31 मार्च 2010

कहानी: जो अखबारों में दर्ज नहीं हुई

संजय और संगीता लौट गये हैं पर यह कैसे कहा जाय कि वे घर लौट गये हैं. उनके पिता विक्रम सिंह सूर्यवंशी ने जब ज़हर खाकर आत्महत्या की थी तो दोनों की उम्र इतनी कम थी कि पिता को पिता कहने का ठीक-ठीक एहसास भी नहीं रहा होगा, महज ३ साल और ५ साल. आज पाँच वर्षों बाद वे १० और आठ साल के हो गये होंगे और हरियाणा रोहतक के किसी गाँव में अपने नानी के घर अपनी मां धनेश्वरी के साथ रह रहे होंगे या फिर नहीं भी रह रहे होंगे. धनेश्वरी भी अभी तक कितनी बची होगी, बची भी होगी कि नहीं कुछ पता नहीं. शायद हरियाणा की खाब पंचायतों में उसे बैठना पड़ा हो और खाब पंचायतों की ढेरों गुमनाम कहानियों में धनेश्वरी की भी एक कहानी लिखी गयी हो. क्या हुआ होगा इसका बस कायास लगाया जा सकता है, मटियारी गाँव के लोग और विक्रम के घर वाले इस सबसे अनभिज्ञ हैं. घर से एक बार जाने के बाद उनकी ख़बर कौन लेता और क्यों.
विक्रम सिंह विलास पुर के मटियारी गाँव के छोटे किसान थे और अपनी कमसिन उम्र में मजदूरी के लिये हरियाणा चले गये, कि वे किसानी करते होते अगर, उससे घर के खर्चे चल जाते पर घर के खर्चे किसानी से नहीं बल्कि किसानी के खर्चे मजदूरी से चलते थे. फिर मजदूरी भी मिलनी कम हुई तो हरियाणा जाना पड़ा वहाँ की कहानियों के बारे में घर वालों को नहीं पता कि विक्रम क्या करते थे पर समय-समय पर कुछ पैसे भेज देते थे और घर का खर्च चलता रहता था. कुछ वर्षों बाद विक्रम जब वापस लौटे तो धनेश्वरी भी उनके साथ मटियारी आ गयी. धनेश्वरी हरियाणा के रोहतक जिले की थी और काम के दौरान दोनों की मुलाकात हुई होगी दोनों ने साथ रहने का फैसला किया होगा. इसी बीच उनके दो बच्चे संजय और संगीता भी हुए. मटियारी गाँव भी उसी भारतीय समाज का हिस्सा था जिसे सामंतवाद और पूजी आपसी गठजोड़ से चला रहे थे, फिर अपनी मर्जी से विक्रम का शादी करना तो अन्याय ही हुआ. गाँव के मुखिया और जमीदार इसके खिलाफ हुए और साथ में रहने के इस फैसले को अपराध साबित कर डाला. साथ में रहने के इस फैसले के खिलाफ मुखिया के कहने से पूरा गाँव ही हो गया था. वैसे इनके मानने न मानने से क्या होता जब धनेश्वरी और विक्रम ने फैसला कर लिया था, पर यह तर्क उस सामंती समाज के परे था और यह कहने के लिये एक मोटी जुबान चाहिये थी, जो विक्रम जैसे गरीब किसानों के पास तो नहीं ही थी. गाँव की पंचायत बुलायी गयी पंचायत ने पचास हजार का जुर्माना और गाँव को खाना खिलाने की शर्त रखी, तब गाँव के मुखिया अवधेस अग्रवाल ने उदारता भी दिखायी और चावल, दाल जैसी कुछ चीजों की मदद देने की भी बात कही, पर मटियारी गाँव के सात सौ घरों के पाँच हजार लोगों को भोजन कराना एक छोटे किसान के लिये मुश्किल बात थी. विक्रम की माँ गंगाबाई बताती हैं कि अगर इतना पैसा होता तो विक्रम के पिता के पेट दर्द की बीमारी ठीक हो जाती. उनका इलाज हो जाता और वे आत्महत्या न करते. विक्रम से पहले ही वे इसी आभाव और कष्टप्रद जिंदगी के चलते आत्महत्या कर लिये जब हमने भारतीय अपराध ब्यूरो का आंकड़ा देखा तो उसमे उनका नाम नहीं था. गंगाबाई ने कहा पुलिस को सूचित करते तो और भी समस्या होती रोज-बरोज पुलिस आती और न जाने क्या-क्या सवाल पूछती और पैसे भी अलग से ले सकती थी. लिहाजा इस मामले को गाँव तक ही सीमित रखा गया. अब जो होना था तो हो ही चुका था, पुलिस को बताने से वो वापस तो लौट नहीं आते, अलबत्ता कुछ परेशानियां जरूर खड़ी हो जाती. उनकी मौत के वर्षों बाद ब्लाक से दस हजार रूपये मिले थे, पर आप ही बताओ आज के जमाने में दस हजार रूपये से क्या होता है.
गाँव वालो को भोज नहीं कराया जा सका कुछ लोगों ने वहिस्कार सा कर दिया. घर के खर्चे कम तो हो नहीं रहे थे और किसानी से अब कुछ भी नहीं मिल रहा था, दूसरों का भी जोतो तो अपनी मेहनत तक वापस नहीं आती. विक्रम ने अस्सी रूपये प्रति दिन के हिसाब से बगल के एन.टी.पी.सी. में नौकरी करना शुरू कर दिया. ठेके का काम था दिन भर खटना पड़ता था फिर भी समय से पैसा नहीं मिलता था. इन स्थितियों में विक्रम चिड़चिड़ा सा हो गया था. अभावग्रस्तता घरों में कलह को जन्म देती है, अक्सर पत्नी के साथ भी उसकी झड़प हो जाती. कई दिनों तक वह कोई बेहतर काम भी ढूंढ़ता रहा, पर जब गाँव में पढ़े लिखे लड़के बेरोजगार घूम रहे थे तो आठवीं पास को कौन पूछता है. गंगाबाई को अब ठीक-ठीक याद भी नहीं कि सावन के महीने की वो कौन सी तारीख है जब विक्रम घर से निकला.दिन बीत गया, नहीं आया तो दूसरे दिन यह खबर ही आ गयी कि थाने के बगल में नहर के किनारे उसने ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली है. सरकार ने कोई मदद नहीं की. सरकार गरीबों की मदद कहाँ करती है? गंगा बाई जब यह कह रही थी तो उनके कहने के आशय में और एक बड़े अर्थशास्त्री के यह कहने के आशय में कि "सत्ता का अपना चरित्र होता है जिसके हित में वह काम करती है" मुझे कोई फर्क नहीं दिखा बल्कि सूत्र वाक्य सा लगा, पर यह गाँव की एक अनपढ़ महिला की बात थी जिसे कभी किसी किताब तो दूर, अखबार की हेड लाइन, में जिक्र भी नहीं होना था.
अब उनकी एक छोटी सी दुकान है, जिसमे उतना ही सामान है जितना एक झोले में भरा जा सकता है. घर की टूटी खपरैल की छाया इतनी है. आसमान पूरा का पूरा नहीं दिखता पर बारिस में इसमे रहने की स्थिति भी नहीं बची है, इसी में अपने परिवार के ६ सदस्यों के साथ जिंदगी कट रही है, भगवान अब तो हमे भी बुला लेता तो अच्छा था....... कहते-कहते उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और देर तक उन्हें आंचल से पोंछती रहती हैं.
धनेस, दिनेस, रामू जो विक्रम के बचपन के दोस्त हैं, हमे विक्रम व गाँव की कई ऐसी कहानिया सुनाते हैं. वे बताते हैं कि अब गाँव में बहुत कम खेत सबके पास बचा है. सब धीरे-धीरे परिवार टूटने के साथ बट गये और कोई खेती करना भी नहीं चाहता, उससे बेहतर है कि कोई और काम पकड़ लो. छः महीने एक आदमी पूरी मेहनत के साथ खेती करे तो पाँच सौ रूपये का भी फायदा नहीं आ पाता. हम जब चलने लगे तो इन्होंने कहा कि आप इनके घर के बारे में कुछ करिये. सरकार से कुछ मदद ही दिलवा दीजिये. पर मैं चुप रहने के अलावा और क्या कर सकता था जबकि सरकार इन आत्महत्याओं पर चुप है.
छत्तीसगढ़ में किसानों के आत्महत्या की अलग-अलग कहानियां लिखी जाय तो ऐसी कितनी कहानियाँ हैं. आत्महत्या के बाद ऐसे कितने घर हैं जो उजड़ गये खुरदुर के वेदराम मराबी के घर की स्थिति यही थी घर नाम से एक छप्पर था जो पूरी तरह से टूट चुका था. जिसमे उनके पाँच कुपोसित बच्चे पडे थे और पत्नी रामकली बीमारी से बेहोसी की हालत में पड़ी हुई थी जिन्हे देखने वाला कोई भी नहीं था. बच्चे इतने छोटे थे कि उन्हें अपने पिता के मौत के बारे में कुछ भी पता नहीं. छत्तीसगढ़ के छोटे किसानों के लिये यह और भी मुश्किल है कि जब वहाँ के लोगों को चावल दो रूपये किलो मिल ही जाता है, तो उनके थोड़े से धान की कोई कीमत ही नहीं आंकी जाती. यानि एक तरफ सरकार गरीब, आदिवासियों को सस्ता चावल भले ही वह घटिया गुणवत्ता का हो इतने सस्ते में मुहैया करा रही है कि उन छोटे किसानों के धान की जो कीमत नजदीकी बाजार में लगनी थी, वह बहुत ही कम हो जाती है. जबकि वहीं बड़े किसान आज भी दूर मंडी में लेजाकर सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर कुछ लाभ तो कमा ही लेते हैं, पर यहाँ किसान के बड़े या छोटे होने के सवाल के साथ एक सवाल यह भी जुड़ा हुआ है कि आज कोई भी किसान स्वेक्षा से किसानी करने को तैयार नहीं है. किसानी एक ऐसा व्यवसाय हो चुका है....... यह महज छत्तीसगढ़ की ही स्थिति नहीं है बल्कि पूरे देश की स्थिति यही है. जबकि इतने किसान प्रति वर्ष आत्महत्या कर रहे हैं हम अंदाजा नहीं लगा सकते कि कितने आत्महत्या की दहलीज पर खड़े होंगे.

30 मार्च 2010

पंजाब में किसान नेताओं पर दमनचक्र

प्रधानमंत्री जब इस चुनाव के दौरान पंजाब में चुनावी सभायें कर रहे थे तो लग रहा था कि फिर से पंजाब में हरित क्रांति की तैयारी में हैं और चुनावी व्यस्तता से जैसे ही वे मुक्त होंगे यह क्रांति पल्लवित होती दिखने लगेगी. आज़ादी के बाद किसी सरकार ने किसानों के लिये इतने मुक्त हांथों से कभी कोई बजट नहीं बनाया, पहली बार इतने किसानों के कर्ज माफ किये गये व किसानों के लिये केन्द्र सरकार ने अन्य योजनायें भी बनायी, सरकारी प्रचारतंत्र यह दावा करते रहे. फिर भी किसानों की आत्महत्यायें जारी हैं विदर्भ, छत्तीसगढ़ से लेकर पंजाब तक. किसी किसान की आत्महत्या सरकार के लिये कोई परेशानी नहीं पैदा करती पर जब किसान विरोध पर उतर आयें, जब वे अपनी मांगों को लेकर रैलियाँ, धरने प्रदर्शन करने लगते हैं तो इससे सरकार का विचलन बढ़ जाता है फिर वह वैसा ही करती है जैसा कि पंजाब के किसान नेता दर्शनपाल के साथ किया गया या फिर उसके एक दिन पहले बी.के.यू. एकता पंजाब के अध्यक्ष बलकार सिंह व पंजाब के अन्य किसान नेताओं के साथ. दर्शनपाल पी.डी.एफ.आई. के संयोजक हैं पिछले दिनों पंजाब के किसानों द्वारा सिंचाई हेतु विद्युत आपूर्ति व उनकी दरों में हुई बृद्धि को लेकर एक बड़ी रैली हुई. जिसमे २० से अधिक किसान संगठन शामिल हुए थे, पंजाब में किसान संगठनों द्वारा एक लम्बे अर्से बाद इतने बड़े तादात में किसान इकट्ठा हुए थे. इस रैली से पंजाब सरकार भयभीत हो गयी और २३ मार्च को पटियाला से २५ किलोमीटर दूर समना से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, जब वे एक किसान सभा में शामिल होने के लिये गये हुए थे. पर सरकार के भय का कारण महज़ रैली नहीं थी बल्कि किसानों की संगठित हो रही वह ताकत थी जिसने पिछले बरस प्रतिरोध के जरिये सरकार को इस बात के लिये मजबूर कर दिया था कि उसे सिंचाई के लिये बिजली उपलब्ध करायी जाय और सरकार को कार्यालयों में चलने वाली वातानुकूलित मशीनों को बंद करने का आदेश देना पड़ा था.
पंजाब में किसानों की स्थितियाँ पिछले वर्षों की तुलना में और भी बदहाल हुई हैं पर राज्य सरकार उन स्थितियों को बेहतर करने और किसानों को राहत देने के बजाय उचित मांगों को उठाने वाले किसान संगठन के नेताओं को गिरफ्तार कर रही है. पंजाब के कृषि विश्वविद्यालय ने वहाँ के किसानों की स्थितियों पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें पंजाब के किसानों पर कर्ज के बढ़ रहे बोझ को दिखाया गया है २००६ में किसानों पर जो कर्ज था वह २४०० करोड़ था आज की स्थिति में वह और भी बढ़ गया है. केन्द्र सरकार अपनी कर्ज माफी को लेकर भले ही किसानों के प्रति प्रतिबद्धता को जताये पर पंजाब की स्थितियाँ इससे थोड़ा भिन्न हैं पंजाब के ज्यादातर किसान साहूकारों की कर्ज से डूबे हुए हैं और यह साहूकारी का कर्ज उन्हें बिजली की बढ़ती दर व कृषि संसाधनों के मूल्य में हुई बृद्धि के कारण भी लेना पड़ा है. किसानों का बड़ा तबका है जो गेहूं की फसल उगाता है पर पिछले वर्षों में उसके मूल्य में महज १.५ प्रतिशत की बृद्धि हुई है जबकि लागत ८ फीसदी बढ़ गयी है. इन स्थितियों में किसानों का मुनाफा और भी कम हो गया जिस पर कर्जदार किसानों को साहूकारों की प्रताड़ना के कारण मजबूरन आत्म हत्या का रास्ता चुनना पड़ रहा है. दरअसल किसान आत्महत्याओं का दौर किसान आंदोलनों की असफलता का ही परिणाम रहा है जहाँ एक किसान संघर्ष करने के बजाय अपनी जिंदगी को खत्म करने का विकल्प चुन लेता है. विदर्भ किसान आत्महत्याओं को लेकर खासा चर्चित रहा है पर उन वर्षों में यदि गौर किया जाय जब वहाँ किसान आंदोलन बेहतर स्थिति में थे तो किसान आत्महत्याओं की दर काफी कम रही है. आंदोलन की स्थिति में किसान एक संगठित ताकत के रूप में अपने को महसूस करता है लिहाजा मरने के बजाय उसके सामने लड़ने का विकल्प होता है और इन लड़ाईयों से जो उपलब्धियाँ हासिल होती हैं वे उसे मानसिक रूप से और मजबूत बनाती हैं. पूरे देश में खाद्यानों की महगाई जिस अनुपात में बढ़ी है किसानों को फसलों के लिये मिलने वाला मूल्य कहीं कम रहा है, नयी तकनीक और बीजों के कारण किसानी की प्रक्रिया ही बदल गयी है हर वर्ष नये बीज और मंहगे हो रहे फर्टिलाइजर्स का भुगतान करना छोटे किसानों के लिये बेहद मुश्किल है. ये वजह रही है कि किसानों के जीवन दशा में गिरावट आयी है.
किसानी पर निर्भर ६५ प्रतिशत आबादी की स्थिति आज इस रूप में हो गयी है कि वह मजबूरन किसानी के पेशे को अपना रहा है. किसानी एक स्वेच्छा से चुनाव करने का पेशा न होकर मजबूर होकर अपनाया गया उद्यम बन गया है. यह सब किसानों के प्रति सरकार की उपेक्षाओं के कारण ही हुआ है. इन स्थितियों में खेतिहर मजदूर व गरीब किसानों के हितों और उद्देश्यों को उठाने के लिये जो ताकतें आगे आ रही हैं या उन्हें संगठित करने का प्रयास कर रही हैं उन पर सरकार दमनकारी रवैया अख्तियार किये हुए है. जबकि देश में किसान आंदोलन न के बराबर हो गये हैं यदि हो भी रहे है तो तात्कालिक मुद्दों को उठाते हुए बगैर किसी ठोस सांगठनिक ढांचे के ऐसे में पंजाब में अभी भी अन्य राज्यों की अपेक्षा किसान संगठनों के मजबूत आधार बने हुए हैं. पंजाब सरकार के द्वारा किसान नेताओं पर की जा रही कार्यवाहियाँ दरअसल इन्हीं ढांचों को तोड़ने का एक प्रयास है. यह सब ऐसे समय में किया जा रहा है जब देश की कई किसान संगठन मिलकर किसानों पर सरकार द्वारा हो रही उपेक्षा व बदहाल स्थियों को लेकर ३० मार्च को दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक बड़े प्रतिरोध का आयोजन करने की तैयारी में हैं. चन्द्रिका

