ब्रिटेन के भुला दिए गए हत्याकांड
जॉर्ज मॉन्बिऑट27 दिसंबर, 2005
तुर्की उपन्यासकार ओर्हान पामुक के मुकद्दमे के बारे में रिपोर्टें पढ़ते हुए दो बातों पर आपका खास ध्यान जाता है। पहली तो खैर देश के पुरातन कानूनों की निर्ममता है। पामुक पर, ढेर सारे अन्य लेखकों और पत्रकारों की तरह, "तुर्कीपन की तौहीन" करने के लिए मुकद्दमा चलाया जा रहा है, जिसका मतलब है कि उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान किए गए आर्मेनियाई हत्याकांड और पिछले दशक के दौरान हुई कुर्दों की हत्याओं का ज़िक्र करने का साहस किया। यह दूसरी बात उस देश की अविश्सनीय बेवकूफी है। अगर इन हत्याकांडों को जीवित मुद्दे बनाने के लिए के लिए कुछ किया जा सकता है, तो वह है देश के सबसे अग्रणी उपन्यासकार पर इन मुद्दों का ज़िक्र करने के लिए मुकद्दमा चलाना।
यूरोपीय संघ का भाग बनने के लिए तुर्की सरकार जो तैयारी कर रही है, उसके ही दौरान उसे पता चलेगा कि यूरोपीय संघ को रोक लगाने के लिए एक अधिक प्रभावी माध्यम मिल गया है। कानूनी ज़बरदस्ती के बिना, लेखकों को उनके घरों से खदेड़ने के लिए हुल्लड़ मचाती भीड़ के इस्तेमाल के बिना हमने (ब्रिटेन ने) अपने ज़ुल्मों को भुलाने की असीमित क्षमता का विकास कर लिया है।
ज़ुल्म? कौनसे ज़ुल्म? जब तुर्की में कोई लेखक इस शब्द का प्रयोग करता हैं, तुर्की में हर कोई जानता है कि वह क्या कह रहा है, चाहे वे कितने ही ज़ोर-शोर से कहें कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। लेकिन ब्रिटेन में अधिकतर लोग आपको खाली निगाहों से देखेंगे, बिना समझे। तो मैं आपके दो ऐसे उदाहरण देता हूँ, जिनके बारे में उतने ही सारे दस्तावेज़ हैं जितने आर्मेनियाई क़त्ले-आम के बारे में।
2001 में प्रकाशित अपनी किताब लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट्स (उत्तर विक्टोरियाई हत्याकांड) में माइक डेविस हमें उन अकालों की कहानी सुनाते हैं जिनमें 1.2 से 2.9 करोड़ भारतीय मारे गए (1)। वे दिखाते हैं कि इन लोगों की ब्रिटेन की सरकारी नीति द्वारा हत्या की गई थी।
जब एक एल नीनो अकाल ने 1876 में दक्खन के पठार के किसानों को दरिद्र बना दिया, तब भारत में चावल और गेहूँ की पैदावार ज़रूरी मात्रा से ऊपर हुई थी। लेकिन वाइसरॉय, लॉर्ड लिटन, ने ज़ोर दिया कि इसके इंग्लैंड को निर्यात में कोई बाधा नहीं आनी चाहिए। 1877 और 1878 में, अकाल के चरम पर, अनाज व्यापारियों ने रिकॉर्ड 64 लाख सेर गेहूँ का निर्यात किया। जब किसान भूख से मरने लग गए, तब सरकारी अधिकारियों ने आदेश दिया कि "राहत कार्यों को हर तरह से हतोत्साहित किया जाए"(2)। 1877 के ऐंटी-चैरिटेबल कंट्रीब्यूशंस ऐक्ट (परोपकारी सहायता विरोधी कानून) ने "राहत हेतु चंदे पर, जो संभवतः बाज़ार में अनाज की कीमत ठहरने के आड़े आए, क़ैद किए जाने की सज़ा के साथ" रोक लगा दी। अधिकतर ज़िलों में राहत के नाम पर केवल कठोर श्रम की अनुमति थी, जिससे भी भुखमरी की बढ़ी हालत में पहुँचे हर व्यक्ति को दूर कर दिया जाता था। कामगारों को बुखेनवाल्ड के श्रम शिविरों में रहने वाले क़ैदियों से भी कम खाना दिया जाता था। 1877 में इन शिविरों में मासिक मृत्यु दर वार्षिक मृत्यु दर के 94% के बराबर थी।
