05 अगस्त 2010

माओवादियों से बातचीत ही एकमात्र रास्ता है

स्वामी अग्निवेश से आलोक प्रकाश पुतुल की बातचीत
माओवादियों और भारत सरकार के बीच बातचीत की कोशिश कर रहे सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और बंधुआ मुक्ति मोर्चा के संयोजक स्वामी अग्निवेश का मानना है कि भारत सरकार और माओवादी मजबूरी में शांति वार्ता कर रहे हैं. उनका कहना है कि दोनों के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है. माओवादी प्रवक्ता आज़ाद की पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने की घटना को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले स्वामी अग्निवेश का कहना है कि इस घटना ने शांति वार्ता को गहरा झटका पहुंचाया है. यहां पेश है उनसे हाल ही में की गई बातचीत.

• नक्सलियों के साथ बातचीत की कोशिशें पहले भी हुई है। आंध्र में कई-कई दौर की बातचीत हुई लेकिन उसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला. अब जबकि सरकार और नक्सलियों के बीच संघर्ष अपने चरम पर है तब ऐसे समय में नए सिरे से नक्सलियों से बातचीत का औचित्य क्या है?
नए सिरे से तो मैं कैसे कहूं, क्योंकि इससे पहले कभी भी केंद्र सरकार ने किसी को इस तरह की बातचीत के लिए अधिकृत नहीं किया था। 11 मई को चिदंबरम जी ने पहली बार मुझे चिट्ठी लिखी। चिदंबरम जी का अपना दावा है कि भारत के किसी गृहमंत्री ने इससे पहले किसी को बातचीत के लिए अधिकृत किया हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। पहले भी आंध्रप्रदेश में बातचीत हुई थी और वह खत्म भी हो गई, ठीक से नहीं चली। ये जो केंद्र के स्तर पर और सभी सात-आठ राज्यों की ओर से केंद्र जो बातचीत करना चाह रही है, ये पहली बार हो रहा है। और उसके लिए जो पहल की गई, मैं समझता हूं कि उसमें बहुत वजन है। सरकार एक तरफ जहां कह रही है, प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि ये भारत की सबसे बड़ी समस्या है, आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। सरकार अपनी तरफ से इसमें अर्धसैनिक बलों को बहुत बड़ी तादाद में झोंक रही है। अकेले छत्तीसगढ़ में बताते है कि 12 हजार ऐसे अर्धसैनिक बल के जवान तैयार बैठे हुए है। हथियारों का पूरा का पूरा जखीरा उनके हवाले किया जा रहा है। इसके बावजूद भी सैनिक मर रहे हैं, बारूदी सुरंगों में उड़ाए जा रहे हैं। नक्सलियों के जो छापामार युद्ध के तरीके हैं, उसके मुकाबले में इनके पास कोई प्रशिक्षित जत्था नहीं है। ये समझ नहीं पा रहे है कि क्या करे। ऐसी परिस्थितियों में सेना का भी उपयोग नहीं कर सकते। वायु सेना का नहीं कर सकते। हेलीकाप्टर आप दे देंगे तो सैनिक एक जगह से दूसरी जगह चले जाएंगे, ये अलग बात है। लेकिन सेना जिसको कहते है, उसका उपयोग आप नहीं कर सकते। अर्धसैनिक बल उसके लिए नाकाफी है. पुलिस इस तरह के कामों के लिए ट्रेंड नहीं है. तो जाएंगे कहा?आखिरी से आखिरी इनको बातचीत के लिए ही आना पड़ेगा. हालांकि बातचीत पर ये एक पैसा भी खर्च नहीं कर रहे हैं. मेरे जैसे सन्यासी को एक चिट्ठी पकड़ा के कह रहे हैं कि आप बातचीत करवा दीजिए. मैं उसके लिए भी लगा हुआ हूं. और मैं उसमें ज्यादा जल्दी सफलता दिला सकता हूं. मैं से मेरा मतलब बातचीत की जो प्रक्रिया है, वह अपने आप में इतनी जबरदस्त, इतनी अच्छी है, सही है कि उसमें जल्दी सफलता मिल सकती है बजाय इस तरह की टकराहट से

• दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से भरे हुए हैं। सरकार कहती है कि नक्सली बातचीत के लिए गंभीर नहीं हैं और नक्सली कहते हैं कि सरकार दिखावा कर रही है। ऐसे में आप इतनी उम्मीद कैसे धरे हुए है?

मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि सरकार की हालत तो अखबारों के माध्यम से भी और चिंतलनार में 76 जवानों के मारे जाने के बाद राम मोहन कमेटी की जो रिपोर्ट आयी है, उससे भी पता चलती है. इसके बाद नारायणपुर में सीआरपीएफ के 27 जवान फिर मारे गये. तो इन दोनों की जो रिपोर्ट आयी है, उसके अनुसार ये जवान अपनी कमी से मारे गये. ये जवान मारे जा रहे है, इसलिए नहीं कि नक्सली हिंसा ज्यादा बढ़ गई है. इनकी गलतफहमी और जो तौर तरीके है, जिससे ये खुद ही मौत के मुंह में जा रहे हैं. उन रिपोर्टों में इसी तरह की बात है. पुलिस से या बेस कैंप से इन्हें जो सपोर्ट मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रही है.

अब जाकर ये कह रहे है कि यूनिफाईड कमांड बनाएंगे. दो-तीन-चार राज्यों को मिलाकर. उसमें भी कई राज्यों ने साफ मना कर दिया है. बिहार ने मना कर दिया, बंगाल ने मना कर दिया. वो अपना स्वतंत्र अभियान चलाएंगे. कहने का मतलब ये कि सरकार के लिए ये सब परिस्थितियां ऐसी हैं कि बड़बोलापन तो चाहे कितना भी कर लें ये और उसके नाम पर हथियारों की खरीद-बिक्री में, सिपाहियों की नियुक्ति में जितना कमीशन खा लें (यह भी एक बड़ा उद्योग-धंधा है) लेकिन वास्तव में इनके बल पर ये नक्सलियों पर काबू पा लेंगे, ऐसा मुझे नहीं दिखता नहीं है.दूसरी तरफ रिपोर्ट आ रही है कि 15-15 हजार सीआरपीएफ के जवान या तो इस्तीफा दे रहे हैं या छुट्टी पर जाने के लिए तैयार बैठे हैं कि हम इस तरह कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने के लिए नहीं बने हैं, नहीं चाहिए तुम्हारी नौकरी. रखो अपनी नौकरी तो ये जो असंतोष उभर करके आ रहा है, ये भी इनको अंदर ही अंदर सता रहा है. इनको लग रहा है कि हम एक लड़ाई हारने वाले हैं. जितना-जितना ये बल तेज कर रहे हैं, उतनी-उतनी उनकी संख्या बढ़ती जा रही हैं.
जो रमन सिंह कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की संख्या पांच हजार बताते थे, वो अब दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की बैठक में उनकी संख्या 50 हजार बता रहे हैं. पहले नक्सलियों के पास जो हथियार होते थे, वो साधारण थे. अब एक से एक अत्याधुनिक हथियार, एके-47 से लेकर राकेट लांचर तक उनके पास हैं. तो ये सब किसकी कृपा से हो रहा है? किनकी बदौलत हो रहा है? इनकी ही बदौलत हो रहा है. इन्हीं के हथियार उनके हाथों में जा रहे हैं. अगर कहीं से आ भी रहे हैं तो उनके पीछे कोई न कोई सरकारी सूत्र भी है, जो उनकी मदद कर रहा है. सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार, सरकार की अपनी ढील ये सब चीजें जिम्मेदार हैं, जो नक्सलियों को ताकत दे रही हैं. फिर सरकार की तरफ से अब जो स्वीकारबोध आया है कि हमें अपनी विकास की नीति में परिवर्तन करना है. अब वो जग रहे हैं कि जो पेसा एक्ट है, प्राविजन ऑव पंचायत एक्सटेंशन टू द शिड्यूल्ड एरिया कानून है, अब उसे लागू करना चाहिए. ताकि आदिवासी नक्सलियों के चंगुल से छूटकर इधर आ जाएं. अब इतने दिनों बाद स्वीकारबोध हुआ है, अब चिट्ठी-पतरी हो रही है. आपस में एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय पूछ रहे हैं. गृहसचिव पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को चिट्ठी लिख रहे हैं कि आदिवासियों को वनोपज का अधिकार दे दो, ये दे दो, वो कर दो. इस तरह की जो बातें चल रही है, वह नीचे तक नहीं आ रही हैं. नीचे तक लाने के लिए उन्हें अपना विभाग तो खोलना पड़ेगा. किसी अधिकारी को किसी गांव में तो भेजना पड़ेगा. उसके लिए जरूरी है कि रोज-रोज के जो हमले हैं, उसे शांत किया जाये. विकास का कोई भी काम करने के लिए, जंगल में जाने के लिए जो परिस्थितियां चाहिए, आज उपलब्ध नहीं हैं. आप लगाते रहिये 14 हजार करोड़ रुपया. पहले दिन योजना आयोग ने घोषणा कर दी, फिर दूसरे दिन कहा- अरे, पहले का दिया हुआ पैसा ही खर्च नहीं हुआ है. तो क्यों नहीं हुआ खर्च? क्योंकि किसी की जाने की हिम्मत नहीं है वहां. आपका पैसा पड़ा हुआ है, किसी काम का नहीं है. नक्सलियों की पकड़ तगड़ी होती जा रही है. मैं नहीं चाहता कि उनकी पकड़ तगड़ी हो, पहले से मजबूत हो. उन्हें शिकस्त मिलनी चाहिए. वो उस रास्ते को छोडऩे के लिए मजबूर किये जाने चाहिए, क्योंकि उनका हिंसा का रास्ता भी गलत है. खास तौर पर जब वे किसी नागरिक समाज के व्यक्ति की हत्या कर देते हैं. बस में वे मार देते हैं तो माफी मांग लेते हैं. लेकिन बहुतो को वे यह कहकर मारते है कि वह पुलिस का मुखबिर है. वो चाहे इस लोकतंत्र को कितनी भी गालियां दें लेकिन लोकतंत्र के नाम पर कुछ तो ये करते हैं. भले दिखावा करें, नाटक करें. नक्सलियों के कई बड़े नेता जेलों में बंद है. सरकार ने इनके नेताओं की तो गला रेतकर हत्या नहीं कर दी, जैसा नक्सली कर रहे हैं. इस तरह की हिंसा के सहारे, आतंक और दहशत फैलाकर नक्सली अपने विस्तार की सोच रहे हैं. ये गलत है, उनको इसकी इजाजत नहीं मिलनी चाहिए.दोनों तरफ से हिंसा बंद होनी चाहिए, बातचीत होनी चाहिए. मैं इसको एकमात्र रास्ता मान रहा हूं. इसलिए मेरी आशावादिता है. ऐसा नहीं है कि सरकार का अचानक हृदय परिवर्तन हो गया हो. मैं उनकी मजबूरी समझ रहा हूं. उधर नक्सलियों को भी ऐसा ही लग रहा है. उनके जो 43 शीर्षस्थ नेता थे, उनमें से मुश्किल से 23 ही लोग रह गए हैं. 20 से ज्यादा मारे गए या जेलों में बंद हैं. उनका हाल भी बुरा चल रहा हैं. उनके नाम पर नक्सलियों का ओढऩा ओढक़र बहुत से गैर नक्सली, गैर माओवादी घूम रहे हैं. अपना रोज का धंधा चला रहे हैं. कहने का मतलब ये है कि नक्सलियों के सामने भारी संकट है. अपने आंदोलन को अगर नक्सली इसी तरह भटकने देंगे तो आगे चलकर के अपने आंदोलन को संभाल पाना मुश्किल होगा. ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की जब घटना हुई तो माओवादी नेताओं ने कहा कि इसमें हमारा हाथ नहीं है. फिर जब पता चला कि इस घटना के पीछे पीसीपीए है तो माओवादी कहने लगे कि वो किसी और संगठन का है. लेकिन है तो माओवादी ग्रुप का ही! माओवादियों के साथ संकट है कि उसे अपने साथ जोड़ें तो संकट है, उसे छोड़ें तो संकट है.

ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की घटना के बाद इनके ऊपर एक बड़ा संकट आ गया है। सीबीआई की जो जांच हो रही है, उसमें अगर इनका नाम आ गया कि ये माओवादी संगठन ही है, दूसरे नाम से, सीपीआई माओवादी के बजाय किसी और नाम से उनका ही जनसंगठन है. ऐसे में माओवादी इस बात से कैसे बचेंगे कि वो केवल माओवादी नहीं है बल्कि आतंकवादी भी है. आतंकवादियों का लेबल इन पर पूरी तरह से लगा नहीं है, जिस दिन लगेगा, उस दिन इस कलंक को धो पाना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा.

• मतलब आप यह कह रहे हैं कि आप जिस शांति वार्ता की पहल कर रहे हैं, वह वार्ता असल में संकट में घिरे हुए दो लोगों के बीच की बातचीत है?

दोनों की मजबूरी है कि रास्ता निकले कुछ। मैं इसके लिए समझता हूं कि इससे बढिय़ा मौका नहीं मिलेगा. दोनों को नजदीक लाना, बातचीत कराना, हिंसा दोनों की तरफ से बंद कराना. बातचीत में तुम लड़ो-झगड़ो, विरोध करो, दस दिन करो, दस महीने करो, सारे मीडिया में आनी चाहिए. तुम एक-दूसरे की पोल खोलो, सब कुछ करो. इससे देश का फायदा होगा. जो बेकसूर लोग मारे जा रहे हैं, इन दोनों के झगड़े में, आदिवासी समाज के जो बहुत से लोग मारे जा रहे हैं, उनको कम से कम एक राहत मिलेगी. लिंगाराम जैसे लोगों को पुलिस कह देती है कि ये दंतेवाड़ा में अवधेश गौतम के रिश्तेदारों की हत्या का मास्टरमाइंड है. आज़ाद के बाद सीपीआई माओवादी में उसकी नियुक्ति प्रवक्ता के रूप में की गई है. कल्लूरी जैसा एक बदनाम अफसर बिना हस्ताक्षर के एक बयान भेज देता है और प्रेस वाले उसे लपालप छाप देते हैं. पहले पन्ने पर. इंडियन एक्सप्रेस जैसा अखबार उसे फ्रंट पेज पर छाप देता है, जो सच्चाई की बहुत दुहाई देता है, बड़े-बड़े गोयनका अवार्ड देता है, राष्ट्रपति के द्वारा पत्रकारिता के लिए अवार्ड दिलवाता है, उसको इस बात का जवाब देना पड़ेगा कि कल्लूरी के बिना हस्ताक्षर के एक बयान को अपने मुख्य पृष्ठ पर कैसे छाप दिया? लिंगाराम को तुमने मास्टरमाइंड छाप दिया? लिंगाराम से मैं मिला हूं. वह एक सीधा-साधा लडक़ा है. वह नक्सलियों से भी परेशान है और सलवा जुडूम से भी. एसपीओ लोगों से भी परेशान है. वह कह रहा है कि मैं सीधा-साधा अपनी गाड़ी से सब्जी बेच लेता था. अब मैं मीडिया की पढ़ाई के लिए दिल्ली में हूं. उसको आपने बता दिया कि वो अवधेश गौतम के रिश्तेदारों की हत्या में शामिल है, मास्टरमाइंड है, किंगपिन है. आज़ाद के बाद वो प्रवक्ता नियुक्त किया गया है. सब कुछ गड्ड-मड्ड, झूठी से झूठी बातें हैं. उसमें अरूंधति राय का नाम भी डाल दिया गया है... विदेश में ट्रेनिंग लेकर आया है, भले ही उसके पास पासपोर्ट न हो. उसने गुजरात में भी ट्रेनिंग ली है. पता नहीं क्या-क्या बकवास... पुलिस का एक अधिकारी, जो ऐसे ही बदनाम है, उसके बयान पर यूं ही ध्यान नहीं देना था लेकिन बिना हस्ताक्षर वाले उसके बयान को इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों ने पहले पन्ने पर छापा. ये ज्यादा बड़ी गैर जिम्मेदारी है. मेरे कहने का मतलब है कि इस तरह के बहुत से निरपराध आदिवासी लडक़े-लड़कियों के साथ रोज ऐसी घटनाएं हो रही हैं. मैं समझता हूं कि हम लोगों को इस तरह की घटनाओं को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए. इसका इलाज होना चाहिए. ताकि बातचीत से ये सब चीजें सामने आए. बातचीत ही एकमात्र हल है. सन् 1962 के युद्ध के बाद चीन ने हमारी 80 हजार वर्गमील जमीन दबा कर रखी है, उसके बावजूद आप रोज के हिसाब से उससे बातचीत कर रहे हैं, उसको अपना दोस्त बता रहे हैं. उससे पीट-पिटाकर और अपनी जमीन दबवा करके, दलाई लामा और तिब्बत को पीछे धकेलकर हम उससे बात कर रहे हैं. बात के दौर चल रहे हैं. पाकिस्तान से चार-चार युद्ध करने के बाद और सब कुछ होने के बाद और कई बार उससे कुटनीतिक तमाचे खाने के बाद भी आप तैयार हैं कि उससे बातचीत करेंगे. बातचीत ही तो कर रहे हैं आप, और क्या करेंगे? तो माओवादियों के साथ बातचीत करने में क्या तकलीफ आ रही है?

• आप बातचीत की शुरूआत करते हैं। चिदंबरम साहब की चिट्ठी आपको आती है, सीपीआई माओवादी के प्रवक्ता आज़ाद का जवाब आता है और ... नागपुर में वरिष्ठ पत्रकार एस.एन.विनोद एक अखबार निकालते हैं-दैनिक 1857. उसके पहले पन्ने पर खबर आती है कि नागपुर से गिरफ्तार किए गए खूंखार नक्सली नेता आज़ाद को आंध्र में मार गिराया गया. इन सब चीजों को आप किस तरह देखते हैं ?

