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दिलीप
खान
कांस्टीट्यूशन क्लब में जब अजीत जोगी अपनी बात लगभग ख़त्म कर चुके थे
तो शरद यादव मंच पर पहुंचे। बीजापुर में लगभग महीने भर पहले हुए सैन्य जनसंहार की
पृष्ठभूमि में आदिवासी समाज और भारतीय लोकतंत्र पर बात की जा रही थी। मंच पर जोगी
के अलावा, डी राजा, बी डी शर्मा, हिमांशु कुमार और स्वामी अग्निवेश मौजूद थे। मेरे
पहुंचने से पहले नंदनी सुंदर सहित कई और वक्ता अपनी बात रखने के बाद दर्शक दीर्घा
में जगह ले चुके थे। जब मैं हॉल में दाख़िल हुआ तो छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की
हत्या के मामले में पहली बार केंद्रीय सरकार से अलग नज़रिया अख़्तियार करने वाली
छत्तीसगढ़ कांग्रेस पार्टी के अजीत जोगी बीजापुर का विवरण दे रहे थे। छत्तीसगढ़ के
किसी कांग्रेसी का राजनीतिक बयान इस मामले में लगभग सबको पहले से मालूम था। अजीत
जोगी ने मारे गए 17 लोगों का जीवनवृत्त पेश करते हुए कहा कि वे सारे के सारे
ग़ैर-नक्सली थे और इसलिए निर्दोष थे। असल में छत्तीसगढ़ में माओवादियों के प्रति
रणनीति में मुख्यमंत्री रमण सिंह और (पूर्व) केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम सहित
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तालमेल के बाद छत्तीसगढ़ में विपक्षी कांग्रेस के पास
कोई स्पेस नहीं बचता कि वो माओवाद या फिर आदिवासियों की हत्या पर सत्ताधारी भाजपा
को घेर सके।
पहली बार कांग्रेस पार्टी में एक दरार दिखी थी और कोत्तागुड़ा-सारकेगुड़ा
में मारे गए आदिवासियों को लेकर केंद्र में पार्टी के कई नेताओं के जश्नी रवैये से
अलग राज्य कांग्रेस ने स्टैंड लिया। घटना पर खुशी जाहिर करने में गृहमंत्री पी
चिदंबरम सबसे आगे थे, जिन्होंने बाद में राज्य कांग्रेस की फैक्ट फाइंडिंग टीम की
रिपोर्ट के बाद कहा था कि अगर घटना में कोई निर्दोष भी मारा गया है तो, आई एम सॉरी! (चिदंबरम ने गेहूं के साथ घुन पिसने वाले अंदाज़
में ये बात कही थी।) यह घटना छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की यह एक तरह से मजबूरी के
तौर पर उभरी कि वो आदिवासियों पर राज्य के दमन के विरोध में बयान देकर राजनीतिक
बढ़त हासिल करे। अजीत जोगी ने सभागार में इस मसले की भर्त्सना करते हुए अपनी
पार्टी और अपने मुख्यंत्रित्व को आदिवासियों के लिए शानदार करार देते हुए वो सब
कहा जो एक संसदीय पार्टी के नेता से कोई अपेक्षा कर सकता है। ‘श्रेय’ लूटने
के लिए ही बनी चीज़ है इसे अजीत जोगी ने अपने भाषण में साबित किया।
उनके बाद डी राजा को बोलना था, लेकिन शरद यादव ने कहा कि उन्हें जल्दी
जाना है, इसलिए पहले उन्हें माइक दे दी गई। मेरे और शायद मेरे अलावा और भी कई
लोगों की यही जिज्ञासा थी कि आख़िरकार शरद यादव इस मामले पर क्या राजनीतिक स्टैंड
लेते हैं? क्या कमेंट करते
हैं? इससे ठीक पहले आयोजक ने एक मांग पत्र भी पढ़कर सुनाया था। लेकिन शरद
यादव इतिहास पर बोलने लगे, अच्छा बोल रहे थे, लेकिन विषय से दूर बोल रहे थे, सो
जाहिर है श्रोताओं में फुसफुसाहट शुरू हुई कि ये गोल-मोल बात कर जाने के चक्कर में
हैं। मुझे लगा भूमिका बांध रहे हैं और अब मुद्दे पर आएंगे, तब मुद्दे पर आएंगे।
लेकिन, वो असल में आना ही नहीं चाह रहे थे। अलबत्ता बीच-बीच में यह जुमला ज़रूर
उछाल रहे थे कि मेरी बात आप सबको बहुत चुभेगी, बहुत गड़ेगी। दलितों-आदिवासियों की
नौकरी में भागीदारी, बेहतर जीवन-स्तर पर वो ऐसी बात कह रहे थे जिनसे मेरे अगल-बगल
के लगभग सारे लोग सहमत थे, लेकिन मामला फिर वही था कि मुद्दे पर नहीं आ रहे थे। इस
वजह से, बीच से दो-एक लोगों ने अनुरोध किया कि मुद्दे पर बोला जाए, तो शरद यादव ने
उनमें से एक से पूछा, ‘तुम्हारी
जाति क्या है?’ जिस
अंदाज़ में शरद यादव ने पूछा वो चौंकाने वाला था। इसी मंच पर शरद यादव ने यह
स्थापना दी कि दलितों पर बात करने का अधिकार सिर्फ़ दलितों को और आदिवासियों पर
बात करने का अधिकार सिर्फ़ आदिवासियों को है। यह सब इतने अधिकारभाव के साथ शरद
यादव कह रहे थे, गोया वो एक साथ दलित और आदिवासी दोनों हों!
