीछे जो राजनीति काम कर रही थी उसके विरोध में हिंदी साहित्य का एक तबका अचानक सक्रिय हो गया था। यानी कि वे ऐसे लोग थे जो एकदम अमेरिकी लाइन पर चलते हुए ईरान को लोकतंत्र के लिये ज्यादा खतरनाक मान रहे थे और इज़राइल का बचाव कर रहे थे। ज़ाहिर है एक दूसरा तबका भी था जो कविता की लाइन को एकदम सही मान रहा था और इज़राइल को लोकतंत्र ही नहीं बल्कि समूची मानवता के दुश्मन के तौर पर देख रहा था। यह बात दो-तीन महीने पहले की है। और अभी जबकि इस बहस का गुबार बैठा भी नहीं है, कि तभी इज़राइल से जुड़ी दो और खबरें पढ़ने को मिलीं। एक खबर के अनुसार भारत के मशहूर तबला वादक ज़ाकिर हुसैन ने अपनी इज़राइल यात्रा रद्द कर दी। उन्हें वहां संगीत के कई कार्यक्रम देने के लिये जाना था। ऐसा उन्होंने 'इंडियन कैम्पेन फॉर द एकेडमिक ऐंड कल्चरल बायकॉट ऑफ इज़राइल' नामक संस्था की मुहीम के कारण किया। अखबार में छपी खबर के अनुसार जिन लोगों ने हस्ताक्षर जारी कर ज़ाकिर हुसैन से अनुरोध किया कि वे फलस्तीनियों पर जुल्म ढाने वाले इज़राइल के विरोध में वहां न जायें, उनमें से कुछ के नाम ये हैं- गार्गी सेन, गीता हरिहरन, ध्रुव संगारी, विद्या राव, सईद मिर्जा, सुधन्वा देशपाण्डे, एमके रैना, एन पुष्पमाला, राम रहमान, अमर कंवर, सबा हसन, आयशा अब्राहम और आनंद पटवर्धन। इनमें से एक भी नाम हिंदी के किसी साहित्यकार का नहीं है। कुछ ऐसे नाम हैं जो हिंदी में या तो फिल्में बनाते हैं या रंगकर्म से जुड़े हैं, जैसे सईद मिर्जा, आनंद पटवर्धन, एमके रैना आदि। यह बेहद चिंता का विषय है। लोगों का ध्यान इस ओर जाना चाहिये।
'जो कहा जाना चाहिये' कविता के समय हिंदी साहित्य में जो हलचल पैदा हुई थी वह इस वक्त नज़र नहीं आयी। क्या यह देख कर ऐसा नहीं लगता कि इज़राइल को समर्थन देना हो या विरोध करना, यह सिर्फ इसलिये संभव हुआ क्योंकि बीच में संयोग से एक कविता आ गयी थी वरना इन्हें क्या मतलब दुनिया जहान की राजनीति से। ये तो अपने आसपास भी नहीं झांकते। वह तो संयोग इसलिये बन पाया क्योंकि वह एक जर्मन कविता थी और जिसे गुंटर ग्रास जैसे महत्वपूर्ण कवि ने लिखा था। अगर यही कविता किसी ने हिंदी में लिखी होती तो निश्चित है कि बहस ज्यादा से ज्यादा साहित्यिक मूल्यांकन तक होती क्योंकि हममें से अधिकांश यह सोच ही नहीं पाते हैं कि कविता के ज़रिये बाहर की दुनिया पर भी बात की जा सकती है। सीधी बात जो मैं कहना चाह रहा हूं वह यह है कि घटनाओं से जुड़ना हिंदी कवि अभी तक सीख नहीं पाया है। क्या यही वह वजह नहीं है जिस कारण उसकी कविता भी घटनाओं और घटनाओं से घिरे आम जन से कभी जुड़ नहीं पाती? यह अलग-थलग रहना कविता या खुद कवि को पूरे समाज के लिये कितना अप्रासंगिक बना देता है, यह समझना ज़रूरी है क्योंकि सारी समस्याएं यहीं से शुरू होती हैं- जैसे कि कविता का अपठनीय हो जाना, विचार से एक निश्चित दूरी का बन जाना और कला के नाम पर एक अजीब वाग्जाल में कविता का उलझते चले जाना... वह कविता लिखने का काम हो या सुनने समझने का, सभी कुछ का एक उत्सवी माहौल में डूब जाना। इस तरह की न जाने कितनी समस्याएं हैं जो इसी एक बिंदु से शुरू होती हैं।
