प्रस्ताव में ”छः साधारण लेकिन तत्काल मांगे” उठाई गई हैं। ये मांगे केंद्र सरकार तथा माओवादी दोनों को संबोधित हैं। ये दोनों पक्षों से ”आक्रमणकारी” तथा ”शत्रुतापूर्ण” रवैया छोड़, बातचीत का आह्वान करती हैं। हालांकि, प्रस्ताव में कहा गया है कि इसकी पहल सरकार को करनी चाहिए।
क़रीब से अगर हम इन छः मांगों का परीक्षण करें तो पाएंगे कि ये प्रस्ताव भारतीय राज्य के जाल में उलझ गए हैं जो चाहता है कि सारा ध्यान हिंसा के सवाल पर केंद्रित रहे। यह (भारतीय राज्य) माओवादियों द्वारा उठाए गए वास्तविक सवालों को केंद्रबिंदु नहीं बनाना चाहता। ग़ौरतलब है कि माओवादियों से बहुत गहरे विचारधारात्मक दूरी रखने वाले, अहिंसा के लिए प्रतिबद्ध, गांधीवादियों सहित, कई लोगों ने यह पक्ष (स्टैंड) लिया है कि माओवादियों द्वारा हिंसा के अनुप्रयोग पर किसी तरह की बातचीत से पहले मूलभूत राजनीतिक मुद्दे संबोधित किए जाने चाहिए।
इस बात का वास्तविक ख़तरा मौजूद है कि राज्य न सिर्फ़ माओवादियों को ख़त्म करने की योजना में है बल्कि वह हमारे सैकड़ों हज़ार नागरिकों को विकास में अधिकारपूर्ण भागीदारी से वंचित करने वाली बेहद अन्यायी और असंवैधानिक आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ खड़े हुए सभी प्रतिरोधों को नष्ट करने की कोशिश करेगा।
माओवादी चुनौती के प्रति भारतीय राज्य के जवाब के मुद्दों के इर्द गिर्द होने वाली ये सारी बहसें (इनमें, इस चर्चा में शामिल पहल की तरह अन्य पहलक़दमियां भी शामिल हैं) एक नपे तुले राजनीतिक दिवालियेपन तथा दर्शन की दरिद्रता को दर्शाती हैं। इनमें राजनीतिक कल्पनाओं का अभाव है।
चलिए, इन छः मांगों में से हरेक का परीक्षण करते हैं और देखते हैं कि शांति के लिए नागरिक पहलक़दमी द्वारा सूत्रबद्ध की गई मांगे वास्तविक राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा करने के लिए लोकतांत्रिक स्पेस बनाने में मददगार होंगी या अपने प्रभाव में उस स्पेस का दम घोंट देंगी और माओवादियों के ख़िलाफ़ राज्य की कार्रवाइयों को जाने-अनजाने न्यायोचित ठहराएंगी और सभी तरह के प्रतिरोधों, असहमतियों तथा राज्य की आर्थिक नीतियों की आलोचनाओं के दमन की अनुमति देंगी जो राज्य के नीति निर्धारक सिद्धांतों का स्पष्ट उल्लंघन होगा। (भारतीय संविधान का भाग चार)
पहली मांग में कहा गया है: ”युद्ध विराम का इंतजाम करने के क्रम में सरकार उन क्षेत्रों में आक्रमण रोके जहां सीपीआई (माओवादी) तथा अन्य नक्सलवादी पार्टियां सक्रिय हैं।”
दूसरी मांग में कहा गया है: “सीपीआई (माओवादी) तथा अन्य नक्सलवादी पार्टियां युद्ध विराम के इंतजाम के लिए राज्य-बलों के ख़िलाफ़ अपने दुश्मनाना रवैयों को छोड़ें।“
तीसरी मांग है: “नागरिकों पर आक्रमण नहीं होना चाहिए तथा उनके जीवन की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए।”
शांति हेतु नागरिक पहलक़दमी इस “युद्ध” में क्या नागरिकों और युद्धरत लोगों को पृथक करती है? सल्वा जुडुम तथा कोबरा से अपनी रक्षा करने के लिए वे आदिवासी जो अपने पास कुछ हथियार रखते हैं क्या राज्य बलों के समतुल्य गिने जाएंगे और क्या नागरिकों को मिलने वाली सुरक्षा से वंचित हो जाएंगे?