जब दसियों लाख मर रहे थे, साम्राज्यवादी सरकार ने "अकाल के दौरान बकाया हो गए लगान को वसूल करने के लिए एक सशस्त्र अभियान शुरू कर दिया।" वो पैसा, जिसने उनको भी तबाह कर दिया जो शायद अकाल के बावजूद भी बच जाते, लिटन ने अपने अफग़ानिस्तान युद्ध में लगाया। सरकार की निर्यात नीतियों ने उन क्षेत्रों में भी, यूक्रेन में स्टॉलिन के समान, भूख पैदा की जहाँ अनाज की पैदावार ज़रूरत से ऊपर हुई थी। उत्तरी-पूर्वी प्रदेशों, अवध, और पंजाब में, जहाँ पिछले तीन सालों में रिकॉर्ड फसल हुई थी, 12.5 लाख लोग मारे गए।
हाल में प्रकाशित तीन किताबों - कैरोलिन एल्किंस की ब्रिटेंस गूलाग (ब्रिटेन का गूलाग), डेविड ऐंडरसन की हिस्टरीज़ ऑफ द हैंग्ड (फाँसी दिए गए लोगों का इतिहास) और मार्क कर्टिस की वेब ऑफ डिसीट (धोखे का जाल) - में दिखाया गया है कि बसने को आए गोरों और ब्रिटेन की सेना ने कैसे केन्या में 1950 के दशक में मऊ मऊ विद्रोह का दमन किया। अपनी सबसे अच्छी भूमि से बाहर कर दिए जाने और राजनीतिक अधिकार छीन लिए जाने पर किकूयू लोगों ने औपनिवेशिक राज के विरुद्ध - उनमें से कुछ ने हिंसात्मक रूप से - संगठित होना शुरू किया। ब्रिटेन ने उनमें से 320,000 को यातना शिविरों में खदेड़ दिया (3)। बाकी लोगों, दस लाख से ज़्यादा, को "घेराबंद गाँवों" में रोक कर रखा गया। क़ैदियों से पूछताछ करने के लिए "उनके कान काट लिए गए, कान के पर्दों में छेद किए गए, चाबुकों से मार-मार कर जान ली गई, संदिग्ध व्यक्तियों पर पैराफ़ीन उड़ेला गया जिन्हें फिर आग लगा दी जाती थी, और जलती सिगरेटों से कान के पर्दों को जलाया गया।" ब्रिटिश सैनिकों ने उंगलियाँ और अण्डकोष काटने के लिए "धातु के बधिया करने के यंत्र" का इस्तेमाल किया। वहाँ बसे एक गोरे ने डींग मारी कि "जब मैंने उसके अण्डकोष काटे, उसके कान नहीं बचे थे, और उसकी आँख, मेरे ख्याल से दाईं वाली, बाहर लटक रही थी (5)।" सैनिकों से कहा गया था कि वे जिसे चाहे गोली मार सकते हैं "बशर्ते वो काले हों (6)।" ऐल्किन के प्रमाणों से पता चलता है कि 100,000 से ज़्यादा किकूयू या तो ब्रिटिशों द्वारा या फिर शिविरों में बीमारी और भूख से मारे गए। डेविड ऐंडरसन ने 1090 संदिग्ध विद्रोहियों की फाँसी का ज़िक्र अपने दस्तावेज़ों में किया है: अल्जीरिया ने फ्रांस में जितने लोगों को फाँसी दी उससे कहीं ज़्यादा (7)। हज़ारों को तो सैनिकों ने सिर्फ इसलिए गोली मार दी कि रुकने को कहने पर वो "रुकने में नाकामयाब रहे"।
