गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथों हिंदी के सर्वाधिक पढे़ जाने वाले लेखक उदय प्रकाश द्वारा एक ’स्मृति सम्मान’ लेने की ख़बर के साथ ही समूची हिंदी पट्टी के लेखकों, कवियों, आलोचकों और उदय प्रकाश के आत्मीय शुभचिंतकों में गहरी निराशा, क्षोभ, आक्रोश और असहमति की लहर फैल गई। हिंदी भाषा में अभी परिपक्वता की दहलीज की ओर अग्रसर नये-नवेले माध्यम ब्लॉग पर इस पूरी परिघटना के पक्ष-विपक्ष में व्यापक बहस हुई। उदय प्रकाश के अनुसार यह आयोजन नियाहत पारिवारिक था, जिसके राजनीतिक निहितार्थों के बारे में वे इतने सजग और सावधान नहीं थे।
बहरहाल, उदय प्रकाश ने अपने पाठकों, शुभचिंतकों को विचलित और दुखी कर देने की लापरवाही के कारण सार्वजनिक तौर पर माफ़ी मांग ली है। आख़िर उदय हिंदी के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले लेखक हैं। उदय प्रकाश की रचनाएं चाहे वह पद्य हो या गद्य, हिंदी जगत में एक ऊर्जावान हलचल के साथ आदर पाती हैं। उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं। और उनकी रचनाओं में इस ताक़त को चीन्हकर अभी कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र के अमरावती जिले में, खैरलांजी में एक दलित परिवार की हत्या के विरोध में हो रहे जनांदोलनों का दमन करने वाली राज सत्ता के ख़िलाफ़ वास्तविक, जुझारू लड़ाई लड़ने वाले दलित संगठनों ने उदय प्रकाश के सम्मान में सर झुकाते हुए उन्हें ’भीम सेना’ का प्रतीकात्मक सेनाध्यक्ष बनाकर रथ में घुमाया था। इसका जीवंत विवरण पाठक ख़ुद उदय प्रकाश के हिंदी ब्लॉग में पढ़ सकते हैं।
यह कोई कहने की बात नहीं है कि हिंदी भाषा के एक ऐसे जनपक्षधर, लोकप्रिय तथा मूर्धन्य समकालीन लेखक द्वारा बर्बर हिंदुत्व की आतंकी राजनीति करने वाले बाहुबली सांसद के हाथों सम्मान लेना हिंदी जगत के लिए अपमानजनक ही नहीं, बल्कि घोर आपत्तिजनक है। हिंदी के सुधी रचनाकारों से इस मामले में उदय से असहमति ज़ाहिर करना, उनका विरोध करना बहुत स्वाभाविक और जायज़ है।
लेकिन सवाल कुछ और भी गहरे, जटिल तथा एक-दूसरे से गहरे संबद्ध हैं, जो समूचे हिंदी परिदृश्य के दोहरे मापदंडों और छद्म को उजागर करते हैं। जिन दिनों उदय प्रकाश के मामले पर समूचा हिंदी जगत अपना सिर खपा रहा था, उन्हीं दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ’प्रमोद वर्मा’ स्मृति न्यास की ओर से पहले प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान के तत्वावधान में दो दिवसीय साहित्यिक आयोजन का प्रबंध था। न्यास के अध्यक्ष छत्तीसगढ़ पुलिस के मुखिया अर्थात डीजीपी विश्वरंजन इस कार्यक्रम के प्रमुख आयोजक थे। कार्यक्रम के दौरान छत्तीसगढ में सत्तारूढ़ भाजपा विधायक दल के नेता अर्थात मुख्यमंत्री रमन सिंह सहित कई अन्य मंत्रीगण भी बिना किसी पूर्वघोषणा के पहुंचे। कार्यक्रम में चंद्रकांत देवताले, अशोक वाजपेयी, नंदकिशोर आचार्य जैसे हिंदी के कई ’चर्चित’, ’बड़े’ प्रगतिशील और जनवादी लेखक, कवि और आलोचक उपस्थित थे।
