13 अगस्त, जिस समय देश भर के सिनेमा घरों में पिपली लाइव दिखाई जा रही होगी, शायद उसी समय पीयेमो प्रधानमंत्री के भाषण का अंतिम ड्राफ्ट तैयार कर रहा होगा। वही भाषण जिसे भारत के प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त की सुबह लालकिले की प्राचीर से देश को दिया। 15 अगस्त को दिया जाने वाला भाषण आमतौर से एक रूटीन भाषण होता है जिसे आज़ादी के बाद से हर साल भारत का प्रधानमंत्री पूरे को देता है। लेकिन यह एक महत्वपूर्ण मौका होता है जब देश का प्रधानमंत्री सीधे अपने देश की जनता को संबोधित करता है। उसे सूचित करता है, अपनी योजनाओं के बारे में उनकी सफलता असफलताओं के बारे में। यह युग सूचना का युग है. ताकत उसी के पास होगी जिसके पास सूचना होगी. लेकिन साथ ही साथ यह विज्ञापन का भी युग है जहाँ सिर्फ दावे ही दावे हैं. इसलिए सिर्फ सूचनाएं ही नहीं बल्कि सूचनाओं के सही मायनों का भी सम्प्रेषण ज़रूरी है.
इसलिए ज़रूरी है कि प्रधानमंत्री ने जो सूचनाएं हमें दी है उनकी पड़ताल कर ली जाए उनके निहितार्थों को समझा जाए. प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में एक साल पहले कि स्थिति से अब कि स्थिति पर संतोष जताते हुए कहा है कि " हमने डटकर इन कठिन परिस्थितियों का मुकाबला किया. बहुत सी मुश्किलों के बावजूद, हमारे आर्थिक विकास की दर दुनिया के ज्यादातर देशों से बेहतर रही.इससे हमारी अर्थव्यवस्था की मज़बूती जाहिर होती है." साथ ही उन्होने ने यह भी कहा कि " हमारी बात अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर गौर से सुनी जाती है." हमने देखा है कि अभी हाल ही के दिनों में विदेश मामलों में हमें कई मोर्चों पर मुंह कि खानी पड़ी है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी पहचान अमेरिकी पिछलग्गू की ही बनी है. पाकिस्तान से हम लगातार यह गुहार कर रहे हैं कि 26/11 के दोषियों को वह हमें सौंप दे, यह करना तो दूर उलटे पाकिस्तान हमपर आतंक फ़ैलाने के आरोप लगा रहा है और हम कूटनीतिक स्तर पर भी उसे कोई करारा जबाब देने में असमर्थ रहे हैं.
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में धर्म, प्रांत, जाति, और भाषा के नाम पर लोगों में फूट पड़ने कि बात कही और और कहा कि मजबूतियों के बावजूद, आज हमारे सामने कुछ गंभीर चुनौतियाँ भी हैं जिनसे हमें एक जुट होकर लड़ना होगा. दिसंबर 1998 के आस पास लिखे गए अपने एक लेख में समाजवादी लेखक किशन पटनायक लिखते हैं कि नए विचारों और नए शास्त्रों का आना रुक सा गया है. "शास्त्र और विचार निर्माण का नियामक जब से अमेरिका हो गया है. इसमें पहले का औध्दत्य तो रह गया है लेकिन उसकी गंभीरता ख़त्म हो गई है". क्या इस बात के लक्षण हमें अपनी राजनीति और प्रधानमंत्री के भाषण में भी नहीं मिलते हैं? यह बात तो तय है कि धर्म, प्रांत, जाति, और भाषा के नाम पर लोगों में फूट पड़ती है, लेकिन आज से 50-60 साल पहले जो समस्या भावनात्मक विद्वेष के कारण थी अब उसके गहरे आर्थिक- राजनीतिक कारण हैं, और पिछले दो दशकों में यही कारण महत्वपूर्ण भी रहे हैं. क्या नीली पगड़ी वाले शांत मना प्रधानमंत्री के पास उन आर्थिक-राजनीतिक कारणों से निपटने कि कोई योजना है? क्या सरकार ने कभी उन औजारों को तलाशने कि कोशिश कि है जिससे इस तरह की फुट डाली जाती है. और आर्थिक उदारिकर्ण के बाद हमारे समाजों में एकजुटता की कितनी संभावना रह गई है क्या इससे हमरे प्रधानमंत्री नावाकिफ है?