ये तो ब्रिटिश सरकार या ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रवासियों द्वारा निरीक्षित और आयोजित कम से कम बीस अत्याचारों में से केवल दो उदाहरण हैं: ऐसे ही कुछ और उदाहरण हैं तस्मेनियाई हत्याकांड, मलाया में सामूहिक सज़ा का इस्तेमाल, ओमान में गाँवों पर बमवर्षा, उत्तरी यमन की कुत्सित लड़ाई, दिएगो गार्शिया को खाली किया जाना। इनमें से कुछ की हल्की सी, मिटी हुई सी याद कुछ पाठकों को शायद आ भी जाए, पर अधिकतर लोग तो यही नहीं समझ पाएंगे कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ। मैक्स हेस्टिंग्स, अगले पन्ने पर "स्टॉलिन और माओ के अपराधों में हमारी अपेक्षाकृत कम रुचि" पर दुख जता रहे हैं(8)। लेकिन हम इतना तो जानते हैं कि ये हुए थे।
ऐक्सप्रेस में हम इतिहासकार ऐंड्रयू रॉबर्ट्स को यह तर्क देते हुए पढ़ सकते हैं कि "अपने आधे सहस्राब्द के इतिहास के बहुत बड़े हिस्से में ब्रिटिश साम्राज्य अच्छाई की एक अनुकरणीय ताकत थी। ... ब्रिटेन ने साम्राज्य को लगभग बिना खून-खराबे के छोड़ दिया, अपनी उत्तराधिकारी सरकारों को जनतंत्र और प्रतिनिधित्व पर आधारित संस्थाओं के बारे में शिक्षित करने की कोशिश के बाद (9)" (शायद उनके भावी नेताओं को जेल में डाल कर)। संडे टेलीग्राफ में वे ज़ोर देकर कहते हैं कि "ब्रिटिश सरकार ने आश्चर्यजनक वृद्धि दरों को संभव बना दिया, कम से कम उन जगहों में जिन्हें ग्लोब पर गुलाबी रंग में रंगे जाने का सौभाग्य मिला।" (10) (इसकी तुलना माइक डेविस के केन्द्रीय निष्कर्ष से कीजिए कि "भारत की प्रति व्यक्ति आय में 1757 से 1947 के बीच कोई वृद्धि नहीं हुई", या प्रसन्नन पार्थसारथी द्वारा प्रमाणित इस बात से कि "18वीं सदी में दक्षिण भारत के किसानों की आय ब्रिटेन के किसानों से अधिक थी और उनके जीवन में आर्थिक सुरक्षा भी ज़्यादा थी।") (11) डेली टेलीग्राफ में जॉन कीगन का मानना है कि "साम्राज्य अपने आखिरी सालों में अत्यधिक दयालु और नैतिक हो गया था।" विक्टोरियाई "अपने उपनिवेशों में सभ्यता और अच्छी सरकार लाने और स्वागत अवधि खत्म हो जाने पर वापस चले आने के लिए निकल पड़े। लगभग हर देश में, उस देश के लाल हो जाने के बाद, वे अपने संकल्प पर डटे रहे।" (12)
यूरोपीय इतिहास में एक क़त्ले-आम है जो पावन समझा जाता है, और उसे ऐसा समझा जाना सही है। बाकी सबको नज़रअंदाज़ किया जा सकता है, कहा जा सकता है कि वे हुए ही नहीं, या उनको कम करके दिखाया जा सकता है। जैसे कि मार्क कर्टिस ने ध्यान दिलाया है, ब्रिटेन में सोचने के जिस तरीके का बोलबाला है वह "एक मुख्य विचार को शेष हर चीज़ के आधार के रूप में पेश करता है - ब्रिटेन की मूलभूत दयालुता का विचार। ... विदेश नीति की निंदा संभव तो अवश्य है, सामान्य भी है, पर सँकरी सीमाओं के भीतर जो मूलभूत दयालुता के शासन को प्रोत्साहन देने में "अपवाद" या "गलतियाँ" दिखाए।" यह विचार ही, मुझे डर है, असल में "ब्रिटिश सांस्कृतिक पहचान की अनुभूति" है जिसके खो दिए जाने पर मैक्स दुख प्रकट कर रहे हैं। इसे लागू करने के लिए किसी न्यायाधीश या सेंसर की ज़रूरत नहीं है। जो लोग अखबारों के मालिक हैं वे केवल उन्ही रिपोर्टों को लिखवाते हैं जो वे पढ़ना चाहते हैं।