29 मार्च 2010

सीमा अरुंधती नहीं हैं

आवेश तिवारी
सीमा आजाद की गिरफ्तारी के 24 घंटे भी नहीं हुए थे, जब उनके एक बेहद करीबी दोस्त ने, जो एक नामचीन कवि भी हैं, उनसे कोई नाता होने से इनकार कर दिया था। सीमा की एक और मित्र, जिसे खुद की गिरफ्तारी का भी अंदेशा बना हुआ था, पुलिसवालों से मिलकर अपनी साफगोई बयान कर रही थी। सीमा की गिरफ्तारी के बाद जिन लोगों ने संसद भवन के बाहर धरना दिया था, उनमें से एक ने मुझसे फोन पर बच-बचा कर लिखने को कहा और बोला कि इस तरह से उसके पक्ष में लिखोगे तो पुलिस तुम्हे नहीं छोड़ेगी। उन्होंने ये भी कहा कि “यार मैं नहीं जानती थी, पूरे एक ट्रक नक्सली सामग्री बरामद हुई है। मुझसे एसटीएफ का एसपी कह रहा था, सीमा हार्डकोर नक्सली है और हमें ये सच मानना ही होगा। मैंने तो अरुंधती और सब लोगों को ये सच बता दिया है।” एक साहसिक पत्रकार की मनमाने ढंग से की गयी गिरफ्तारी पर उत्तरप्रदेश सरकार के सामने अपना अधोवस्त्र खोल कर बैठे अखबारों के पास कहने को कुछ भी नहीं था। मोहल्ला थोड़ा बहुत कराहने के बाद चुप हो गया था। साथियों, शुभचिंतकों के चेहरे बदलने लगे थे। उधर नैनी जेल की सीलन भरी कोठरी में बंद सीमा महिला कैदियों को अपना मनपसंद गीत सुना रही थी…
तीन गज की ओढ़नी, ओढनी के कोने चार,चार दिशाओं का संसार,ओढ़नी के कोने चार हर दो कोने बीच दीवार,दीवार बना हैं घूंघट, घूंघट अंदर है घुटन,घुटन भरी है जिंदगी,ओढ़नी है जिंदगी, जिंदगी है ओढ़नी
अन्याय और शोषण के विरुद्ध शुरू किये गये अपने एकल युद्ध में अकेले खड़ी थी सीमा। आज ये पोस्ट लिखने से पहले जब मैंने सीमा के एक पत्रकार मित्र से बात की, तो उन्होंने पहले तो कुछ भी बात करने से मना कर दिया लेकिन बहुत जद्दोजहद करने पर उन्होंने कहा, “वो सिर्फ दोस्त थी। सबसे करीबी दोस्त नहीं। हमें लोकतंत्र में सत्ता की ताकत का अंदाजा है। सीमा को शायद नहीं था या फिर वो उसे अनदेखा कर रही थी।” वो कहते हैं, “सीमा का हम चाह कर भी सहयोग नहीं कर सकते, क्‍योंकि हमारे पास इतनी ताकत और इतना बड़ा समूह नहीं कि सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सके।” शायद सीमा ने इस नपुंसकता को पहचानने में देर कर दी और भीड़ के पीछे खड़ा होने का मुगालता पाले सलाखों में जकड़ दी गयी।
अरुंधती राय जैसी प्रगतिशीलता का वो अत्याधुनिक चेहरा नहीं थीं, जिसके पीछे पूरी भीड़ हो। वो मृणाल पांडेय या शोभा डे भी नहीं थी कि उनके खांसने की भी खबर प्रकाशित होती। वो सीमा थी। कभी गोरखपुर के इंसेफेलाइटिस प्रभावित इलाकों में अकेले घूमते हुए – इलाहाबाद के यमुना पार के इलाकों में मजदूरों को माफियाओं के जुल्मोसितम के खिलाफ आवाज उठाने को संगठित करती हुई सीमा का कसूर ये था कि उसके लिए खबरें सिर्फ अखबार के पन्नों पर छपी इबारत नहीं थी, जिसे पढ़ने के बाद आम आदमी अपने बच्चों का पखाना पोंछता है, उसके लिए खबरों का मतलब था कि जिनके लिए लिखो, उन्हें अपनी खबर से कुछ दो। उसका कसूर ये भी था कि वो इलाहाबाद के उन पत्रकारों की जमात का हिस्सा नहीं थी, जिनके लिए थाने की चाय अमृत का प्याला होती है और सिविल लाइन चौराहे पर देर रात तक चलने वाली गप्‍पबाजियां अखबारनवीस होने का प्रमाणपत्र।
सीमा की गिरफ्तारी के पहले और बाद में मीडिया मैनेजमेंट के लिए पुलिस ने क्या क्या किया और किस किस पत्रकार ने क्या क्या पाया, ये अपने आप में बड़ी रोमांचक कहानी है। इलाहाबाद के डीआईजी के घर में सीमा की गिरफ्तारी से महज कुछ घंटे पहले बैठकर चाय पीने और एसटीएफ के एसपी नवीन अरोरा को सीमा के खिलाफ हल्ला बोलने का आश्वासन देने वालों के चेहरे उतने ही काले हैं, जितनी कि उनकी कलम की रोशनाई। सीमा की गिरफ्तारी और उसके बाद मीडिया के एक वर्ग द्वारा पुलिस की भाषा में की गयी क्राइम रिपोर्टिंग ने ये साबित कर दिया कि उत्तर प्रदेश में पुलिस अपनी सफलताओं का तानाबाना दल्ले पत्रकारों और टायलेट पेपर सरीखे अखबारों के मालिकानों की मिलीभगत से तैयार कर रही है। होड़ इस बात की लगी है कि कौन सा समूह और कौन सा पत्रकार सरकार और सरकार के नुमाइंदों के सबसे नजदीक है। ये शत प्रतिशत सच है कि पुलिस द्वारा न सिर्फ माओवादियों के नाम पर की जा रही गिरफ्तारियां, बल्कि नक्सल प्रभावित इलाकों में आदिवासी जनों का उत्पीड़न भी मीडिया की सहमति से हो रहा है। ये बात दिल्ली, मुंबई में बैठे पत्रकार भले न मानें मगर ये सच है कि उत्तर प्रदेश में अखबार वाले बलात्कार से लेकर हत्याओं तक की खबरें दारू की बोतलों की कीमत पर गटक कर जा रहे हैं। ये तो गनीमत है कि पत्रकारों की हत्या नहीं हो रही है। अगर कल को पुलिस नक्सली बताकर किसी पत्रकार को गोली मार दे तो उसमें भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
अभी पिछले पखवारे जब कमलेश चौधरी की फर्जी मुठभेड़ में हत्या और उसके बाद सीमा की फर्जी तरीकों से की जाने वाली गिरफ्तारी से संबंधित खबर डेली न्यूज एक्टिविस्‍ट में छपी। अगले ही दिन प्रदेश के एक बेहद चर्चित और जनसत्ता में नियमित तौर पर लिखने वाले एक पत्रकार ने लखनऊ में एसटीएफ मुख्यालय से मुझे फोन करके कहा कि आवेश भाई आप नहीं जानते, मैंने आज माओवादियों का वो रजिस्टर देखा जिसमें सीमा के दस्तखत थे। वो और उसका पति तो बकायदा माओवादियों की साजिशों के सूत्रधार की भूमिका में थे। आप एक बार आकर यहां अधिकारियों से मिल लीजिए। आपकी सीमा को लेकर धारणा बदल जाएगी। मेरी धारणा बदली या नहीं बदली, उस दिन जो पत्रकार एसटीएफ मुख्यालय में मौजूद थे, उन लोगों ने बारी बारी से सीमा के खिलाफ खबरें निकालने का सिलसिला शुरू कर दिया और उन पत्रकार महोदय को जिन्होंने मुझे फोन पर सच्चाई का ज्ञान कराया था, नक्सल प्रभावित इलाकों में पंफलेट और पोस्टर छपवाने एवं उत्तर प्रदेश पुलिस के नक्सली उन्मूलन को लेकर की जा रही कवायद को लेकर एक बुकलेट छपवाने का ठेका मिल गया। वो ये काम पहले भी करते आये हैं और इस काम में वे इलाहाबाद के एक प्रिंटिंग प्रेस की मदद से लाखों की कमाई पहले भी करते आये हैं। अभी कुछ नहीं कहा जा सकता कि सीमा कब तक जेल में रहेगी। इसका भी कोई अंदाजा नहीं कि कब कौन और कैसे माओवाद के नाम पर सलाखों के पीछे धकेल दिया जाएगा। लेकिन ये तय है कि हर एक बार जब कोई कलम से क्रांति की बात करने वाला सत्ता की खुराक बनेगा, जूठन खाने को चील कौवों की तरह मीडिया के ये शिखंडी भी मौके पर मौजूद रहेंगे।
आवेश‍ तिवारी। लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख।

दंडकारण्य से लौटकर: अरुंधति राय


दंतेवाड़ा को समझाने के कई तरीके हो सकते हैं। यह एक विरोधाभास है। भारत के हृदय में बसा हुआ राज्यों की सीमा पर एक शहर। यही युद्ध का केंद्र है। आज यह सिर के बल खड़ा है। भीतर से यह पूरी तरह उघड़ा पड़ा है।

दंतेवाड़ा में पुलिस सादे कपड़े पहनती है और बागी पहनते हैं वर्दी। जेल अधीक्षक जेल में है, और कैदी आजाद (दो साल पहले शहर की पुरानी जेल से करीब 300 कैदी भाग निकले थे)। जिन महिलाओं का बलात्कार हुआ है, वे पुलिस हिरासत में हैं। बलात्कारी बाजार में खड़े भाषण दे रहे हैं।

इंद्रावती नदी के किनारे का इलाका माओवादियों द्वारा नियंत्रित है। पुलिस इस इलाके को ‘पाकिस्तान’ कहती है। यहां गांव खाली हैं, लेकिन जंगल लोगों से अटे पड़े हैं। जिन बच्चों को स्कूलों में होना चाहिए था, वे जंगलों में भागे फिर रहे हैं। जंगल के खूबसूरत गांवों में कंक्रीट की बनी स्कूली इमारतें या तो उड़ा दी गयी हैं और उनका मलबा बचा हुआ है, या फिर इनमें पुलिस वाले भरे हुए हैं। इस जंगल में जो युद्ध करवट ले रहा है, भारत सरकार को उस पर गर्व भी है और कुछ संकोच भी। ऑपरेशन ग्रीनहंट भारत के गृहमंत्री (और इस युद्ध के सीईओ) पी चिदंबरम के लिए अगर गर्वोक्ति है, तो एक इनकार भी। वह कहते हैं कि ऐसा कोई युद्ध नहीं चल रहा, यह सिर्फ मीडिया द्वारा गढ़ा गया है। और इसके बावजूद ढेर सारा पैसा इस युद्ध में झोंका जा रहा है, दसियों हजार सैन्य टुकड़ियों को तैनात कर दिया गया है। भले ही, युद्ध भूमि मध्य भारत के जंगल हैं तो क्या हुआ, इसके गंभीर नतीजे हम सभी के लिए होंगे।

