29 जून 2011

बदला रेतघड़ी के संग सिनेमा

- देवाशीष प्रसून
साहित्य और कलाएँ अपने समय, समाज और संस्कृति की तमाम अभिव्यक्तियों का ख़ूबसूरत जरिया होती हैं। कोई भी कलाकार अपनी कलाकृतियों के जरिए अपने समय के द्वंद्वों, लोगों की आकांक्षाओं और सांस्कृतिक उथल-पुथल को उकेरने की कोशिश भर करता है। साहित्य, संगीत, नृत्य, नाट्य, मूर्तिकला, चित्रकला आदि-आदि इन कलाओं की चाहे एक लंबी-चौड़ी सूची बन जाए, फिर भी मूलतः ये सारी की सारी कलाएँ अपने समय में व्याप्त तमाम तरह के अंतर्द्वंद्वों का अनेक ऊपायों से इज़हार करने का बस एक तरीक़ा हैं।

सिनेमा अपने स्वरूप और बनावट में कोई एक खास कला नहीं है, बल्कि विभिन्न कलाओं से सिंचित एक बहु-आयामी और जटिल संयोग है। साथ ही, बदलते समय के ढर्रे पर सिनेमा का बदलना अन्य कलाओं के बनिस्पत अधिक तेज़ और बारंबार घटने वाली बात रही है। अपने समय से चूका हुआ सिनेमा आम दर्शकों को पल के लिए भी नागवार गुज़रता है। यहाँ समय से चूकने से मतलब फिल्म निर्माण में तकनीकों का इस्तेमाल, भाषा का प्रवाह और दृश्य संयोजन की शैली आदि का नए ज़मानों के दर्शकों के सौंदर्यबोध के दायरे से बाहर होना है। फिल्मों की सफलता के लिए ज़रूरी है कि कला के तमाम पक्षों के साथ-साथ फिल्मों की अंदाज़-ए-बयानी अपने समय के हामी बनी रहे। कोई कला का पारखी व्यक्ति या अध्येता अपने समय से इतर के सिनेमा का आनंद ले सकता है, लेकिन खालिस मनोरंजन के लिए फिल्में देखने गया औसत समझदारी वाले एक दर्शक के लिए वह सिनेमा उबाऊ हो सकती है, जिसकी भाषा, तकनीक और दृश्यों को वह समझ नहीं पा रहा हो, याने वह उसके समय के अनुरूप संप्रेषण नहीं कर रही हो। शरतचंद के उपन्यास देवदास पर हिंदी में तीन फिल्में बनी, तीनों को दर्शकों ने ख़ूब सराहा। लेकिन खास बात यह कि तीनों देवदास का फॉरमेट अपने-अपने समय के अनुसार अलग-अलग था, जिस कारण से एक ही कहानी बार-बार दर्शकों के सामने आने पर भी वह पसंद की गई और उसकी जीवंतता बनी रही। ऐसा ही कुछ फिल्म डॉन के साथ भी हुआ। कई और भी उदाहरण हैं।

समय के साथ बदलते सिनेमा को समझने और इनके कारकों की पड़ताल करने का एक आसान तरीका हिंदी सिनेमा के इतिहास को गहराई से देखना हो सकता है। इस बात को कुछ उदाहरणों से परखा जा सकता है।