यह एक बहुत बड़ी वजह है कि घटनाओं को जोड़कर देखने का नज़रिया हम कविता का मूल्यांकन करते वक्त इस्तेमाल नहीं कर पाते। इस बात को इज़राइल से जुड़ी एक दूसरी खबर के ज़रिये समझा जा सकता है। एक दिन अचानक सीआरपीएफ को यह महसूस हुआ कि माओवादियों के पास ज्यादा आधुनिक आग्नेयास्त्र हैं अतः यह उसके लिये ज़रूरी है कि अपने अस्त्र-शस्त्र को भी उनकी ही तरह से वह सुसज्जित करे। फिर संबंधित मंत्रालय में मंत्रणा होती है और कई निर्णय लिये जाते हैं, जिनमें एक निर्णय यह होता है कि जिस तरह भारत आतंकवादियों से जूझ रहा है उसी तरह इज़राइल भी आतंकवादियों से जूझ रहा है और चूंकि उसने अपने आतंकवादियों का तोड़ पैदा कर लिया है अतः भारत के लिये ज़रूरी है कि वह इस मामले में इज़राइल से मदद ले। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि माओवाद या आतंकवाद से निपटने के लिये वे भारत को इज़राइल बना देने का निर्णय पलक झपकते ले लेते हैं। वही इजराइल जिसका अपने यहां कला और विवेक की दुनिया में विरोध किया जा रहा है। सवाल पूछा जा सकता है कि क्यों उसी देश का नाम हमारी सेना को युद्ध में सहयोग लेने के लिये याद आ रहा है? क्या इन खबरों को पढ़कर मन में अचानक यह तुलनात्मक अध्ययन नहीं चलने लगता है कि वे लोग कौन हैं जो इज़राइल से दूर रहना चाहते हैं? वहीं दूसरी ओर वे कौन लोग हैं जो इज़राइल से सहयोग लेने तक को तैयार हैं? क्या है वह चीज़ जो दोनों की सोच में यह अंतर पैदा कर रही है?
क्या यह माना जाना चाहिये कि उस वक्त जो गुंटर ग्रास की कविता का विरोध कर रहे थे और कह रहे थे कि यह तो कोई कविता ही नहीं है या यह सपाट कविता है और जो ईरान का भय ज्यादा दिखा रहे थे और बता रहे थे कि इज़राइल से ज्यादा खतरनाक ईरान है, वे क्या युद्ध और दमन के पक्ष में थे और क्या वे बिल्कुल उसी मानसिकता में थे जिस मानसिकता में युद्ध करती सेना होती है? तो क्या यह सोचना गलत नहीं होगा कि वे शांति के पक्ष में नहीं थे। लेकिन वे तो कह रहे थे कि वे कला के पक्ष में हैं और हम यह सोच रहे थे कि वे ऐसा इसलिये कह रहे हैं क्योंकि वे विचार के विरोध में हैं, जबकि दरअसल वे युद्ध और दमन के पक्ष में थे। क्या इसी बात को इस तरह से नहीं कहा जा सकता कि विचार के विरोध में जाना दरअसल कला और शांति दोनों के विरोध में जाना भी होता है?