बहुत ही गलत संदेश जा रहा है. मैंने तो इसको अपने जीवन का बहुत बड़ा झटका भी बताया था. मेरी अपनी जो विश्वसनीयता है, मुझे लगता है कि यह संकट में पड़ रही है. क्योंकि मैं मध्यस्थ बनकर एक भूमिका में आया था और मुझे मेरा मन कचोट रहा है. कई-कई रात मैं सो नहीं पाया. ऐसा क्यों हुआ?
सरकार मुझे माध्यम बनाकर बातचीत करा रही है और उस चिट्ठी का जवाब लेकर, मेरे पत्र को लेकर आखिरी दौर की बातचीत की सहमति के लिए आज़ाद दंडकारण्य जाने वाले थे, नागपुर स्टेशन पर उतर करके. पत्रकार हेमचंद पांडेय पिछले दिन शाम को दिल्ली से चला. निजामुद्दीन से फोन करके अपनी पत्नी बबीता पांडेय को कह रहा है कि वह नागपुर जाने वाली ट्रेन में बैठ गया है और कल नागपुर से ट्रेन पकडक़र परसो सुबह सात बजे घर पहुंच जाउंगा. तो जो व्यक्ति नागपुर के लिए रवाना हुआ है, उसकी लाश आज़ाद के साथ आदिलाबाद के जंगल में कैसे मिल गई?इन सब चीजों पर थोड़ी सी भी जांच हो जाए तो सरकार ने जो दावा किया है कि आज़ाद आदिलाबाद के जंगल में मुठभेड़ में मारे गए हैं, इसकी तस्वीर साफ हो जाएगी. मैं तो कह रहा हूं कि सरकार जांच कराए या न कराए, पत्रकारों को इसकी जांच गहराई से करनी चाहिए. ये पोल निकलनी चाहिए, सच्चाई सामने आनी चाहिए. क्यों नहीं आ रही है, मैं समझ नहीं पा रहा हूं.

• आप कह रहे हैं कि यह फर्जी मुठभेड़ है?

दिखाई पड़ रहा है, लेकिन मैं नहीं कहूंगा उसको. मैं चाहूंगा कि न्यायिक जांच इसको कहे. सच्ची मुठभेड़ है तो बताए और फर्जी मुठभेड़ है तो बताए. और फर्जी है तो कौन जिम्मेवार है इसके लिए. केवल फर्जी मुठभेड़ की जिम्मेवारी पर बात खतम नहीं होगी यहां. इस पूरी न्यायिक प्रक्रिया को sabotage करने के लिए, जो केंद्र के स्तर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे हैं कि आजादी के बाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा नक्सलवाद से है और उसमें यदि आपने एक सन्यासी को बातचीत करने के लिए आगे किया तो उसमें मैं जानना चाह रहा हूं कि कौन जिम्मेवार है इसके लिए? माओवादियों द्वारा जब 27 सीआरपीएफ के जवानों की हत्या की गई तो मैंने उसकी निंदा की. इससे पहले जब 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या की गई मैंने तब उसकी निंदा की. गला रेतकर या पुलिस का मुखबिर बताकर किसी की हत्या की गई, मैं उसकी भी निंदा करता रहा हूं. नक्सलियों की किसी भी हिंसक गतिविधि को मैं सही नहीं बता रहा. लेकिन आज़ाद की मुठभेड़ में हत्या हुई है तो आज़ाद की हत्या अपने आप में संदिग्ध परिस्थितियों में दिखाई पड़ रही है. जबकि किशनजी का बयान है, जबकि गुडसा उसेंडी का बयान है कि वह स्वामी अग्निवेश की चिट्ठी लेकर आखिरी दौर की बातचीत के लिए दंडकारण्य आ रहे थे. मैं स्वयं इंतजार कर रहा था. जुलाई के तीन,चार या पांच तारीख तक मुझको जवाब मिलता जिसको लेकर मैं 15 या 20 जुलाई को, केंद्र सरकार की ओर से चिदंबरम जी ने मुझे जो चिट्ठी लिखी थी, उसके अनुसार बातचीत शुरू करा देता. तो कौन जिम्मेवार है? आजाद कैसे मार दिया गया 1 तारीख या 2 तारीख की रात को? यह एक सवाल आता है. यह केवल फर्जी या सही मुठभेड़ का सवाल नहीं है, इसमें पूरी शांति प्रक्रिया को किसने ध्वस्त किया है? और यदि ये विश्वास सरकार खो बैठेगी कि किसी को आप बुलाइए थोड़ा नजदीक या उसको झांसा दीजिए कि आओ बेटे, बातचीत करने के लिए, और फिर उसे पकडक़र मार डालो. तो फिर कोई सरकार पर विश्वास कैसे करेगा? हम जैसे लोग तो भुगत लेंगे जो कुछ हमारी जिंदगी में होगा लेकिन सरकार की विश्वसनीयता यदि खत्म हो जाती है तो कहां जाएगी ये?