मेरा पहला सवाल है: पहले अपने आक्रमण को किसे रोकना चाहिए और क्यों? माओवादियों से मूलभूत राजनीतिक भिन्नता रखने वाले लोगों तक ने चेताया है कि अगर माओवादी हथियार डालते हैं तो राज्य के लिए यह न सिर्फ़ माओवादी संगठन, बल्कि दसियों हज़ार आदिवासियों – हमारे देश के निर्धनतम नागरिकों को कुचल देने की अनुमति होगी। कई आदिवासियों ने ख़ुद को सशस्त्र इसलिए कर लिया है ताकि वे सुरक्षा बलों द्वारा छेड़े गए क्रूर दमन, जिसमें स्तनों को काट देने, महिलाओं के पैर में गोली मार देने तथा विभिन्न तरह की यातना देने तक शामिल है, से अपनी रक्षा कर सकें।
यह सच है कि माओवादियों द्वारा प्रयुक्त क्रूर तरीक़ों ने कई लोगों में अरुचि पैदा की है। एक ख़ुफ़िया अधिकारी का सर कलम करना और इसे दोहराने की धमकी तालिबानी क़िस्म के न्याय की याद दिलाती हैं। लेकिन अनुशासित सशस्त्र प्रतिरोध को हिंसा या क्रूर तौर तरीक़ों से अलगाया जाना चाहिए।
मेरा दूसरा सवाल है: हम हिंसा पर किसके साथ बहस कर रहे हैं?
गृह मंत्री ने कहा है कि अगर माओवादी हिंसा रोक दें तो सरकार बातचीत को इच्छुक है। ज़ाहिर तौर पर वे आदिवासियों पर जारी संस्थागत हिंसा के बारे में कुछ नहीं बोले जिसका परिणाम भूख से उनकी मौतों, रोकथाम की जा सकने वाली बीमारियों से मौतों तथा उनकी ज़मीन से बेदखली और जीवन यापन के साधनों को छीनने के रूप में होता है।
और शांति के लिए नागरिक पहल के प्रस्ताव, कि नक्सलवादियों को “शत्रुतापूर्ण रवैया बंद कर देना चाहिए” से क्या आशय है?
शांति के लिए नागरिक पहल का क्या यह चाहता है कि माओवादी हथियार डाल दें और सशस्त्र प्रतिरोध त्याग दें या वे चाहते है कि वे (माओवादी) वैयक्तिक राज्य अधिकारियों पर हिंसा का उपयोग न करें?
शांति के लिए नागरिक पहल अगर वास्तव में “शांति” चाहता है है तो उसे मांग करनी चाहिए कि भारत सरकार को सबसे पहले, माओवादियों तथा सरकार के बीच वार्ता में जाते समय, उन क्षेत्रों में आदिवासियों की बेहद वास्तविक आकांक्षाओं (शिकायतों) को संबोधित करना चाहिए। माओवादियों द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे पहले भी उस क्षेत्र में (तथाकथित लाल गलियारा) कार्यरत संगठनों और दलों द्वारा उठाए गए हैं। सर्वोपरि, ये वे मुद्दे हैं जिनके इर्द गिर्द भारत की आज़ादी के बाद से आदिवासी आंदोलन टिके रहे हैं।
इस सवाल में राजनीतिक और आर्थिक मुद्दे व्यापक तौर निम्न बिंदुओं से संबंधित हैं:
1. विकास परियोजनाओं के कारण व्यापक तौर पर आदिवासियों को उनकी ज़मीन से अलग थलग करने तथा बेदख़ली के कारण आदिवासियों की भूख, कुपोषण तथा अकालग्रस्त मौतौं से;
2. पार-राष्ट्रीय निगमों (TNCs), से किए गए सैकड़ों समझौतों (MoUs) को गुप्त ढंग से निपटाना, जो उन कंपनियों को उन क्षेत्रों के समृद्ध खनन संसाधनों के, स्थानीय लोगों या संपूर्णता में पूरे राष्ट्र के फ़ायदे के बग़ैर भी दोहन की अनुमति देते हैं; यह निगमित राजकाज (कॉर्पोरेट गवर्नेंस) से जुड़ा एक मुद्दा है;
3. स्वास्थ्य, पानी, आवास, शिक्षा तथा सर्वोपरि भोजन के मूलभूत अधिकार का हनन;