आन्द्राई कादरेस्कू को उद्धृत करते हुए हिंदी के कवि व विचारक अशोक वाजपेयी ने अपने सुविचारित स्तंभ 'कभी-कभार' में जून की सड़ी गर्मियों में लिखा- ''कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में मार्क्स और एंगेल्स यह घोषित कर चुके थे कि जो कुछ भी ठोस था वह हवा में गल चुका था। एक बड़ा शून्य उभर रहा था। लेनिन और जारा इस शून्य की संभावनाओं को शिद्दत से महसूस कर रहे थे। लेनिन एक नयी विश्व व्यवस्था लाना चाहते थे और जारा नये विचारों का बीजारोपण करना चाहते थे।'' फिर आगे वे लिखते हैं कि कैसे लेनिन असफल हो गये और जारा का आंदोलन सफल हुआ। जारा को उन्होंने दुनिया का पहला अवांगार्द कहा है जिन्होंने कैफे को जन्म दिया और कैबरे को भी। यानी कि उनके हिसाब से आज कैबरे वालों की दुनिया है न कि विचार वालों की। क्योंकि जैसा कि वे कहते हैं कि सोवियत संघ के विघटन के साथ ही विचार का पटाक्षेप हो गया। जाहिर है कि ऐसे लोग युद्ध के पक्ष में हर उस वक्त खड़े दिखायी देंगे जब कभी भी उन्हें वैचारिक लड़ाई लड़ता कोई दिखायी देगा।
कितना अच्छा होता अगर वे यह सब कहने से पहले या आन्द्राई कादरेस्कू को उद्धृत करने से पहले एक बार खुद कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो मन लगा कर पढ़ लेते। और अगर पूरा पढ़ने की ज़हमत उठाने को वे तैयार नहीं थे तो कम से कम वे वह भूमिका ही पढ़ लेते जिसे 1888 में एंगेल्स ने लिखा था जिसमें उन्होंने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो की आधारभूत प्रस्थापना को रखा है। लेकिन हिंदी भाषा का यह दुर्भाग्य है कि यहां जिस तरह से न दर्शनशास्त्र पर काम होता है न इतिहास पर, न विज्ञान में और न राजनीतिशास्त्र में, ठीक उसी तरह से हिंदी साहित्य में भी इन चीजों का एक अजीब नकार दिखायी देगा। यहां लेख तक में जब यह हाल है तो कविता और कहानी में इनका कितना इस्तेमाल किया जाता होगा इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। कविता यहां सिर्फ कविता है और कहानी यहां सिर्फ कहानी। इसलिये यहां कई बार जिंदगी नहीं मिलती क्योंकि इतिहास, दर्शन, राजनीति और विज्ञान से निरपेक्ष किसी जिंदगी की न तो कोई कहानी होती है और न ही कोई कविता। देखा तो यहां तक जा रहा है कि चाहे वह खुद कवि की जिंदगी ही क्यों न हो, वह भी उसकी रचना से और रचना से ही क्या बल्कि उसके पूरे साहित्यिक कर्म से भी उसी तरह गायब रहती है जैसे कि किसी भी दूसरे की जिंदगी।
ऐसा नहीं कि यह सिर्फ यूं ही कहने की बात है इसलिये कह रहा हूं बल्कि यह एक कटु सच है इसलिये ऐसा कहना पड़ रहा है। ताज़ा उदाहरण के तौर पर उस प्रपत्र को देखा जा सकता है जिसे 5 जुलाई को हिंदी के तीन कवियों राजेश जोशी, कुमार अंबुज और नीलेश रघुवंशी ने जारी किया है। इसमें रचनाकारों से अपील की गयी है कि वे भारत भवन से लेकर प्रेमचंद, निराला और मुक्तिबोध के नाम पर बने सृजनपीठों आदि से