• आप सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं और उसी सरकार से बातचीत की भी उम्मीद कर रहे हैं?

उम्मीद मैं उनकी मजबूरी की वजह से कर रहा हूं। ये उनकी कोई दरियादिली जैसी कोई चीज नहीं है. मैं जानता हूं कि वो अपने हथियारों के बल पर इसका समाधान नहीं कर सकते. जितना करेंगे, उतना ही नक्सलियों को वो बढ़ावा देंगे. जो पिछले दिनों के आंकड़ों से साबित हो रहा है. सलवा जुडूम पैदा करके आपने नक्सलियों को ताकत दी है, नक्सली कमजोर नहीं हुए है. सरकार नक्सलियों को खत्म करने के नाम पर जो-जो काम कर रही है, उससे नक्सलियों को फायदा हो रहा है. तो सरकार आखिर चाहती क्या है?

मैं कहता हूं कि रणनीति के हिसाब से भी और आज की परिस्थिति में बातचीत करना सरकार की मजबूरी है. नक्सलियों के लिए भी मजबूरी मैं मान रहा हूं इसलिए बीच में मैं रहूं या कोई रहे, बातचीत से ही रास्ता निकलेगा, इसलिए मैं उम्मीद रखता हूं.
• नक्सल मुद्दों पर नजर रखने वाले और इस मुद्दे को जानने-समझने वाले कई लोग ऐसा मानते हैं कि नक्सली आपको मोहरा बना रहे हैं।

नक्सलियों ने तो मुझे फोन करके या चिट्ठी लिख के ऐसी बात आज तक नहीं कही. पहली बार यदि किसी ने चिट्ठी लिखी, सीलबंद लिफाफे में मुझे दिया तो भारत के गृहमंत्री चिदंबरम जी ने दिया, जिनसे मेरा कोई व्यक्तिगत संपर्क, परिचय नहीं था. उन्होंने पहली बार मुझे मध्यस्थ बनने की पेशकश की. तो पहल तो उन्होंने ही की है और उनकी दी हुई चिट्ठी को मैंने नक्सलियों को भिजवाया. जिसका जवाब मुझे पूरे सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी की ओर से आज़ाद ने दिया. फिर तीसरी चिट्ठी मैंने 26 जून को लिखी. तो मैं उनका मोहरा कैसे बन सकता हूं? मैं नक्सलियों का सिद्धांतत: विरोधी हूं. आज से नहीं हूं. जब मैं कलकत्ता के सेंट जेवियर्स कालेज में पढ़ाता था और जब नक्सली आंदोलन नक्सलबाड़ी से चल कर कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज तक पहुंच गया था, जब ये चेयरमैन माओ को अपना चेयरमैन बताते थे, लाल किताब को लेकर सब काम किया करते थे, तब से मैं इनका विरोधी रहा हूं. मैं तो हिंसक गतिविधियों से कभी भी सहमत नहीं हो सकता. एक मुर्गी तो क्या एक कीड़ा भी मुझसे जानबूझ कर नहीं मारा जा सकेगा. मैं सिद्धांत रूप से हिंसा को गलत मानता हूं. जो मांस, मुर्गी, अंडा खाते हैं, उनको मैं गलत मानता हूं. मैं पूर्ण रूप से अहिंसक समाज के लिए समर्पित हूं तो नक्सली मुझे कैसे मोहरा बना पाएंगे? मुझे बनाएंगे तो और भारी पड़ेगा उनको.

सरकार मोहरा बना रही है?