शांति के लिए नागरिक पहल को हर प्रभावित राज्यों: झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार तथा पश्चिम बंगाल के लिए विशिष्ट मांगों की एक सूची बनानी चाहिए। और तब मांग करें कि राज्य सरकारें तथा भारत सरकार इनमें से हरेक मुद्दों के लिए एक निश्चित समय सीमा के भीतर किए जाने वाले उपायों की घोषणा करे। इससे वास्तविक तत्काल ज़रूरी मुद्दों की ओर वापस ध्यान केंद्रित किया जा सकेगा।
शांति के लिए नागरिक पहल का प्रस्ताव मांग करता है कि: “जनता के जीवनयापन के मूलभूत अधिकारों तथा प्राकृतिक संसाधनों पर उनके लोकतांत्रिक नियंत्रण को तत्काल सुनिश्चित किया जाए। हम इसके लिए काम करेंगे।” लेकिन इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि ये मांगे क्या हैं और लोग कैसे अपने जीवनयापन के साधनों से व्यवस्थित तौर पर वंचित किए गए हैं। इससे भी महत्त्वपूर्ण, शांति के लिए नागरिक पहल इन मुद्दों पर काम करने का इरादा कैसे रखती है – जो उनके महती हित में होगा जिन्हें उनका प्रस्ताव बांचना है।
नागरिकों को भोजन, दवाइयों तथा आवास के अधिकार से व्यवस्थित इंकार संस्थागत हिंसा है जिसकी राज्य के एक अधिकारी के सर कलम करने से बराबरी नहीं की जा सकती। इन क्षेत्रों (देश के अन्य भागों के बारे में अभी बात नही हो रही है) में संपूर्ण आदिवासी जनसंख्या पर की जा रही हिंसा के अतिरिक्त सुरक्षा बल भारी पैमाने पर, वैयक्तिक आदिवासी कार्यकर्ताओं तथा किसी अन्य के, जिसे वे माओवादी बताने का निर्णय कर लेते हैं, मानवाधिकारों का हनन किए जा रहे हैं। क़ानून यहां तक कि किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य को भी प्रताड़ित करने की अनुमति नहीं देता।
अगर यह प्रस्ताव वास्तव में जनता की व्यापक आबादी के लिए मतलब रखने लायक बनना चाहता है तो उसे राजनीतिक मुद्दों को आवाज़ देनी चाहिए; अन्यथा नागरिक पहलक़दमी की भाषा तथा राज्य की भाषा में फ़र्क़ करने लायक कुछ नहीं रह जाता।
क्या इसका यह मतलब है कि मैं माओवादियों द्वारा हिंसा के इस्तेमाल (जो सशस्त्र संघर्ष की विपरीतार्थी होती है) को नज़रअंदाज़ कर रही हूं। नहीं, किसी तरह नहीं। यह किसी के किसी एक घटना विशेष को नज़रअंदाज़ करने या समर्थन करने का सवाल ही नहीं है। मुख्य राजनीतिक सवाल सशस्त्र प्रतिरोध की क्षमता (प्रभाव) और सशस्त्र प्रतिरोध तथा संघर्ष के लोकतांत्रिक साधनों के बीच रिश्तों से संबंधित है। ’वामपंथी कम्युनिज़्म, एक बचकाना मर्ज’ में लेनिन ने चेताया है कि कम्युनिष्ट प्रतिरोध का परिणाम विपक्षी द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध को बढ़ाने वाला नहीं होना चाहिए।
मानवाधिकार आंदोलनों में जब से मैं काम कर रही हूं तभी से देख रही हूं कैसे माओवादियों ने अपनी कार्यनीतियों से वर्ग शत्रुओं के प्रतिरोध को बढ़ाया है और फिर दावा किया है कि इस व्यवस्था में लोकतांत्रिक जगह (स्पेस) नहीं है। मानवाधिकार समूहों ने यह उजागर किया कि दमन में राज्य की भूमिका क्या है तथा धनिकों के पक्ष में राज्य कैसे हमेशा खड़ा रहता है लेकिन उनके (माओवादियों के) पास इसकी कोई समझदारी नहीं है कि इस व्यवस्था में लोकतांत्रिक स्पेस कैसे काम करता है और कैसे इसे विस्तृत किया जाए।
