समय के साथ चीजों को बदलना था, गुलामी खत्म होनी थी, समाज में व्याप्त जड. प्रवृत्तियां बदलनी थी. अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के बाद देश के एक बडे़ मनोजगत का यही सोचना था. पर अफसोस कि अंग्रेजों से मुक्ति जिसे आज़्ाादी कहा गया, महज़्ा सत्ता बदलाव तक ही सीमित रही यानि सामाजिक संरचना में कोई खास बदलाव नहीं आया छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के कुछ जिलों में बंधुआ मजदूरों पर किये गये अध्ययन के दौरान निकलकर आये तथ्य तो यही कहते हैं.
अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के बाद जनता को स्वतंत्र्ाता, समता व अन्य कई मौलिक अधिकार दिये गये, जिनका मिलना अपने को लोकतांत्र्ािक कहे जाने वाले देश में लाज़्ामी था. इन कानूनों के होने के बाद भी स्थिति ये रही कि देश के कई इलाकों में बंधुआ मजदूरी की प्रथा जारी रही अतः 19 फरवरी 1976 को बंधुआ मजदूर जो कि दुर्बल वर्ग के होते थे या आज भी हैं के शारीरिक व आर्थिक शोषण से मुक्ति हेतु ’बंधित श्रम प्रथा उन्मूलन नियम 1976’ सत्ता हस्तांतरण के 27 वर्ष बाद बनाया गया. इसके पश्चात अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति 1989 अधिनियम भी बनाया गया, जिसका सम्बंध बंधुआ मजदूरों से जुड़ा हुआ है, क्योंकि देश में चल रही बंधुआ प्रथा में एक अंकडे के मुताबिक 98 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोग प्रताड़ित होते हैं.
कानूनी तौर पर बंधुआ मजदूरों को लेकर कुछ अन्य नियम भी बनाये गये जैसे बंधुआ मजदूर व प्रवासी बंधुआ मजदूर जो किसी अन्य राज्य में जाकर बंधुआ के रूप में कार्य करते हैं उनके लिये जिले में सतर्कता समिति के गठन का भी सुझाव दिया गया और समिति निर्माण का कार्य जिला अधिकारी को दिया गया. साथ में बंधुआ मजदूरी कराने वाले व्यक्ति नियोक्ता ठेकेदार आदि को दंडित करने का नियम भी बनाया गया जो 3 वर्ष तक कारावास व 2000 रूपये जुर्माने के रूप में थी. सरकार द्वारा बंधुआ मजदूरों के सम्बंध में राहत राशि की व्यवस्था भी की गयी जो 25,000 रूपये उनके पुनर्वास हेतु व पानी भूमि आदि के रूप में की गयी.जिसे छत्तीसगढ के कुछ जिलों में जिनमे महासमुंद, रायपुर व उड़ीसा के बरगड़ नवापाड़ा आदि में गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बंधुआ मजदूरों को इंगित कर उनमे से कुछ को यह सुविधा प्रदान कराई गयी पर कई बंधुआ मजदूरों को यह अभी तक नही मिली.
प्रस्तुत रिपोर्ट प्रथम व द्वितीय श्रोतों के अध्ययन का एक संक्षिप्तीकरण है. जिसमे यह बात गौर करने की है कि कानूनों के दबाव व नियमों को ध्यान में रखते हुए राज्यों में बंधुआ मजदूरों का स्वरूप बदल गया है. अध्ययन के दौरान इस बात का पता लगा कि बंधुआ मजदूरों को लेकर स्वामी अग्निवेश के अंदोलन के प्रभाव से बंधुआ मजदूरों की स्थिति में बदलाव आया या कहा जाय कि उनका स्वरूप बदल गया क्योंकि उनके प्रभाव में आकर राज्य के कई संस्थाओं व कार्यकर्ताओं ने बंधुआ मुक्ति अंदोलन चलाया जिनमें छत्तीसगढ़ बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने महती भूमिका निभाई है.कारणवस जो पारंपरिक स्वरूप था वह बहुत कम दिखता है परंतु यह बदले हुए स्वरूप में बड़ी मात्र्ाा में मौजूद है. मसलन छत्तीसगढ़ में विस्थापन एक बड़ी समस्या के रूप में रहा है और अधिकांसतः यह बधुआ मजदूरों के रूप में ही होता है. 1981 में मध्यप्रदेश के एक कमिश्नर (तब छत्तीसगढ़ अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में नही आया था ) लोहानी ने आब्रजन कानून बनाया ताकि यहां से बंधुआ बनकर जाने वाले मजदूरों को रोका जा सके जबकि उनके कारणों की खोज कर निदान करने का प्रयास नहीं किया गया.
