26 दिसंबर 2007

विनायक सेन की कैद के मायने-

अपूर्वानंद
इसी महीने 10 दिसंबर को एक तरफ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मनाया जा रहा था तो दूसरी तरफ नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले एक शख्स की कैद लंबी हो रही थी. ये शख्स हैं इस साल मई से छत्तीसगढ़ की रायपुर जेल में बंद पीयूसीएल नेता डॉ. बिनायक सेन जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने जमानत देने से इनकार कर दिया. 45 मिनट चली सुनवाई वहां मौजूद लोगों के लिए एक भयावह अनुभव था. अभियोजन पक्ष का दावा था कि सेन माओवादी हैं और उन्हें छोड़ने का मतलब होगा सरकार की जड़ें खोदने के लिए उन्हें खुली आजादी देना. परेशान करने वाली बात ये थी कि इस दावे की प्रामाणिकता जांचने की जरूरत ही नहीं समझी गई. डॉ सेन के कंप्यूटर रिकॉर्डों को तोड़मरोड़ कर पेश करते हुए सरकारी वकील ने अदालत को बताया कि इसमें वे पत्र हैं जिनसे ये पता लगता है कि किस तरह डॉ सेन ने नागपुर में हथियारों का प्रशिक्षण कैंप आयोजित क्या फैसला सुनाने वाली खंडपीठ ने ये महसूस किया कि डॉ सेन के एक भी दिन जेल में रहने का मतलब है, छत्तीसगढ़ के धमतारी जिले में रहने वाले आदिवासियों के लिए मुसीबत और पीड़ा?
करने में मदद पहुंचाई. बचाव पक्ष के वकील राजीव धवन ने इस ओर ध्यान खींचने की कोशिश की कि पत्रों को तोड़मरोड़ कर पेश किया जा रहा है और डॉ सेन खैरलांजी में एक दलित परिवार की हत्या से जुड़े तथ्यों की पड़ताल के लिए नागपुर गए थे. लेकिन अदालत का मानना था कि धवन का तर्क ट्रायल कोर्ट में देखेगा और उसके पास डॉ सेन को जमानत न देने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं.

इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात थी हमारे कुछ अनुभवी मित्रों का यह कहना कि अभियोजन पक्ष का काम ही है कि वह झूठ बोले और इसमें कुछ भी नया या अनोखा नहीं है कि सरकारी वकील ने डॉ सेन के बारे में तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश किया.

जब सरकार ही झूठ बोलने पर उतर आए तो आप क्या करेंगे? क्या देश के उच्चतम न्यायालय ने ये सिद्धांत नहीं दिया है कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और जमानत से तब तक इनकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक ये स्वतंत्रता दूसरों के लिए खतरा न बन जाए? क्या फैसला सुनाने वाली खंडपीठ ने ये महसूस किया कि डॉ सेन के एक भी दिन जेल में रहने का मतलब है, छत्तीसगढ़ के धमतारी जिले में रहने वाले आदिवासियों के लिए मुसीबत और पीड़ा? वो आदिवासी जिनके लिए डॉ सेन ही एकमात्र मेडिकल सुविधा थे. क्या खंडपीठ ने ये सोचा कि डॉ सेन की गिरफ्तारी के फलस्वरूप धमतारी अस्पताल बंद हो गया है? और इसके साथ ही पढ़ने में आता है अदालत ने किसी फिल्म स्टार को सिर्फ इसलिए जमानत दे दी कि उसके ऊपर फिल्म उद्योग के करोड़ों रुपये लगे हुए हैं.

आम आदमी सीधे सवाल पूछता है : क्या जमानत दिए जाने पर डॉ सेन के भूमिगत होने का खतरा था? ये एक तथ्य है कि बंगाल में अपनी छुट्टियां बिताने के बाद डॉ सेन मई में रायपुर लौटे थे, ये पता होने के बावजूद कि स्थानीय मीडिया के सहयोग से छत्तीसगढ पुलिस उनके बारे में दुष्प्रचार कर रही है. उनके भाई ने उन्हें एक पत्र भी भेजा था जिसमें आशंका व्यक्त की गई थी कि लौटने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है. लेकिन वह वापस आए और जैसी कि आशंका थी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अगर छत्तीसगढ़ पुलिस अदालत को जैसा बता रही थी वैसा होता तो डॉ सेन मई में ही भूमिगत हो जाते. उनका वापस आने और कानून का सामना करने का फैसला पर्याप्त आधार होना चाहिए था कि कोई भी अदालत उन्हें जमानत दे देती. केस की जानकारी रखने वालों के मुताबिक सरकार द्वारा ट्रायल कोर्ट में मामले को लटकाए रखने के लिए अपनाई गई चालबाजियां छत्तीसगढ़ की सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह हर उस आवाज को खामोश कर दे जो पूंजीपतियों से उसके गठजोड़ को रोशनी में लाती हो. वह गठजोड़ जो गरीबों के संसाधनों को लूटने के लिए बना है.
इस बात का सबूत हैं कि सरकार की दिलचस्पी केवल डॉ सेन को लंबे समय तक कैद रखने में है. इसका नतीजा ये हुआ कि सलवा जुडूम के नाम पर हो रहे सरकारी अत्याचारों का पर्दाफाश करने वाली एक ताकतवर और भरोसेमंद जुबान खामोश हो गई है. इसका मतलब ये भी है कि मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले समुदाय के सारे संसाधन अब अपने नेता को आजादी दिलाने में लग जाएंगे. नतीजतन सरकार को निर्बाध दूसरी ज्यादतियां करने की छूट मिल जाएगी.