दूर रहें क्योंकि इनका ''पिछले आठ नौ सालों में सुनियोजित रूप से पराभव कर दिया गया है''। वे हैरत में हैं कि एक प्रमुख लेखक संगठन की इस सलाह के बावजूद कि ''इन संस्थाओं में सीधी भागीदारी न करें'', कई चर्चित वामपंथी रचनाकारों ने उनके कार्यक्रमों में शिरकत की। यह एक लंबा प्रपत्र है जिसे काफी सुविचारित ढंग से और एक वाजिब चिंता के साथ लिखा गया है। लेकिन अपने समय, समाज और राजनीति के सच से इतना ज्यादा निरपेक्ष होकर यह साहित्यिक चिंता व्यक्त की गयी है कि सब कुछ अश्लील सा होकर रह गया है। और यह बात भी समझ में नहीं आती कि जिस भारत भवन का विरोध करते-सुनते हमारी पीढ़ी ने साहित्य में प्रवेश किया, आखिर वही भारत भवन कब और किन परिस्थितियों में उन्हें स्वीकार्य हो गया था कि एक बार फिर उसका बहिष्कार करने की अपील उन्हें करनी पड़ रही है। आश्चर्य होता है पीठ और तख्त को लेकर उनकी चिंता और पीठ के ठीक पीछे चल रहे हत्याओं के भयानक खेल को लेकर उनकी साजिश भरी चुप्पी देखकर! रोंगटे खड़े कर देने वाली है यह चुप्पी। प्रपत्र जारी किये जाने से आठ नौ दिन पहले यानी कि जब वे प्रपत्र को लेकर आपस में गहन विमर्श कर रहे होंगे और लिखने की तैयारी में रतजगा करते हुए आंखों में पानी के छींटे मार रहे होंगे, तभी उनके बगल के राज्य छत्तीसगढ़ में माओवादियों के नाम पर 19 मासूम आदिवासियों को सीआरपीएफ के जवान आधी रात गोलियों से उड़ा रहे थे, फिर भी ये निष्कंप लौ की तरह बिना डगमगाये अपने साहित्यिक कर्म को पूरा करने में लगे रहे। रात के अंधेरे में मारे जाने वालों में सात बच्चे भी थे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने कहा कि इस घटना में अगर बच्चे मारे गये हैं तो इसके लिये राज्य या सीआरपीएफ को दोषी नहीं कहा जा सकता बल्कि इसका सारा दोष माओवादियों पर जाता है क्योंकि वे ही बच्चों और स्त्रियों का इस्तेमाल भागते वक्त ढाल के तौर पर करते हैं। क्या यह वही तर्क नहीं है जिसे मुकदमे के दौरान अर्जेंटीना के पूर्व तानाशाह जॉर्ज विदेला ने अदालत में दिया था? उन्होंने कहा था कि इन बच्चों के मां-बाप आतंकी थे जो बच्चों का इस्तेमाल अपनी ढाल के तौर पर करते थे। इन्हें अदालत ने अभी पिछले दिनों पचास साल कारावास की सज़ा सुनायी है। इन्होंने 1976 से 1983 के बीच 'डर्टी वॉर' के सात सालों के दौरान करीब 30,000 लोगों की हत्या करवायी थी। उन पर यह मुकदमा 1996 में सिर्फ 35 बच्चों के अपहरण के मामले में शुरू हुआ था। यहां तो यह संख्या कब का पार हो चुकी है। और वहां जो 'डर्टी वॉर' चला था, उससे कहीं ज्यादा वीभत्स युद्ध न जाने कितने सालों से चल रहा है, लेकिन इनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पा रहा। आखिर भारतीय विदेलाओं पर मुकदमा कब शुरू होगा? इन्हें पचास साल की सज़ा कब सुनायी जायेगी? क्यों यहां आज भी इन विदेलाओं के खिलाफ बोलने वालों को ही अदालतें सज़ा सुना रही हैं?