अध्ययन के दौरान बंधुआ बनकर विस्थापित होने वाले मजदूरों के संदर्भ में जो कारण निकल कर आये वे कई आयामों के साथ हैं.
एक तो छत्तीसगढ़ के किसान जो भूमि युक्त हैं या जो छोटे किसान हैं बारिस के बाद यानि धान की फसल लगाने के पश्चात उनके पास अन्य फसल लगाने के अवसर नहीं होते हैं. अत बारिस के बाद वे खाली हो जाते हैं, उनके पास संग्रहित धान इतने नहीं होते कि वे वर्ष भर इससे अपनी आजीविका चला सकें. न ही राज्य में मजदूरी की इतनी उप्लब्धता जिस वज़्ाह से वे अपनी आजीविका हेतु किसी अन्य राज्य मसलन उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, जम्मू-काष्मीर, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक आदि राज्यों में पलायन कर जाते हैं जिस वर्ष छत्तीसगढ़ मे सूखा पड़ता है यह पलायन की दर और बढ़ जाती है. एक अंकडे़ के मुताबिक 2001 में पडे़ सूखे की वज़्ाह से 20,000 गांव से 6 लाख से अधिक मजदूरों का पलायन हुआ था.
वहीं 18 लाख के आस-पास यहां भूमिहीन मजदूर भी हैं खासतौर से पलायन जिन जिलों से अधिक होता है उनमें बिलासपुर, जांजी-चाम्पा, महासमुंद आदि हैं यहां जमीन प्रति एकड़ से भी कम है ऐसी स्थिति में ठेकेदार इन्हें एडवांस देकर लेजाते हैं और दिन-रात काम के बदले अपने मन मुवाफ़िक रकम ही देते हैं. कई बार दिया हुआ एडवांस चुकता नही होने पर इन्हें फिर से उसी रकम पर वहीं जाना पड़ता है या फिर नियोक्ता इन्हे आने की अनुमति ही नहीं देता. ऐसी स्थिति में महिलाओं के साथ दुवर््यवहार भी होता है. कुछ मामले ऐसे भी हैं जिनमे मजदूर बंधक बनकर गये और उन्हें छोड़ने के लिये परिजनों से पैसा भी मांगा गया.
बंधक बनकर जाने वाले मजदूरों के दवा पानी राशन आदि की सुविधा कई नियोक्ता करते भी हैं तो अंत मे उनकी मजदूरी जो प्रायः अनुबंधित मजदूरी से कम होती है उसमें से काट लिया जाता है. मजदूर अनपढ़ होते हैं अतः उन्हें सही-सही पता नहीं चल पाता कि उन्हें कितना मिलना चाहिये कितना नहीं. नियोक्ता लौटते वक्त जितना देता है उतना ही लेने के लिये वे मजबूर रहते हैं. विस्थापित होने वाले ज्यादातर बंधुआ मजदूर ईंट भट्ठों पर काम के लिये अपने परिवार के साथ जाते हैं जिन्हें 1000 ईंट बनाने का 120-130 रूपये दिया जाता है पर यह दर सभी के लिये समान रूप से लागू नहीं होती यह उनके द्वारा लिये गये दादेन ( एडवांस) पर निर्भर करती है कई बार वे मुफ्त में भी काम करते हैं .
कई मामले ऐसे भी हैं जहां उनके मजदूरी का पैसा एक वर्ष के लिये रोक लिया जाता है यानि इस वर्ष का अगले बरस. इससे होता यह है कि मजदूर अगली बार नियोक्ता तक खुद पहुंच जाता है और उससे बंधने के लिये मजबूर होता है. यह पलायन अक्टूबर माह से चालू होता है और मई तक मजदूर लौट कर फिर अपने गांव आते हैं.