छत्तीसगढ़ की सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह हर उस आवाज को खामोश कर दे जो पूंजीपतियों से उसके गठजोड़ को रोशनी में लाती हो. वह गठजोड़ जो गरीबों के संसाधनों को लूटने के लिए बना है. जब डॉ सेन ने छत्तीसगढ़ सरकार की जनविरोधी प्रकृति का भांडाफोड़ करना शुरू किया, जब उन्होंने सलवा जुडूम और एनकाउंटर के नाम पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की तो सरकार उसे बर्दाश्त न कर सकी. उसने डॉ सेन की जुबान बंद करने का फैसला कर लिया. सबसे आसान तरीका था उन्हें माओवादी घोषित कर देना.

डॉ सेन कितने दिन जेल में रहेंगे कहा नहीं जा सकता. जो निश्चित रूप से कहा जा सकता है वह ये है कि डॉ बिनायक सेन जैसे लोगों के जेल में बिताये गये हर दिन का मतलब है भारत में लोकतंत्र और आजादी के एक दिन का कम हो जाना. हमें ये जानने की आवश्यकता है कि छत्तीसगढ़ की जेलें डॉ सेन जैसे सैकड़ों लोगों से भरी हैं. ऐसे कई सीपीआई कार्यकर्ता हैं जिन्हें सिर्फ इस अपराध में माओवादी करार देकर जेल में ठूंस दिया गया कि उन्होंने सलवा जुडूम का विरोध किया था. माओवादियों की हिंसावादी राजनीति का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन जब राज्य में किसी भी विपक्ष को माओवादी बता जेल में ठूंसा जाने लगे तो ऐसा उनकी राजनीति को निश्चित तौर पर थोड़ी सी वैधता प्रदान करता है. क्या सरकार ऐसा जानबूझकर कर रही है? क्या ये सरकार खुद भारत का अलोकतंत्रीकरण कर रही है?
साभार तहलका

यह चरित्र है संसदवादी कम्युनिष्टों काः-

के ए शाजी
संसदवाद की प्रणाली में अपने को फिट करते-करते अब भारतीय कम्युनिष्तों का चरित्र सामने आा रहा है चाहे वह नंदीग्राम में हो या फिर केरल में
बुद्धदेव भट्टाचार्य अब शायद खुश होंगे। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री का नंदीग्राम मार्का मार्क्सवादी समाजवाद अब केरल के ग्रामीण क्षेत्रों में भी अपनी जड़ें जमा रहा है। राज्य के इडुक्की जिले में कॉमरेड भू-माफियाओं और पर्यटन व्यवसायियों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसकी मार पड़ रही है उन गरीब आदिवासियों पर जिन्हें उनकी सदियों पुरानी ज़मीनों से खदेड़ा जा रहा है।

पार्टी के नवउदारवादी नेता पिन्नाराई विजयन, टीएम थॉमस, आइसाक और एमए बेबी के स्थानीय गुंडों ने इडुक्की की ज़मीनों पर कब्जा करने के लिए अभियान छेड़ा हुआ है। इडुक्की हाल तक मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन का गढ़ हुआ करता था जहां उन्होंने बड़े भू-माफियाओं को बाहर खदेड़ने के लिए कड़े क़दम उठए थे। लेकिन ताकतवर माफियाओं ने स्थानीय सीपीआई और सीपीएम, दोनों को अपने पाले में कर लिया। नतीजा, अच्युतानंदन का सबसे मजबूत गढ़ उनके हाथ से जाता रहा।

