14 जून 2011

‘बहती हवा’ में ‘ताजा गिरे पत्तों’ से बदलते गीत


अहा! ज़िंदगी के फिल्म विशेषांक में प्रकाशित लेख

-दिलीप ख़ान


हिंदी फ़िल्मी गीतों के मौजूदा स्वरूप पर बात करते समय कई बातें दिमाग में कौंधती है। पहले के मुकाबले इसकी गति तेज हुई है, ज्यादातर पारंपरिक वाद्य यंत्रों की जगह कंप्यूटर ने ले ली है, गायक होने के लिए एक ख़ास तरह की आवाज़ होने की शर्त टूटी है, ज्यादातर गाने एक महीने में ही पुराना नज़र आने लगता है, कुछ निर्देशक आज-कल गीत-संगीत में भी हाथ आजमाने लगे हैं और मुन्नी बदनाम.. जैसे गीत लिखे तथा अंग्रेज़ी शब्दों को गीत के बीच में जबरन ठूंसे जाने के बावजूद समग्र रूप से गानों के बोल में सुधार आया है। अंतिम स्थापना से कई लोगों की असहमति हो सकती है, लेकिन जांच-पड़ताल के बाद लोग इससे इत्तेफाक भी रखना शुरू कर सकते हैं।

नए गानों की दुनिया कुछ अलग-सी है। अंग्रेजी मिश्रित भाषा के बीच में उभरते देशज बिंब और गीतों की नई तमीज ने तेज तर्रार धुनों में भी भाषाई तौर पर गानों को मजबूत किया है। मस्ती में सराबोर करने वाले कुछ ऐसे गीत रचे गए हैं कि श्रोताओं को वह अपनी आगोश में लेकर दूर तलक बहा ले जाते हैं। प्रसून जोशी के गीत अपनी तो पाठशाला.. इसकी एक मजबूत बानगी है। युवाओं के बीच कॉलेज की खालिस मस्ती बयां करने वाला इससे बेहतर गीत शायद ही कोई और हो! इस गाने में रोजमर्रा की आवारगर्दी को युवाओं के बीच की भाषा से सामने लाने की सफल चेष्टा की गई है। यह एक बड़ी वजह है कि आमिर खान अभिनीत 3 इडियट्स में जब स्वानंद किरकिरे ऑल इज वेललिखते हैं तो अपने को पाठशालाकी शैली से मुक्त नहीं कर पाते। पाठशाला युवा जीवन और पॉपुलर कल्चर के लिए एक मॉडल के तौर पर प्रस्तुत हुआ है। विस्तृत दायरों में चीजों को ले जाने की गुलजार की शैली के आगे जब बाकी गीतकार पीछे छूटते जा रहे थे तो उस समय प्रसून जोशी इस अंतराल को पाटते हुए नजर आए। प्रसून अपने कई गीतों में खालिस ताजापन समेटे आए। चांद सिफारिश.. की अभिव्यक्ति में एक नए किस्म की ताजगी थी। प्रसून जोशी ने हम-तुम, फ़ना, रंग दे बसंती, तारे ज़मीन पर, दिल्ली 6, ब्लैक, और गज़नी जैसी दर्जनों फिल्मों में लिखे अपने गीतों के मार्फत बॉलीवुड में गीत की नई ज़मीन तैयार की है।

पिछले कुछ वर्षों में बॉलीवुड का कई ऐसे गीतकारों से साक्षात्कार हुआ है जिनके भीतर से देश, दुनिया, समाज और संस्कृति को अभिव्यक्त करने की मौलिक शैली बाहर निकली है। सईद क़ादरी ने शुरुआत में ही आवारापन, बनजारापन में मौजूद भीतरी ख़ालीपन की जद में लोगों को चुपचाप समेट लिया। सईद के गीतों में छटपटाहट, बेचैनी, ख़ालीपन, उमंग, जुदाई और विश्वास का गज़ब तालमेल देखने को मिलता है। इमरान हाशमी और महेश भट्ट की फिल्मों की सफ़लता के पीछे सईद क़ादरी का बड़ा योगदान है। क़ादरी ने ज़न्नत, वो लम्हे, गैंगस्टर, कलियुग, फरेब, जहर, रोग, मर्डर, पाप, जिस्म जैसी फ़िल्मों में ऐसे गाने लिखे, जिनके न सिर्फ शब्द अच्छे थे, बल्कि इन गानों ने लोकप्रियता और सफ़लता के नए प्रतिमान स्थापित किए। इनको आवाज़ देने वाले कुछ ऐसे गायक सामने आए, जहां से गायिकी के क्षेत्र में स्पष्ट मोड़ महसूसा जा सकता है। कुणाल गांजावाला, आतिफ़ असलाम जैसे गायकों ने अपनी पारी यहीं से शुरू की। इन गानों के फिल्मांकन को लेकर कई लोगों ने यह सवाल भी उठाए कि क़ादरी के लिखे कुछ बेहतरीन गानों की वीडियो में उन सारे भावों और गंभीरता को सस्ती और बाज़ारू दृश्यों में तब्दील कर दिया गया।