सरकार ने कोशिश की कि मुझे चिट्ठी देकर इन परिस्थतियों में कोई रास्ता निकाले. तो मैंने रास्ता निकालकर लगभग उनके नजदीक ला दिया था. अब भी मैं उनसे एक बात कह रहा हूं, मेरी अपनी पूरी प्राणप्रण से चेष्टा रहेगी लेकिन आपने जो मेरे लिए दिक्कत पैदा की है, उसको थोड़ा सा दूर कीजिए. इतना कीजिए कि आज़ाद के मुठभेड़ की न्यायिक जांच करा दीजिए. न्यायिक जांच का आदेश दे दीजिए बस. ताकि मैं माओवादी नेताओं से कह सकूं कि देखो आपका आरोप है कि फर्जी मुठभेड़ है, ये न्यायिक जांच में सामने आ जाएगी. आप भी जांच में मदद करो लेकिन साथ ही साथ आप वहां से शुरू करो, जहां से आज़ाद ने मारे जाने से पहले अपना काम छोड़ा था. ये आज़ाद के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. अगर वो सचमुच मेरी चिट्ठी को लेकर के कोई तारीख देने के लिए जा रहे थे तो वो तारीख यदि अब भी मुझे मिलती है तो उसका बहुत बड़ा लाभ होगा.

• आपको ऐसा लगता है कि सरकार उस मामले को लेकर कोई न्यायिक जांच करेगी?

न्यायिक जांच करना उनके लिए जरूरी है, क्योंकि ज्यादातर लोग जो भी मेरे संपर्क में आ रहे हैं, और विपक्ष के तमाम नेताओं से मैं मिला हूं, वो भी कह रहे हैं कि समझ में नहीं आ रहा है कि ये कैसे मुठभेड़ हो गई? पत्रकार की हत्या ने पूरे मामले को और अधिक संदिग्ध बना दिया। पत्रकार हेमचंद पांडेय का आदिलाबाद के जंगल में मारा जाना भी संदिग्ध है. इस मुठभेड़ में एक भी पुलिसवाला घायल नहीं हुआ. साढ़े तीन घंटे की मुठभेड़ और गोलाबारी हुई जंगल में रात को, तो केवल वे दोनों मारे गए. तीसरा आदमी कोई घायल नहीं हुआ, न इधर से न उधर से. पुलिसवालों को एक छर्रा तक नहीं लगा. ऐसा कैसे हुआ मुठभेड़ में? जब आज़ाद के पास एके-47 दिखाया आपने तो उसकी गोलियां कहां गईं? ऐसा संभव नहीं है कि सीपीआई माओवादी का तीसरे नंबर का नेता अपने गले में एके-47 लटकाकर जंगल में अकेला 12 बजे रात को पत्रकार को इंटरव्यू देता घूम रहा हो और इन्होंने मुठभेड़ में उसे मार दिया. पुलिस के बयान पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा है. सरकटपल्ली गांव के लोग कह रहे हैं कि हमारे गांव में रात को इस तरह की कोई घटना नहीं हुई है. वरना रात को इतनी गोलियां चलती तो गांव वाले जाग जाते, कुछ तो सुनते. अब तक जो कुछ भी जानकारियां मिल रही है, उससे ये लग नहीं रहा कि ये वास्तविक मुठभेड़ हुई है.

• चिदंबरम जी आपसे बातचीत में न्यायिक जांच से इनकार कर चुके हैं.

न्यायिक जांच से इनकार किया भी है लेकिन उन्होंने मुझे इशारे से जरूर कहा कि आप चाहें तो आंध्रप्रदेश सरकार से जांच करा लें. लेकिन मैं आंध्रप्रदेश सरकार के पास क्यों जाऊं? मैं सेंट्रल का मध्यस्थ बनकर बातचीत करा रहा था, तो सेंट्रल की जिम्मेवारी बनती है. इसलिए मैं प्रधानमंत्री से मिला हूं और उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया है कि वे इसे गंभीरता से लेंगे. पूरी संवेदना के साथ मेरी बात उन्होंने सुनी है. मुझे विश्वास है कि प्रधानमंत्री इसमें हस्तक्षेप करेंगे.
• सरकार जैसा चाहती है और नक्सली जैसा चाहते है, उसी के अनुरूप अगर सारी बातचीत हो भी जाए तो अंतत: क्या होगा?