नवंबर के आखिर में हजारों की संख्या में सीपीएम कैडरों ने हिल स्टेशन मुन्नार के पास बसे गांव चिन्नाकनाल की 53 एकड़ सरकारी ज़मीन पर कब्जा कर लिया. इस जमीन पर करीब कुछ महीनों से 160 भूमिहीन आदिवासी सरकार के उस आश्वासन आदिवासियों के सामने मुश्किल हालात हैं। झोपड़ियां मार्क्सवादी आक्रमण की भेंट चढ़ गई हैं और वे समझ नहीं पा रहे कि कहां जाएं। ज़िला प्रशासन और पुलिस ने उनसे आंखें फेर ली हैं और सीपीएम के लोग अभी भी आज़ाद कराई गई इस जगह की निगरानी कर रहे है।
के बाद झोपड़ियां बनाकर रह रहे थे जिसमें कहा गया था कि उन्हें इस इलाके में जमीन दी जाएगी। इन झोपड़ियों को आग लगाकर राख कर दिया गया और उनके ऊपर लाल झंडे फहरा दिए गए जो इस बात का संकेत थे कि जमीन अब आजाद है। असहाय आदिवासियों ने पास ही स्थित एक चट्टान के नीचे शरण ली और सीपीएम के लोगों ने उस ज़मीन पर अपने छप्पर डाल कर अपने "अतिक्रमण विरोधी" अभियान को अंतिम रूप दे दिया।

हालांकि पहले दिन सिर्फ अनयिरंगल और पप्पाथिचोला से ही आदिवासियों को बाहर निकालने का अभियान चला लेकिन अगले दिन सीपीएम के गुंडो ने लगभग पूरे चिन्नाकनाल गांव में आने वाली राजस्व भूमि पर लाल झंडे फहरा कर उस पर अपने अधिकार का ऐलान कर दिया। दूसरे दिन के अभियान में करीब 2000 कैडरों ने हिस्सा लिया।

अब आदिवासियों के सामने मुश्किल हालात हैं। झोपड़ियां मार्क्सवादी आक्रमण की भेंट चढ़ गई हैं और वे समझ नहीं पा रहे कि कहां जाएं। ज़िला प्रशासन और पुलिस ने उनसे आंखें फेर ली हैं और सीपीएम के लोग अभी भी आज़ाद कराई गई इस जगह की निगरानी कर रहे है।

आदिवासी परिवारों ने 1500 एकड़ की जिस ज़मीन पर झोपड़ियां बनाई थीं उसे सरकार ने सालों पहले हिंदुस्तान न्यूज़प्रिंट लिमिटेड नाम की एक कंपनी को यूकेलिप्टिस के पेड़ लगाने के लिए आवंटित किया था। इन आदिवासियों को पता ही नहीं चला कि कब सीपीएम कैडरों ने अपना कब्जा अभियान शुरू कर किया। दरअसल ये पूरा इलाका आदिवासियों का ही था और कंपनी इस ज़मीन का कोई उपयोग नहीं कर रही थी। आदिवासियों को सीपीएम का कोपभाजन इसलिए बनना पड़ा क्योंकि उन्होंने ज़मीन को तब तक न छोड़ने की धमकी दी थी जब तक की सरकार उन्हें अपने वादे के मुताबिक ज़मीनें मुहैया नहीं करवाती। आदिवासी इन ज़मीनों पर ट्राइबल रिहैबिलिटेशन प्रोटेक्शन कमेटी के झंडे तले रह रहे थे।

जाने-माने आदिवासी नेता सी के जानू कहते हैं, "ये एक औऱ नंदीग्राम की शुरुआत है। आदिवासियों के आवंटन वाली ज़मीन से उन्हें बेदखल करने का अधिकार सीपीएम कैडरों को किसने दिया? ये लोग ज़मीन के मामलों में फैसला करने का अधिकार न्यायपालिका और सरकार के जिम्मे क्यों नहीं छोड़ते हैं? मामला बिल्कुल साफ है कि पार्टी बाहुबल के दम पर सार्वजनिक ज़मीनों पर कब्जा करके उसे भू-माफियाओं को सौंपना चाहती है।"

चिन्नाकनाल में सीपीएम कैडरों के इस कारनामें पर सीपीआई नेता और राज्य के राजस्व मंत्री केपी राजेंद्रन ने तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ज़िला प्रशासन को आदेश दिया कि पार्टी से जुड़ाव को दरकिनार करके सभी अतिक्रमणकारियों को हटाया जाय। बावजूद इसके अभी तक सीपीएम के अतिक्रमणकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है। मुन्नार में ज़मीन के कब्जेदारों को हटाने के लिए बने टास्क फोर्स के मुखिया केएम रामानंदन ने इस मसले को हल करने के लिए सभी पार्टियों की मीटिंग भी बुलाई लेकिन इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला।