कुछ उदाहरण हैं, कि मध्य अमरीका में कैसे किसी क्रांतिकारी समूह ने सरकारी अधिकारियों का अपहरण कर बदले में झोपड़पट्टी में रहने वाले लोगों के लिए भोजन की मांग की। बजाय इसके कि वे क़ैदियों की अदलाबदली का सारा तामझाम वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने में करते तथा अपना क़ीमती समय राष्ट्रीय टीवी में जनता की राय जुटाने के बजाय यूं ही बर्बाद करते।
हमें व्यवस्था के अंतर्गत संभव प्रभावी हस्तक्षेप करने तथा लोकतांत्रिक संस्थानों जैसे अदालतों, मीडिया, विधानसभाओं तथा संसद आदि में क्रांतिकारी ढंग से जूझने के लिए कार्यनीतियों को सुगठित करने की ज़रूरत है। यह पूरा क्षेत्र गैर सरकारी संगठनों (NGOs) से पटा हुआ है जिन्होंने लोकतांत्रिक स्पेस को अराजनीतिक बना दिया हैं।
अतः मार्क्सवादियों, कम्युनिस्टों तथा माओवादियों को समर्थन देने वाले अन्य लोगों के बीच बातचीत, चर्चा तथा बहस करने की तत्काल ज़रूरत है। लेकिन यह बहस वह बहस नहीं होगी जिसका नागरिकों तथा राज्य के बीच की बहस के साथ घालमेल किया जा सके।
शांति के लिए नागरिक पहल की चौथी मांग है: “सरकार तथा सीपीआई (माओवादी) के बीच निःशर्त बातचीत शुरू हो।’’
मैं किसी तरह आश्वस्त नहीं हूं कि “निःशर्त” शब्द के क्या मायने हैं। इसका आशय बातचीत के लिए गृहमंत्री की पूर्व शर्त, कि पहले माओवादियों द्वारा हिंसा रोकी जानी चाहिए, से लगाया जा सकता है। अतः नागरिकों की पहल द्वारा निःशर्त बातचीत के आह्वान का मतलब होगा कि वे सोचते हैं कि सरकार ऐसी पूर्व शर्त न रखे। शायद इसकी विवेचना करने की ज़रुरत है।
यहां मेरे कुछ सवाल हैं। इस मांग की पूर्वधारणा दिखाती है कि शांति के लिए नागरिक पहल प्रामाणिक (जैनुइन या असली) बातचीत के लिए भारत सरकार या भारतीय राज्य की ईमानदारी पर असंदिग्ध भरोसा रखता है। स्वतंत्र भारत का इतिहास साफ़ साफ़ दिखाता है कि भारतीय राज्य ग़रीबों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उत्तर-पूर्व के मेरे अनुभव दिखाते हैं कि राज्य ने शांति पहलक़दमी का इस्तेमाल अपनी विद्रोह-विरोधी रणनीति के तहत संगठनों को कमज़ोर कर तोड़ने में किया है। शांति प्रक्रियाओं का प्रयोग कभी मूलभूत राजनीतिक मुद्दों, जैसे भारतीय संघ की प्रकृति और उत्तर पूर्व के लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को संबोधित करने में भारतीय राज्य की अक्षमता आदि के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए नहीं किया गया।
क्या इसका यह मतलब है कि शांति प्रक्रियाओं से दूर रहना चाहिए? नहीं। फिर भी, हथियार बंद या क्रांतिकारी संगठन जब राजनीतिक वार्ता में जाएं तो उनके पास रणनीति तथा कार्यनीति की स्पष्ट समझदारी होनी चाहिए और उसका प्रयोग उन्हें जनता के बीच में जाने, राजनीतिक मुद्दों का विश्लेषण करने तथा उन मुद्दों के लिए जनता को गोलबंद करने में करना चाहिए। यद्यपि, न तो विद्रोहियों ने और न ही नागरिक समाज ने प्रभावी जनमत बनाने, तरफ़दारी करने या अन्य किसी तरह के लोकतांत्रिक साधनों द्वारा राज्य पर दबाव डालने की कोई क्षमता प्रदर्शित की है। भारतीय राज्य अपनी मूलभूत नीतियों में परिवर्तन नहीं करेगा, लेकिन हमें यह ज़रूर जानना चाहिए कि अगर हम एक मज़बूत अभियान चलाने में सक्षम होते हैं तो किस तरह के परिवर्तन किए जा सकते हैं।