क़ादरी से मिलती-जुलती शैली में आजकल लोकप्रिय फ़िल्मों में बेहतरीन गाना रचने वाले इरशाद क़ामिल ने फ़िल्मी गानों को प्रचलित स्वरूप से दूर किया है। आज दिन छडयाके लिए उन्हें खूब सराहा गया और कई पुरस्कार भी मिले। हालांकि क़ामिल के गीतों को पुरस्कार के जरिए मापने का पैमाना बहुत उपयुक्त नहीं है। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि इरशाद ने नीरज श्रीधर, केके से लेकर उदित नारायण तक से गवाने वाले हर मूड के गाने लिखे और सपाट, सस्ती अभिव्यक्ति से अपने को बचाए रखा। गुलजार और जावेद अख़्तर के गानों में जो प्रकृति सौंदर्य और देसी खुशबू देखने को मिलती है,वह अब कई गीतकारों के गीतों में छलक रही है। गुलजार में कल्पनाशीलता और गाने के मूड के अनुसार शब्दों की चयन क्षमता गज़ब की है। कुछ मिसाल लीजिए, पत्ती-पत्ती झड़ जावे पर खुशबू चुप न होवे.. या फिर ताजा गिरे पत्तों की तरह सब्ज-ए-लॉन में लेटे हुए। गुलज़ार और जावेद में एक समानता यह है कि ये दोनों सिर्फ गीत नहीं लिखते हैं। निर्देशन से लेकर संवाद लेखन तक के क्षेत्र में दोनों सक्रिय रहे हैं। फ़िलवक्त हिंदी फ़िल्मी दुनिया में कई ऐसे लोग हैं, जो संवाद लिखते-लिखते गीत लिखने लगे या फिर गीत लिखने के साथ-साथ कई अन्य फ़िल्मी विधा में सक्रिय हैं। माई नेम इज ख़ान के स्क्रीनराइटर निरंजन आयंगर को जावेद अख़्तर की झोली से गीत लिखने की जिम्मेदारी आई तो उन्होंने तेरे नैना जैसे गीत लिखकर लोगों को चौंका दिया। बॉलीवुड के कई लोग अब उन्हें गीत लिखने की सलाह दे रहे हैं। स्वानंद किरकिरे गायन, स्क्रीन लेखन और गीत लेखन जैसे कई विधा में सक्रिय हैं। पिया बोले.. बहती हवा सा था वो और बंदे में था दम.. जैसे गीतों पर सम्मानित हो चुके किरकिरे ने शांतनु मोइत्रा के साथ अच्छी जुगलबंदी की है। स्वानंद को सर्वाधिक संभावनाशील गीतकार के बतौर आलोचक देख रहे हैं।