आज दुनिया को यह बताने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार और उसके नुमाइंदों का वास्तविक चरित्र क्या है? देशी शासकों द्वारा देश के जल, जंगल, ज़मीन को बड़ी कार्पोरेट कंपनियों को सौंपे जाने के विरोध में जिन आदिवासी, मज़दूर, दलित या महिला संगठनों ने आवाज़ उठाई, उन पर सरकार के फौज़ी ’विजय अभियान’ का ’वीरता चक्र’ पूरे देश में चल रहा है। छत्तीसगढ़ इस दमन के नंगे रूप का प्रत्यक्ष बयान है, जहां ’सलवा जुडुम’ जैसे बर्बर, हत्यारे अभियान सरकारी एजेंडे में सर्वोपरि हैं, जहां अंग्रेज़ी औपनिवेशिक शासन की तर्ज़ पर आधारित ’विशेष जन (विशिष्ट जन) सुरक्षा अधिनियम’ जैसे अपराधी कानून ’लोकतंत्र’ की दुहाई दे देकर असहमति रखने वाले ’विरोधियों’ को सबक़ सिखाने के लिए हैं।
इन सारी स्थितियों का भंडाफोड़ पूरी दुनिया में हो चुका है। इसके कई ठोस उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। और इन परिघटनाओं से अब अधिकांश लोग परिचित हैं। बावजूद इसके, सत्ता तथा सरकारों के ऐसे नुमाइंदों के बीच हमारे ’बड़े’, ’चर्चित’ प्रगतिशील तथा जनवादी रचनाकारों ने क्यूं शिरकत की? यह सवाल मन को कचोटता है। कार्यक्रम की एक रपट के अनुसार मुख्यमंत्री रमन सिंह ने साहित्यकारों को विचारधारा से ’मुक्त’ होकर रचना करने की सलाह दी। इस बात पर यक़ीन करने का कोई मज़बूत आधार नहीं है कि रमन सिंह के राजनीतिक (कु) कृत्य और साहित्यिक क़द के बारे में वहां मौजूद हमारे प्रिय रचनाकारों को कोई जानकारी नहीं रही होगी। और इस कारण उन्होंने किसी तरह के प्रतिवाद की कोई ज़रूरत महसूस नहीं की होगी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण सवाल यह है, कि जिन लोगों ने फ़ासीवादी सांसद के हाथों सम्मान लेने वाले लेखक का प्रतिकार किया, उन लोगों ने छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ फ़ासीवादी पार्टी के मुखिया के साथ मंच शेयर करने वाले कई हिंदी लेखकों का प्रतिकार क्यों नहीं किया? पूर्वी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की धमकी देने वाले योगी आदित्यनाथ और सल्वा जुडुम के कारण कई हज़ार लोगों को मार डालने तथा साठ हज़ार आदिवासियों को जड़ से उखाड़ देने के लिए ज़िम्मेदार रमन सिंह में क्या अंतर है?
एक ऐसे समय की धार में जब कुछ दिनों पहले ही पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी और रचनाकार लालगढ़ में भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के सुनियोजित संहार के ख़िलाफ़ सड़कों पर खुल कर आ रहे थे, पत्र पत्रिकाओं में विरोध के स्वर को तेज़ कर रहे थे, हिंदी के लेखकों और बुद्धिजीवियों के छत्तीसगढ़ में सरकारी साहित्यिक जलसे में शामिल होने के निर्णय पर हिंदी के अन्य रचनाकारों की चुप्पी भविष्य के लिए भयावह संकेत हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय प्रकाश पर इस बहाने जो बहस हुई, वह एक लेखक की लोकप्रियता को उठाने गिराने के एजेंडे से संचालित रही हो? जबकि रायपुर के साहित्यिक आयोजन से जो राजनीतिक सवाल उभरे हैं, वे मौजूदा समय में समग्र साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के दुखते रग को छूते हैं। हिंदी में रचनारत समाज सिर्फ़ उदय की प्रतिबद्धताओं और सरोकार पर बहस करके एक सुविधाजनक संतुष्टि की ओर उन्मुख दिख रहा है। एक मित्र बता रहे थे कि हिंदी की एक साहित्यिक पत्रिका उदय प्रकाश प्रकरण पर विशेषांक निकालने जा रही है। हिंदी रचना संसार को छत्तीसगढ़ जैसे आयोजनों और उसमें शामिल होने वाले लेखकों के बारे में बात करने से, समूचे हिंदी रचनाशील दुनिया के खोखलेपन के उजागर होने का डर तो नहीं है?
