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विद्वानों का मानना है कि शोध ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है. आज भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में हो रहे शोधों की स्थिति को देखें तो वे ज्ञान निर्माण को आगे तो नहीं पर पीछे जरूर ले जा रहे हैं. सरकार लगातार देश में उच्च शिक्षा के लिए बेहतर प्रयास करने के रट लगाती रहती हैं पर क्या सरकारी प्रयासों पर ही हमारे ज्ञान निर्माण की नींव टिकी है? उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में सरकारी दावे तो अपनी जगह हैं पर यदि हम ध्यान दें कि इन संस्थानों में जो लोग शोध कराने के लिए बैठाए गये हैं वे क्या भूमिका निभा रहे हैं. ये आखिर ऐसी किस राजनीति में मशगूल हैं जिससे भारतीय ज्ञान परम्परा की गति कछुए जैसी हो गयी है.
आज यदि हम सामाजिक शोध कराने वाली संस्थाओं में हो रहे शोधों की प्रकृति पर दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे कि या तो वे पूर्व में हुए किसी शोध की नकल हैं या विदेशों में हुए शोधों के कट-पेस्ट हैं. अधिकत्तर शोधों की यही हालत है. इन शोधों के पीछे केवल इतना ही मामला नहीं है कि ये मौलिक हैं या नहीं. पहला सवाल तो यह है कि शोध के लिए किन लोगों को चुना जाता है. अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थानों में खासकर राज्याधीन विश्वविद्यालयों में शोध करने के लिए बिना किसी प्रवेश प्रक्रिया को अपनाए नामांकन कर लिया जाता है. ये नामांकन किस आधार पर होता है इसका पता किसी को नहीं. इनमें आरक्षण का प्रावधान है कि नहीं इसका भी पता किसी को नहीं है. पता है केवल उनको जिनको शोध करना है और जिनको शोध कराना है. आप किसी भी राज्याधीन विश्वविद्यालय की वेबसाइट को खंगालिए आपको शोध की डिग्री से सम्बन्धित कोई जानकारी नहीं मिलेगी. यदि मिलेगी भी तो केवल इतनी कि पी-एच.डी. के सम्बन्ध में सम्बन्धित विभाग से सम्पर्क करें. अब एक दूर-दराज के गावों में रहने वाला छात्र कहां-कहां के सम्बन्धित विभाग में चक्कर लगाएगा. हां जानकारी तब मिलती है जब आप अखबारों में पढेंगे कि फलां को, फलां विषय में, फलां विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि मिली तभी आप जानेंगे कि अमुक विश्वविद्यालय के अमुक विभाग में पी-एच.डी. की भी डिग्री मिलती है. यह उच्च शिक्षा की एक बड़ी राजनीति और खेमेबन्दी का हिस्सा है. एक तरफ जहां मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधान लागू करने के निर्देश दिए हैं वहीं दूसरी तरफ ये शोध संस्थान छात्रों को जानकारी के अभाव में इन वर्गों के छात्रों को शोध करने से वंचित करने के प्रयास में लगे हुए हैं. आरक्षण की इस नियमावली से ऐसे शोध संस्थानों पर कुंडली मारकर बैठे सवर्ण बुद्धिजीवियों को सांप सूंघ गया है. इस राजनीति का एक हिस्सा यह भी है कि जो छात्र जिस जाति का होगा उसको उसी जाति का ही निर्देशक उपलब्ध होगा. कहने का आशय यह कि विद्वता की सारी पोटली जो उच्च वर्गीय ‘गुरुओं’ के पास है वह केवल उच्चवर्ग के ‘चेलों’ के लिए है.
अब यदि हम शोध के विषयों की जांच पड़ताल करें खासकर मानविकी विषयों की, तो सारे के सारे शोध उन्हीं लोगों के कार्यों पर केन्द्रित होंगे जिनकी कृपा से ऐसे सवर्णवादी मानसिकता के नुमाइंदो को उनकी जगह मिली है. हिन्दी जैसे विषय के शोधों की यही हालत है. वे ऐसा कोई नया विषय शोधार्थियों को नहीं बताते जिससे वे ज्ञान को आगे बढ़ाने में सकारात्मक रूप से भागीदार हों. आप फलां लेखक, फलां साहित्यकार, फलां सामाजिक कार्यकर्ता आदि विषयों पर अपना शोध पूरा कीजिए तभी आपके शोध का महत्त्व है अथवा नहीं. यदि आप उनके मन का नहीं करते हैं तो वे आपकी पी-एच.डी जीवन भर नहीं पूरी होने देंगे. यदि आपने उनके घर के काम-काज नहीं किए तो भी आपकी पी-एच.डी. रह गयी अधूरी. भले ही आपका नामांकन हो गया हो और आप कितने ही योग्य क्यों न हों. आपने ये सारे काम नहीं किए तो आपकी सारी की सारी योग्यता धरी की धरी रह जाएगी.
अब सवाल आता है शोध के निष्कर्ष का. शोध का निष्कर्ष वही होना चाहिए जो शोध निर्देशक निकलवाना चाहता है. उसने जिस कथाकार, साहित्यकार, कार्यकर्ता आदि के कार्यों पर शोध करने के लिए आपको कहा है उसका निष्कर्ष उसको महिमामंडित करते हुए दिखना चाहिए भले ही उसका कार्य समाज के लिए प्रासंगिक हो या न हो. उसके द्वारा किए गए कार्यों को आपने अपने निष्कर्ष में बढ़ा-चढ़ाकर नहीं लिखा तो चली आएगी आपकी थीसिस वापस और आपको उसे फिर से सुधारने के लिए कहा जाएगा और उसमें उन बातों को लिखने के लिए कहा जाएगा जो आपके गले के नीचे नहीं उतरेगी. मरता क्या न करता की हालत में आप अन्तिम चरण में वही करेंगे जो आपके निर्देशक महोदय कहेंगे. ऐसी स्थिति में शोध में मौलिकता और तटस्थता कहां से आएगी आप कल्पना कर सकते हैं.
सरकार दिनोंदिन उच्च शिक्षा और शोध के नए-नए संस्थान तो खोल रही है पर जब तक इसके पीछे होने वाली राजनीति और इस राजनीति को अंजाम देने वाले लोगों पर लगाम नहीं कसी जाएगी तो हम वहीं के वहीं रह जाएंगे जहां हमारी स्थिति सैकड़ों वर्ष पहले थी. शोधार्थियों को भी चाहिए कि वे ऐसी राजनीति के शिकार न हों और उनका डटकर मुकाबला करने का हर सम्भव प्रयास करें तभी उनका शोध समाज के लिए प्रासंगिक होगा और एक बेहतर भविष्य की कल्पना साकार हो सकेगी.
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