छत्तीसगढ़ व अध्ययन के लिये चुने गये उड़ीसा के जिले आधिकांसतः आदिवासी बाहुल्य हैं. सतत क्रम में अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि आदिवासियों का विस्थापन हाल के वर्षों में बढ़ा है, इससे पहले उनका विस्थापन कम होता था. सरकारी तौर पर हाल में काफी सख्ती विस्थापित होने वाले मजदूरों को लेकर बरती गयी. मसलन गांव के स्तर पर समितियां भी बनायी गयी, ग्राम उत्कर्ष योजना के तहत विस्थापन के समय में गांव में कार्य हेतु पैसे आबंटित किये गये, स्टेशन बस स्टैंड पर पुलिस तैनात की गयी. पर पुलिस मजदूरों के साथ ज्यादती नही करती. वह 10 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से ठेकेदारों से ले लेती है और मजदूरों को जाने देती है.
बंधुआ मजदूर अक्सर सपरिवार ही पलायित करते हैं. गांव में केवल बूढे़ बचते हैं जो फसल से उपजे धान से अपनी जीविका चलाते हैं. अध्ययन के दौरान यह भी पाया गया कि पलायित होने वाले बंधुआ मजदूर अधिकांशतः अनुसूचित जाति या जन जाति के हैं जिनमे बहुतों के पास न तो घर के जमीन का पट्टा है न ही खेत का, वे जंगल की जमीन पर रहते हैं.
वे अपने युवा बेटियों को कम ले जाते हैं क्योकि उनके साथ दुर्वयवहार होने की आशंका रहती है अतः एडवांस या दादेन लेकर उनकी शादी जल्दी कर देते हैं. ईट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर अक्सर जोड़ों के रूप में ही काम करते हैं. इन्हें किसी तरह की छुट्टी नही दी जाती जिस दिन नियोक्ता इन्हें पैसा देता है उस दिन सामान खरीदने जाने की छूट होती है. न तो नियोक्ता द्वारा इनके लिये किसी शौचालय की व्यवस्था होती है, न ही इन्हें बेतन कार्ड दिया जाता है, बच्चों के लिये पालना घर जैसी कोई सुविधा नहीं होती काम करते वक्त ये अपने बच्चों को साथ लिये होते हैं. इनके घर इनके द्वारा बनाये गये कच्चे ईंट पर घास लगाकर तैयार किये जाते हैं. और अधिकांश मजदूरों को सरकार के द्वारा तय की गयी मजदूरी का पता भी नहीं होता. अतः पलायित मजदूर असुरक्षा के बीच घोर अमानवीय व्यवस्था में जीते हैं.
अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि राज्य के कुछ जिलों में अभी भी ऐसे बंधुआ मजदूर मौजूद हैं जो पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी बंधुआ बने हुए हैं. और ये अपने को बंधुआ मानते भी हैं. ये अपने पूरे परिवार के साथ नियोक्ता यानि मालिक के घर पर काम करते हैं और प्रति दिन 700 ग्राम धान प्राप्त करते हैं. ये पूरी तरह से अपने मालिकों के संरक्षण में रहते हैं साथ ही जब इनकी अगली पीढ़ी बड़ी होती है तो वह भी वही काम करने लगती है प्रायः ये खेती, किसानी व घरेलू काम ही करते हैं व मालिक द्वारा कहीं पर भेज कर भी काम करवाया जाता है. जिसका पैसा मालिक खुद प्राप्त करता है. बीमार होने पर मालिक की तरफ से दवा करवा दी जाती है पर यह बीमारी पर निर्भर करता है. किसी गंभीर बीमारी की वज़्ाह से कई बार इनके सदस्यों की मृत्यु भी हो जाती है.