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में मीडिया के शोध छात्र हैं।)
यह कोई कहने की बात नहीं है कि हिंदी भाषा के एक ऐसे जनपक्षधर, लोकप्रिय तथा मूर्धन्य समकालीन लेखक द्वारा बर्बर हिंदुत्व की आतंकी राजनीति करने वाले बाहुबली सांसद के हाथों सम्मान लेना हिंदी जगत के लिए अपमानजनक ही नहीं, बल्कि घोर आपत्तिजनक है। हिंदी के सुधी रचनाकारों से इस मामले में उदय से असहमति ज़ाहिर करना, उनका विरोध करना बहुत स्वाभाविक और जायज़ है।
लेकिन सवाल कुछ और भी गहरे, जटिल तथा एक-दूसरे से गहरे संबद्ध हैं, जो समूचे हिंदी परिदृश्य के दोहरे मापदंडों और छद्म को उजागर करते हैं। जिन दिनों उदय प्रकाश के मामले पर समूचा हिंदी जगत अपना सिर खपा रहा था, उन्हीं दिनों छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ’प्रमोद वर्मा’ स्मृति न्यास की ओर से पहले प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान के तत्वावधान में दो दिवसीय साहित्यिक आयोजन का प्रबंध था। न्यास के अध्यक्ष छत्तीसगढ़ पुलिस के मुखिया अर्थात डीजीपी विश्वरंजन इस कार्यक्रम के प्रमुख आयोजक थे। कार्यक्रम के दौरान छत्तीसगढ में सत्तारूढ़ भाजपा विधायक दल के नेता अर्थात मुख्यमंत्री रमन सिंह सहित कई अन्य मंत्रीगण भी बिना किसी पूर्वघोषणा के पहुंचे। कार्यक्रम में चंद्रकांत देवताले, अशोक वाजपेयी, नंदकिशोर आचार्य जैसे हिंदी के कई ’चर्चित’, ’बड़े’ प्रगतिशील और जनवादी लेखक, कवि और आलोचक उपस्थित थे।
आज दुनिया को यह बताने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार और उसके नुमाइंदों का वास्तविक चरित्र क्या है? देशी शासकों द्वारा देश के जल, जंगल, ज़मीन को बड़ी कार्पोरेट कंपनियों को सौंपे जाने के विरोध में जिन आदिवासी, मज़दूर, दलित या महिला संगठनों ने आवाज़ उठाई, उन पर सरकार के फौज़ी ’विजय अभियान’ का ’वीरता चक्र’ पूरे देश में चल रहा है। छत्तीसगढ़ इस दमन के नंगे रूप का प्रत्यक्ष बयान है, जहां ’सलवा जुडुम’ जैसे बर्बर, हत्यारे अभियान सरकारी एजेंडे में सर्वोपरि हैं, जहां अंग्रेज़ी औपनिवेशिक शासन की तर्ज़ पर आधारित ’विशेष जन (विशिष्ट जन) सुरक्षा अधिनियम’ जैसे अपराधी कानून ’लोकतंत्र’ की दुहाई दे देकर असहमति रखने वाले ’विरोधियों’ को सबक़ सिखाने के लिए हैं।