तुर्की के यूरोपीय संघ में विलय, जो अभी ओर्हान पामुक के मुकद्दमे के कारण खटाई में पड़ गया है, के लिए उसे अपने अत्याचारों को ईमानदारी से स्वीकार करने की ज़रूरत नहीं है; उसे केवल इतना करना है कि वह इनके विरुद्ध लेखकों के नपुंसक आक्रोश को चलने दे। अगर सरकार आर्मेनियाई हत्याकांड को भुलवा देना चाहती है तो उसे अपने सेंसरशिप कानूनों को छोड़ देना चाहिए और लोगों को वह कहने देना चाहिए जो वो कहना चाहते हैं। उसे केवल रिचर्ड डेसमंड और बार्कले भाइयों को अपने अखबार खरीदने देने की ज़रूरत है, और अतीत उसे फिर कभी परेशान नहीं करेगा।
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संदर्भ:
1. माइक डेविस, 2001. उत्तर विक्टोरियाई हत्याकांड: एल नीनो अकाल तथा तीसरी दुनिया का बनना (Late Victorian Holocausts: El Nino Famines and the Making of the Third World). वर्सो, लंदन.
2. लेफ़्टिनेंट जनरल सर जॉर्ज कूपर का अपने ज़िला अधिकारियों के नाम एक आदेश (An order from the lieutenant-governor Sir George Couper to his district officers). माइक डेविस द्वारा उद्धरित, उपरोक्त.
3. कैरोलिन एल्किंस, 2005. ब्रिटेन का गूलाग:केन्या में साम्राज्य का निर्मम अंत (Britain's Gulag: The Brutal End of Empire in Kenya). जोनाथन केप, लंदन.
4. मार्क कर्टिस, 2003. धोखे का जाल (Web of Deceit: Britain's Real Role in the World). विंटेज, लंदन.
5. कैरोलिन एल्किंस, उपरोक्त.
6. मार्क कर्टिस, उपरोक्त.
7. डेविड ऐंडरसन, 2005. फाँसी दिए गए लोगों का इतिहास: केन्या में ब्रिटेन का कलंकित युद्ध और साम्राज्य का अंत (Histories of the Hanged: Britain's Dirty War in Kenya and the End of Empire). वाइडेनफेल्ड, लंदन.
8. मैक्स हेस्टिंग्स, 27 दिसंबर 2005. यह ड्रेक और पेपी का देश है, शाका ज़ूलू का नहीं (This is the country of Drake and Pepys, not Shaka Zulu). द गार्जियन
9. ऐंड्रू रॉबर्ट्स, 13 जुलाई 2004. हमें ब्रिटिश साम्राज्य के अतीत पर गर्व करना चाहिए (We Should Take Pride in Britain's Empire Past). द ऐक्सप्रेस.
10. ऐंड्रू रॉबर्ट्स, 16th जनवरी 2005. साम्राज्यों की ज़रूरत क्यों है (Why we need empires). द संडे टेलीग्राफ.
11. प्रसन्न पार्थसारथी, 1998. अट्ठारहवीं सदी के भारत तथा ब्रिटेन में आय एवं सक्षमता पर पुनर्विचार (Rethinking wages and competitiveness in Eighteenth-Century Britain and South India). अतीत और वर्तमान 158 (Past and Present 158). माइक डेविस द्वारा उद्धरित, उपरोक्त.
12. जॉन कीगन, 14 जुलाई 2004. साम्राज्य सम्मान के लायक है (The Empire is Worthy of Honour). द डेली टेलीग्राफ.
13. माइक डेविस, उपरोक्त.
अनुवादक: अनिल एकलव्य. जेड नेट से साभार
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