लेकिन यह पहला वाकया नहीं था जब अस्मितावादी राजनीति में यह आग्रह
मेरे सामने नमूदार हुआ। इससे पहले भी कई लोग इस स्थापना को दोहरा चुके हैं। हालिया
उदाहरण के तौर पर ग्लैडसन डुंगडुंग के अभियान को लिया जा सकता है, जो उन्होंने
बिनायक सेन के ख़िलाफ़ चलाया था। अस्मितावादी राजनीति के इस रुझान से किस तरह की
तस्वीर उभर रही है? क्या
सचमुच दमित अस्मिताओं के उत्थान के लिए ऐसे शुद्धतावादी रास्ते को चुना जाना चाहिए? क्या यह एक तरह का नस्लीय शुद्धतावाद नहीं है? जातीय वर्चस्व तोड़ने के लिए यह बेहद ज़रूरी है
कि दमित अस्मिताओं के हाथ में नेतृत्व की बागडोर हो, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं
है कि वर्चस्वशाली तबके के ख़िलाफ़ लड़ाई में सैद्धांतिक तौर पर जो लोग दलितों-आदिवासियों
के साथ हैं उनको सिरे से खारिज कर दिया जाए। जातीय बंधन को तोड़ने वाले
(ग़ैर-दलित, ग़ैर-आदिवासी) व्यक्ति को अगर इस आधार पर खारिज किया जाता है कि वो
जन्म के आधार पर संघर्षरत जनता से साम्यता नहीं रखता है इसलिए वो ‘दी अदर’ हैं,
तो यह उसी मनुवादी परंपरा की बिसात पर गढ़ा गया तर्क है। शरद यादव के तर्क को
विस्तार दें तो अगर सड़क पर कोई पंडा किसी दलित को पीट रहा हो और बगल से कोई
ग़ैर-दलित गुजर रहा हो, तो उसे पिट रहे व्यक्ति का साथ नहीं देना चाहिए, बल्कि
इंतज़ार करना चाहिए कि कोई दलित नेता आएगा और पंडे के कोप से उस व्यक्ति को बचाएगा! यह एक आदर्श स्थिति होगी जब दलितों और आदिवासियों को उनके समुदाय के
बीच के ही लोग नेतृत्व दें, लेकिन संसदीय राजनीति में नेतृत्व के ऐसे जितने उदाहरण
दरपेश हुए हैं उनमें से ज़्यादातर अपने समाज से कटकर सिर्फ प्रतीक बनकर रह गए हैं।
पी ए संगमा को अपने आदिवासियत की सिर्फ़ तब याद आती है जब राष्ट्रपति पद के लिए
उनको समर्थन की दरकार होती है, लेकिन बीजापुर में आदिवासी के मरने पर वो बयान तक
नहीं देते।
शरद यादव बार-बार श्रोताओं को यह इत्तला देते रहे कि यह सब ढोंग है,
आपको कोई हक़ नहीं है ऐसी सभा करने का। लेकिन, बीच-बीच में यह भी बोलते जा रहे थे
कि वो तो स्वामी जी (अग्निवेश) ने बुला लिया, इसलिए चले आए। [वरना नहीं आते।] ऐसा लग रहा था शरद यादव श्रोताओं को अपने और
अग्निवेश के ऋण में डूबो देना चाहते हैं। यह सब कहकर यादव जी चल निकले। कविता
श्रीवास्तव ने जाते-जाते पूछ मारा कि क्या बीजापुर मामले को वो संसद में उठाएंगे,
तो शरद यादव ठसक भरी मसखरी में बोले, हां हां, मैं जानता हूं आप अच्छी लेडी हैं!
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