अलग-अलग समयों में हिंदी सिनेमा

कुछ पुरानी यादों से ही बात शुरू करें। 1957 में फिल्म निर्देशन के कारोबार से जुड़े ऋषिकेश मुखर्जी अपने समय के बेहतरीन फिल्म निर्देशक रहे हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान हिंदी सिनेमा के फेहरिस्त में एक से बढ़कर एक उम्दा फिल्मों को दर्ज किया। चाहे उनका शुरूआती दौर रहा हो, जब वह राज कपूर को लेकर अनाड़ी बनाते हैं, बलराज साहनी के साथ उनकी फिल्म अनुराधा आती है और देव आनंद अभिनित असली-नक़ली रिलीज होती है। इसी दौरान वह गुरू दत्त को फिल्म सांझ और सवेरा में फिल्माते हैं और धर्मेंद्र और शर्मिला टैंगोर को लेकर बनी उनकी फिल्म सत्यकाम भी आती है। सुनील दत्त की गबन या अशोक कुमार अभिनित आशीर्वाद जैसी फिल्मों को भी ऋषि दा उसी वक्त दर्शकों के सामने ले कर आते हैं। इन सभी एक खास तरह की संज़ीदा फिल्मों को उस समय के दर्शकों ने ख़ूब सराहा। पर फिर उन्होंने बदलते समय के नब्ज़ को पहचाना, जब देश में आज़ादी का उत्साह ठंडा पड़ने लगा था, नेहरू का समय जा चुका है और नई पीढ़ी के पास एक नया समाज बनाने का काम जस का तस पड़ा है। ऋषि दा ने समय की सच्चाईयों को पहचाना और इसलिए उनके सिनेमा में भी एक गज़ब का बदलाव देखा गया, जिसमें संज़ीदगी सिर्फ़ कहानी के मूल भाव में दिखती है और अंदाज़-ए-बयां पूरी तरह से हास्य-विनोद के रस में डूबा मिलता है। उनके ऐसी फिल्मों का अगला दौर था- आनंद, गुड्डी, बावर्ची, अभिमान, नमक हराम, चुपके-चुपके, मिली, गोलमाल, ख़ूबसूरत, नरम-गरम और रंग-बिरंगी का। कहानियों में नयापन और ताज़गी थी। नए-नए उभरते मध्यम वर्गीय परिवार और इससे बावस्ता एक बदलते हुए समाज में परंपराओं में चले आ रहे मूल्यों में से क्या कुछ संजोया जाए और किन-किन रूढ़ियों को झिड़क दिया जाए, इन्हीं कशमकश से जूझती ऋषि दा की ये फिल्में अपने समय और समाज का आईना बन जाती हैं। लेकिन फिर क्या हुआ कि सन बिरासी-तेरासी के बाद से यह माहिर फिल्म निर्देशक चूक गया। उनकी लगभग हर फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। मामला साफ था कि बदलते समय के अनुसार वह खुद को ढाल नहीं पाए। ऐसा सिर्फ ऋषिकेश मुखर्जी के साथ नहीं हुआ। देव आनंद के पूरे करियर में भी लगभग ऐसा ही कुछ चला जो साफ-साफ हर किसी को दिखता है। देव आनंद की कंपनी नवकेतन ने सन पचास से तिहत्तर के बीच हिंदी सिनेमा को बाज़ी, फंटूश, कालापानी, काला बाज़ार, हम दोनों, तेरे घर के सामने, गाइड, प्रेम पुजारी, तेरे मेरे सपने, हरे रामा हरे कृष्णा और हीरा पन्ना सरीखे कई लाज़बाव व हिट फिल्में दी, लेकिन सन तिहत्तर के बाद से नवकेतन की फिल्में लगातार फ्लॉप होती रही। कारण वही था, देव की बाद की फिल्मों ने अपने समय के लोगों तक संवाद करना बंद कर दिया था। जाहिर सी बात है कि ऋषिकेश या देव की तरह के दिग्गज निर्माता या निर्देशक जो एक समय में अपने काम में माहिर रहे थे लेकिन समय के बहाव के अनुरूप अपने फिल्मों का रुख तय नहीं कर पाने के कारण अगले समय के लोगों ने उनकी फिल्मों को ख़ारिज़ कर दिया।