छत्तीसगढ़ के कई जिले ऐसे हैं जिनका विकास औद्योगिक क्षेत्र्ा के रूप में हुआ है. मसलन सिलतरा, उर्ला, भिलाई, दुर्ग राजनांदगांव आदि इन औद्योगिक ईकाईयों में राज्य व राज्य के बाहर से मजदूर लाखों की संख्या में काम करते हैं. पिछले कुछ दशकों से यहां नियमित मजदूरों की संख्या घटी है और ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा मिला है. स्वयं भिलाई स्टील प्लांट में 90 के दशक में जहां पहले 96,000 के आस-पास मजदूर थे, उनकी संख्या घटकर महज़्ा 27,000 के आस-पास पहुंच गयी है, और इतने ही के आस्-पास संख्या में मजदूर ठेकेदारों की नियुक्ति पर काम करते हैं. बाकी संख्या के मजदूर मशीनीकरण की वज़्ाह से हटा दिये गये. ठेकेदारों के मातहत काम करने वाले मजदूर एडवांस लेकर उनके बंधुआ बनते हैं जबकि उर्ला व सिलतरा क्षेत्र्ा में जहां स्पंज आयरन व पावर प्लांट की बहुलता है वहां अधिकांस संख्या में ठेकेदारी प्रथा लागू है जो कि एडवांस देकर बधुआ बने मजदूरों पर आधारित है. आने वाले बंधुआ मजदूर बस्तर, व दांतेवाडा जैसे जंगलों के आदिवासी भी हैं जो पहले अपनी आजीविका जंगलों में खोज लिया करते थे पर कम होते व कटते जंगलों से इनके आजीविका की समस्या बढ़ रही है और ये पलायित होने व बंधुआ बनने को मजबूर हो रहे हैं. इन मजदूरों के लिये न ही कोई षौचालय की व्यवस्था की गयी है न ही पीने के साफ पानी की आस-पास के तालाबों में ये स्नान करते हैं, जहां का जल इन कम्पनियों के प्रदूषण से काला हो चुका है. स्थिति ये है कि आधे घंटे सड़क पर रहने के बाद कई कि.मी. के इलाके में फैले प्रदूषण की वज़्ाह से मुंह पर कालिख जम जाती है. यहां की फसलें काली होने की वज़्ाह से बिक्री में भी समस्या होती है कई बार मजबूर होकर सरकार खरीदती है. अन्यथा किसानों के यहां सड़ जाता है. इन काम करने वाले मजदूरों को ठेकेदार 1500 से 2000 रूपये मासिक देता है और 12 घंटे से ज्यादा काम करना पड़ता है.प्रायः ये अकुशल श्रमिक के रूप में देखे जाते हैं यही हालत अन्य कई क्षेत्र्ा में काम करने वाले ठेकेदारों द्वारा बंधक मजदूरों के साथ भी है जो सड़क निर्माण से लेकर चावल मिल में काम करते हैं दृ अतः ठेकेदारी की बड़ती प्रथा ने बंधुआ मजदूरों के स्वरूप को बदल दिया है. जिससे बंधुआ का जो संवैधानिक विश्लेषण है उसके तहत इन्हें पहचानना मुश्किल है.
चन्द्रिका
अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति के बाद जनता को स्वतंत्र्ाता, समता व अन्य कई मौलिक अधिकार दिये गये, जिनका मिलना अपने को लोकतांत्र्ािक कहे जाने वाले देश में लाज़्ामी था. इन कानूनों के होने के बाद भी स्थिति ये रही कि देश के कई इलाकों में बंधुआ मजदूरी की प्रथा जारी रही अतः 19 फरवरी 1976 को बंधुआ मजदूर जो कि दुर्बल वर्ग के होते थे या आज भी हैं के शारीरिक व आर्थिक शोषण से मुक्ति हेतु ’बंधित श्रम प्रथा उन्मूलन नियम 1976’ सत्ता हस्तांतरण के 27 वर्ष बाद बनाया गया. इसके पश्चात अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति 1989 अधिनियम भी बनाया गया, जिसका सम्बंध बंधुआ मजदूरों से जुड़ा हुआ है, क्योंकि देश में चल रही बंधुआ प्रथा में एक अंकडे के मुताबिक 98 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोग प्रताड़ित होते हैं.
कानूनी तौर पर बंधुआ मजदूरों को लेकर कुछ अन्य नियम भी बनाये गये जैसे बंधुआ मजदूर व प्रवासी बंधुआ मजदूर जो किसी अन्य राज्य में जाकर बंधुआ के रूप में कार्य करते हैं उनके लिये जिले में सतर्कता समिति के गठन का भी सुझाव दिया गया और समिति निर्माण का कार्य जिला अधिकारी को दिया गया. साथ में बंधुआ मजदूरी कराने वाले व्यक्ति नियोक्ता ठेकेदार आदि को दंडित करने का नियम भी बनाया गया जो 3 वर्ष तक कारावास व 2000 रूपये जुर्माने के रूप में थी. सरकार द्वारा बंधुआ मजदूरों के सम्बंध में राहत राशि की व्यवस्था भी की गयी जो 25,000 रूपये उनके पुनर्वास हेतु व पानी भूमि आदि के रूप में की गयी.जिसे छत्तीसगढ के कुछ जिलों में जिनमे महासमुंद, रायपुर व उड़ीसा के बरगड़ नवापाड़ा आदि में गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बंधुआ मजदूरों को इंगित कर उनमे से कुछ को यह सुविधा प्रदान कराई गयी पर कई बंधुआ मजदूरों को यह अभी तक नही मिली.