मज़बूत अभियान में निश्चित तौर पर समय और एक कोष की ज़रूरत होती है। पेशेवराना कार्यकर्ताओं के पास, ढेर सारे पैसे और बहुत कम राजनीतिक समझदारी के साथ थोड़ा सा समय होता है। ये अभियान रद्दी भाव में लिखे प्रस्तावों, चमकीले इश्तहारों और गीत और मोमबत्ती के साथ कभी कभार प्रदर्शनों और घर-बैठकों के रूप में पथभ्रष्ट होकर सिमट जाते हैं।
यहां राज्य की कलई खोलने वाले तथ्यों और आंकड़ों का कोई दस्तावेजीकरण नहीं होता, सामान्य लोगों तक पहुंचने और राजनीतिक मुद्दों के बारे में राजनीतिक चेतना को बढ़ाने तथा हर मुद्दे पर राय लेने की कोई कोशिश नहीं होती।
एक और भी मामला है। शांति के लिए नागरिक पहल जनता का एक प्रतिनिधि क्या माओवादी पार्टी मात्र को ही मानती है? माओवादियों तथा सरकार के बीच की वार्ता में माओवादी संगठन की विशिष्ट मांगे, जैसे पार्टी से प्रतिबंध उठाना, राजनीतिक बंदियों की रिहाई आदि शामिल होनी चाहिए। लेकिन यहां समय सीमा निर्धारित प्रक्रिया की ज़रूरत है जिससे सरकार उस क्षेत्र में रहने वाली आदिवासी जनता की पीड़ा के उन्मूलन के लिए विशिष्ट उपाय करे।
शांति के लिए नागरिक समाज की पहल की पांचवी मांग है: “प्रभावित क्षेत्रों में स्वतंत्र नागरिक संगठनों तथा मीडिया की स्वतंत्र आवाजाही सुनिश्चित की जाए।’’ इस मांग में कुछ ग़लत नहीं है लेकिन समिति मीडिया की तरफ़दारी क्यों कर रही है जो किसी भी मामले को हिंसा बनाम अ-हिंसा के रूप में विघटित (विकृत) कर देता है। मीडिया ने सांस्थानिक हिंसा, घटिया राजकाज तथा अब क्रूर दमन के शिकार इन भारतीय नागरिकों के लिए कुछ नहीं किया है।
शांति के लिए नागरिक पहल को मीडिया से दमदार आधारों पर जूझना चाहिए। वीर संघवी के संपादकीय का उदाहरण लीजिए जिसका शीर्षक था “सामान्य विवेक की ज़रा सुनिये” जिसमें उन्होंने उन कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों पर आक्रमण किया जो “पुलिसवालों का सर कलम करने वाले हत्यारों का समर्थन” करने के एवज में “ग़रीबों की परवाह” करने का तर्क देते हैं। उनका तर्क है कि “सर्वप्रथम शांति और बाक़ी सब द्वितीयक’’ होना चाहिए। शांति के लिए नागरिक पहल का प्रस्ताव वीर संघवी के संपादकीय जैसा ही ध्वनित होता है जो राज्य और समाज द्वारा की जा रही संस्थागत हिंसा के बारे में एक बार भी मुंह नहीं खोलता।
वास्तव में, मीडिया से यह एक मांग ज़रूर की जानी चाहिए कि वह मूलभूत मुद्दों पर रिपोर्ट करे और इन्हें हिंसा बनाम अ-हिंसा की बहस न बनाये। यहां मीडिया पर निगरानी रखने की ज़रूरत है जो मीडिया के झूठों, प्रपंचों और उसकी विकृतियों का भंडाफोड़ करे। संयुक्त राज्य अमरीका में ’हमारे समय के झूठ’ (Lies in our Time) नामक एक पत्रिका थी जो न्यूयॉर्क टाइम्स के झूठों का पर्दाफ़ाश करने के लिए समर्पित थी। इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के भंडाफोड़ के लिए हमें इसी तरह की कुछ ज़रूरत है।