एक उदार चेतन मस्तिष्क के लिए यह मान लेना आसान है कि यह युद्ध भारत सरकार और उन माओवादियों के बीच है जो चुनावों को ढोंग और संसद को सुअरबाड़ा कहते हैं; जिन्होंने भारतीय राजसत्ता को उखाड़ फेंकने की अपनी मंशा खुलेआम जाहिर कर दी है। उनके लिए यह भुला देना आसान है और सुविधाजनक भी कि मध्य भारत के आदिवासियों के प्रतिरोध का इतिहास माओ से भी सदियों पुराना है (यही सचाई भी है, क्योंकि यदि उन्होंने प्रतिरोध नहीं किया होता, तो वे बचे ही नहीं होते)। हो, उरांव, कोल, संथाल, मुंडा, गोंड आदिवासियों ने एक नहीं, कई बार विद्रोह किया है, कभी अंग्रेजों के खिलाफ तो कभी जमींदारों और सूदखोरों के खिलाफ। इनकी बगावत को बर्बर तरीकों से कुचल दिया गया, हजारों आदिवासियों को मार दिया गया, इसके बावजूद इन लोगों को जीता नहीं जा सका। यहां तक कि आजादी के बाद पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में हुए पहले जन उभार – जिसे हम माओवादी कह सकते हैं – के केंद्र में भी आदिवासी ही थे (जहां से नक्सलवादी नाम का शब्द पैदा हुआ, आजकल जिसे माओवादी के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किया जाता है)। तब से लेकर अब तक नक्सली राजनीति अभिन्न रूप से आदिवासी उभार के साथ जुड़ी हुई है, जो हमें जितना नक्सलवादियों के बारे में बताती है, उतना ही वह आदिवासियों से भी सरोकार रखती है।

बगावत की यह विरासत अपने पीछे ऐसे असंतुष्ट और रुष्ट लोगों को छोड़ गयी है जिन्हें जान-बूझ कर भारत सरकार ने हाशिये पर धकेल दिया है और अलग-थलग छोड़े हुए है। भारतीय लोकतंत्र का नैतिक दस्तावेज यानी भारत का संविधान संसद द्वारा 1950 में अपनाया गया था। आदिवासियों के लिए यह एक त्रासदी का दिन था। संविधान ने औपनिवेशिक नीति को सही ठहराते हुए आदिवासी इलाकों का जिम्मा भारतीय राजसत्ता के हाथ में दे दिया। रातों-रात समूची आदिवासी आबादी अपनी ही जमीन पर गैर-कानूनी प्रवासियों में तब्दील हो गयी। इस संविधान ने वनोत्पादों पर आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों को ही अस्वीकार कर दिया और इस तरह उनकी समूची जीवन पद्धति को आपराधिक करार दिया। वोट देने के अधिकार के बदले संविधान ने आजीविका और आत्मसम्मान के उनके अधिकार को ही छीन लिया।

सरकार ने पहले तो उनसे सब कुछ छीन लिया और उन्हें गरीबी के कुएं में धकेल दिया। इसके बाद वह उनकी गरीबी को उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल करने में लग गयी। हर बार जब उसे बड़ी आबादी को विस्थापित करने की जरूरत पड़ती – बांधों, सिंचाई परियोजनाओं, खनन आदि के लिए – तो सरकार अचानक ‘आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने’ या उन्हें ‘आधुनिक विकास का फल देने’ की बात करने लग जाती। इसका नतीजा यह हुआ है कि भारत की ‘प्रगति’ के शरणार्थी यानी आंतरिक रूप से विस्थापित करोड़ों लोगों (बड़े बांधों से अकेले तीन करोड़ से ज्यादा विस्थापित) में अधिसंख्य आदिवासी लोग ही हैं। जाहिर है जब यह सरकार आदिवासियों के कल्याण की बात शुरू करे, तो वह चिंता करने का वक्त होता है।

इस कड़ी में सबसे हालिया चिंता के स्वर गृहमंत्री पी चिदंबरम की ओर से आये हैं। उन्होंने कहा है कि वह नहीं चाहते कि आदिवासी ‘संग्रहालयी संस्कृति’ का हिस्सा रहें। जब वह एक कॉरपोरेट वकील के अपने करियर में तमाम प्रमुख खनन कंपनियों के हितों को आवाज दे रहे थे, तब तो आदिवासियों का कल्याण उनकी प्राथमिकताओं में ऐसे नहीं आता था। इसलिए जरूरी है कि उनकी इस नयी उत्तेजना के आधार को टटोला जाए।

पिछले तकरीबन पांच साल के दौरान छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने कॉरपोरेट घरानों के साथ कई खरब डॉलर के सैंकड़ों समझौतों पर दस्तखत किये हैं। स्टील प्लांट, स्पंज आयरन फैक्टरी, पावर प्लांट, एल्युमिनियम रिफाइनरी, बांधों और खदानों के लिए किये गये ये सारे समझौते गोपनीय हैं। इन्हें हरे नोटों में बदलने के लिए बेहद जरूरी है कि आदिवासियों को इन इलाकों से खत्म कर दिया जाए।

यह युद्ध, इसी के लिए है।

मेरे निकलने से एक दिन पहले मेरी मां ने कॉल किया। वह ऊंघते हुए बोली, ‘मैं सोच रही थी, कि इस देश को एक अदद क्रांति की जरूरत है।’

रायपुर से दंतेवाड़ा तक का सफर करीब दस घंटे का है। इसमें उन इलाकों से होकर गुजरना पड़ता है, जिन्हें ‘माओवादी संक्रमित’ कहा जाता है। ऐसे शब्द बेवजह नहीं बनाये गये। संक्रमण/संक्रमित जैसे शब्द बीमारी या कीटों के लिए इस्तेमाल में आते हैं। और बीमारियों को दूर किया ही जाना चाहिए। कीटों को खत्म करना ही पड़ता है। ठीक वैसे ही माओवादियों को साफ किया ही जाना होगा। बड़े चुपके से और अदृश्य तरीकों से नरसंहार की यह भाषा हमारी शब्दावली का हिस्सा बन चुकी है।

राजमार्ग को सुरक्षित रखने के लिए सुरक्षा बलों ने दोनों ओर जंगलों की एक संकरी पट्टी को घेरा हुआ है। इसके पार ‘दादा लोगों’ का राज है यानी भाइयों का, कॉमरेडों का राज।

रायपुर के बाहरी इलाके में एक विशाल बिलबोर्ड पर वेदांता के कैंसर अस्पताल का विज्ञापन लगा है (वही कंपनी, जिसमें कभी हमारे गृहमंत्री नौकरी करते थे)। उड़ीसा में, जहां वेदांता बॉक्साइट का खनन कर रही है, वह एक विश्वविद्यालय भी बना रही है। ऐसे ही चुपके से और अदृश्य तरीकों से खनन निगम हमारी कल्पनाओं में प्रवेश कर जाते हैं ऐसी उदार ताकतों के रूप में, जो वास्तव में हमारा ख्याल रखते हों। कर्नाटक की हालिया लोकायुक्त रिपोर्ट के मुताबिक एक निजी कंपनी द्वारा खोदे गये एक टन लौह अयस्क के लिए सरकार को 27 रुपये की रॉयल्टी मिलती है और खनन कंपनी 5000 रुपये बनाती है। बॉक्साइट और अल्युमीनियम के क्षेत्र में तो हालत और भी बुरी है। ये अरबों डॉलर की दिनदहाड़े लूट की दास्तानें हैं। इतना तो चुनावों, सरकारों, जजों, अखबारों, टीवी चैनलों, एनजीओ और अनुदान एजेंसियों को खरीद लेने के लिए काफी है। ऐसे में यहां-वहां एकाध कैंसर अस्पताल बनवा देने में क्या जाता है?

मुझे याद नहीं कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा दस्तखत किये गये समझौतों की लंबी फेहरिस्त में वेदांता का नाम है या नहीं। लेकिन इतना तो शक होता ही है कि अगर यहां एक कैंसर अस्पताल है, तो पास में ही कहीं बॉक्साइट का कोई पहाड़ भी होगा।

हम कांकेर से गुजरते हैं, जो अपने जंगल युद्धकौशल और प्रति उग्रवाद प्रशिक्षण कॉलेज के लिए जाना जाता है। इसे ब्रिगेडियर बीके पंवार चलाते हैं, जो इस युद्ध के एक और प्यादे के रूप में भ्रष्ट पुलिसवालों को जंगल कमांडो में तब्दील करने की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। युद्धकौशल प्रशिक्षण स्कूल का उद्देश पत्थरों पर रंगा हुआ है, ‘एक गुरिल्ला से लड़ने के लिए गुरिल्ला बनो।’

काफी देर हो चुकी थी। जगदलपुर सो चुका था, बस कुछेक होर्डिंगें जगमगा रही थीं जिनमें राहुल गांधी लोगों से यूथ कांग्रेस में आने का आह्वान करते दिख रहे थे। हाल के कुछ महीनों में वह दो बार बस्तर जा चुके हैं, लेकिन युद्ध के बारे में शायद उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा है। जनता के इस राजकुमार के लिए इस मसले पर कुछ भी कहना उसे मुश्किल में डाल सकता है। शायद उनके मीडिया प्रबंधकों ने ही उन्हें ऐसा करने से रोका होगा। राहुल गांधी का प्रचार अभियान इतनी सतर्कता से चलाया जा रहा है कि बलात्कार, हत्याओं, गांवों को जलाने और हजारों लोगों को उनके घरों से खदेड़ने के लिए जिम्मेदार सरकार प्रायोजित सेना सलवा जुड़ुम के कर्ताधर्ता कांग्रेसी विधायक महेंद्र कर्मा का नाम बीच में कहीं नहीं आ पाता।

मां दंतेश्वरी के मंदिर पर मैं समय से पहले ही पहुंच चुकी थी। मुझे नहीं पता था कि मुझे यहां क्या कहना है। उसने बताया कि उसका नाम मंगतू है। जल्द ही मैं जान गयी कि जिस दंडकारण्य में मैं प्रवेश करने जा रही थी, वह ऐसे लोगों से अटा पड़ा था, जिनके कई नाम थे और जिनकी पहचान अस्पष्ट थी। यह विचार मेरे लिए राहत से कम नहीं था कि कुछ देर के लिए दूसरा बन जाना और अपनी पहचान से अलग होना कितना खूबसूरत होता होगा।

मंदिर से कुछ ही दूरी पर एक बस स्टैंड था। हम वहां पैदल पहुंचे। वहां पहले से ही काफी भीड़ थी। काफी तेजी से यहां चीजें बदलीं। बाइक पर दो व्यक्ति थे। कोई संवाद नहीं – बस आंखों में ही नमस्ते बंदगी हुई, हमने बाइक पर अपना वजन संभाला और चल दिये। मुझे कोई आइडिया नहीं था कि हम कहां जा रहे थे। रास्ते में पुलिस अधीक्षक का आवास पड़ा। मैं पिछली बार के अपने दौरे में इधर आयी थी, सो मुझे पहचानने में दिक्कत नहीं हुई। वह स्पष्टवादी व्यक्ति था। उसने कहा था, ‘देखिए मैडम, साफ-साफ कहूं तो यह समस्या पुलिस या सेना से हल नहीं होने वाली। इन आदिवासियों की दिक्कत यह है कि वे लालच नाम की चीज नहीं समझते। जब तक वे लालच को नहीं समझेंगे और खुद लालची नहीं बनेंगे, हमारे लिए कोई भी उम्मीद करना बेकार है। मैंने अपने अधिकारी से कहा है कि सुरक्षा बलों को हटा कर उसकी जगह हर घर में एक टीवी लगवा दीजिए। सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा।’

कुछ ही देर में हम चौड़े पाट वाली एक नदी के रेतीले किनारों पर पहुंच गये। यह बरसाती नदी थी। इसलिए अभी वह बची नहीं थी। चारों ओर रेत के बीच एक पतली सी धारा थी जिसमें टखने भर पानी था और उसे पार करना काफी आसान था। उस पार था ‘पाकिस्तान’। उस एसपी ने मुझसे कहा था, ‘मैडम, हमारे सिपाही उधर लोगों को जान से मार देते हैं।’ मुझे याद है कि हम जैसे ही उस पार जाने लगे, एक पुलिसवाले की राइफल का निशाना हमारी ओर ही था। इतने खुले में उन्हें पहचान पाना मुश्किल नहीं था। मंगतू को हालांकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं भी उसी के पीछे हो ली।

उस पार हमारा इंतजार कर रहा था चंदू, जिसकी हलकी हरी शर्ट पर लिखा था हॉर्लिक्स! ‘आंतरिक सुरक्षा का यह खतरा’ कुछ उम्रदराज था। उसकी मुस्कराहट काफी प्यारी थी। उसके पास एक साइकिल थी, एक जेरी कैन जिसमें उबला पानी और मेरे लिए कई पैकेट ग्लूकोज के बिस्कुट, जो पार्टी ने भिजवाये थे। हमने अपनी सांस थाम कर चलना शुरू किया। उसकी साइकिल हमारा ध्यान बंटा रही थी। हालांकि रास्ता ऐसा था जिस पर साइकिल चलाना संभव नहीं था। पहाड़ों और पथरीले रास्तों पर चढ़ते-उतरते हम चलते गये। जब साइकिल चलाना मुश्किल हो जाता, तो चंदू उसे अपने सिर पर ऐसे उठा लेता जैसे कि उसका कोई वजन ही न हो। सूरज ढलते ही उनके कंधों पर लटके बैग बांग देने लगे। उनमें मुर्गे भरे थे जिन्हें बेचने वे बाजार ले गये थे, लेकिन बेच नहीं पाये थे।