इन सारी स्थितियों का भंडाफोड़ पूरी दुनिया में हो चुका है। इसके कई ठोस उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। और इन परिघटनाओं से अब अधिकांश लोग परिचित हैं। बावजूद इसके, सत्ता तथा सरकारों के ऐसे नुमाइंदों के बीच हमारे ’बड़े’, ’चर्चित’ प्रगतिशील तथा जनवादी रचनाकारों ने क्यूं शिरकत की? यह सवाल मन को कचोटता है। कार्यक्रम की एक रपट के अनुसार मुख्यमंत्री रमन सिंह ने साहित्यकारों को विचारधारा से ’मुक्त’ होकर रचना करने की सलाह दी। इस बात पर यक़ीन करने का कोई मज़बूत आधार नहीं है कि रमन सिंह के राजनीतिक (कु) कृत्य और साहित्यिक क़द के बारे में वहां मौजूद हमारे प्रिय रचनाकारों को कोई जानकारी नहीं रही होगी। और इस कारण उन्होंने किसी तरह के प्रतिवाद की कोई ज़रूरत महसूस नहीं की होगी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण सवाल यह है, कि जिन लोगों ने फ़ासीवादी सांसद के हाथों सम्मान लेने वाले लेखक का प्रतिकार किया, उन लोगों ने छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ फ़ासीवादी पार्टी के मुखिया के साथ मंच शेयर करने वाले कई हिंदी लेखकों का प्रतिकार क्यों नहीं किया? पूर्वी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने की धमकी देने वाले योगी आदित्यनाथ और सल्वा जुडुम के कारण कई हज़ार लोगों को मार डालने तथा साठ हज़ार आदिवासियों को जड़ से उखाड़ देने के लिए ज़िम्मेदार रमन सिंह में क्या अंतर है?
एक ऐसे समय की धार में जब कुछ दिनों पहले ही पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी और रचनाकार लालगढ़ में भारत सरकार द्वारा आदिवासियों के सुनियोजित संहार के ख़िलाफ़ सड़कों पर खुल कर आ रहे थे, पत्र पत्रिकाओं में विरोध के स्वर को तेज़ कर रहे थे, हिंदी के लेखकों और बुद्धिजीवियों के छत्तीसगढ़ में सरकारी साहित्यिक जलसे में शामिल होने के निर्णय पर हिंदी के अन्य रचनाकारों की चुप्पी भविष्य के लिए भयावह संकेत हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय प्रकाश पर इस बहाने जो बहस हुई, वह एक लेखक की लोकप्रियता को उठाने गिराने के एजेंडे से संचालित रही हो? जबकि रायपुर के साहित्यिक आयोजन से जो राजनीतिक सवाल उभरे हैं, वे मौजूदा समय में समग्र साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के दुखते रग को छूते हैं। हिंदी में रचनारत समाज सिर्फ़ उदय की प्रतिबद्धताओं और सरोकार पर बहस करके एक सुविधाजनक संतुष्टि की ओर उन्मुख दिख रहा है। एक मित्र बता रहे थे कि हिंदी की एक साहित्यिक पत्रिका उदय प्रकाश प्रकरण पर विशेषांक निकालने जा रही है। हिंदी रचना संसार को छत्तीसगढ़ जैसे आयोजनों और उसमें शामिल होने वाले लेखकों के बारे में बात करने से, समूचे हिंदी रचनाशील दुनिया के खोखलेपन के उजागर होने का डर तो नहीं है?