प्रस्तुत रिपोर्ट प्रथम व द्वितीय श्रोतों के अध्ययन का एक संक्षिप्तीकरण है. जिसमे यह बात गौर करने की है कि कानूनों के दबाव व नियमों को ध्यान में रखते हुए राज्यों में बंधुआ मजदूरों का स्वरूप बदल गया है. अध्ययन के दौरान इस बात का पता लगा कि बंधुआ मजदूरों को लेकर स्वामी अग्निवेश के अंदोलन के प्रभाव से बंधुआ मजदूरों की स्थिति में बदलाव आया या कहा जाय कि उनका स्वरूप बदल गया क्योंकि उनके प्रभाव में आकर राज्य के कई संस्थाओं व कार्यकर्ताओं ने बंधुआ मुक्ति अंदोलन चलाया जिनमें छत्तीसगढ़ बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने महती भूमिका निभाई है.कारणवस जो पारंपरिक स्वरूप था वह बहुत कम दिखता है परंतु यह बदले हुए स्वरूप में बड़ी मात्र्ाा में मौजूद है. मसलन छत्तीसगढ़ में विस्थापन एक बड़ी समस्या के रूप में रहा है और अधिकांसतः यह बधुआ मजदूरों के रूप में ही होता है. 1981 में मध्यप्रदेश के एक कमिश्नर (तब छत्तीसगढ़ अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में नही आया था ) लोहानी ने आब्रजन कानून बनाया ताकि यहां से बंधुआ बनकर जाने वाले मजदूरों को रोका जा सके जबकि उनके कारणों की खोज कर निदान करने का प्रयास नहीं किया गया.
अध्ययन के दौरान बंधुआ बनकर विस्थापित होने वाले मजदूरों के संदर्भ में जो कारण निकल कर आये वे कई आयामों के साथ हैं.
एक तो छत्तीसगढ़ के किसान जो भूमि युक्त हैं या जो छोटे किसान हैं बारिस के बाद यानि धान की फसल लगाने के पश्चात उनके पास अन्य फसल लगाने के अवसर नहीं होते हैं. अत बारिस के बाद वे खाली हो जाते हैं, उनके पास संग्रहित धान इतने नहीं होते कि वे वर्ष भर इससे अपनी आजीविका चला सकें. न ही राज्य में मजदूरी की इतनी उप्लब्धता जिस वज़्ाह से वे अपनी आजीविका हेतु किसी अन्य राज्य मसलन उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, जम्मू-काष्मीर, हरियाणा, पंजाब, कर्नाटक आदि राज्यों में पलायन कर जाते हैं जिस वर्ष छत्तीसगढ़ मे सूखा पड़ता है यह पलायन की दर और बढ़ जाती है. एक अंकडे़ के मुताबिक 2001 में पडे़ सूखे की वज़्ाह से 20,000 गांव से 6 लाख से अधिक मजदूरों का पलायन हुआ था.
वहीं 18 लाख के आस-पास यहां भूमिहीन मजदूर भी हैं खासतौर से पलायन जिन जिलों से अधिक होता है उनमें बिलासपुर, जांजी-चाम्पा, महासमुंद आदि हैं यहां जमीन प्रति एकड़ से भी कम है ऐसी स्थिति में ठेकेदार इन्हें एडवांस देकर लेजाते हैं और दिन-रात काम के बदले अपने मन मुवाफ़िक रकम ही देते हैं. कई बार दिया हुआ एडवांस चुकता नही होने पर इन्हें फिर से उसी रकम पर वहीं जाना पड़ता है या फिर नियोक्ता इन्हे आने की अनुमति ही नहीं देता. ऐसी स्थिति में महिलाओं के साथ दुवर््यवहार भी होता है. कुछ मामले ऐसे भी हैं जिनमे मजदूर बंधक बनकर गये और उन्हें छोड़ने के लिये परिजनों से पैसा भी मांगा गया.