अब कुत्तों के भौंकने की आवाजें आने लगी थीं। मैं कह नहीं सकती कि वे कितनी दूर थे। अब रास्ता मैदानी हो रहा था। मैंने नजरें चुरा कर आकाश की ओर देखा। खुला आकाश मुझे मदहोश करता है। मुझे उम्मीद थी कि हमारी मंजिल जल्द ही आने वाली है। चंदू ने कहा, हां। जल्दी यानी एक घंटे से भी ज्यादा। अब मुझे ढेर सारे पेड़ों की कतारें नजर आने लगी थीं। हम पहुंच चुके थे।

गांव काफी बड़ा था और मकान एक-दूसरे से काफी दूर बने थे। हम जिस घर में गये, वह काफी खूबसूरत था। आग जल रही थी, जिसके चारों ओर लोग बैठे थे। बाहर अंधेरे में उससे भी ज्यादा लोग थे। पता नहीं, कितने। उन्होंने अभिवादन किया, कॉमरेड लाल सलाम। मैंने भी जवाब दिया, लाल सलाम। मैं थक कर चूर हो चुकी थी। उस घर की महिला ने मुझे भीतर बुलाया। उसने मुझे खाने को रेड राइस के साथ हरी फलियों में पकी हुई चिकेन करी दी। जबर्दस्त खाना। उसकी बच्ची मेरे पास में ही सोयी हुई थी और उसके चांदी के कड़े धधकती हुई आग में चमक रहे थे।

हम सवेरे पांच बजे उठ गये। छह बजे तक हम निकल पड़े। एकाध घंटे के बाद एक और नदी हमने पार की। रास्ते में कुछ खूबसूरत गांव पड़े। हर गांव पर इमली के पेड़ों की छाया थी। इतने विशाल और विनम्र जैसे कि उन गांवों पर झुका हुआ कोई ईश्वर हो। यह थी बस्तर की मीठी इमली। ग्यारह बजते-बजते सूरज चढ़ चुका था। अब चलना सज़ा हो रहा था। दोपहर के खाने के लिए हम एक गांव में रुकते हैं। करीब दो बजे हम फिर से चल पड़ते हैं। इस गांव में हम दीदी से मिलने जा रहे हैं। दीदी यानी बहन कॉमरेड, जो हमें बताएंगी कि आगे क्या करना है। चंदू को नहीं पता कि आगे का सफर कैसा होगा। यहां सूचनाओं के भी स्तर होते हैं। हर व्यक्ति को हर चीज जानना जरूरी नहीं होता। जब हम वहां पहुंचते हैं, तो दीदी नहीं मिलती। उसकी कोई खबर नहीं है। पहली बार मैं देखती हूं कि चंदू के माथे पर चिंता की लकीरें हैं। मैं और भी चिंतित हो जाती हूं। मैं नहीं जानती कि लोग यहां एक-दूसरे से कैसे संपर्क करते हैं, अगर कुछ गड़बड़ हुई तो फिर क्या?

हम एक पुराने स्कूल के बाहर डेरा डालते हैं। यह गांव से कुछ दूर है। आखिर गांवों के सारे सरकारी स्कूल कंक्रीट के क्यों होते हैं, जिनमें खिड़कियां स्टील शटर की तरह और दरवाजे भी स्टील के होते हैं, स्लाइड करने वाले? इन्हें भी गांव के घरों जैसा मिट्टी और फूस से क्यों नहीं बनाया जाता? ताकि इनका इस्तेमाल बैरक और बंकर की तरह भी हो सके। चंदू बताता है, ‘अबूझमाड़ के गांवों में स्कूल ऐसे ही होते हैं…’। एक लकड़ी से वह जमीन पर स्कूल के भवन का नक्शा खींचता है – एक दूसरे से जुड़ी तीन अष्टकोणीय आकृतियां – बिल्कुल मधुमक्खी के छत्ते की तरह। वह बताता है, ‘ताकि वे यहां से हर दिशा में गोली चला सकें।’ अपनी बात को समझाने के लिए वह बिल्कुल क्रिकेट के ग्राफिक की तरह तीर बनाता है। इन स्कूलों में कोई शिक्षक नहीं। चंदू बताता है कि वे सभी भाग गये। मैंने पूछा, ‘कहीं तुम लोगों ने तो उन्हें नहीं खदेड़ दिया?’ ‘न, हम सिर्फ पुलिस को खदेड़ते हैं।’ वह पूछता है, ‘जब शिक्षकों को घर बैठे ही तनख्वाह मिल जाती है, तो वे यहां आने की जहमत क्यों उठाएंगे?’ बात तो सही है!

वह बताता है कि यह हमारा ‘नया इलाका’ है। पार्टी हाल ही में यहां आयी है।

तब तक करीब 20 युवा लड़के और लड़कियां आ जाते हैं। सभी किशोरवय के या 20 से 30 के बीच में हैं। चंदू बताता है कि यह गांव की मिलिशिया है। माओवादी सैन्य क्रम की सबसे निचली कतार। मैंने पहले कभी ऐसी कोई सेना नहीं देखी। ये साड़ी और लुंगी में हैं, कुछ हरे रंग के कपड़े पहने हैं। सभी के पास भरमार है यानी मजल लोडिंग राइफल। कुछ के पास चाकू, कुल्हाड़ी, तीर-कमान भी है। एक के पास जिंदा मोर्टार भी है, जिसे तीन फुट की जीआई पाइप से बनाया गया है। इसमें बारूद भरी है। यह चलने पर बहुत तेज आवाज करती है, लेकिन इसका इस्तेमाल एक ही बार किया जा सकता है। वे बताते हैं कि इसके बावजूद पुलिस इससे डरती है। ऐसा लगता नहीं कि इन लोगों के दिमाग में युद्ध के बारे में ख्यालात चलते होंगे, शायद इसलिए कि यह इलाका सलवा जुड़ुम के दायरे से बाहर है। इन्होंने दिन भर का काम पूरा कर लिया है। वे कुछ घरों के चारों ओर बाड़ लगा रहे थे ताकि खेतों में बकरियों को घुसने से रोका जा सके। इनमें काफी उत्सुकता और उत्साह है। लड़कियां यहां लड़कों के साथ काफी सहज और आत्मविश्वास में दिखती हैं और इन चीजों को पकड़ने में मैं बहुत तेज हूं। मुझे यह देखकर अच्छा लगता है। चंदू बताता है कि इनका काम गश्त लगाना है और चार-पांच गांवों की सुरक्षा करना है, खेतों की रक्षा करना है, उनके घरों की मरम्मत करना और कुओं को साफ करना है – यानी जो भी जरूरत पड़े उसे पूरा करना है।

दीदी अब तक नहीं आयी। अब क्या किया जाए? कुछ नहीं। इंतजार कीजिए और तब तक सब्जियां काटने और छीलने में मदद कीजिए।

रात के खाने के बाद सभी कतार में चल देते हैं। हम सब कुछ साथ लेकर बढ़ते हैं – चावल, सब्जियां, हांडी और बरतन। हम स्कूल परिसर को छोड़ चुके हैं। आधे घंटे से भी कम समय में हम एक सुरक्षित छांव में पहुंच जाते हैं। यहां हमें सोना है। निस्तब्ध शांति है। मिनट भर के भीतर हर कोई अपनी झिल्ली (नीली प्लास्टिक की चादर, जिसके बगैर क्रांति संभव नहीं) बिछा चुका है। चंदू और मंगतू एक में ही काम चला लेते हैं और मुझे एक अलग झिल्ली दी जाती है। मेरे लिए सबसे अच्छी जगह वे खोज निकालते हैं सोने के लिए, एक पत्थर के किनारे। चंदू ने दीदी को संदेश भेज दिया है। यदि उसे वह मिल गया, तो सवेरे वह यहां आ जाएगी। बशर्ते संदेश उस तक पहुंचे।

अब तक मैं जितने कमरों में सोयी हूं, यह सबसे खूबसूरत कमरा है। हजार स्टार वाले होटल में मेरा निजी सुइट। और मैं घिरी हूं इन अद्भुत, खूबसूरत बच्चों से, जिनके हाथों में हथियार हैं। ये सभी निश्चित तौर पर माओवादी ही हैं। तो क्या ये मरने जा रहे हैं? क्या जंगल युद्धकौशल प्रशिक्षण स्कूल इन्हीं को मारने के लिए बनाया गया है? ये सारे हेलीकॉप्टर गनशिप, थर्मल इमेजिंग और लेजर रेंज फाइंडर क्या इन्हीं के लिए हैं?

सब सो चुके हैं, सिवाय इन संतरियों के, जो डेढ़ घंटे की पाली में सोते हैं। मेरी नजर तारों पर जाती है। जब मैं बच्ची थी, तो मीनाचल नदी के किनारे सूरज ढलते ही शुरू होने वाली झींगुरों की आवाज को मैं तारों की पुकार समझती थी, जैसे वे टिमटिमाने की तैयारी कर रहे हों। मुझे भरोसा नहीं हो रहा कि आखिर इस जगह से मुझे कितना प्यार हो गया है। दुनिया में इससे प्यारी और कोई जगह शायद नहीं होगी, जहां मैं होना चाहूंगी। आज रात मुझे क्या होना चाहिए? तारों की चादर के नीचे, कामरेड राहेल? खैर, दीदी कल आ जाएंगी।

वे दोपहर से पहले आ पहुंचे। कुछ दूरी पर मैं उन्हें देख पा रही हूं। करीब 15 थे, सभी हरी वर्दी में, हमारी ओर दौड़ कर आते हुए। जिस तरह से वे दौड़ रहे थे, मैं उन्हें देख कर समझ सकती थी कि वे मजबूत लोग हैं। जनमुक्ति गुरिल्ला सेना के लोग। वही, जिनके लिए थर्मल इमेजिंग और लेजर निर्देशित रायफलें हैं, जिनके लिए जंगल युद्धकौशल प्रशिक्षण स्कूल बनाया गया है।

कैंप तक पहुंचने में कुछ घंटे और लगेंगे। पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो चुका है। यहां संतरियों और गश्ती सैनिकों के कई स्तर हैं। शायद दो कतारों में करीब सौ कामरेड होंगे। सभी के पास हथियार हैं। और चेहरों पर मुस्कान। वे गाना शुरू करते हैं, ‘लाल लाल सलाम, लाल लाल सलाम, आने वाले साथियों को लाल लाल सलाम।’ वे काफी मीठा गाते हैं। ऐसा लगता है जैसे किसी नदी या महकते हुए जंगल पर यह कोई लोकगीत हो। गीत के साथ अभिवादन, हाथ मिलाना और बंधी मुट्ठियां। सभी एक-दूसरे का अभिवादन करते हुए कहते हैं – लाल सलाम, लाल सलाम।

कैंप के नाम पर यहां 15 वर्ग फुट में बिछी हुई नीली झिल्ली के अलावा कुछ नहीं दिखता। छत भी झिल्ली की ही है। रात में मेरा कमरा यही होगा। शायद इतने दिनों तक पैदल चलने के बदले यह मेरा पुरस्कार था, या फिर आगे जो पड़ने वाला है, उसके बदले मुझे बहलाया जा रहा था। हो सकता है दोनों ही बातें रही हों। खैर, शायद इस सफर में यह आखिरी रात थी जब मेरे सिर पर छत थी। रात के खाने पर मुझे मिलती हैं कॉमरेड नर्मदा – क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन की प्रमुख (इनके सिर पर ईनाम है)। पीएलजीए की कॉमरेड सरोजा जो अपनी एसएलआर जितनी ही लंबी हैं। कॉमरेड मासे (गोंडी भाषा में इसका अर्थ होता है काली लड़की), जिनके सिर पर भी ईनाम घोषित है। तकनीक पारंगत कॉमरेड रूपी। कॉमरेड राजू, जो उस डिवीजन के प्रमुख हैं, जिसमें हम लोग चल रहे थे। और कॉमरेड वेणु (या कॉमरेड मुरली, सोनू, सुशील – आप उन्हें जो कहना चाहें), जो सबसे वरिष्ठ हैं। हो सकता है केंद्रीय कमेटी में हों, पोलित ब्यूरो में भी हो सकते हैं। मुझे बताया नहीं जाता। मैं पूछती भी नहीं। हमारे बीच में गोंडी, हलबी, तेलुगु, पंजाबी और मलयालम में बात हो रही है। सिर्फ मासे अंग्रेजी बोलती है। (इसीलिए हम तय करते हैं कि हम हिंदी में ही बात करेंगे)। कॉमरेड मासे लंबी है, शांत है और ऐसा लगता है कि संवाद में शामिल होने में उसे काफी दिक्कत हो रही हो। लेकिन जिस तरह से उसने मुझे गले लगाया, मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं कि वह आदमी को पहचानना जानती है। जंगल में किताबें न मिलना उसे बहुत अखरता है। जब उसे मुझ पर पूरा भरोसा हो जाएगा, शायद तब वह मुझे अपनी पूरी कहानी बताएगी।

जैसा कि इस जंगल में अक्‍सर होता है, बुरी खबर अचानक आयी। एक दौड़ते हुए व्यक्ति के साथ। जिसके पास बिस्कुट थे और छोटे-छोटे मुड़े हुए कागज के टुकड़ों पर कुछ लिखा हुआ था। ये टुकड़े एक बैग में ऐसे भरे थे जैसे चिप्स हों। हर जगह की खबर। ओंगनार गांव में पुलिस ने पांच लोगों को मार दिया है। इनमें चार मिलिशिया के हैं और एक आम ग्रामीण। संथु पोट्टाई (25), फूलो वाड्डे (22), कांडे पोट्टाई (22), रामोली वाड्डे (20), दलसाई कोराम (22)। हो सकता है ये सभी वे बच्चे हों जो पिछली रात तारों से नहायी हमारी डॉर्मिटरी का हिस्सा थे। फिर अच्छी खबर आती है कुछ लोगों के झुंड के साथ, जिसमें एक मोटा युवक भी है। वह भी उन्हीं के कपड़ों में है, लेकिन वे नये हैं। सभी उसके कपड़ों की बड़ाई करते हैं कि वे कितने फिट हो रहे हैं। वह शर्माता भी है और खुश भी होता है। वह एक डॉक्टर है जो अभी-अभी जंगल में कॉमरेडों के साथ रह कर काम करने आया है। पिछली बार दंडकारण्य में जब कोई डॉक्टर आया था, तो इस बात को बरसों बीत गये।