शांति के लिए नागरिक पहल के प्रस्तावों का सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि शांति, युद्धविराम और बातचीत पर ध्यान केंद्रित करना कहीं सर्वाधिक ग़रीबी में जीने वाले लाखों लोगों की वास्तविक, तत्काल ज़रुरी राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका न दे। ये उन क्षेत्रों के निवासी हैं जो ऐसे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मालामाल करने जा रहे हैं।
भारतीय नागरिकों के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपे जाने से रोकने तथा हस्तक्षेप करने का यह एक ऐतिहासिक अवसर है। यह ये मांग करने का समय है कि भारतीय राज्य बहुराष्ट्रीय निगमों के साथ हस्ताक्षरित समझौते पत्रों (MOUs) को सार्वजनिक करे। यह ये मांग करने का समय है कि सभी भू-हस्तांतरणों और खदान पट्टे या लाइसेंसों को तब तक स्थगित किया जाय जब तक कि इन क्षेत्रों के लिए आर्थिक नीति पर सचेत सार्वजनिक बहस नहीं होती।
हरेक भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि वे भारतीय नागरिकों को सांस्कृतिक तौर पर उखाड़ फेंकनें तथा उनके सभी तरह के प्रतिरोध को --राष्ट्रीय सुरक्षा तथा माओवादियों से निपटने के नाम पर, कुचल कर उनके जीवनयापन के अधिकार को छिन्न भिन्न करने से राज्य को रोकें।
उपरोक्त चर्चा के प्रकाश में शांति के लिए नागरिक पहल, अगर यह सार्थक हस्तक्षेप का इरादा रखता है, को निम्न कार्यभार की रूपरेखा बनानी चाहिए:
1. प्रत्येक राज्य में आदिवासियों की ठोस मांगों की सूची तैयार करें तथा ठोस सुझाव दें कि सरकार स्थिति कैसे सुधार सकती है। एक उदाहरण है कि शंकर गुहा नियोगी ने सरकार की लौह अयस्क खदानों के मशीनीकरण की नीति को इस आधार पर चुनौती दी कि एक विस्तृत अध्ययन में उन्होंने दिखाया कि अर्ध मशीनीकृत खदानें आर्थिक तौर पर ज़्यादा सक्षम होंगी।
इस सूची बनाने के क्रम में निश्चित रूप से अन्य कई विशेषज्ञों तथा अनुभवी लोगों को शामिल कर उनसे बातचीत की जाए।
2. जैसे भी संभव हो इन मांगों को व्यापक तौर पर प्रसारित किया जाए। यह वास्तविक राजनीतिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित रखने के लिए ज़रूरी होगा तथा राज्य को इस आंदोलन की पूरी प्रक्रिया का अपहरण करने तथा किसी मुद्दे को हिंसा और अ-हिंसा के रूप में विघटित करने की छूट नहीं देगा। लोगों को लगातार यह ध्यान दिलाने की ज़रुरत होगी कि जिसे माओवादियों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा के रूप में पेश किया जा रहा है, वह वास्तव में भारत के नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध है जो आर्थिक तौर पर निर्धनतम हैं और राजनीतिक तौर पर सर्वाधिक शक्तिहीन हैं।