ऐतिहासिक तौर पर हिंदी सिनेमा में होने वाले बदलावों को दूसरे नज़रिए से भी देखा जा सकता है। देश के राजनीतिक फेरबदल को केंद्र में रखकर देखें तो मामला बिल्कुल साफ हो जाएगा कि हर समय में बदलते सियासी माहौल ने सिनेमा को किस क़दर प्रभावित किया है। बरतानी हुक़ुमत के दौरान जो ज्यादाकर फिल्में आयीं, उसने या तो समाज की कुरीतियों पर प्रहार किया, या नहीं तो उसके केंद्र में धार्मिक कथाएँ और मिथकीय फंतासियाँ रहीं। प्रतिनिधि के तौर पर देखिए कि 1931 की बनी हिंदी की पहली बोलती फिल्म आलम आरा किसी पौराणिक व काल्पनिक राजा-रानी की कहानी है, लेकिन फिल्म के निहितार्थ सत्ता के अंतर्विरोधों को ही दर्शाते हैं, जो मूल रूप से बरतानी सरकार के छत्रछाया में पर रहे राजे-रजवाड़ों पर एक सांकेतिक हमला था। इस तरह की फिल्में उस समय के लोगों की पसंद तो थी ही पर इससे अहम बात यह थी कि इन फिल्मों का केंद्रीय चरित्र तत्कालीन मौजूदा राजशाही और उसके अंतर्विरोधों का सांस्कृतिक उत्पाद था। आलम आरा ही क्यों, उस दौर की अछूत कन्या, देवदास, जीवन नैया, दुनिया न माने, किसान कन्या जैसी और अन्य फिल्में भी इसका नमूना हैं। प्रेम विषयक फिल्मों का बोलबाला सिनेजगत में हमेशा रहा, लेकिन फिर भी अलग अलग समय में प्रेम को भी फिल्मों ने अलग अलग तरीके से दिखाया और परिभाषित किया है। मसलन फौरी तौर पर आलम आरा भी एक प्रेम कहानी है, पर इसका अंदाज़-ए-बयां या जिसे ट्रीटमेंट कहते हैं, आज के प्रेम कथाओं से कितना अलग और कभी-कभी तो कुछ मामलों में परस्पर विरोधी भी दिखता है।

आज़ादी के बाद से सन सत्तर तक एक दूसरा दौर था, जिसमें एक आज़ाद मुल्क़ अपने आप को राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सतहों पर गढ़ रहा था। इस गढ़न में फिल्में भी अपना योगदान कर रही थीं। इस दौर की फिल्मों में तकनीकी स्तर पर लोगों के पसंद को और ज़हीन बनाया था। इस दौर की क़ाबिल-ए-ग़ौर फिल्में रहीं- दो बीघा ज़मीन, बूट पॉलिश, जागृति, झनक झनक पायल बाजे, मदर इंडिया, मधुमति, सुजाता, मुग़ल-ए-आज़म, जिस देश में गंगा बहती है, साहब, बीबी और ग़ुलाम, बंदिनी, दोस्ती, हिमालय की गोद में, गाइड, उपकार, ब्रह्मचारी, अराधना, खिलौना, आनंद, बेईमान, अनुराग और रजनीगंधा। यह उस दौर की सबसे अधिक लोकप्रिय फिल्में थीं। इन फिल्मों ने कहानी, तकनीक, संगीत, कथ्य के स्तर पर कहें तो कुल मिलाकर हिंदी सिनेमा को एक आकार प्रदान किया। ज़रा कल्पना किजीए, अगर आर्देशिर ईरानी सत्तर के दशक में जब गज़ब की तकनीकी समझदारी के साथ फिल्में बन रही थी तब आलम आरा को बिल्कुल वैसे बनाते जैसे उन्होंने सन ’31 में बनाई थी तो नए सौंदर्यबोध वाले दर्शकों में से कौन होता जो पुरानी तकनीकी से बनी फिल्म देखने के लिए अधन्नी खर्च करता। शायद कोई नहीं। बहरहाल, बात का सिलसिला आगे बढ़ाते है तो दिखता है कि सन सत्तर के बाद से हिंदी सिनेमा में एक समांतर धारा बहती है, जो व्यवस्था के विरुद्ध सवाल उठाना शुरू करती है। हिंदी फिल्मों के इतिहाल में बड़ा परिवर्तन सन ‘90 – ’91 के बाद से दिखना शुरू होता है।