मुझे कॉमरेड कमला से मिलवाया जाता है। मुझे हिदायत दी जाती है कि मैं उसे बिना साथ लिये अपनी झिल्ली से पांच फीट दूर भी न जाऊं। क्योंकि अंधेरे में कोई भी रास्ता भूल कर गुम हो सकता है। (मैं उसे जगाती ही नहीं, बिल्कुल लट्ठ की तरह पड़ी रहती हूं)। सुबह कमला मुझे पॉलीथिन का बना एक पीला पैकेट देती है, जिसका एक कोना फटा हुआ था। यह अबिस गोल्ड रिफाइंड सोया तेल का पैकेट था, जो अब शौच में मेरे मग के रूप में काम आने वाला था। क्रांति की राह में कुछ भी बरबाद नहीं जाता।

(अब भी कॉमरेड कमला के बारे में मैं लगातार, रोजाना सोचती रहती हूं। वह सतरह बरस की है। उसके पीछे एक देसी पिस्तौल लटकी रहती है। और उसकी मुस्कान तो गजब है। फिर भी अगर पुलिस से कभी सामना हो गया, तो वे उसे मार डालेंगे। वे पहले शायद उसकी इज्जत लूटेंगे। उससे कोई सवाल नहीं किया जाएगा। क्योंकि वह ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा’ है।)

दंडकारण्य को अंग्रेज गोंडवाना कहते थे, यानी गोंडो की धरती। आज इस जंगल से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमाएं जुड़ती हैं। समस्याग्रस्त लोगों को अलग-अलग प्रशासनिक इकाइयों में बांटना तो पुरानी तरकीब है। लेकिन ये माओवादी और गोंड राजकीय सीमाओं जैसी चीजों पर बहुत ध्यान नहीं देते। उनके दिमाग में तो अलग नक्शा चल रहा होता है। और जंगल के जीवों की तरह उनके रास्ते भी अलग होते हैं। इनके लिए सड़कें चलने के लिए नहीं बनीं। वे तो सिर्फ पार करने के लिए हैं, और धीरे-धीरे ऐसा चलन बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि वहां सेना तैनात होती है। कोया ओर दोरला जनजातियों में बंटे गोंड यहां बहुसंख्य हैं, हालांकि दूसरे आदिवासी समुदायों की भी यहां रिहाइश है। गैर-आदिवासी बसावट सिर्फ जंगलों के किनारे सड़कों और बाजारों के पास है।

पीडब्ल्यूजी के लोग दंडकारण्य में आने वाले पहले प्रचारक नहीं थे। प्रसिद्ध गांधीवादी बाबा आम्टे ने 1975 में वरोरा में कुष्ठ आश्रम और अस्पताल खोला था। अबूझमाड़ के सुदूर गांवों में रामकृष्ण मिशन ने ग्रामीण स्कूल खोलने शुरू किये थे। उत्तरी बस्तर में बाबा बिहारी दास ने ‘आदिवासियों को वापस हिंदू बनाने’ के लिए एक आक्रामक अभियान शुरू किया था, जिसके तहत आदिवासी संस्कृति को नष्ट कर उनमें हिंदू धर्म की सबसे बड़ी नेमत जाति को उनके भीतर प्रवेश कराया जाना था। शुरू में जिन्होंने धर्म बदला – गांवों के मुखिया और बड़े जमींदार – सलवा जुड़ुम के संस्थापक महेंद्र कर्मा जैसे लोग, उन्हें द्विज ब्राह्मण की उपाधि दी गयी। (जाहिर तौर पर यह एक घपला ही था, क्योंकि कोई भी ब्राह्मण नहीं बन सकता। ऐसा ही होता तो हम अब तक ब्राह्मणों के देश बन चुके होते)। लेकिन इस नकली हिंदूवाद को आदिवासियों के लिए पर्याप्त माना जाता है, ठीक वैसे ही जैसे हर नकली चीज – बिस्कुट, साबुन, माचिस और तेल – जो गांवों के बाजारों में मिलती है। हिंदुत्व के इस अभियान ने भूमि रिकॉर्ड में गांवों के नामों को बदल दिया। अब इन गांवों के दो नाम हैं, एक जनता का दिया नाम और दूसरा सरकारी नाम। मसलन, इन्नार गांव को चिन्नारी बना दिया गया। मतदाता सूची में आदिवासियों के नाम बदल कर हिंदू नाम बना दिये गये। (मासा कर्मा बन गये महेंद्र कर्मा)। जिन्होंने हिंदू बनना स्वीकार नहीं किया, उन्हें ‘कटवा’ कह दिया गया (यानी अछूत), जो बाद में माओवादियों के स्वाभाविक समर्थक बन गये।

पीडब्ल्यूजी ने अपना काम सबसे पहले दक्षिणी बस्तर और गढ़चिरौली में शुरू किया। कॉमरेड वेणु उन शुरुआती महीनों के बारे में विस्तार से बताते हैं : कि गांव वाले कैसे उनसे भय खाते थे और अपने घरों में इन्हें घुसने नहीं देते। कोई उन्हें खाना-पानी नहीं देता। पुलिस ने अफवाह फैला दी थी कि वे चोर हैं। डर कर महिलाओं ने अपने जेवर लकड़ी के चूल्हे की राख में छुपा दिये। बड़े पैमाने पर इनका दमन किया गया। नवंबर 1980 में पुलिस ने गढ़चिरौली में एक गांव की सभा पर गोलीबारी की, जिसमें तकरीबन समूचा स्क्वाड ही मारा गया। यह दंडकारण्य की पहली ‘फर्जी मुठभेड़’ थी। यह बहुत बड़ा झटका था जिसके चलते कॉमरेड गोदावरी के उस पार अदीलाबाद लौट गये। लेकिन 1981 में वे फिर लौटे। उन्होंने इस बार आदिवासियों को तेंदू पत्ता के दाम बढ़ाने के मुद्दे पर संगठित करना शुरू किया। उस वक्त व्यापारी 50 पत्तों के एक बंडल का तीन पैसा देते थे। इस किस्म की राजनीति से बिल्कुल अनजान लोगों को इस मुद्दे पर संगठित कर के हड़ताल आयोजित करवाना अपने आप में एक बड़ा काम था। आखिरकार हड़ताल कामयाब हुई और मजदूरी को बढ़ा कर छह पैसे बंडल कर दिया गया। लेकिन पार्टी की असली कामयाबी एकता की ताकत का प्रदर्शन था कि कैसे राजनीतिक सौदेबाजी करने का यह एक नया तरीका हो सकता है। आज तमाम हड़तालों और प्रदर्शनों के सिलसिले के बाद एक बंडल की मजदूरी एक रुपया मिलती है। (मौजूदा दरों पर इसकी संभावना कम ही लगती है, लेकिन तेंदू पत्तों का कारोबार सैंकड़ों करोड़ रुपये का होता है)। हर सीजन में सरकार ठेके देती है और ठेकेदारों को एक निश्चित मात्रा में तेंदू पत्ता इकट्ठा करने की मंजूरी देती है – जो 1500 से 5000 मानक बोरे के बीच हो सकती है। हर मानक बोरे में करीब 1000 बंडल होते हैं (यह पता करने का कोई तरीका नहीं कि ठेकेदार इससे ज्यादा बंडल न निकालते हों)। बाजार में आते ही तेंदू पत्ता किलो में बिकने लगता है। बंडल को मानक बोरों और फिर किलो में बदलने वाले गणित पर पूरी तरह ठेकेदारों का नियंत्रण होता है और उनके पास इसमें हेर-फेर करने की पर्याप्त गुंजाइश रहती है। मामूली आकलन के हिसाब से भी एक ठेकेदार के पास हर मानक बोरे पर 1100 रुपये बचते हैं, वो भी पार्टी को हर बोरे पर 120 रुपये का कमीशन देने के बाद। इस हिसाब से एक छोटा ठेकेदार (1500 बोरे) एक सीजन में करीब 16 लाख रुपये बना लेता है और बड़ा ठेकेदार (5000 बोरे) कम से कम 55 लाख रुपये। वास्तविक राशि इसकी कई गुना हो सकती है। इस पूरे कारोबार में ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक’ लोगों को सिर्फ इतना मिल पाता है कि वे अगले सीजन तक जिंदा रह सकें।

अचानक इस बातचीत में सबकी हंसी से खलल पड़ता है। पीएलजीए का एक कॉमरेड निलेश काफी तेजी से खाना पकाने वाली जगह की ओर दौड़ता हुआ आ रहा था। वह रह-रह कर खुद को मार भी रहा था। वह पास आया तो मैंने देखा कि उसके ऊपर लाल चींटियों का पत्ते वाला एक घोंसला था। चींटियां उसके पूरे शरीर पर रेंग गयी थीं और हाथ व गले में काट रही थीं। निलेश खुद भी हंस रहा था। कॉमरेड वेणु ने पूछा, ‘क्या आपने कभी चींटियों की चटनी खायी है?’ मैं लाल चीटियों से खूब वाकिफ हूं, केरल में बीते अपने बचपन से ही। उन्होंने मुझे काटा भी है, लेकिन मैंने कभी उन्हें चखा नहीं।

निलेश बीजापुर से है, जो सलवा जुड़ुम का केंद्र है। उसका छोटा भाई सलवा जुड़ुम में चला गया। उसे एसपीओ बना दिया गया है। वह अपनी मां के साथ बसागुड़ा कैंप में रहता है। उसके पिता ने साथ जाने से मना कर दिया। वह गांव में ही रुक गये। बाद में जब मुझे निलेश से बात करने का मौका मिला, तो मैंने पूछा कि उसका भाई सलवा जुड़ुम के साथ क्यों चला गया।

‘वह बहुत छोटा था। उसे लोगों को लूटने और घरों को जलाने का जब मौका मिला तो उसे बहुत मजा आने लगा। वह सनक गया। अब वह फंस चुका है। वह कभी गांव वापस नहीं आ सकता। उसे माफ नहीं किया जाएगा। और यह बात वह जानता है।’

हम इतिहास के अपने सबक पर लौट आये। कॉमरेड वेणु ने बताया कि पार्टी का अगला बड़ा संघर्ष बल्लारपुर पेपर मिल्स के खिलाफ था। सरकार ने थापर कंपनी को काफी रियायती दरों पर 1.5 लाख टन बांस निकालने का ठेका 45 साल के लिए दे दिया था (बॉक्साइट की तुलना में यह छोटा धंधा है, फिर भी इस इलाके में पर्याप्त है)। आदिवासियों को एक बंडल के लिए 10 पैसे मिल रहे थे – एक बंडल में बांस के 20 तने होते हैं (थापर इससे कितना मुनाफा कमा रहा था, यह बताने के लोभ में मैं नहीं पड़ना चाहती)। लंबे समय तक चले आंदोलन, हड़ताल, फिर पेपर मिल के अधिकारियों के साथ सबके सामने खुली बातचीत के बाद दाम को बढ़ा कर तीस पैसे कर दिया गया। आदिवासियों के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी। दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने वादे तो किये थे, लेकिन पूरे करने के कोई संकेत नहीं दिये। इसके बाद लोग पीडब्ल्यूजी के पास उसमें शामिल होने के लिए आने लगे।

सात स्क्वाड की टीम ने काफी लंबा रास्ता अब तय कर लिया था। इसका प्रभाव अब 60,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र, हजारों गांवों और लाखों लोगों के बीच था।

लेकिन वन विभाग का खात्मा पुलिस के आने का सबब बन गया था। अब खून-खराबे का सिलसिला चल निकला। पुलिस की फर्जी मुठभेड़, पीडब्ल्यूजी का घेराव। जमीन के पुनर्वितरण के बाद दूसरी जिम्मेदारियां भी आ गयीं : सिंचाई, खेती की पैदावार और आबादी बढ़ने की समस्या, जिसके चलते जंगल भूमि साफ होती जा रही थी। इसके बाद ‘जन कार्रवाई’ और ‘सैन्य कार्रवाई’ को अलग करने का फैसला लिया गया।

लोहंडीगुड़ा, जहां महज पांच घंटे में गाड़ी चला कर दंतेवाड़ा से पहुंचा जा सकता है, कभी भी नक्सली इलाका नहीं था। लेकिन आज है। कॉमरेड जूरी उसी इलाके में काम करती है। मैं चींटियों की चटनी खा रही थी, तब वह मेरे बगल में ही बैठी थी। वह बताती है कि उन्होंने वहां तब जाने का फैसला किया, जब गांवों की दीवारों पर लोग रंगने लगे, नक्सली आओ, हमें बचाओ। कुछ ही महीने पहले ग्राम पंचायत अध्यक्ष विमल मेश्राम को सरे बाजार गोली मार दी गयी थी। जूरी कहती है, ‘वह टाटा का आदमी था। वह लोगों पर जमीन देकर मुआवजा लेने का जबरन दबाव बना रहा था। ठीक ही हुआ कि वह खत्म हो गया। हमारा भी एक कॉमरेड हालांकि चला गया। उन्होंने उसे गोली मार दी। आप और चपोली लेंगी?’ वह सिर्फ 20 बरस की है। ‘हम टाटा को वहां नहीं आने देंगे। लोग नहीं चाहते कि वे आएं।’ जूरी पीएलजीए की नहीं है। वह पार्टी की सांस्कृतिक इकाई चेतना नाट्य मंच में है। वह गाती है। गीत भी लिखती है। अबूझमाड़ की रहने वाली है। (उसने कॉमरेड माधव से ब्याह किया है। माधव जब मंच की टुकड़ी के साथ गाते हुए उसके गांव आये थे, तो उसे उनसे प्रेम हो गया था)।

मुझे लगा कि अब कुछ कहना चाहिए। हिंसा की व्यर्थता के बारे में, या फिर जान से मार देने के संक्षिप्त फैसलों पर। लेकिन मैं उन्हें क्या करने को कहती? कि वे अदालत में जाएं? या दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना करें? रैली निकालें? या फिर आमरण अनशन पर बैठ जाएं? अजीब हास्यास्पद बात होती। नयी आर्थिक नीति के प्रचारकों से – जिनके लिए यह कहना काफी आसान होता है कि ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव’ – पूछा जाना चाहिए कि वे एक वैकल्पिक प्रतिरोध नीति भी सुझाएं। बिल्कुल इन लोगों के हिसाब से, जो इस जंगल के हिसाब से फिट बैठती हो। अभी, इसी वक्त। आखिर ये लोग किस पार्टी को वोट दें? इस देश की किस लोकतांत्रिक संस्था के पास ये गुहार लगाएं? आखिर ऐसा कौन सा दरवाजा बचा है, जो नर्मदा बचाओ आंदोलन ने बड़े बांधों के खिलाफ अपने बरसों से चल रहे संघर्ष के दौरान न खटखटाया हो?

