अनुज शुक्ला-
मीडिया के लिए आतंक से जुड़ी खबरें हमेशा ही फायदेमंद साबित होती रही हैं। दो दशकों में मीडिया ने आतंक को लेकर ऐसा आभासी संसार गढ़ दिया है जिसमें टीवी के लिए आतंक से जुड़ी हुई खबरें टीआरपी के लिए बेहतर सौदा साबित होती आईं हैं। अगर साल भर की खबरों का एक औसत निकाला जाय तो शायद आतंक से जुड़ी खबरों पर मीडिया ने अपना सबसे ज्यादा वक्त जाया किया है। 2000 के बाद लगभग सभी ‘एक्सक्लूसिव’ या बड़ी ब्रेकिंग खबरे आतंक से जुड़ी रही हैं। ताजा उदाहरण में साल 2011 की सबसे बड़ी ब्रेकिंग खबर ओसामा के ऊपर अमेरिका का निर्णायक ऑपरेशन रहा। लेकिन अजीब इत्तेफाक है कि ये खबरें तथाकथित ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के चेहरे को ही उजागर करती नजर आईं है। यानी पिछले एक दशक की मीडिया रिपोर्टिंग ने आतंकवाद को, इस्लाम के अनिवार्य घटक साबित करने का दुष्चक्र रचता आया।
जबकि इस्लामिक आतंकवाद से ‘फोबियाग्रस्त’ मीडिया के लिए जनरल ‘रात्को म्लाडीच’ जैसों का क्रूरतम अपराध कोई मायने नहीं रखता। भले ही म्लाडीच के ऊपर इतिहास की जघन्यतम हत्याओं में से एक का अभियोग लगा हो। जाहिर है संवेदनशील मुद्दों पर मीडिया की खबरों के पीछे लगी यहूदी उद्यमियों की पूंजी, जनित ‘नस्ली वर्चस्व’ के सिद्धान्त को कायम करती है। अब अपनी साख के लिए संघर्षरत मीडिया से यह अपेक्षा करना कि ’यह अपनी वस्तुनिष्ठता एवं तथ्यात्मकता को बरकरार रखेगी ; महज एक कोरी कल्पना है। क्योंकि मीडिया की सोच या वैचारिकी की निर्मिति का बहुतायत स्त्रोत इस्राइल केन्द्रित, पश्चिमी दृष्टिकोण बना हुआ है। हालांकि समय-समय पर ये खुद को ज्यादा लोकतान्त्रिक और सहिष्णु जतलाते आएं हैं। जिसे पिछले दिनों ट्यूनीशिया, मिश्र एवं लीबिया में हालात के मुताबिक तब्दील हुई इनकी रणनीतियों से समझा जा सकता है।
आतंकवाद को लेकर पश्चिमी जगत ने मीडिया के सहारे एक रहस्यमयी ‘फेनोमेना’ की रचना की है। दरअसल जिस एक हादसे के बाद इस्लामिक आतंकवाद का हौवा, अमेरिकी प्रशासन की निगाह में खटका, उसके मूल में वर्ल्ड ट्रेड पर हमले और उसमें मारे गए अमेरिकियों की मौत का प्रतिशोध था। बहरहाल, कौम चाहे जो भी हो; बर्बरता या आतंक को बचाने को लेकर कोई तर्क नहीं गढ़ा जा सकता। वह चाहे ओसामा हो या ‘जनरल म्लाडीच’। ‘म्लाडीच’ जिसके सिर पर ओसामा से ज्यादा हत्याओं का जघन्य अपराध है। जिसे सूचनाओं के प्रति एकपक्षीय नजरिए के कारण दुनिया के अन्य देश ठीक तरह से परिचित नहीं हो पाए। काबिलेगौर है कि आतंकवाद के खिलाफ अपनी चौधराहट, मानवाधिकारों की रक्षा के संकल्प को दोहराने वाले पश्चिमी जगत का रवैया, क्या हर मामले में न्यायपूर्ण रहता है? वह किस तरीके सूचना-साधनों का इस्तेमाल अपने एजेंडे को स्थापित करने के लिए करता है तर्कसंगत है?