भारत का खुलता बाज़ार और सिनेमा

भारत में सन ’91 के बाद समाज के कई पहलूओं में अमूलचूल बदलाव आए। कारण था देश का आर्थिक उदारीकरण। सन ’47 के बाद से अब तक भारत का बाज़ार सरकार के नियंत्रण में था। इसका मतलब यह है कि विदेश से कौन सी चीजें, कितनी मात्रा में आयातित करनी है और कौन सी चीजें बिल्कुल नहीं आयातित करनी है, यह सरकार तय करती थी। भारतीय अर्थव्यवस्था का अपने आप में स्वतंत्र इकाई थी और बाज़ारों पर सरकार का बहुत हद तक नियंत्रण था। लेकिन, सन ‘91 में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की पहल पर भारत की अर्थव्यवथा को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ दिया गया। यह भारत में बाज़ार के उदारीकरण और अर्थव्यवस्शा के वैश्वीकरण की शुरूआत थी। इसका राजनीति, समाज, संस्कृति और जनमानस पर दूरगामी और गहरा छाप पड़ा, जिसका परावर्तन स्वतः ही हिंदी फिल्मों में देखने को मिलता है।

सन ’92 में खास यह हुआ कि भारत में पहली बार भारत में विदेशी टेलीवीज़न चाइनलों का प्रवेश हुआ। यह अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के नतीज़न प्रसारण नीतियों में आए बदलावों के कारण संभव हुआ। सबसे पहले भारत में लोगों को रुपर्ट मर्डोक की कंपनी स्टार टीवी नेटवर्क के स्टार प्लस, स्टार मूवीज़ और एमटीवी आदि से साबिका पड़ा। कालांतर में इन विदेशी चाइनलों ने बड़े ज़ोर शोर और योजनाबद्ध तरीक़े से लोगों के पसंद को प्रभावित करने का काम किया। इन्हीं चाइनलों के साथ आया ज़ीटीवी भी दर्शकों के मन में एक अलग और उदारीकरण का हमराही टेस्ट विकसित कर रहा था। उपभोक्तावादी समाज बनाने की क़वायद इन चाइनलों का मुख्य एजेंडा थी, यह बात समझ में आती है। हॉलीवुड की फिल्में पहले जहाँ सरकारी छन्नियों से छन कर भारतीय दर्शकों तक पहुँचती थीं, वहीं अब इन विदेशी चाइनलों ने हॉलीवुड के फिल्मों की बाढ़ सी ला दी थी। और तो और, नक़ली विडियो कसैट की आसान और प्रचुर उपलब्धता ने भी भारतीय जनमानस को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया। हॉलीवुड की फिल्मों का भारतीय सिनेदर्शकों और सिनेबाज़ार पर ख़ासा असर तो पड़ा ही, साथ ही, हॉलीवुड की फिल्मों की सफलता के वशीभूत होकर बॉलीवुड में भी विदेशी तकनीकों और दृश्य संयोजन की अनुकरण शुरू हो गया।

इन सबके साथ बदलते समय के साथ लोगों के पसंद का बदलना और इस कारण हिंदी सिमेना का बदलने में जो एक बड़ा कारण था, वह था भारतीय मध्यवर्ग का निर्माण और विस्तार। भारत में उदारीकरण के मद्देनज़र ऐसे लोगों का एक वर्ग तैयार हुआ, जिनके खीसे में लाखों-करोड़ों की रक़म और मन में अरबों-खरबों रुपए का सपना था। ऐसा ही एक विशाल आयवर्ग हिंदी सिनेदर्शकों का लक्षित दर्शक बना, क्योंकि इनके पास पूँजीवादी उत्पादन तंत्र, जिसका वे अंग है, से स्वभाविक रूप से उपजने वाले जीवन के उबाऊपन से उबरने के लिए एक सपने की ज़रूरत थी। यह सपना दिखाने का काम सिनेमा कर रहा था। सन ’91 के बाद आई फिल्मों के चरित्र पर ग़ौर करें तो यह बात और स्पष्ट हो जाएगी।

