प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच
११-१२ जुलाई को नई दिल्ली मे सम्पन्न हुई जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जनांदोलनों और मानवाधिकारों पर क्रूर दमन ढानेवाली छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा १० व ११ जुलाई को प्रायोजित 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान" कार्यक्रम में बहुतेरे वाम, प्रगतिशील और जनवादी लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की शिरकत को शर्मनाक बताते हुए खेद व्यक्त किया गया। स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किए जाने वाले किसी भी आयोजन या पुरस्कार से शायद ही किसी कि ऎतराज़ हो, लेकिन जिस तरह छ्त्तीसगढ के पुलिस महानिदेशक के नेतृत्व में इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया गया, जिस तरह छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इसला उदघाटन किया, शिक्षा और संस्कृतिमंत्री बृजमॊहन अग्रवाल भी अतिथि रहे और राज्यपाल के हाथों पुरस्कार बंटवाया गया, वह साफ़ बतलाता है कि यह कार्यक्रम एक साज़िशाना तरीके से एक खास समय में वाम, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संस्कृतिकर्मियों के अपने पक्ष में इस्तेमाल के लिए आयोजित था। यह संभव है कि इस कार्यक्रम में शरीक कई लोग ऎसे भी हों जिन्हें इस कार्यक्रम के स्वरूप के बारे में ठीक जानकारी न रही हो। लेकिन जिस राज्य में तमाम लोकतांत्रिक आंदोलन, मानवाधिकार संगठन, बिनायक सेन जैसे मानवाधिकारवादी चिकित्सक, अजय टी.जी. जैसे फ़िल्मकार, हिमांशु जैसे गांधीवादी को माओवादी बताकर राज्य दमन का शिकार बनाया जाता हो, जहां 'सलवा जुडुम' जैसी सरकार प्रायोजित हथियारबंद सेनाएं आदिवासियों की हत्या, लूट, बलात्कार के लिए कुख्यात हों और ३ लाख से ज़्यादा आदिवासियों को उनके घर-गांव से खदेड़ चुकी हों, जहां 'छ्त्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिट ऎक्ट' जैसे काले कानून मीडिया से लेकर तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोंटने के काम आते हों, वहां के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन (जिनके नेतृत्व में यह दमन अभियान चल रहा हो), के द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम के स्वरूप की कल्पना मुश्किल नहीं थी। वहां जाकर मुख्यमंत्री रमन सिंह के मुख से विचारधारा से मुक्त रहने का उपदेश और लोकतंत्र की व्याख्या सुनने की ज़िल्लत बर्दाश्त करने से बचा जा सकता था। बहरहाल, यह घटना वामपंथी, प्रगतिशील, जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन के लिए चिंताजनक और शर्मसार होने वाली घटना ज़रूर है। हम यह उम्मीद ज़रूर करते हैं कि जो साथी वहां नाजानकारी या नादानी में शरीक हुए, वे सत्ता द्वारा धोखे से अपना उपयोग किए जाने की सार्वजनिक निंदा करेंगे और जो जानबूझकर शरीक हुए थे, वे आत्मालोचन कर खुद को पतित होने से भविष्य में बचाने की कोशिश करेंगे और किसी भी जनविरोधी, फ़ासिस्ट सत्ता को वैधता प्रदान करने का औजार नहीं बनेंगे। हम सब जानते हैं कि भारत की ८०% खनिज संपदा और ७०% जंगल आदिवासी इलाकों में हैं। छत्तीसगढ एक ऎसा राज्य है जहां की ३२% आबादी आदिवासी है। लोहा, स्टील,अल्युमिनियम और अन्य धातुऒं, कोयला, हीरा और दूसरे खनिजों के अंधाधुंध दोहन के लिए; टेक्नालाजी पार्क, बड़ी बड़ी सम्पन्न टाउनशिप और गोल्फ़ कोर्स बनाने के लिए तमाम देशी विदेशी कारपोरेट घरानों ने छ्त्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों पर जैसे हमला ही बोल दिया है। उनकी ज़मीनों और जंगलों की कारपोरेट लूट और पर्यावरण के विनाश पर आधारित इस तथाकथित विकास का फ़ायदा सम्पन्न तबकों को है जबकि उजाड़े जाते आदिवासी और गरीब इस विकास की कीमत अदा कर रहे हैं। वर्ष २००० में स्थापित छ्त्तीसगढ राज्य की सरकारों ने इस प्रदेश के संसाधनों के दोहन के लिए देशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ पचासों समझौतों पर दस्तखत किए हैं। १०००० हेक्टेयर से भी ज़्यादा ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में है। आदिवासी अपनी ज़मीन, आजीविका और जंगल बचाने का संघर्ष चलाते रहे हैं। लेकिन वर्षों से उनके तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटा जाता रहा है। कारपोरेट घरानों के मुनाफ़े की हिफ़ाज़त में केंद्र की राजग और संप्रग सरकारों ने, छ्त्तीसगढ़ में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है। कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर सलवा जुडुम का फ़ासिस्ट प्रयोग चला रखा है। आज देशभर में हर व्यवस्था विरोधी आंदोलन या उस पर असुविधाजनक सवाल उठाने वाले व्यक्तियों को माओवादी करार देकर दमन करना सत्ताधारियों का शगल बन चुका है। दमनकारी कानूनों और देश भर के अधिकाधिक इलाकों को सुरक्षाबलों और अत्याधुनिक हथियारों के बल पर शासित रखने की बढ़ती प्रवृत्ति से माओवादियों पर कितना असर पड़ता है, कहना मुश्किल है, लेकिन इस बहाने तमाम मेहनतकश तबकों, अकलियतों, किसानों, आदिवासियों, मज़दूरॊं और संस्कृतिकर्मियों के आंदोलनों को कुचलने में सत्ता को सहूलियत ज़रूर हो जाती है।
इस बिना पर कि कोई लेखक बहुत पढा जाता है या कि लेखक ने बहुत जनपक्षधर रचनाएं लिखी हैं तो वह यदि अमानवीय अत्याचारियों के साथ खडा हो तो बहुत ही भोलेपन के साथ उसके पक्ष में हम भी खडे हों,कोई ठीक बात नहीं। और न ही इसे किसी दूसरे सवाल के साथ जोड कर ही कोई बचाव किया जा सकता है। रही बात छतीसगढ वाले मामले की (जिसके बारे में मेरी जानकारी मात्र उन दो-तीन आलेखों तक ही है जो इस ब्लाग में भी पहले प्रकाशित हुए हैं- जिसमें एक पंकज जी का पत्र और दूसरा कृष्णमोहन जी का खत) तो उसमें जो सवाल आपने उठाएं हैं निश्चित ही वे जरूरी सवाल हैं। उन पर बात होनी चाहिए। लेकिन छायी हुई चुप्पी से यह समझ में आता है कि हिन्दी का रचनाजगत किस तरह से आत्ममुग्ध है जो सिर्फ़ पुरस्कार प्रकरण पर तो, वो भी आधे-अधूरे तरह से (आधे-अधूरे : क्योंकि उदय प्रकाश का नाम तो उठा, जो उठना जरूरी था, पर वहीं एक आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव के नाम पर चुप्पी है) खूब उत्तेजित होता है, पर सत्ता के चरित्र के सवालों पर वहां वैसी बेचैनी नहीं होती।
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