अब अंधेरा हो चुका था। कैंप में काफी चहल-पहल थी, लेकिन मैं कुछ नहीं देख पा रही थी। बस कुछ प्रकाश बिंदु हरकत करते से दिख रहे थे। कह पाना मुश्किल है कि वे तारे थे, पतंगे या फिर माओवादी। अचानक नन्हा मंगतू प्रकट होता है। मुझे पता चलता है कि वह यंग कम्युनिस्ट्स मोबाइल स्कूल की पहली पीढ़ी का सदस्य है, जिन्हें साम्यवाद के बुनियादी सिद्धांतों को पढ़ना, लिखना और समझना सिखाया जा रहा है (जिसको लेकर हमारा कॉरपोरेट मीडिया भौंकता रहता है, ‘युवा मस्तिष्कों का सैद्धांतीकरण’। जो टीवी विज्ञापन बच्चों के कुछ सोचने-समझने के काबिल होने से पहले ही उनका ब्रेनवॉश कर देते हैं, उसे सैद्धांतीकरण के रूप में नहीं देखा जाता)। किशोर कम्युनिस्टों को न तो बंदूक रखने दी जाती है और न ही वर्दी पहननी होती है। लेकिन वे पीएलजीए के दस्तों के साथ अपनी आंखों में तारों की चमक लिये बिल्कुल किसी रॉक बैंड की तरह चलते रहते हैं।

हमारे चलने से पहले कॉमरेड वेणु पास आते हैं, ‘तो ठीक है कॉमरेड, मैं इजाजत चाहूंगा।’ मुझे एकबारगी झटका लगता है। एक गर्म टोपी और चप्पलों में वह एक छोटे से कीड़े की भांति लग रहे थे, अपने तीन महिला और तीन पुरुष गार्डों से घिरे हुए। सभी हथियारों से लैस थे। उन्होंने कहा, ‘कॉमरेड हम आपके बहुत आभारी हैं कि आप इतनी दूर से यहां तक आयीं।’ एक बार फिर हम हाथ मिलाते हैं और भिंची मुट्ठियां लहराती हैं, ‘कॉमरेड, लाल सलाम।’ वह जंगलों में कहीं गुम हो जाते हैं। उनके पास इन जंगलों की चाबी है। एक पल में ऐसा लगता है कि जैसे वे यहां कभी थे ही नहीं। मैं कुछ देर के लिए असहाय सी हो गयी थी, लेकिन मेरे पास सुनने के लिए उनकी घंटों की रिकॉर्डिंग है। और जैसे-जैसे ये दिन हफ्तों में बदलते जाएंगे, मैं ऐसे तमाम लोगों से मिलूंगी जो उस खांचे में रंग और शब्द भरेंगे जो उन्होंने मेरे लिए बनाया है। अब हम उल्टी दिशा में चलने लगे। कॉमरेड राजू, जिनके शरीर से एक मील दूर से ही आयोडेक्स महक रहा था, मुस्कुरा कर कहते हैं, ‘मेरे घुटने तो गये। अब तो मैं मुट्ठी भर पेनकिलर लेकर ही चल पाऊंगा।’

कॉमरेड राजू बिल्कुल सही हिंदी बोलते हैं और मनोरंजक किस्से एकदम मारक तरीके से सुनाते हैं। वे रायपुर में 18 साल तक वकालत कर चुके हैं। वह और उनकी पत्नी दोनों ही पार्टी में थे और पार्टी के शहरी नेटवर्क का हिस्सा थे। 2007 के अंत में रायपुर नेटवर्क का एक अहम व्यक्ति गिरफ्तार हो गया, उसे प्रताड़ित किया गया और अंत में मुखबिर बना दिया गया। उसे पुलिस ने एक बंद वाहन में बैठाकर रायपुर का चक्कर लगवाया और पुराने साथियों की निशानदेही करने को कहा। कॉमरेड मालती इन्हीं में से एक थीं। 22 जनवरी 2008 को उन्हें कई अन्य के साथ गिरफ्तार किया गया। उनके खिलाफ आरोप है कि उन्होंने सलवा जुडुम में किये गये अत्याचार के वीडियो वाली सीडी कई सांसदों को भेजी थी। उनका मामला कभी-कभार ही सुनवाई के लिए आता है क्योंकि पुलिस जानती है कि मुकदमा कमजोर है। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम के तहत पुलिस के पास उन्हें बगैर जमानत के बरसों तक अंदर रखने की छूट मिली हुई है। कॉमरेड राजू कहते हैं, ‘अब सरकार ने छत्तीसगढ़ पुलिस की तमाम टुकड़ियां तैनात कर दी हैं ताकि बेचारे सांसदों की उन्हें भेजी गयी चिट्ठियों से सुरक्षा की जा सके।’ वह नहीं पकड़ा गया क्योंकि उस वक्त वह एक बैठक में दंडकारण्य आया हुआ था। तब से वह यहीं है। उसके दो छोटे बच्चे जो घर पर अकेले रह गये थे, पुलिस ने उनसे बहुत पूछताछ की। आखिरकार, ये बच्चे एक अंकल के साथ रहने चले गये और समूची गृहस्थी ही उठ गयी। कॉमरेड राजू को कुछ ही हफ्तों पहले पहली बार अपने बच्चों की खबर मिली। आखिर, उनके पास अपनी हंसी को बचाये रखने की ताकत और क्षमता कहां से आती है? जितना इन्होंने झेला है, उसके बाद भी ये क्यों लगातार आगे बढ़ पा रहे हैं? जाहिर है, पार्टी के लिए उनका प्यार, आस्था और एक उम्मीद इसके पीछे है। मेरा बार-बार तमाम निजी तरीकों से और कहीं ज्यादा गहराई में इस तथ्य से साक्षात्कार होता है।

अब हम सब एक साथ चल रहे हैं जहां मैं हूं और साथ हैं एक सौ ‘विवेकहीन रूप से हिंसक’ खून के प्यासे अतिवादी। कैंप छोड़ने से पहले मैंने एक नजर चारों ओर देखा था। एक भी निशान नहीं था इस बात का कि यहां करीब सौ लोगों ने डेरा डाला था, सिवाय राख के जहां आग जलायी गयी थी। मुझे इस सेना पर सहज भरोसा नहीं होता। जहां तक उपभोग का सवाल है, यह किसी भी गांधीवादी से ज्यादा गांधीवादी हैं और जलवायु परिवर्तन पर उपदेश देने वालों के मुकाबले कार्बन उत्सर्जन के मामले में सबसे आदर्श। लेकिन, फिलहाल तो विनाशकारी कामों में भी यह गांधीवादी रणनीति ही अपनाती है। मसलन, किसी पुलिस वाहन को जलाने से पहले उसके एक-एक हिस्से को तोड़ कर अलग कर लिया जाता है। स्टीयरिंग को सीधा करके भरमार बना ली जाती है, रेक्सीन को फाड़ कर हथियार रखने वाला पाउच और बैटरी को सोलर चार्जिंग में इस्तेमाल किया जाता है (अब हाईकमान से निर्देश आये हैं कि कब्जाये गये वाहनों को जलाया न जाए बल्कि दफना दिया जाए, ताकि जब जरूरत पड़े उन्हें दुरुस्त किया जा सके)।

अब हम घुप्प अंधेरे और मुर्दा शांति में चले जा रहे हैं। अकेली मैं हूं जो टॉर्च का इस्तेमाल कर रही हूं, वह भी नीचे की ओर ताकि हद से हद उसकी रोशनी में मुझे कॉमरेड कमला के पैर दिखते रह सकें और मैं जान सकूं कि मुझे कहां कदम रखना है। वह मुझसे 10 गुना ज्यादा वजन उठा रही है। अपना बैकपैक, राइफल, सिर पर रसद का एक भारी बैग, खाना पकाने वाला एक बर्तन और दोनों कंधों पर सब्जियों से भरे हुए झोले। उसके सिर पर रखा बैग जबरदस्त तरीके से संतुलित है और वह उन्हें बगैर हाथ लगाये ढलानों और फिसलनदार पथरीले रास्तों पर उतर सकती है। यह एक चमत्कार है। हम काफी लंबा चल चुके हैं। मैं इतिहास के अपने सबक की आभारी हूं क्योंकि उन तमाम चीजों के अलावा जो उससे मुझे मिलीं, कम से कम पूरे एक दिन मेरे पैरों को पूरा आराम मिला। जंगल में रात में पैदल चलना शायद सबसे खूबसूरत चीज है।

और अब मैं हर रात यही करने जा रही हूं।

नया दिन। नयी जगह। महुआ के विशाल पेड़ों तले उसिर गांव के बाहरी इलाके में हमने कैंप किया है। महुआ में अभी-अभी फूल आने शुरू हुए हैं और जंगल की छाती पर उसके मटमैले हरे ये फूल गहनों की तरह चू रहे हैं। हवा में इसकी मादकता घुली हुई है, जो सिर पर चढ़ रही है। हम भाटपाल स्कूल के बच्चों का इंतजार कर रहे हैं। ओंगनार की मुठभेड़ के बाद इसे बंद कर दिया गया था और अब यह पुलिस कैंप बन चुका है। बच्चों को घर भेज दिया गया। यही हाल नेलवाड़, मूंजमेट्टा, एडका, वेदोमकोट और धनोरा का है।

भाटपाल स्कूल के बच्चे नहीं आते।

मोस्ट वांटेड कॉमरेड नीति और कॉमरेड विनोद हमें एक लंबी सैर पर ले जाते हैं, जहां वे हमें स्थानीय जनताना सरकार द्वारा बनाये गये जल संग्रहण के ढांचे और सिंचाई तालाब दिखाते हैं। कॉमरेड नीति तमाम कृषि समस्याओं के बारे में बताती हैं। यहां सिर्फ दो फीसदी जमीन सिंचित है। दस साल पहले तक तो अबूझमाड़ में जुताई के बारे में सुना तक नहीं गया था। दूसरी ओर, गढ़चिरौली में संकर बीज और रासायनिक कीटनाशक तक घुस आये हैं।

कॉमरेड विनोद कहते हैं, ‘हमें अपने कृषि विभाग में तत्काल मदद की जरूरत है। हमें ऐसे लोग चाहिए जो बीज, जैविक खाद आदि के बारे में जानते हों। जरा सी मदद से हम बहुत कुछ कर ले जाएंगे।’

जनताना सरकार के इस इलाके के प्रमुख किसान हैं, कॉमरेड रामू। वह काफी गर्व से अपने खेत दिखाते हैं, जहां चावल, बैंगन, गोंगुरा, प्याज, कोलराबी उगाये गये हैं। इसके बाद उतने ही गर्व से वह हमें बहुत विशाल, लेकिन पूरी तरह सूखा हुआ एक सिंचाई तालाब दिखाते हैं। ये क्या है? ‘इसमें बरसात में भी पानी नहीं होता। दरअसल, यह गलत जगह खोदा गया है।’ यह कहते ही उसके चेहरे पर मुस्कान आ जाती है, ‘यह हमारा नहीं है, इसे लूटी सरकार ने खोदा है।’ यहां दो समानांतर सरकारें हैं। जनताना सरकार और लूटी सरकार यानी लुटेरों की सरकार। मुझे कॉमरेड वेणु याद आते हैं : वे हमें सिर्फ इसलिए नहीं कुचलना चाहते कि उन्हें खनिज चाहिए, बल्कि इसलिए कि हम दुनिया को एक वैकल्पिक मॉडल दे रहे हैं।

हालांकि अब तक यह कायदे से विकल्प नहीं बन सका है – बंदूक के साथ ग्राम स्वराज का विचार। यहां जबरदस्त भुखमरी है, ढेरों बीमारियां हैं। इसके बावजूद इसने विकल्प की संभावनाएं तो पैदा की ही हैं। पूरी दुनिया के लिए नहीं, न अलास्का के लिए, न ही नयी दिल्ली के लिए और शायद समूचे छत्तीसगढ़ के लिए भी नहीं – सिर्फ अपने लिए। दंडकारण्य के लिए। और यह दुनिया का सबसे गूढ़ और गोपनीय रहस्य है। इसने अपने विनाश के एक विकल्प की नींव रखी है। इसने इतिहास को झुठलाया है। तमाम कठिनाइयों के बावजूद इसने अपने वजूद का एक खाका तैयार कर ही लिया। और आज इसे जरूरत है सहयोग की। इस जगह को डॉक्टर चाहिए, शिक्षक चाहिए, किसान चाहिए।

यहां युद्ध नहीं चाहिए।

लेकिन अगर इसे इन सबकी जगह सिर्फ युद्ध मिलता है, तो यह पलट कर मारेगा।

अगले कुछ दिनों के दौरान मेरी मुलाकात केएएमएस के नेताओं से होती है। जनताना सरकार के कई पदाधिकारी, दंडकारण्य आदिवासी किसान-मजदूर संगठन के सदस्यों समेत मैं मारे गये लोगों के परिवारों से भी मिलती हूं। और उन आम लोगों से भी, जो इतने भीषण समय में जीवन को संभालने की जद्दोजहद में लगे हैं।