पश्चिमी जगत के लिए आतंक के मुद्दे और परिभाषाएँ क्षेत्रवार कैसे अलग हो जाती हैं इसे मीडिया की उन खबरों से भालिभांति समझा जा सकता है जो इतिहास के क्रूरतम हत्यारे म्लाडीच की गिरफ्तारी के बाद नजर आईं हैं। म्लाडीच ने 1995 में बोस्निया युद्ध के दौरान, ‘स्रेबरेनिका’ के शरणार्थी शिविर में पनाह लिए 7500 बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम किया, ताकि इस समुदाय से 15 वी शताब्दियों में हुए अत्याचारों का प्रतिशोध ले सके। क्या ‘बेलग्रेड’ में जो भीड़ म्लाडीच को हीरो के तौर पर पेश करती नजर आ रही है, उसे रिहा करवाने के लिए हिंसक झड़पे की जा रही है, वह कैसे कट्टरपंथियों से अलग नहीं है? काबिलेगौर है कि म्लाडीच से जुड़ी वही खबरें मीडिया परोस रही हैं, जो म्लाडीच के पक्ष में हैं। उन्हीं खबरों की फुटेज दिखाई जा रही है जो उसे बचाने से संबंधित हैं। मीडिया, म्लाडीच की बर्बरता के न तो फुटेज दिखा रही है (जैसाकि तालिबान या अलकायदा से जुड़े मामलों में करती आई है) और न ही उस बर्बर समय की कहानी ही नजर आती है। अलबत्ता ओसामा कितना बर्बर था, कितने आतंकी कारनामे किया, आगे के सालों में अलकायदा की क्या रननीतियाँ होंगी; इससे दुनिया का बच्चा –बच्चा परिचित हो चुका है।
सूचना के लिए पश्चिम पर आश्रित मीडिया उसी ‘वायस्ड’ छवि को परोसती है, जो वह आयात करती है। इससे बड़ा अफसोस और क्या हो सकता है कि अधिकांश मीडिया संस्थान परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पश्चिमी पूंजी के पंजे में हैं। जैसे भारत में पूंजी एवं पश्चिमी विचार के रूप प्रत्यक्ष प्रवेश है, जहां बार्ंबार खबरों की प्रस्तुति पर इसका दूरगामी असर दिखता है। सरोकार, प्रतिबद्धता एवं भारतीयता की दुहाई देने वाला देशी मीडिया क्या संवेदनशील खबरों की रिपोर्टिंग को लेकर फिक्रमंद है? अलबत्ता वह दुर्लभ जीवों को बचाने के अभियान, टीवी सिनेमा के प्रमोशन एवं प्रायोजित रेसों के आयोजन को लेकर ज्यादा सक्रिय दिखती है। प्रिंट मीडिया जंगल को तो बचाने का मुहिम चलाती है लेकिन अनुचित तरीके से सबसिडी में मिले कागजों का इस्तेमाल खबरों के साथ घपलेबाज़ी के रूप में करती है। दुख इस बात का है कि धर्म विशेष के आतंक की जुड़ी खबरों की मसालेदार प्रस्तुति करने वाली मीडिया जनरल ‘म्लाडीच’ पर कैसे चूक गई?
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मीडिया के लिए आतंक से जुड़ी खबरें हमेशा ही फायदेमंद साबित होती रही हैं। दो दशकों में मीडिया ने आतंक को लेकर ऐसा आभासी संसार गढ़ दिया है जिसमें टीवी के लिए आतंक से जुड़ी हुई खबरें टीआरपी के लिए बेहतर सौदा साबित होती आईं हैं। अगर साल भर की खबरों का एक औसत निकाला जाय तो शायद आतंक से जुड़ी खबरों पर मीडिया ने अपना सबसे ज्यादा वक्त जाया किया है। 2000 के बाद लगभग सभी ‘एक्सक्लूसिव’ या बड़ी ब्रेकिंग खबरे आतंक से जुड़ी रही हैं। ताजा उदाहरण में साल 2011 की सबसे बड़ी ब्रेकिंग खबर ओसामा के ऊपर अमेरिका का निर्णायक ऑपरेशन रहा। लेकिन अजीब इत्तेफाक है कि ये खबरें तथाकथित ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के चेहरे को ही उजागर करती नजर आईं है। यानी पिछले एक दशक की मीडिया रिपोर्टिंग ने आतंकवाद को, इस्लाम के अनिवार्य घटक साबित करने का दुष्चक्र रचता आया।
जबकि इस्लामिक आतंकवाद से ‘फोबियाग्रस्त’ मीडिया के लिए जनरल ‘रात्को म्लाडीच’ जैसों का क्रूरतम अपराध कोई मायने नहीं रखता। भले ही म्लाडीच के ऊपर इतिहास की जघन्यतम हत्याओं में से एक का अभियोग लगा हो। जाहिर है संवेदनशील मुद्दों पर मीडिया की खबरों के पीछे लगी यहूदी उद्यमियों की पूंजी, जनित ‘नस्ली वर्चस्व’ के सिद्धान्त को कायम करती है। अब अपनी साख के लिए संघर्षरत मीडिया से यह अपेक्षा करना कि ’यह अपनी वस्तुनिष्ठता एवं तथ्यात्मकता को बरकरार रखेगी ; महज एक कोरी कल्पना है। क्योंकि मीडिया की सोच या वैचारिकी की निर्मिति का बहुतायत स्त्रोत इस्राइल केन्द्रित, पश्चिमी दृष्टिकोण बना हुआ है। हालांकि समय-समय पर ये खुद को ज्यादा लोकतान्त्रिक और सहिष्णु जतलाते आएं हैं। जिसे पिछले दिनों ट्यूनीशिया, मिश्र एवं लीबिया में हालात के मुताबिक तब्दील हुई इनकी रणनीतियों से समझा जा सकता है।