(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में मीडिया के शोध छात्र हैं।)
अनिल जी इस बिना पर कि कोई लेखक बहुत पढा जाता है या कि लेखक ने बहुत जनपक्षधर रचनाएं लिखी हैं तो वह यदि अमानवीय अत्याचारियों के साथ खडा हो तो बहुत ही भोलेपन के साथ उसके पक्ष में हम भी खडे हों,कोई ठीक बात नहीं। और न ही इसे किसी दूसरे सवाल के साथ जोड कर ही कोई बचाव किया जा सकता है। रही बात छतीसगढ वाले मामले की (जिसके बारे में मेरी जानकारी मात्र उन दो-तीन आलेखों तक ही है जो इस ब्लाग में भी पहले प्रकाशित हुए हैं- जिसमें एक पंकज जी का पत्र और दूसरा क्रषण्मोहन जी का खत) तो उसमें जो सवाल आपने उठाएं हैं निश्चित ही वे जरूरी सवाल हैं। उन पर बात होनी चाहिए। लेकिन छायी हुई चुप्पी से यह समझ में आता है कि हिन्दी का रचनाजगत किस तरह से आत्ममुग्ध है जो सिर्फ़ पुरस्कार प्रकरण पर तो, वो भी आधे-अधूरे तरह से (आधे-अधूरे : क्योंकि उदय प्रकाश का नाम तो उठा, जो उठना जरूरी था, पर वहीं एक आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव के नाम पर चुप्पी है) खूब उत्तेजित होता है, पर सत्ता के चरित्र के सवालों पर वहां वैसी बेचैनी नहीं होती।
जवाब देंहटाएंहम पढ़े लिखे सेकुलरों का एक ही काम रह गया है और वो है हन्दू विरोध | तसलीमा नसरीन को जब धकियाया गया तब हिंदी से सेकुलर रहनुमा कहाँ थे ? कुछ मुस्लिम संगठनों ने गोदरेज को धमकी दी की यदि गोदरेज सलमान रुश्दी को भोज पे आमंत्रित करेंगे तो मुस्लिम समुदाय गोदरेज products का इस्तेमाल बंद कर देंगे |
जवाब देंहटाएंहिंदी सेकुलर्स को सहाबुद्दीन, लालू या मुलायम से कोई दिक्कत नहीं है ये लोग सिर्फ अपनी राजनितिक रोटी सकने मैं लगे हैं |
मेरा ये पोस्ट देखिये शायद कुछ लोगों की आँखें खुले : http://raksingh.blogspot.com/2009/07/blog-post_29.html
अनिल जी,
जवाब देंहटाएंआप का कहने का निहितार्थ क्या है. यह समझ में नहीं आया. एक तरफ आप उदय प्रकाश का विरोध करने का समर्थन करते हैं. साथ ही यह कहकर -- "कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय प्रकाश पर इस बहाने जो बहस हुई, वह एक लेखक की लोकप्रियता को उठाने गिराने के एजेंडे से संचालित रही हो?" आप इस मामले में उदय प्रकाश के स्टैंड कि उनके साथ साजिश कि जा रही है. का समर्थन कर रहें हैं. यदि लेखकों ने छत्तीसगढ़ में हुए कार्यक्रम का विरोध नहीं किया तो क्या इसका आशय यह है कि उन्होंने एक फासीवादी गुंडे से उदय के सम्मानित होने का विरोध कर ठीक नहीं किया.
और आपके 'इस बहाने' का क्या मतलब है? क्या आपको यह सिर्फ बहाना लगता है.
दूसरी बात आप उदय प्रकाश कि माफ़ी से लगता है पूरी तरह सहमत है. ऐसा क्यों है?
आपका कहना है -- "उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं।"
यदि ऐसा है तो खौपनाक सच्चाईओं के प्रति सचेत इस लेखक को यह पता नहीं था कि योगी आदित्यनाथ कौन है. क्या उदय कि इस बात पर विशवास किया जा सकता है कि वे "राजनीतिक निहितार्थों के बारे में वे इतने सजग और सावधान नहीं थे।"
और ध्यान से देखा जाये तो उन्होंने यह भी नहीं कहा है.
उन्होंने व्यावहारिक राजनीतिक निहितार्थों की बात की है
मतलब उनके लिए अब भी यह "व्यावहारिक राजनीति" का सवाल है.
दूसरी बात, आपने लिखा है -- "उनकी रचनाएं हमारे समय के शुभ्र, उज्ज्वला और ’वैधानिकता’ की खोल में छिपे अपराधियों की ख़ौफ़नाक कार्रवाइयों का कच्चा चिट्ठा भर ही नहीं है, बल्कि वे ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ साहसी प्रतिरोध का भी आह्वान करती हैं।"
जवाब देंहटाएंयह दावा तो स्वयं उदयप्रकाश भी नहीं करेंगे.