क्या ये सवाल उन रचनाकारों को बेचैन नहीं करते? क्या उन्हें पीठों और न्यासों का पराभव इन पराभवों से ज्यादा बड़ा दिखायी देता है? किस उम्मीद में वे इन पीठों और न्यासों की ओर मुंह किये खड़े हैं? व्यावहारिक मजबूरी दिखाते हुए उनके कार्यक्रमों में शरीक होना और सैद्धान्तिक स्तर पर विरोध करना- यह कैसी लड़ाई है? व्यवहार और सिद्धांत के बीच इस चौड़े फर्क के साथ यह आप कैसी लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या ऐसी ही लड़ाई के ज़रिये आप जनाकांक्षाओं को साहित्यिक अभिव्यक्ति देने की बात सोच रहे हैं? क्या यह सत्ता में भागीदारी का मसला नहीं है, वह भी ऐसे वक्त में जब सत्ता हत्यारी हो चुकी है और उसको ध्वस्त किये बिना स्थितियों के बेहतर होने की उम्मीद आप नहीं कर सकते? क्या यह वही कलावाद नहीं है जो अशोक वाजपेयी को यह कहने को मजबूर कर रहा है कि यह कैफे और कैबरे के जनक का युग है। ये ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब ढूंढे बिना उन समस्याओं के समाधान नहीं ढूंढे जा सकते जिसने साहित्य को शब्दों का कौशल मात्र बना कर रख दिया है।
विकास के नाम पर आदिवासियों की हो रही हत्या और अदालतों से आ रहे लगातार गलत फैसलों की ओर पीठ किये खड़े रहने के बावजूद साहित्य में बने रहने का मतलब आपको जल्द ही डीकोड कर लोगों को बताना होगा। आप जिसके प्रति जवाबदेह हैं, उसी को बतायें लेकिन बतायें ज़रूर! साभार- जनपथ
क्या ये सवाल उन रचनाकारों को बेचैन नहीं करते? क्या उन्हें पीठों और न्यासों का पराभव इन पराभवों से ज्यादा बड़ा दिखायी देता है? किस उम्मीद में वे इन पीठों और न्यासों की ओर मुंह किये खड़े हैं? व्यावहारिक मजबूरी दिखाते हुए उनके कार्यक्रमों में शरीक होना और सैद्धान्तिक स्तर पर विरोध करना- यह कैसी लड़ाई है? व्यवहार और सिद्धांत के बीच इस चौड़े फर्क के साथ यह आप कैसी लड़ाई लड़ रहे हैं? क्या ऐसी ही लड़ाई के ज़रिये आप जनाकांक्षाओं को साहित्यिक अभिव्यक्ति देने की बात सोच रहे हैं?...........
जवाब देंहटाएंभाई इस आलेख को पढ़कर मेरी कुछ धारणाएं और मजबूत हुई हैं और मैं आपको धन्यवाद देना चाहता हूं कि एक मुश्किल समय में आपने मेरी मदद की... विचार के स्तर पर बात करना और उसे व्यावहारिक जीवन में लागू करना दो अलग चीजें हैं... मध्यवर्गीय लेखक इसी उहापोह में जीता-मरता रहता है.. आपने जो बिंदु बताये हैं उनके आधार पर मेरी अपनी धारणाएं पुष्ट हुई हैं... सुविधाभोगी रास्ता आखिर हमें कहां तक ले जाएगा...
जवाब देंहटाएंबहुत खरी-खरी बातें कही हैं, आपने. कुछ लोगों को कडवी लग सकती हैं. लगनी भी चाहिए. बिना ऐसा लगे, असर भी नहीं होता. हिंदी के बुद्धिजीवियों और कवियों को यह सब सुनने के लिए तैयार भी रहना चाहिए. सामाजिक सरोकारों का भाव, सारे दिखावे के बावजूद झांक ही जाता है- कभी उनकी चुप्पी, और कभी बयानों में से.
जवाब देंहटाएंजबरदस्त लिखा है आपने ...आभार आपका हमारी समझ को और पुख्ता करने के लिए
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