रीमिक्स का बुखार थमने के बाद जो मौलिक रचनाएं निकलकर आ रही हैं, निश्चित तौर पर उनमें अच्छी और बुरी दोनों तरह के गीत हैं। इसमें भड़काऊ, उबाऊ और सस्ती शैली के गीत भी हैं, तो गंभीर, सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करने वाले गीत भी। इसी समय नीलेश मिश्रा जैसा गीतकार भी बॉलीवुड पहुंचता है, जो कभी कड़ी मेहनत करने वाले रिपोर्टर के बतौर जाने जाते थे। ऐसे गीतकारों के पास सामाजिक स्थितियों की पूरी तस्वीर सामने होती है। जाहिर है, इनके गीतों में ताजगी और गहराई का स्तर उन गीतकारों से अधिक होगा जो बंद कमरों में बैठकर गीतों का उत्पादन करते रहे हैं। जादू है नशा है, क्या मुझे प्यार है, लम्हा-लम्हा, मैंने दिल से कहा, चलो तुमको लेकर, बेपनाह प्यार है, जैसे गीत लिखने वाले नीलेश मिश्रा प्रिंट पत्रकारिता और रेडियो के बरास्ते गीतों तक पहुंचे हैं, लेकिन एक झलक में कोई भी यही कहेगा कि उनका मूल स्वभाव गीत लिखने का ही है। पीयूष मिश्रा और अशोक मिश्रा भी कुछ अर्थों में नीलेश से मिलते-जुलते गीतकार हैं। पीयूष की बहुमुखी प्रतिभा को सिनेमा के मुरीद अच्छी तरह पहचानते हैं। वह अदाकार हैं, गायक हैं, संगीतकार हैं, स्क्रीन प्ले लिखते हैं और गीतकार भी है। गुलाल में लिखे गए उनके गीत ओ री दुनिया का रेंज देखिए और फिर आजा नचले, टशन और दिल पे मत ले यार के गीतों को सुनिए। पीयूष हर स्थिति को अपने शब्दों में बांधने की क्षमता रखते हैं। कुमार, ए.एम. तुराज, अमिताभ भट्टाचार्य और फ़ैज अनवर जैसे गीतकारों से भी काफी उम्मीदें हैं। 1990 के दशक के साथ तुलना करते हुए यह जरूर लगता है कि बीते दशक के गानों की उम्र बहुत सीमित थी, लेकिन 90 के समूचे दशक में समीर और नदीम श्रवण की जुगलबंदी वाला जो पक्ष उभरा उसने संगीत को एक बड़े कारखाने में तब्दील कर दिया। 9 मिनट और एक गाना तैयार। जावेद अख्तर ने भी अपना पहला गाना तुमको देखा तो ये ख़याल आया 10 मिनट से कम समय में लिखा था। इस गाने को आज भी प्रशंसा मिलती है। इसलिए सवाल कम समय का नहीं है। असल सवाल यह है कि कम समय में गानों में रूपक बिंब और प्रस्तुति को जिस तरह एकदम सपाट कर दिया गया वह गानों की तमीज को लील गया। आनन-फ़ानन में लिखे गए ऐसे गीतों में कई ऐसे हिट गाने भी हुए, जिन्हें अब भी सुना जाता है। लेकिन, हिट होना और गाने का बोल अच्छा होना दो अलग-अलग चीज़ें हैं। मुन्नी बदनाम.. जैसे गाने भी हिट होते हैं और उन्हें पुरस्कार मिलता है। इस बार के फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार में बॉलीवुड के कई गीतकारों, गायकों और संगीतकारों ने चयन प्रक्रिया पर सार्वजनिक नाखुशी का प्रदर्शन किया। स्वानंद किरकिरे ने कहा था कि उनके हिसाब से दिल तो बच्चा है जी.. बीते साल का सबसे मधुर, कर्णप्रिय और पुरस्कार के मानकों के हिसाब से भी सबसे उपयुक्त गीत था। इन राजनीतिक उठापटक के बीच अगर ए. एम. तुराज जैसे नए गीतकार गुजारिश के लिए उड़ी.. जैसे गाने लिख रहा है, तो इसमें बेहतरी की साफ गुंजाइश दिखती है।

गीत संगीत में बदलाव बहुत साफ हैं। फ़िल्म जगत से उदित नारायण, कुमार सानू और सोनू निगम की गायक तिकड़ी तथा अल्का याज्ञनिक अनुराधा पौंडवाल और कविता कृष्णामूर्ति जैसी गायिका की लोकप्रिय तिकड़ी अब परिदृश्य से गायब नज़र आने लगी है। रेखा भारद्वाज, ऋचा शर्मा जैसी गायिकाएं अपनी अलग आवाज़ की वजह से ही एक खास जगह बनाई है। संगीत के इस ढर्रे की कई मंचों से विशेषज्ञों ने आलोचना भी की। कुछ लोगों का मानना है कि इसमें मधुरता को खत्म किया जा रहा है। कुछ इस बात पर जोर दे रहे हैं कि गायन से गंभीरता को खत्म किया जा रहा है और बदलाव के नाम पर हिमेश रेशमिया जैसे गायकों का बाजार चल निकला है। लेकिन, इन आलोचनाओं में गीतों के बोल वाले पहलू पर सबसे कम जोर दिया गया। गानों के बोल के मार्फत से यदि गीतों को देखा जाए तो गीतों के स्तर में गिरावट की शिकायत नहीं रह जाएगी। 1990 के दशक में भी चलताऊ गाने लिखे जाते थे और आज भी लिखे जा रहे हैं, लेकिन औसत तौर पर आज के गानों की अभिव्यक्ति 90 के दशक से अधिक कविताई संस्कार से लैश है।

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