गुस्साए आदिवासियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो सीपीएम ने चिन्नाकलान में हड़पी गई ज़मीनों को वापस न करने की ठानी हुई है। चिन्नाकनाल में सीपीएम के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले आदिवासी पुन्नाम्बलम कहते हैं, "अगर अधिकारियों ने तत्काल कड़े क़दम नहीं उठाए तो यहां मुथांगा जैसे हालात पैदा हो सकते हैं।" मुथांगा में पुलिस ने आदिवासियों के खिलाफ सबसे कठोर अभियान चलाया था। ज़िलाधिकारी ने सरकार को अपनी रिपोर्ट भेज दी है जिसमें कहा गया है कि चिन्नाकनाल की ज्यादातर सरकारी ज़मीन सीपीएम नेताओं के अवैध कब्जे में है।
एके एंटनी की यूडीएफ सरकार के दौरान ने जब उत्तरी केरल के वायनाड ज़िले में आदिवासियों को वायदे के मुताबिक ज़मीन नहीं दी तो इसके विरोध में उन्होंने जंगलों में अपनी झोपड़ियां बना ली थीं। इसकी प्रतिक्रिया में फरवरी 2003 में पुलिस कार्रवाई में एक आदिवासी और एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई थी जबकि कई आदिवासी घायल हुए थे। इस मामले में आदिवासियों को अब तक भी जमीनें नहीं मिली हैं। पुन्नाबलम कहते हैं, "मार्क्सवादियों का लक्ष्य ये साबित करना है कि आदिवासी ज़मीन के हक़दार नहीं है। चूंकि वो सत्ता में हैं इसलिए वो आसानी से अपने दावे को सही साबित करने के लिए जाली दस्तावेज भी पेश कर देते हैं और हम पर अपनी ज़मीनों से बेदखल करने का दबाव डालते हैं। एक बार ऐसा हो गया तो वो ज़मीनों के बंटवारे को ठंडे बस्ते में डालकर इन ज़मीनों को भू-माफियाओं के हवाले कर देंगे।"

उधर, राजस्व मंत्री ने तहलका को बताया कि सभी प्रदर्शनकारी आदिवासियों को उनकी ज़मीनें वापस दी जाएंगी और लाल झंडे की परवाह न करते हुए जमीनों से कब्जे हटाए जाएंगे। लेकिन चिन्नाकनाल पंचायत में वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ये आसान नहीं लगता। पर्यवेक्षकों का मानना है कि अगर अस्थायी तौर पर सीपीएम कैडर हट भी जाते हैं तो आदिवासियों को ज़मीने सौंपना आसान नहीं है। स्थानीय पत्रकार टीसी राजेश कहते हैं, "सीपीएम पहले से ही ये तर्क दे रही है कि जिन 120 आदिवासियों ने अपनी झोपड़ियां यहां बना रखी थीं उनमें सिर्फ 21 के पास ही मालिकाना हक़ है। सीपीएम के लिए आदिवासियों को जारी किए गए ऑफर लेटर की फिर से जांच की मांग करना आसान है। इससे पार्टी को अपना एजेंडा लागू करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा।" सालों पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री एके एंटनी और आदिवासी नेता सीके जानू के बीच हुए एक समझौते के बाद आदिवासी इन जमीनों पर बसे थे। एक भव्य समारोह के दौरान एंटनी ने 798 आदिवासियों को ज़मीन के कागज़ात सौंपे थे। लेकिन 540 परिवारों को ही चिन्नाकनाल में ज़मीन मिली। बाक़ियों को जो ज़मीनें मिली वो पहले से ही भूमाफियाओं के कब्जे में थी।

"ये गरीब लोग पिछले पांच सालों से अपनी ज़मीन के इंतज़ार में हैं। सरकार उन्हें सीधे-सीधे सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर रही है," ये कहना है आदिवासी नेता सीपी शाजी का। उधर सीपीएम नेताओं का आरोप है कि कांग्रेस और सीपीआई के लोगों ने आदिवासियों को इन ज़मीनों पर कब्जा करने के लिए उकसाया ताकि एक बार मामला शांत हो जाने के बाद वो खुद इन ज़मीनों पर कब्जा कर सकें।

बहरहाल ज़िलाधिकारी ने सरकार को अपनी रिपोर्ट भेज दी है जिसमें कहा गया है कि चिन्नाकनाल की ज्यादातर सरकारी ज़मीन सीपीएम नेताओं के अवैध कब्जे में है। ज़िलाधिकारी ने ये भी साफ किया है कि आदिवासियो की ज़मीन पर कब्जा करने के पीछे टूरिस्ट रेजॉर्ट बनाने वाली एक लॉबी का हाथ भी है।