3. अगर वास्तव में कोई वार्ता होती है तो वार्ता प्रक्रिया के लिए पारदर्शी कार्ययोजना होनी चाहिए जिस पर अमल करना ज़रूरी हो। इसका मतलब है कि यह वार्ता माओवादियों के ज़िम्मेदार सदस्यों तथा राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बीच होनी चाहिए। इसके पहले, विद्रोही समूहों तथा भारतीय राज्य के बीच की सारी बातचीत का संचालन प्रथमतः ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा होता रहा है। मानवाधिकार समूहों द्वारा ख़ुफ़िया एजेंसियों की भूमिकाओं को अब तक चुनौती देने की शुरूआत नहीं हो पाई है।
वास्तव में, विद्रोही समूहों और राज्य के बीच वार्ता की सारी प्रक्रिया ख़ुफ़िया एजेंसियों की भूमिका और लोकतांत्रिक राजनीति पर सवाल उठाती है।
माओवादी भी शायद इस बारे में कम ही समझदारी रखते हैं कि लोकतांत्रिक स्पेस को बढ़ाने के लिए वार्ता का प्रभावी प्रयोग कैसे किया जाए। और यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या उन्होंने बातचीत के लिए ठोस प्रस्तावों पर काम किया है और क्या उनके पास वार्ता प्रक्रिया से समय हासिल करने के अलावा भी कोई रणनीति या कार्यनीति है?
4. सावधानीपूर्वक मीडिया का निरीक्षण तथा इसका पर्दाफ़ाश कि कैसे यह आदिवासियों तथा विकास के शिकार लोगों पर अनन्यतम राज्य दमन के लिए सहमति विनिर्माण में लगा हुआ हैं, जो इस आक्रमण के मुख्य लक्ष्य हैं और माओवादी नहीं हैं।
जब से लोगों का ध्यान माओवादियों पर केंद्रित हुआ है, नागरिक समाज को दिगभ्रमित करने, विभेद पैदा करने तथा गंभीर मुद्दों और उस क्षेत्र की ठोस स्थितियों से ध्यान भटकाने के लिए ख़ुफ़िया एजेंसियां अपने कामों का विस्तार कर रही हैं।
जनता की निगाहों में उनकी उपलब्धियों को तुच्छ साबित करने तथा एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है जहां राज्य द्वारा ख़ुद अपने नागरिकों पर हिंसा को न्यायोचित ठहराया जाए। माओवादियों तथा उनके समर्थक अपने संकुचित और संकीर्णतावादी नज़रिए तथा राजनीतिक लोकतंत्र के उसूलों के प्रति प्रतिबद्धता की कमी के कारण इन प्रवृतियों का बहुत कम जवाब दे पाए हैं। जनवादी उसूलों और लोकतांत्रिक राजनीति के बारे में माओवादियों से तत्काल बहस करने की ज़रुरत है। हाल ही में उनकी घोषणा कि अब से वे अपने क़ैदियों से युद्धबंदी की तरह व्यवहार करेंगे और एक पुलिसवाले को रिहा करने का निर्णय इसका परिचायक है कि उन्होंने लोगों की प्रतिक्रिया से कुछ सीखा है कि उनकी क्रूर कार्यनीतियां लोगों को शिक्षित करने के बजाय स्तब्ध कर देती हैं।
अंत में, इस पहल का नाम दुर्भाग्यजनक है। इससे ऐसा लगता है कि यह सुझाती है कि अगर माओवादियों और भारत सरकार के बीच वार्ता शुरू हो जाती है तो हमें शांति हासिल हो जाएगी। यह विदेशी पैसों से चलने वाले ग़ैर सरकारी संगठनों (NGOs) के अ-हिंसक संघर्ष निपटारे का हो-हल्ला है जो सभी मामलों के अ-राजनीतिकरण के लिए ज़िम्मेदार हैं। क्या इसका नाम ’न्याय के लिए नागरिक पहल’ नहीं होना चाहिए?
लेखिका मानवाधिकार मामलों की वकील हैं।
मूल अंग्रेज़ी से अनुवाद- अनिल
अनुवाद के लिए धन्यवाद! ब्लॉग के ले आउट में परिवर्तन कुछ सुहाया नहीं. रंगों का चयन चौंधियाने वाला है.
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