आतंकवाद को लेकर पश्चिमी जगत ने मीडिया के सहारे एक रहस्यमयी ‘फेनोमेना’ की रचना की है। दरअसल जिस एक हादसे के बाद इस्लामिक आतंकवाद का हौवा, अमेरिकी प्रशासन की निगाह में खटका, उसके मूल में वर्ल्ड ट्रेड पर हमले और उसमें मारे गए अमेरिकियों की मौत का प्रतिशोध था। बहरहाल, कौम चाहे जो भी हो; बर्बरता या आतंक को बचाने को लेकर कोई तर्क नहीं गढ़ा जा सकता। वह चाहे ओसामा हो या ‘जनरल म्लाडीच’। ‘म्लाडीच’ जिसके सिर पर ओसामा से ज्यादा हत्याओं का जघन्य अपराध है। जिसे सूचनाओं के प्रति एकपक्षीय नजरिए के कारण दुनिया के अन्य देश ठीक तरह से परिचित नहीं हो पाए। काबिलेगौर है कि आतंकवाद के खिलाफ अपनी चौधराहट, मानवाधिकारों की रक्षा के संकल्प को दोहराने वाले पश्चिमी जगत का रवैया, क्या हर मामले में न्यायपूर्ण रहता है? वह किस तरीके सूचना-साधनों का इस्तेमाल अपने एजेंडे को स्थापित करने के लिए करता है तर्कसंगत है?
पश्चिमी जगत के लिए आतंक के मुद्दे और परिभाषाएँ क्षेत्रवार कैसे अलग हो जाती हैं इसे मीडिया की उन खबरों से भालिभांति समझा जा सकता है जो इतिहास के क्रूरतम हत्यारे म्लाडीच की गिरफ्तारी के बाद नजर आईं हैं। म्लाडीच ने 1995 में बोस्निया युद्ध के दौरान, ‘स्रेबरेनिका’ के शरणार्थी शिविर में पनाह लिए 7500 बेगुनाह मुसलमानों का कत्लेआम किया, ताकि इस समुदाय से 15 वी शताब्दियों में हुए अत्याचारों का प्रतिशोध ले सके। क्या ‘बेलग्रेड’ में जो भीड़ म्लाडीच को हीरो के तौर पर पेश करती नजर आ रही है, उसे रिहा करवाने के लिए हिंसक झड़पे की जा रही है, वह कैसे कट्टरपंथियों से अलग नहीं है? काबिलेगौर है कि म्लाडीच से जुड़ी वही खबरें मीडिया परोस रही हैं, जो म्लाडीच के पक्ष में हैं। उन्हीं खबरों की फुटेज दिखाई जा रही है जो उसे बचाने से संबंधित हैं। मीडिया, म्लाडीच की बर्बरता के न तो फुटेज दिखा रही है (जैसाकि तालिबान या अलकायदा से जुड़े मामलों में करती आई है) और न ही उस बर्बर समय की कहानी ही नजर आती है। अलबत्ता ओसामा कितना बर्बर था, कितने आतंकी कारनामे किया, आगे के सालों में अलकायदा की क्या रननीतियाँ होंगी; इससे दुनिया का बच्चा –बच्चा परिचित हो चुका है।
सूचना के लिए पश्चिम पर आश्रित मीडिया उसी ‘वायस्ड’ छवि को परोसती है, जो वह आयात करती है। इससे बड़ा अफसोस और क्या हो सकता है कि अधिकांश मीडिया संस्थान परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पश्चिमी पूंजी के पंजे में हैं। जैसे भारत में पूंजी एवं पश्चिमी विचार के रूप प्रत्यक्ष प्रवेश है, जहां बार्ंबार खबरों की प्रस्तुति पर इसका दूरगामी असर दिखता है। सरोकार, प्रतिबद्धता एवं भारतीयता की दुहाई देने वाला देशी मीडिया क्या संवेदनशील खबरों की रिपोर्टिंग को लेकर फिक्रमंद है? अलबत्ता वह दुर्लभ जीवों को बचाने के अभियान, टीवी सिनेमा के प्रमोशन एवं प्रायोजित रेसों के आयोजन को लेकर ज्यादा सक्रिय दिखती है। प्रिंट मीडिया जंगल को तो बचाने का मुहिम चलाती है लेकिन अनुचित तरीके से सबसिडी में मिले कागजों का इस्तेमाल खबरों के साथ घपलेबाज़ी के रूप में करती है। दुख इस बात का है कि धर्म विशेष के आतंक की जुड़ी खबरों की मसालेदार प्रस्तुति करने वाली मीडिया जनरल ‘म्लाडीच’ पर कैसे चूक गई?
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