अंतत: यह होगा कि गोलियों पर जो आज दोनों तरफ का भरोसा है, वह समाप्त होकर बातचीत की तरफ, समाधान की तरफ आएगा. सरकार कहेगी कि आप क्यों ऐसा कर रहे हैं? वो कहेंगे कि आपने आदिवासियों के साथ ये-ये जुल्म किए हैं. सरकार कहेगी कि अच्छा आज तक जो हो गया, सो हो गया. अब हम इसे सुधारना चाहते हैं. आदिवासी उसके ऊपर अपनी शर्त लगाएंगे कि खनिज संपदा जो है, उसे आप इस तरह से मत दीजिए. फिर पूरा देश भी इस बहस के अंदर उसमें शामिल होगा. क्योंकि छिटपुट-छिटपुट बहस तो हो रही है लेकिन एक पूरा घनीभूत होकरस एक बहस होगी कि विकास का जो आपने मॉडल बनाया है, उसमें जिनकी जमीन छीनकर तुम विकास कर रहे हो, जिनकी खनिज संपदा का तुम दोहन कर रहे हो, उनका क्या हिस्सा है, उसके अंदर. ये सब बातें आएंगी उसके अंदर. मुझे लगता है कि इससे सकारात्मक परिणाम निकलेंगे.
बातचीत से ही कुछ निकलेगा. अभी तो कुछ नहीं हो रहा है. अंधाधुंध गोलियां दोनों तरफ से चल रही हैं और बेकसूर लोग मारे जा रहे हैं. नेता जो बैठे हैं, दिल्ली में या रायपुर में, उनका तो घर से कुछ नुकसान नहीं हो रहा है. जनता का पैसा हथियारों में जा रहा है. जनता के गरीब किसान, मजदूर के बेटे फौज में हैं या अर्धसैनिक बलों में हैं, वो मारे जा रहे हैं, तो मर जाओ. नेताओं का तो कुछ बिगड़ नहीं रहा है. उनकी तो सुरक्षा और बढ़ गई. सुना है कि चिदंबरम जी की और गृहसचिव की सुरक्षा एकदम अचानक बढ़ गई. कहीं से उनको सूचना मिली कि नक्सली उनको मारना चाहते हैं. बताइए ! तो ये नेता अपनी-अपनी सुरक्षा बढ़ा रहे हैं जनता के खर्चे पर. टैक्स देने वालों के धन का आज नंगा नाच हो रहा है.

जीडीपी का growth हो रहा है, देश का विकास हो रहा है, देश में जो अरबपति हैं, उनकी संख्या बढ़ रही है...

तो गरीबों की संख्या भी बढ़ रही है. गरीबी की रेखा के नीचे वालों की संख्या भी बढ़ रही है. हर दूसरा बालक या बालिका कुपोषण का शिकार है. हर रोज 7 हजार बच्चे भूख से तड़प कर मर रहे हैं. इस देश के अंदर अनाज गोदामों में पड़ा हुआ है या सुअर खा रहे हैं या चूहे खा रहे हैं, बर्बाद हो रहा है अनाज. भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर है. एक-एक अधिकारी के घर से सौ-सौ करोड़, पांच-पांच सौ करोड़ निकल रहे हैं. ये सब चीजें देश को भयावह परिस्थतियों की तरफ ले जा रहे हैं.

• क्या सरकार व नक्सलियों के बीच जो बातचीत होगी, उससे ये भयावह परिस्थितियां बदल जाएंगी?

जरूर। मैं समझता हूं कि इन मुद्दों पर भी बातचीत होगी। बातचीत में केवल और केवल ये नहीं होगा कि तुम्हारे ऊपर से प्रतिबंध हटा देंगे, तुम्हारे साथियों को जेल से बाहर निकाल देंगे, यह इतने तक नहीं रहेगा. पूरे विकास की अवधारणा से लेकर सभी मुद्दों पर बातचीत होगी. मुझे लगता है कि तब भ्रष्टाचार के ऊपर भी बहस होगी. स्विस बैंकों में जो पैसा जमाकर रखा है, भ्रष्ट नेताओं ने, यह भी बहस का मुद्दा होगा. Governance के ऊपर भी सवाल आएगा कि ये जल किसका, ये जमीन किसकी, ये जंगल किसके, मालिक असली मायने में कौन है? उन इलाकों में रहने वाला या इनके वोटों की सौदेबाजी करके जो ऊपर पहुंच गया है, और वो कार्पोरेट जगत से सौदा करके बेच रहा है, इन सब चीजों को ? जो कर्नाटक में हो रहा है, जो मुख्यमंत्री खुद कह रहा है. तो इस तरह के जो माफिया है, माइनिंग माफिया, वो मालिक है इस देश के, देश की संपत्ति के. ये सारी चीजें आएंगी. बातचीत ही एकमात्र रास्ता है. मीडिया का तो मतलब ही है बातचीत. आपके पास कैमरा है, कलम है, बंदूक तो नहीं है आपके पास. उस पर अगर हम ज्यादा विश्वास रखेंगे और बंदूक पर कम रखेंगे तभी हमारा भविष्य बेहतर है. साभार- रविवार.

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