चाहे जो जीता वही सिकंदर हो या हम हैं राही प्यार के या बाज़ीग़र, इन फिल्मों में कई सपने हैं, भारतीय मध्यवर्ग की जो और अधिक जीतना चाहता है। जीत को ज़िंदगी का रूप में परिभाषित करती हैं, इस समय की हिंदी फिल्में। सच्चाई, प्रेम, ईमानदारी और नैतिकता जैसे मानवीय मूल्य इस जीतने की प्रबल इच्छा के बाद दिखते हैं। उस समय की सबसे पसंद की गई सन ’94 की फिल्म हम आपके हैं कौन...! सन ’82 की सुपरहिट फिल्म नदिया के पार का रिमेक थी। दोनों फिल्मों का एक ही निर्माता कंपनी ने बनाई थी। पर ग़ौर करने वाली बात यह है कि कहानी में समय के अनुसार फेरबदल किए गए, गो कि नदिया के पार जहाँ मध्यवर्ग किसान परिवार की कहानी है तो हम आपके हैं कौन...! एक अमीर उद्योगपति परिवार की कहानी। आप तकनीक के स्तर पर हम आपके हैं कौन...! में एक भव्यता का एहसास कर सकते हैं, जो हम आपके हैं कौन...! के समय को परिभाषित करता है।

सन ’97 तक यह भव्यता और अभिजात्यता दिल तो पागल है में और आगे चल कर कुछ कुछ होता है, कभी खुशी कभी ग़म आदि महंगी बजट या प्रवासी भारतीयों पर बनी फिल्मों में अधिक गहरी होती दिखाई देती है। यही सिलसिला धीरे-धीरे और गहराते जाता है और आज के फिल्मों का चेहरा तैयार होता हो। एक ख़ास बात यह है कि आज का हिंदी सिनेमा उदारीकरण के तुरंत बाद वाला सिनेमा नहीं है, जिसमें तकनीकों का अंधानुकरण दिखता है, बल्कि आज हिंदी सिनेमा में अंतर्वस्तु के स्तर पर भी परिपक्वता देखी जा सकती है। इसका उदाहरण, हम तुम, ब्लैक, बंटी और बबली, पेज़ थ्री, लगे रहो मुन्नाभाई, चक दे इंडिया, जब वी मेट, तारे ज़मीन पर और थ्री इडिएट जैसी हिंदी फिल्में हैं। कुल मिला कर इन सब कारकों ने मिलकर हिंदी सिनेदर्शक के टेस्ट में पहले के बरअक्स बहुत बदलाव लाए हैं और अब हिंदी सिनेमा के दर्शकों की पसंद वैश्विक हो गया है। एक साथ कई संस्कृतियों की फिल्मों तक उसकी पहुँच है। वह कई तरह के सिनेमा को समझने का माद्दा रखता है। उसके पसंद का बहुत फलक चौड़ा हुआ है।

बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है और हिंदी सिनेमा की कहानी में बदलता हुआ बहुत कुछ है, जो अभी कहना बाकी है। यह सिलसिला फिर कभी आगे बढ़ाएंगे...


अहा! ज़िंदगी सिनेमा विशेषांक (जून 2011) में प्रकाशित कवर स्टोरी। इस अंक में और भी सुरूचिकर व पठनीय सामग्रियां हैं, अंक मंगवाने के लिए इस पते पर संपर्क करें-
अहा! ज़िंदगी,
भास्कर परिसर, 10-जे.एल.एन. मार्ग,
मालवीय नगर, जयपुर - 302015 (राजस्थान)

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