आखिर उनकी किस कहानी में ऐसे तत्वों के खिलाफ साहसी प्रतिरोध का आह्वान है. जवाब है किसी में भी नहीं. यहाँ मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि उदय प्रकाश की कहानियों में कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है. मेरा विनम्र आग्रह इतना ही है कि मनगढ़ंत तरीके से उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध दिखा देना कोरा भाववाद है. आप उदय प्रकाश कि कहानियों में दरअसल वह बात डाल देना चाहते है जो आपको लगता है कि किसी अच्छे कहानीकार कि कहानियों में होनी चाहिए. और उदय प्रकाश के प्रति आप इतने मोहासक्त है कि जबरन उनकी कहानियों में साहसी प्रतिरोध घुसेड रहें है.
तीसरी बात, यह बात एकदम सही है कि छत्तीसगढ़ के कार्यक्रम में शिरकत के प्रश्न पर चर्चा होनी चाहिए. सत्ता और बुद्धिजीविओं के बीच के सम्बन्ध के बारे में बातचीत होनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंकृष्णमोहन जी जो वहां गए थे. यह तर्क दे रहे हैं कि कार्यक्रम में रमण सिंह के आ जाने से ही वह प्रतिक्रियावादी नहीं हो जाता है. शायद सलवा जुडूम जैसे दमन अभियान कि गंभीरता को भूल रहे हैं. वे भूल रहे हैं कि यह अपने ही नागरिकों पर वियतनाम युद्ध की शैली में छेडा गया एक बर्बर युद्ध है. वे भूल रहें हैं कि इस युद्ध का नायक और निर्माता वही 'कवि' विश्वरंजन है. जो उस कार्यक्रम का कर्ता धर्ता था.
लेकिन अनिल जी, बहुत से लोग इन कृष्णमोहन जी के प्रति भी मोहासक्त हैं. और इसकी तो वजहें भी है. मुक्तिबोध जैसे कवि के सरोकारों को समझ कर उन्होंने उनके रचना कर्म पर एक अच्छी पुस्तक भी लिखी है. लेकिन क्या मुक्तिबोध के काव्य व्यक्तित्व और उनकी पक्षधरता पर लिख कर ही कोई आलोचक आज जनपक्षधर हो सकता है. मुक्तिबोध जिन षड्यंत्रों कि पड़ताल कर रहे थे -- "किसी जन क्रांति के दमन निमित्त यह मार्शल ला है". क्या मुक्तिबोध इस तरह के कार्यक्रम में संम्मिलित होते ?
कहा जाता है कि साहित्य जीवन और समाज की आलोचना है. इस तरह साहित्य की आलोचना तो उस आलोचना की भी आलोचना हुई. जीवन और समाज अपने गहनतम और संश्लिष्टतम रूप में आलोचना में आलोचना में मौजूद होते हैं.
लेकिन क्या किया जाय जब हिंदी के उभरते हुए और स्थापित आलोचकों को अपनी जनता के जीवन और अपने समाज में चल रहे युद्धों की बुनियादी जानकारी भी नहीं है. अकेले कृष्णमोहन ही नहीं है. विश्वरंजन को भेजे अपने पात्र में कवि- आलोचक पंकज चतुर्वेदी कहते हैं कि सलवा जुडूम और उसमें विश्वरंजन कि भूमिका का पता उन्हें एक दिन पहले ही 'द पब्लिक एजेंडा' नामक पत्रिका से हुई. हद है!३ साल हो गए हैं सलवा जुडूम को शुरू हुए. २ साल तो बिनायक को जेल में गए हुए ही होने वाले है. और हिंदी के एक संभावनाशील आलोचक को उसका पता एक दिन पहले चला है.
ऊपर मेरी बात से शायद यह आशय निकल रहा है कि बिनायक अभी जेल में ही हैं . जो कि सही नहीं है.
जवाब देंहटाएं