इस शांत से दिखने वाले जंगल में जीवन का पूरी तरह सैन्यकरण हो चुका है। लोगों को कॉर्डन एंड सर्च, फायरिंग, एडवांस, रिट्रीट, एक्शन जैसे शब्द आते हैं। अपनी फसले काटने के लिए उन्हें पीएलजीए की जरूरत पड़ती है ताकि उसका संतरी गश्त दे सके। बाजार तक जाना तो एक फौजी कार्रवाई जैसा है। सारे बाजार मुखबिरों से भरे हुए हैं जिन्हें पुलिस ने पैसा देकर खरीद लिया है। मुझे बताया जाता है कि नारायणपुर में तो एक ‘मुखबिर मोहल्ला’ ही है, जहां कम से कम 4000 मुखबिर रहते हैं। आदमी तो खैर अब बाजार जा ही नहीं पाते। महिलाएं जाती हैं, लेकिन उन पर कड़ी नजर रहती है। वे जरा सा भी ज्यादा खरीदारी कर लें, तो पुलिस तुरंत आरोप लगाती है कि वे नक्सलियों के लिए खरीद रही हैं। दवा की दुकानों को साफ निर्देश है कि लोगों को बेहद कम मात्रा में दवाइयां दी जाएं। जन वितरण प्रणाली के तहत राशन की चीनी, चावल और मिट्टी का तेल पुलिस स्टेशनों के आसपास या उनके भीतर भंडारित किया जाता है, जिससे उसे खरीदना लोगों के लिए तकरीबन असंभव होता है।

आखिरी रात हम एक खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ के नीचे रुके। सवेरे हमें इसे पार कर सड़क पर निकलना था, जहां से एक मोटरसाइकिल मुझे ले जाएगी। पहली बार जब मैं इस जंगल में घुसी थी, तब से लेकर अब तक यह जंगल बदल चुका है। अब चिरौंजी, कपास और आम में बौर आने लगे हैं।

कुडुर गांव के लोगों ने हमारे लिए कैंप में ताजा पकड़ी हुई मछली से भरा एक बड़ा सा मटका भिजवाया है। और साथ में मेरे लिए उन 71 किस्म के फलों, सब्जियों, दालों और कीड़ों के नामों और उनके बाजार दाम की एक सूची भी, जो उन्हें जंगल में मिलते हैं या जिन्हें वे उगाते हैं। यह सिर्फ एक सूची है, लेकिन यह एक दुनिया का नक्शा भी है।

हम जंगल पोस्ट तक पहुंचते हैं। फिर से दो बिस्कुट! कॉमरेड नर्मदा की ओर से एक कविता और एक पिचका हुआ फूल मुझे भेंट किया जाता है! और एक प्यारा-सा खत मासे की ओर से (कौन है वह? क्या मैं कभी जान पाऊंगी?)।

कॉमरेड सुखदेव पूछते हैं कि क्या वह मेरे आइपॉड में से एक गीत अपने कंप्‍यूटर में डाल सकते हैं। हम सुनते हैं, फैज अहमद फैज का लिखा शेर, इकबाल बानो की आवाज में, जो उन्होंने जिया-उल-हक की जुल्मतों के चरम दौर में लाहौर के एक मशहूर कंसर्ट में गाया था -

जब अहल-ए-सफ़ा-मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाये जाएंगे सब ताज उछाले जाएंगे सब तख्त गिराये जाएंगे हम देखेंगे।

पाकिस्तान में इस गीत को सुनने वाले पचास हजार श्रोताओं के मुंह से इसके बाद बस एक ही आवाज निकली थी : इंकलाब जिंदाबाद! इंकलाब जिंदाबाद!

इतने सालों बाद यही नारा इस जंगल में गूंज रहा है। अजीब बात है। रिश्ते भी कैसे-कैसे बन जाते हैं।

(यह लेख आउटलुक अंग्रेजी में छपे अरुंधति रॉय के लेख वॉकिंग विद द कॉमरेड्स का संपादित और अनूदित अंश है। इसका अनुवाद युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है।)

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25 मार्च 2010

क्या जो घर्म निरपेक्ष होगा वो लोकतांत्रिक भी होगा?


अनिल चमडिया

जब दिल्ली स्थित आल इंडिया इंस्टीच्यूट ऑफ मेडिकल साइंस ( एम्स) मंडल-दो विरोधी आंदोलन का केन्द्र बना हुआ था उस समय उसके निदेशक डा. के वेणुगोपाल थे। एम्स के आरक्षण विरोधी आंदोलन का केन्द्र बनाने में हृदय रोग विशेषज्ञ डा. वेणुगोपाल की महत्वपूर्ण भूमिका थी। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किसी की जिस भूमिका को लेकर कोई कुछ कहना चाहता हो तो उस भूमिका पर बात करने के बजाय उस व्यक्ति या संस्था की किसी दूसरी भूमिका को सामने रख दिया जाता है। डा. वेणुगोपाल देश ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर के हृदय (अपनी ओर से- मनुष्य के ) विशेषज्ञ है।लेकिन उनकी आरक्षण विरोधी भूमिका को सुनने को कई लोग तैयार नहीं थे। कहा जाने लगता कि ये देश की एक निधि हैं। जबकि उनकी डाक्टरी की अलोचना नहीं की जा रही थी बल्कि बतौर एम्स निदेशक उनकी जातिवादी मानसिकता और आरक्षण विरोधी भूमिका को लेकर बातचीत करने की कोशिश की जा रही थी।

ऐसा नहीं है कि जो लोग ऐसा करते है वे समझते नहीं हैं। जिन्हें आरक्षण विरोध से चिंता नहीं थी वे डा. वेणुगोपाल की बेहतरीन डाक्टरी का रास्ता दिखाने में लगे थे। सबसे अच्छा तरीका होता है कि जिस विशेषण पर हमला हो उसकी शक्ल बदल दी जाए ताकि अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हितों को सुरक्षित रखा जा सके। मुख्य बात अपने हितों की सुरक्षा ही होती है। जैसे अटल बिहारी बाजपेयी ईमानदार है भारतीय राजनीति का ये सबसे ज्यादा प्रचारित विशेषण हैं। क्या कोई साम्प्रदायिक पैसे कौड़ी के मामले में ईमानदार नहीं हो सकता या इसके उलट कहा जाए कि क्या कोई ईमानदार साम्प्रदायिक नहीं हो सकता है?

हिटलर तानाशाह था ये तो हम सब जानते है लेकिन हो सकता है कि वह स्वीस बैंक में पैसे जमा करने की योजना को अनैतिक मानता हो। इसी तरह क्या कोई धर्म निरपेक्ष पैसे कौड़ी के मामले में बेईमान नहीं हो सकता है और क्या कोई बेईमान धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता है? क्या कोई धर्मनिरपेक्षता का विशेषण धारण करने वाला जातिवादी नहीं हो सकता है? अपने समाज में बुनियादी तौर पर वैचारिक घटना के रूप में जो कुछ घटित हो रहा है उसे बतौर घटना सतह पर आने से ही रोक दिया गया है। इसकी वजह से वैचारिक स्तर पर भ्रम की स्थिति बनी हुई है।दरअसल ये स्थितियों के भ्रामक बनाने की सबसे कारगर कवायद होती है।

अपने समाज में एक विशेषण से कई विशेषणों को कमवा देने की संस्कृति विकसित की गई है। किसी भी स्थिति, इसमें संगठन, व्यक्ति आदि सभी आते हैं, का मूल्यांकन करने और उसे ठीक ठीक सूत्रबद्ध करने की पद्धति में ही गड़बड़ी पैदा कर दी जाए तो जाहिर है कि स्थिति को दुरूस्त करने या बदलने की कोई कवायद सफल नहीं हो सकती है। इस काम को हमारे शासक वर्ग ने बड़ी साफगोई से पूरा किया है। लोगों में एक आदत या कहें कि एक संस्कृति विकसित कर दी है कि वे किसी को दिए जाने वाले एक विशेषण में कई कई विशेषण जोड़ लें।

जैसे किसी पुलिस अधिकारी ने अपने प्रशासनिक दायित्वों के तहत किसी बलवे वाज या साम्प्रदायिक व्यक्ति को गिरफ्तार किया तो उसे मान लिया जाए कि वह धर्म निरपेक्ष है? वह घर्म निरपेक्ष होगा तो लोकतांत्रिक भी होगा। वह ईमानदार भी होगा। इसका एक खतरा ये होता है कि वह इन सबकी आड़ में अपने पुलिसिया चरित्र को छिपा लेता है जिसकी वास्तव में दमनकारी मशीनरी के रूप पहचान बनी हुई हैं। वह धर्मनिरपेक्षता की आड़ में कितनी और किस किस्म की बेईमानी करता है और किस हद तक वह लोकतंत्र के खिलाफ कार्रवाईयों को अंजाम देता है ये दर्ज ही नहीं हो पाती है। आखिर हम किसी भी विशेषण का स्वतंत्र अस्तित्व बने रहने देने में क्यों घबराते हैं ? क्या हमें किसी को भी देवता बना देने की आदत लगी हुई है ? और जब तक किसी के साथ कई कई विशेषण नहीं लगा दिए जाते हैं तब तक वह देवता कैसे बन सकता है?

एक गंभीर वैचारिक- सांस्कृतिक संकट है। यदि भक्तों की भाषा में बात की जाए तो उसने ढेर सारे नकली देवता खड़े कर दिए हैं। लेकिन बात केवल विशेषणों तक ही नहीं है। जब हमने इसे एक संस्कृति के रूप में यहां व्यक्त किया है तो वह वास्तव में एक संस्कृति के रूप में ही है और वह वास्तविक अर्थों या अपनी भाषा में कहें तो असलियत को छिपाने की पद्दति के रूप में दिखाई देती है। जैसे हमारे समाज में डिग्रीधारी लोगों को पढ़ा लिखा माना जाता है। इसमें समझदारी का भाव भी शामिल होता है और आधुनिक होने का भी भाव होता है। लेकिन ऐसा पढ़ा लिखा व्यक्ति जातिवादी भी होता है। दहेजखोर भी होता है। पुरूष-वेश्या भी होता है। अलोकतांत्रिक भी होता है। बेईमान भी होता है।

क्या साम्प्रदायिक होना आधुनिकता है? क्या पुरूष वेश्या होना आधुनिकता है? सामंतवाद के दौर के औरतखोर का ही तो ये रूप है? डाक्टर, इंजीनियर मध्ययुग के आसपास खड़े दिखाई देते हैं। हुआ ये है कि आधुनिक तकनीक के प्रशिक्षणर्थियों को हमने शिक्षाविद् और विद्वान मान लिया है। आधुनिकता का संबंध टाई, कोर्ट, जिंस और अंग्रेजी बोलने से नहीं है। आधुनिकता का सीधा संबंध विचारों से है। विचारों की कसौटी पर ही आधुनिकता परिभाषित होती है। लेकिन अपने आसपास ठहर कर देखे कि कैसे आधुनिकता का दर्जा पाने वाला हिस्सा बर्बर विचारों के साथ खड़ा है। जिन्हें देखकर सीधे मध्ययुग के इतिहास के पन्ने लड़खड़ाते दिखने लगते हैं। वास्तव में शिक्षा के दर्शन को ही विस्थापित कर दिया गया है। लेकिन हमें जरा सी सोचने की फूर्सत होती तो हम सोचते कि जब मनुष्य को संसाधन में तब्दील कर दिया गया है तो वह शिक्षा का कैसे हकदार बने रह सकता है?

आमतौर पर प्रशिक्षण को ही शिक्षा मान लिया गया है। प्रशिक्षण क्या होता है इससे जुड़े किस्से सुनाता हूं। एक बार संसद भवन में एम एस गिल का इंटरव्यू करना था। संसद में जाने का लेखक के पास स्थायी पत्र था। लेकिन जेब में टेप रिकोर्डर लेकर जाना था। प्रशिक्षण प्राप्त सुरक्षाकर्मी ने कहा कि टेप के साथ नहीं जा सकते है। उसे जिरह करना चाहता था। उसे बताया कि टेप में क्या है? उसने कहा कि टेप अलाउ नहीं है। मैंने कहा कि टेप तो जेब में भी है। मोबाईल में टेप, कैमरे सब होते है। मोबाईल को ले जाने की मनाही तो नहीं है। लेकिन वह उस टेप के बारे में रट लगाता रहा कि यह अलाउ नहीं है। प्रशिक्षण तर्क नहीं सिखाता है। वह अनुसरण करना सिखाता है। प्रशिक्षण एक मानसिक परिधि तय कर देता है।

एक पुलिस अधिकारी को विश्वविद्यालय में शैक्षणिक-प्रशासनिक कार्य देखने की जिम्मेदारी मिली। उसके खुफिया ने बताया कि एक कमरे में हीटर जलता है। हीटर छात्र के कमरे में नहीं एक टीचर के कमरे में जल रहा था। छात्रावासों के लिए तो हीटर जलाने की मनाही थी। लेकिन उसके प्रशिक्षण में यही बात समाई हुई थी कि हीटर जलाना मना है। लेकिन हीटर जलने की घटना को भी एक ही रूप में देख पा रहा था। हीटर का मतलब उसके लिए पुराने किस्म का पचहत्तर सौ रूपये वाला गोल मोटल हीटर था। लेकिन मजेदार बात कि वहां सभी कमरे में हीटर जल रहे थे और उसे हीटर कहीं नहीं दिख रहा था। क्योंकि दूसरे कमरे में जलने वाले हीटर नये नये रूप धारण किए हुए थे। जिस हीटर में चाय बनती है उसे वह हीटर नहीं मानता था। क्योंकि एक तो उसके रूप के बदलने के साथ उसका नाम भी बदल गया था। दरअसल यही मानसिकता और उसका विकास बौद्धिकता के पर्याय के रूप में स्थापित हो गई है जो कि एक नये किस्म की सैनिकशाही मानसिकता का आधार बनी हुई है।

समाज के बौद्धिक विकास को अवरूद्ध करने का यह सबसे कारगर तरीका है कि नदी की वास्तविक धारा के बीच में एक नई ऐसी धारा निकल दी जाए कि वास्तविक धारा के रूकने का भान ही नहीं हो। भाषा वहीं हो लेकिन उसके अंतर्वस्तु वर्चस्ववादी संस्कृति के अनुरूप बदल जाए। हम इस बात पर गौर करें कि ये काम दो तरह से हुआ है। एक तो भाषा पुरानी लेकिन उसके अतंर्वस्तु को अपने अनुरूप शासकों ने ढाल लिया है।