बंधक बनकर जाने वाले मजदूरों के दवा पानी राशन आदि की सुविधा कई नियोक्ता करते भी हैं तो अंत मे उनकी मजदूरी जो प्रायः अनुबंधित मजदूरी से कम होती है उसमें से काट लिया जाता है. मजदूर अनपढ़ होते हैं अतः उन्हें सही-सही पता नहीं चल पाता कि उन्हें कितना मिलना चाहिये कितना नहीं. नियोक्ता लौटते वक्त जितना देता है उतना ही लेने के लिये वे मजबूर रहते हैं. विस्थापित होने वाले ज्यादातर बंधुआ मजदूर ईंट भट्ठों पर काम के लिये अपने परिवार के साथ जाते हैं जिन्हें 1000 ईंट बनाने का 120-130 रूपये दिया जाता है पर यह दर सभी के लिये समान रूप से लागू नहीं होती यह उनके द्वारा लिये गये दादेन ( एडवांस) पर निर्भर करती है कई बार वे मुफ्त में भी काम करते हैं .
कई मामले ऐसे भी हैं जहां उनके मजदूरी का पैसा एक वर्ष के लिये रोक लिया जाता है यानि इस वर्ष का अगले बरस. इससे होता यह है कि मजदूर अगली बार नियोक्ता तक खुद पहुंच जाता है और उससे बंधने के लिये मजबूर होता है. यह पलायन अक्टूबर माह से चालू होता है और मई तक मजदूर लौट कर फिर अपने गांव आते हैं.
छत्तीसगढ़ व अध्ययन के लिये चुने गये उड़ीसा के जिले आधिकांसतः आदिवासी बाहुल्य हैं. सतत क्रम में अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि आदिवासियों का विस्थापन हाल के वर्षों में बढ़ा है, इससे पहले उनका विस्थापन कम होता था. सरकारी तौर पर हाल में काफी सख्ती विस्थापित होने वाले मजदूरों को लेकर बरती गयी. मसलन गांव के स्तर पर समितियां भी बनायी गयी, ग्राम उत्कर्ष योजना के तहत विस्थापन के समय में गांव में कार्य हेतु पैसे आबंटित किये गये, स्टेशन बस स्टैंड पर पुलिस तैनात की गयी. पर पुलिस मजदूरों के साथ ज्यादती नही करती. वह 10 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से ठेकेदारों से ले लेती है और मजदूरों को जाने देती है.
बंधुआ मजदूर अक्सर सपरिवार ही पलायित करते हैं. गांव में केवल बूढे़ बचते हैं जो फसल से उपजे धान से अपनी जीविका चलाते हैं. अध्ययन के दौरान यह भी पाया गया कि पलायित होने वाले बंधुआ मजदूर अधिकांशतः अनुसूचित जाति या जन जाति के हैं जिनमे बहुतों के पास न तो घर के जमीन का पट्टा है न ही खेत का, वे जंगल की जमीन पर रहते हैं.
वे अपने युवा बेटियों को कम ले जाते हैं क्योकि उनके साथ दुर्वयवहार होने की आशंका रहती है अतः एडवांस या दादेन लेकर उनकी शादी जल्दी कर देते हैं. ईट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूर अक्सर जोड़ों के रूप में ही काम करते हैं. इन्हें किसी तरह की छुट्टी नही दी जाती जिस दिन नियोक्ता इन्हें पैसा देता है उस दिन सामान खरीदने जाने की छूट होती है. न तो नियोक्ता द्वारा इनके लिये किसी शौचालय की व्यवस्था होती है, न ही इन्हें बेतन कार्ड दिया जाता है, बच्चों के लिये पालना घर जैसी कोई सुविधा नहीं होती काम करते वक्त ये अपने बच्चों को साथ लिये होते हैं. इनके घर इनके द्वारा बनाये गये कच्चे ईंट पर घास लगाकर तैयार किये जाते हैं. और अधिकांश मजदूरों को सरकार के द्वारा तय की गयी मजदूरी का पता भी नहीं होता. अतः पलायित मजदूर असुरक्षा के बीच घोर अमानवीय व्यवस्था में जीते हैं.