कृषि पर बात करते हुए प्रधानमंत्री ने कृषि विकास कि डर को चार प्रतिशत तक पहुँचाने की ईक्षा जताई. उन्होंने यह भी कहा कि पिछले कुछ सालों एसा हमारी कृषि विकास की दर में काफी बढ़ोतरी हुई है. किसानी के क्षेत्र में उन्होंने तकनिकी बदलाव की ज़रूरत को महसूस किया और बताया कि इस उद्देश्य के लिए भारत में दक्षिण एशिया बोरलाग संसथान की स्थापना की जाएगी. उन्होंने यह भी बताया कि गेहूं और धान के समर्थन मूल्य में कैसे वृधि हुई है. पिछले कुछ सालों किसानों कि आत्महत्या को छोड़ भी दें तो किसानी छोड़ कर मजदूरी अपनाने वाले किसानो कि संख्यां काफी बड़ी है, जिसके बारे में चिंता करने कि ज़रूरत है. 63 सालों के बाद भी खेती-किसानी अकुशल श्रम कि ही श्रेणी में आता है, क्या यह प्रधानमंत्री के चिंता का विषय नहीं होना चाहिए था? हमें यह समझना होगा की किसानी आज भी हमारे देश में उद्योग का रूप नहीं ले पाई है जिसकी मुख्य वजह है बुनियादी सुविधाओं का न होना और जब तक बुनियादी सुविधाएं नहीं होंगी किसी भी तरह का तकनीकी विकास रेत के महल जितना ही विश्वशनीय होगा.
आतंरिक सुरक्षा पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने पहली पर स्वीकारा कि आदिवासियों के प्रति, सालों से बरती गई लापरवाही इसके लिए ज़िम्मेदार है. उन्होंने कहा - " हमारा यह भी प्रयास है कि हमारे आदिवासी भाई बहन देश के विकास कि मुख्यधारा में शामिल हो सकें." शायद आर्थिक उदारीकरण लागु करने वाले हमारे प्रधानमंत्री हमारे देश की एक बड़ी आबादी जो आदिवासियों के रूप में जंगलों में रह रही है कि इक्षाओं को नहीं समझ पा रहे है. यह आबादी आजीविका से ज्यादा अपनी अस्मिता के लिए आंदोलित हैं. सरकारी मुख्यधारा में आने से वो अस्मिता को खतरे में पाते हैं और उन्हें भारतीय संविधान ने यह अधिकार भी दे रखा है कि जिस तरह चाहें भारतीय नागरिक कि हैसियत से रह सकते है. उतर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर के नागरिकों से प्रधानमंत्री ने यह अपील कि "वे लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से अपनी और देश की बेहतरी के लिए हमरे साथ मिल कर काम करें." इन पंक्तियों का लेखक यह जानना चाहता है की क्यूँ कर दिल्ली के दस जनपथ और मणिपुर की इरोम शर्मीला के घर पर लोकतंत्र की परिभाषाएं पलट जाती है. कई अन्य विषयों पर भी प्रधानमंत्री ने अपनी राय रखी लेकिन असल बात तो यही है की हमारी सरकार अब भी समस्याओं की जीतने हलके से ले रही है और जिस भावनात्मक तरिके से उन्हें हल करने की मंशा रखती वो वह सरकार की दूरदर्शिता की परिचायक तो कतई नहीं हो सकती .
लेखक सम्पर्क: gunjeshkcc@gmail.com
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में धर्म, प्रांत, जाति, और भाषा के नाम पर लोगों में फूट पड़ने कि बात कही और और कहा कि मजबूतियों के बावजूद, आज हमारे सामने कुछ गंभीर चुनौतियाँ भी हैं जिनसे हमें एक जुट होकर लड़ना होगा. दिसंबर 1998 के आस पास लिखे गए अपने एक लेख में समाजवादी लेखक किशन पटनायक लिखते हैं कि नए विचारों और नए शास्त्रों का आना रुक सा गया है. "शास्त्र और विचार निर्माण का नियामक जब से अमेरिका हो गया है. इसमें पहले का औध्दत्य तो रह गया है लेकिन उसकी गंभीरता ख़त्म हो गई है". क्या इस बात के लक्षण हमें अपनी राजनीति और प्रधानमंत्री के भाषण में भी नहीं मिलते हैं? यह बात तो तय है कि धर्म, प्रांत, जाति, और भाषा के नाम पर लोगों में फूट पड़ती है, लेकिन आज से 50-60 साल पहले जो समस्या भावनात्मक विद्वेष के कारण थी अब उसके गहरे आर्थिक- राजनीतिक कारण हैं, और पिछले दो दशकों में यही कारण महत्वपूर्ण भी रहे हैं. क्या नीली पगड़ी वाले शांत मना प्रधानमंत्री के पास उन आर्थिक-राजनीतिक कारणों से निपटने कि कोई योजना है? क्या सरकार ने कभी उन औजारों को तलाशने कि कोशिश कि है जिससे इस तरह की फुट डाली जाती है. और आर्थिक उदारिकर्ण के बाद हमारे समाजों में एकजुटता की कितनी संभावना रह गई है क्या इससे हमरे प्रधानमंत्री नावाकिफ है?