दूसरा काम ये हुआ कि शब्दों के अर्थ सीमित कर दिए गए है। सांस्कृतिक विकास की यात्रा इस रूप में सुनिश्चत होती है कि एक शब्द के भीतर के कई कई अर्थों के लिए नये नये शब्द विकसित हो। एक शब्द के विभिन्न अर्थ निकल सकते हो। शब्दों से निकलनी वाली ध्वनियां उसके इस्तेमाल किए जाने वाली जगह के अनुरूप उसके अर्थ को व्यक्त कर दें।पर्यायवाची शब्दों का भंडार इसी तरह विकसित हुआ है। लेकिन अब उलट स्थिति हो गई है। एक शब्द के एक ही अर्थ का प्रशिक्षण दिया जाता है। पर्यायवाची की पौध की जड़ में ही नमक डाल दिया गया है। हम एक विशेषण के कई कई पर्यायवाची तैयार कर लेते हैं। शासकों ने इस संस्कृति को इस कदर विकसित कर दिया है कि हम अपने विशेषण भूल गए है। जागरूक है। चेतना संपन्न है। आदि आदि। शासक अपने प्रशिक्षण से हमें कैसे तैयार कर रहा है? हम भूमंडलीकरण के प्रशिक्षणार्थी नागरिक बन रहे हैं

17 मार्च 2010

सरकार की बढ़ती असुरक्षा

हमारी सरकार हमे सुरक्षित रखना चाहती है, यह कोई कल्याणकारी काम नहीं बल्कि वह अपनी जिम्मेदारी निभा रही है. इस सुरक्षित रखने की प्रक्रिया में एक व्यक्ति की आजादी छिनती जा रही है आज के समय में यह लोकतंत्र को व्यापक बनाने का एक संकट है. यात्राओं, सार्वजनिक स्थानों पर मशीने और सुरक्षा बल लोगों की निगरानी और जाँच करते हैं यह सरकार के लिये उसकी जनता पर संदिग्धता को ही दर्शाता है पर उसके पास कोई अन्य तंत्र नहीं है जिससे वह लोगों को सुरक्षित भी रख सके और व्यक्ति को आजादी भी दे सके. एक आदमी के दाढ़ी रखने, एक महिला के बुर्का पहनने की तहजीब शक के दायरे में बदल दी गयी है. यह पूरे एक कौम के सांस्कृतिक पहचान को शक के दायरे में रखना है, यह देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा है जिसे आतंकवाद को न रोक पाने वाले विफल तंत्र के मनोविज्ञान ने संदिग्ध बना दिया है और आतंकवाद के नाम पर लगायी गयी सुरक्षा व्यवस्था का दंश कौम के हर व्यक्ति को झेलना पड़ रहा है. अलावा इसके अब देश का हर नागरिक शक के दायरे में है क्योंकि माओवाद की कोई कौमी और वर्गीय पहचान नहीं है बल्कि यह चेतना आधारित है जिसका व्यक्ति के चेहरे और संस्कृति से कोई जुड़ाव बना पाना नामुमकिन है. आजादी के साठ साल बाद सरकार पहली बार इतना असुरक्षित महसूस कर रही है. रक्षा बजट को बढ़ाकर १ लाख ४६ हजार ३४४ करोड़ कर दिया गया है जिसमे ६० हजार करोड़ नये उपकरणों की खरीददारी पर खर्च किये जायेंगे. इसके साथ यह आश्वासन भी दिया गया है कि जरूरत पड़ने पर सरकार और भी मदद देने को तैयार है जबकि पिछले रक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा ५००० करोड़ सैन्य बलों ने बिना खर्च किये वापस लौटा दिया है. जब देश के हर नागरिक पर 8500 का विदेशी कर्ज हो ऐसी स्थिति में सरकार का रक्षा पर इतनी बड़ी रकम खर्च करना और देश में सशस्त्रीकरण को बढ़ाना निश्चित रूप से इस तंत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों की प्राप्ति को लेकर संदेह पैदा करता है. यह असुरक्षा सरकार की नहीं बल्कि देश की आंतरिक असुरक्षा है जिसे प्रधानमंत्री बार-बार दोहराते हैं. माओवाद को लेकर प्रधानमंत्री व गृहमंत्री अलग-अलग राज्यों के मुख्यमंत्रीयों के साथ लगातार बैठक कर रहे हैं. प्रधानमंत्री जब देश की सुरक्षा पर गम्भीर चिंता जता रहे हैं तो कुछ ऐसे सवाल उठते हैं जिनकी तहकीकात की जानी चाहिये कि यह असुरक्षा किसकी है सरकार की या देश की निश्चित तौर पर सरकार और देश के बीच में एक फर्क भी है और सम्बन्ध भी कि देश एक सीमा में बसे लोगों से समझा जा सकता है और लोग इसे चलाने के लिये अपने कुछ प्रतिनिधि चुनते हैं जो सरकार के रूप में कार्य करते हैं. क्या इस पैमाने को दण्डकारन्य में लागू किया जा सकता है जहाँ आदिवासियों की मदद से माओवादी समानांतर सरकार चला रहे हैं. इन आदिवासियों को निश्चित तौर पर दिल्ली या रायपुर में बैठे नौकरशाहों के बरक्स माओवादी कार्यप्रणाली आकर्षित करती होगी जो उनमे भरोसा पैदा करती है लिहाजा दण्डकारन्य की जनताना सरकार और वहाँ की आदिवासी जनता एक दूसरे को सुरक्षित रख पा रहे हैं. इन क्षेत्रों को सरकार इस देश की संरचना से जोड़ रही है जबकि पिछले कई वर्षों से सरकारी तंत्र, बड़े सशस्त्र बल के बावजूद वहाँ कब्जा करने में नाकामयाब रहा है और यह लोकतांत्रिक तरीके से तबतक संभव भी नहीं है जबतक सरकार उन आदिवासियों का विश्वास नहीं जीत लेती. क्या यह ग्रीन हंट जैसे दमनात्मक और भयाक्रान्त करने वाले आपरेशन से संभव हो सकता है शायद इसकी प्रतिक्रिया के तौर पर आदिवासी सलवा जुडुम की तरह और भी संगठित हों व माओवादी आंदोलन और भी मजबूत हो. लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों का हमारी सुरक्षा के प्रति उत्तरदायित्व बनता है. पर क्या देश के लोग वाकई माओवाद से इतना चिंतित हैं जितना कि प्रधानमंत्री चिंताग्रस्त दिख रहे हैं या यह असुरक्षा सरकार के लिये आन पड़ी है. माओवादी संगठनों ने अपनी जो जमीन तैयार की है वो वहाँ के स्थानीय लोगों के समर्थन के बिना नहीं टिका सकते और यह स्थानीय लोगों का समर्थन वहाँ की स्थान विशेष की परिस्थितियों में सत्ता की असंतुष्टि के तहत उपजा है. माओवादी संगठन, लोगों में व्याप्त इन असंतुष्टियों को एकताबद्ध कर उन्हें संघर्ष करने की प्रेरणा ही देते हैं. पूरे देश में माओवाद का विस्तार इसी रूप में हुआ है और असंतुष्ट लोग माओवादी बनने के लिये बाध्य हुए हैं अपने कार्यप्रणाली की इस अक्षमता के कारण को चिन्हित कर सही करने के बजाय सरकार उन्हें दमन व कानून के सहारे खत्म करना चाहती है ऐसी स्थिति में बुद्धीजीवी तबका व मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार जब इस स्थिति को उजागर करते हैं तो उन्हें माओवादियों के नेता या थिंक टैंक के रूप में प्रचारित किया जाता है और उनकी गिरतारियां की जाती है चाहे वह सीमा आजाद का मसला हो या फिर बिनायक सेन का. अभी हाल में कोबाद गांधी को लेकर जो चार्ज सीट पुलिस द्वारा प्रस्तुत की गयी है उसमे पुलिस द्वारा मानवाधिकार कार्यकर्ताओ व वरिष्ठ पत्रकारों तक को सम्मलित किया गया है जिसमे इ.पीडब्लू. के सलाहकार सम्पादक गौतम नवलखा तक को रखा गया है. यह एक तरह से असंतुष्टि को बढ़ाने का दूसरा चरण हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों के बल पर लोकतांत्रिक मूल्यों की निगरानी करने वाली सामाजिक संस्थाओं को निशाना बनाया जा रहा है. इस रूप में सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों में जनपक्षधरता का अंतर्द्वन्द और भी तीखा हुआ है. एक तरफ माओवाद को लेकर सरकार ग्रीन हंट जैसे आपरेशन चला रही है और दूसरी तरफ वह माओवादियों से लगातार वार्ता का प्रस्ताव भी भेज रही है. इस आपरेशन में आदिवासियों की एक बड़ी संख्या का कत्ले आम किया जा रहा है सम्भव है कि वे माओवादी पार्टी के सदस्य हों पर वे ज्यादातर आदिवासी ही हैं. आखिर एक आदिवासी से माओवादी बनने की क्या प्रक्रिया होती होगी क्या ये किसी कारखाने में तैयार किये जा रहे हैं या इनकी भर्तियाँ की जा रही हैं और वह क्या है जो इन्हें अपनी जान की परवाह किये बगैर अवैतनिक संधर्ष करने की ताकत देता है. क्या भारतीय सरकार अपनी सुविधायें और वेतन को दिये बगैर सेना के कुछ ऐसे जवानों को तैयार कर सकती है जो देश के लिये लड़ें. दरअसल देश का यही फर्क है कि एक आदिवासी जब लड़ता है तो इस एहसास के साथ कि वह अपने देश के लिये लड़ रहा है. जिसमे उसने चलना सीखा है, जिन पहाड़ों और जंगलों के बीच रहकर वह अपनेपन का भाव अर्जित करता है उसे न छोड़ने की लड़ाई वह लड़ता है और सेना इन्ही को विस्थापित करने के लिये उनके खिलाफ लड़ाई का कार्य कर रही है. यदि सेना या सशस्त्र बल के किसी भी सैनिक के घर को उजाड़ा जाय या उसके गाँवों को विस्थापित किया जाय तो जंगल, पहाड़ियाँ नहीं वह कहीं का भी निवासी हो एक लड़ने वाले आदिवासी जैसी ही प्रतिक्रिया देगा, यानि प्रतिरोध करेगा. यह प्रतिरोध शहरों में होने वाले विस्थापन व अन्य कारणों से दमन के फलस्वरूप दिखाई पड़ता है पर इन दोनों संघर्षों में एक बुनियादी फर्क होता है वह इस रूप में कि शहरी मध्यम वर्ग इन संघर्षों के साथ समझौता कर लेता है क्योंकि इसके पास पूजी होती है और इसकी रक्षा के लिये वह संघर्षों के उस स्तर पर नहीं उतरता जितना कि आदिवासी समाज जो पूजी विहीन होता है और उसके पास ऐसा कुछ नहीं होता जिसे वह खो सकता है सिवाय जीने के अधिकार के, इसी रूप में भारतीय समाज में सर्वहारा के अप्रतिम उदाहरण के तहत आदिवासी समाज आता है जो भारतीय सत्ता को आज चुनौती के रूप में दिख रहा है. गृह मंत्रालय का २००९ का आंकड़ा यदि देखे तो अलग-अलग घटनाओं में ५९१ नागरिक, ३१७ सुरक्षा बल, और २१७ उग्रवादी मारे गये हैं. इन आंकड़ों में सार्वाधिक संख्या में बेगुनाह नागरिकों को मारे जाने की है जिसका कोई तर्क सरकार के पास नहीं है. एक माओवादी को मारने में ४ से अधिक लोगों ने जाने गवांयी गयी हैं जो आपरेशन ग्रीन हंट के चलते गत वर्ष और भी बढ़ने की सम्भावना है. क्या यह सरकार की नाकामयाब नीति को नहीं इंगित करता. आसानी से गिनाते हुए इन आंकड़ों में गृहमंत्री को कोई पश्चातप क्यों नहीं होता. यदि यह देश की आंतरिक सुरक्षा का एक गम्भीर मसला है तो उससे भी गम्भीर मसला देश के लोगों के लिये यह है कि उनके भेजे हुए प्रतिनिधि इसे इतनी अगम्भीरता से ले रहे हैं कि बहस के दौरान अधिकांश मुख्यमंत्री सोते हुए पाये जाते हैं. जब हजारो करोड़ के फैसले महज एक-एक राज्य के लिये हो रहे थे, तेरहवें वित्त आयोग के समक्ष छत्तीस गढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह पुलिस संसाधन को बेहतर बनाने के लिये ८१५ करोड़ की मांग रख रहे थे. सोने वाले मुख्यमंत्रीयों के लिये यह देश की पूंजी के साथ मजाक और खिलवाड़ नही तो और क्या है. माओवाद को लेकर एक निश्चित और ठोस समझ बनाने में सरकार, गृहमंत्रालय और राज्य अभी तक सफल नहीं हो पाये हैं अलबत्ता नीति निर्धारण और कार्यवाहिया वर्षों से जारी हैं प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्रीयों के द्वारा समय-समय पर दिये जाने वाले बयानों से यही प्रतीत होता है. ७ फरवरी को प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रीयों की जो बैठक हुई उसमे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने नक्सलवाद और आतंकवाद को एक सिक्के का दो पहलू बताया जबकि गृहमंत्री ने अपने पिछले दिनों दिये गये एक बयान में कहा कि आपरेशन ग्रीन हंट कोई युद्ध नहीं है और माओवादी आतंकवादी नहीं है, सामाजिक, आर्थिक विषमता की उपज है. मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के इन बयानों से यह समझा जा सकता है कि सरकार राज्य सरकारों के साथ माओवादियों को लेकर कोई स्पष्ट समझ नहीं विकसित कर पायी है. यदि यह समझ विकसित किये बगैर हजारो करोड़ रूपये एक-एक राज्य पर खर्च किये जा रहे हैं तो यह जन सम्पत्ति का दुरुपयोग के साथ नौजवान पुलिस कर्मियों की जिंदगी व आदिवासियों की जिंदगी को तबाह करने के अपराध का जिम्मेदार कौन होगा। चन्द्रिका