अध्ययन के दौरान यह पाया गया कि राज्य के कुछ जिलों में अभी भी ऐसे बंधुआ मजदूर मौजूद हैं जो पारंपरिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी बंधुआ बने हुए हैं. और ये अपने को बंधुआ मानते भी हैं. ये अपने पूरे परिवार के साथ नियोक्ता यानि मालिक के घर पर काम करते हैं और प्रति दिन 700 ग्राम धान प्राप्त करते हैं. ये पूरी तरह से अपने मालिकों के संरक्षण में रहते हैं साथ ही जब इनकी अगली पीढ़ी बड़ी होती है तो वह भी वही काम करने लगती है प्रायः ये खेती, किसानी व घरेलू काम ही करते हैं व मालिक द्वारा कहीं पर भेज कर भी काम करवाया जाता है. जिसका पैसा मालिक खुद प्राप्त करता है. बीमार होने पर मालिक की तरफ से दवा करवा दी जाती है पर यह बीमारी पर निर्भर करता है. किसी गंभीर बीमारी की वज़्ाह से कई बार इनके सदस्यों की मृत्यु भी हो जाती है.
छत्तीसगढ़ के कई जिले ऐसे हैं जिनका विकास औद्योगिक क्षेत्र्ा के रूप में हुआ है. मसलन सिलतरा, उर्ला, भिलाई, दुर्ग राजनांदगांव आदि इन औद्योगिक ईकाईयों में राज्य व राज्य के बाहर से मजदूर लाखों की संख्या में काम करते हैं. पिछले कुछ दशकों से यहां नियमित मजदूरों की संख्या घटी है और ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा मिला है. स्वयं भिलाई स्टील प्लांट में 90 के दशक में जहां पहले 96,000 के आस-पास मजदूर थे, उनकी संख्या घटकर महज़्ा 27,000 के आस-पास पहुंच गयी है, और इतने ही के आस्-पास संख्या में मजदूर ठेकेदारों की नियुक्ति पर काम करते हैं. बाकी संख्या के मजदूर मशीनीकरण की वज़्ाह से हटा दिये गये. ठेकेदारों के मातहत काम करने वाले मजदूर एडवांस लेकर उनके बंधुआ बनते हैं जबकि उर्ला व सिलतरा क्षेत्र्ा में जहां स्पंज आयरन व पावर प्लांट की बहुलता है वहां अधिकांस संख्या में ठेकेदारी प्रथा लागू है जो कि एडवांस देकर बधुआ बने मजदूरों पर आधारित है. आने वाले बंधुआ मजदूर बस्तर, व दांतेवाडा जैसे जंगलों के आदिवासी भी हैं जो पहले अपनी आजीविका जंगलों में खोज लिया करते थे पर कम होते व कटते जंगलों से इनके आजीविका की समस्या बढ़ रही है और ये पलायित होने व बंधुआ बनने को मजबूर हो रहे हैं. इन मजदूरों के लिये न ही कोई षौचालय की व्यवस्था की गयी है न ही पीने के साफ पानी की आस-पास के तालाबों में ये स्नान करते हैं, जहां का जल इन कम्पनियों के प्रदूषण से काला हो चुका है. स्थिति ये है कि आधे घंटे सड़क पर रहने के बाद कई कि.मी. के इलाके में फैले प्रदूषण की वज़्ाह से मुंह पर कालिख जम जाती है. यहां की फसलें काली होने की वज़्ाह से बिक्री में भी समस्या होती है कई बार मजबूर होकर सरकार खरीदती है. अन्यथा किसानों के यहां सड़ जाता है. इन काम करने वाले मजदूरों को ठेकेदार 1500 से 2000 रूपये मासिक देता है और 12 घंटे से ज्यादा काम करना पड़ता है.प्रायः ये अकुशल श्रमिक के रूप में देखे जाते हैं यही हालत अन्य कई क्षेत्र्ा में काम करने वाले ठेकेदारों द्वारा बंधक मजदूरों के साथ भी है जो सड़क निर्माण से लेकर चावल मिल में काम करते हैं दृ अतः ठेकेदारी की बड़ती प्रथा ने बंधुआ मजदूरों के स्वरूप को बदल दिया है. जिससे बंधुआ का जो संवैधानिक विश्लेषण है उसके तहत इन्हें पहचानना मुश्किल है.
चन्द्रिका
जो आदिवासी अपना स्थान छोड़ कर दूर प्रदेशों में मजदूरी के लिए जाते हैं सबसे अधिक शोषण उन का ही होता है। अक्सर ही ठेकेदार लोग उन की मजदूरी को खा जाते हैं।
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