कृषि पर बात करते हुए प्रधानमंत्री ने कृषि विकास कि डर को चार प्रतिशत तक पहुँचाने की ईक्षा जताई. उन्होंने यह भी कहा कि पिछले कुछ सालों एसा हमारी कृषि विकास की दर में काफी बढ़ोतरी हुई है. किसानी के क्षेत्र में उन्होंने तकनिकी बदलाव की ज़रूरत को महसूस किया और बताया कि इस उद्देश्य के लिए भारत में दक्षिण एशिया बोरलाग संसथान की स्थापना की जाएगी. उन्होंने यह भी बताया कि गेहूं और धान के समर्थन मूल्य में कैसे वृधि हुई है. पिछले कुछ सालों किसानों कि आत्महत्या को छोड़ भी दें तो किसानी छोड़ कर मजदूरी अपनाने वाले किसानो कि संख्यां काफी बड़ी है, जिसके बारे में चिंता करने कि ज़रूरत है. 63 सालों के बाद भी खेती-किसानी अकुशल श्रम कि ही श्रेणी में आता है, क्या यह प्रधानमंत्री के चिंता का विषय नहीं होना चाहिए था? हमें यह समझना होगा की किसानी आज भी हमारे देश में उद्योग का रूप नहीं ले पाई है जिसकी मुख्य वजह है बुनियादी सुविधाओं का न होना और जब तक बुनियादी सुविधाएं नहीं होंगी किसी भी तरह का तकनीकी विकास रेत के महल जितना ही विश्वशनीय होगा.
आतंरिक सुरक्षा पर बोलते हुए प्रधानमंत्री ने पहली पर स्वीकारा कि आदिवासियों के प्रति, सालों से बरती गई लापरवाही इसके लिए ज़िम्मेदार है. उन्होंने कहा - " हमारा यह भी प्रयास है कि हमारे आदिवासी भाई बहन देश के विकास कि मुख्यधारा में शामिल हो सकें." शायद आर्थिक उदारीकरण लागु करने वाले हमारे प्रधानमंत्री हमारे देश की एक बड़ी आबादी जो आदिवासियों के रूप में जंगलों में रह रही है कि इक्षाओं को नहीं समझ पा रहे है. यह आबादी आजीविका से ज्यादा अपनी अस्मिता के लिए आंदोलित हैं. सरकारी मुख्यधारा में आने से वो अस्मिता को खतरे में पाते हैं और उन्हें भारतीय संविधान ने यह अधिकार भी दे रखा है कि जिस तरह चाहें भारतीय नागरिक कि हैसियत से रह सकते है. उतर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर के नागरिकों से प्रधानमंत्री ने यह अपील कि "वे लोकतांत्रिक तौर-तरीकों से अपनी और देश की बेहतरी के लिए हमरे साथ मिल कर काम करें." इन पंक्तियों का लेखक यह जानना चाहता है की क्यूँ कर दिल्ली के दस जनपथ और मणिपुर की इरोम शर्मीला के घर पर लोकतंत्र की परिभाषाएं पलट जाती है. कई अन्य विषयों पर भी प्रधानमंत्री ने अपनी राय रखी लेकिन असल बात तो यही है की हमारी सरकार अब भी समस्याओं की जीतने हलके से ले रही है और जिस भावनात्मक तरिके से उन्हें हल करने की मंशा रखती वो वह सरकार की दूरदर्शिता की परिचायक तो कतई नहीं हो सकती .
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