राजेश कहते हैं, "ये गांव पर्यटन के लिहाज से काफी अहम जगह पर मौजूद है जिसकी सीमाएं मथिकेत्तन राष्ट्रीय उद्यान और मुन्नार हिल स्टेशन से लगती हैं। विवादित ज़मीन दर्शनीय अनयिरंकल बांध से भी काफी नज़दीक है। रियल इस्टेट माफिया को अहसास है कि इसे बड़े फायदे के सौदे में बदला जा सकता है।"
:-तहलका से साभार

12 दिसंबर 2007

मुझे गवाह के कटघरे मे आने दो


मेरा मुक़दमा ऐसा नही की उसका फैसला
काले कोटवालों की नीली कर्रेंसी नोट देकर
किसी एक देश की किसी एक अदालत मी हो जाए
मुझे गवाह के कटघरे में आने दो

तुम लोग जो आदमी की आस्था को बरबाद करते हो
इश्वर के नाम पर मुझे शपथ क्यों दिलाना चाहते हो
निर्दोष और अपराधियों के लिए
तुमलोग एक ही कानून पर बहस करते हो
न्याय को चूहे की तरह तुम लोग उतार देते हो
वकील की फीस की गर्त में
इस काम के लिए तुम्हारी योग्यता क्या है
मुझे गवाह के कटघरे मे आने दो

तुम्हारा ही न्याय और तुम्हारा ही जेलखाना
तुम डरते क्यों हो
एक अंतहीन सांचा चला आ रहा है युगों से

यह भरा हुआ है तुम्हारे दिमाग के महलों में
तुम्हारे कबूतर गुटुर्गूँ कर रहे हैं घरेलु मुड़ेरों पे
मधुर आकांक्षाएं झरती जाती हैं हर क्षण
तुम अपने सरों को कलम क्यों नही करते
नही ढहाते कमरे की चारों दीवारें
कारों दिशाएं खोल दो फ़िर देखना तुम विश्व नागरिक कैसे नही बनते

11 दिसंबर 2007

बिहार में विकास के माडल की तलाश


प्रेम कुमार मणि
आज पूरी दुनिया में विकास की आंधी चल रही है। कभी राष्ट्रवाद और समाजवाद को लेकर भी ऐसी ही आंधी चली थी। विकास की इस आंधी ने राष्ट्रवाद को तो पूरी तरह और समाजवाद को बहुत हद तक अप्रासंगिक बना दिया है। जहां तक भारत की बात है जिस कांग्रेस ने कभी समाजवाद शब्द को भारतीय संविधान में भारतीय गणराज्य के साथ नत्थी कराने में अग्रणी भूमिका निभायी थी उसी ने उसे अप्रासंगिक बनाने में भी अग्रणी भूमिका निभायी है। अब बिहार में समाजवादी तबियत के नीतीश कुमार विकास की राजनीति की प्रस्तावना कर रहे हैं जिसकी एक झांकी पिछले १९-२१ जनवरी को पटना में हुए एक ग्लोबल कांफ्रेंस में प्रस्तुत हुई; जिसे एक एनजीओ ने बिहार सरकार के सहयोग से आयोजित किया था और जिसका उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने किया। राष्ट्रपति डॉ. कलाम विकास की राजनीति के पुराने प्रस्तावक रहे हैं। इसलिए उनका भाषण रश्मी तौर पर दिया गया भाषण नहीं, बल्कि मनोयोग से तैयार किया गया एक दिलचस्प भाषण था। उद्घाटन सत्र, जो पटना कें एक बड़े सभागार में ताम-झाम के साथ आयोजित था, में मुझे भी शामिल होने का अवसर मिला। बिहार में कांग्रेस का जो पहला अधिवेशन हुआ था (१९१२, बांकीपुर कांग्रेस) उस में भाग लेकर जवाहरलाल नेहरू को जो अनुभूति हुई थी, कुछ-कुछ वैसी ही अनुभूति इस समारोह के बाद मेरी थी। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'I visited as a delegate, the Bankipore congress during christmas 1912. It was very much an English knowing upper class affair, Where morning coats and well-pressed trousers were greatly in evidence. Essentially it was a social gathering with no political excitment or tension.(Page-30)' इसमें यदि संशोधन की जरूरत है तो बस 'अपर क्लास` की तरह 'अपर कास्ट` भर की। कुलीन 'बुद्धिजीवियों` की इस खूबसूरत कांफ्रेंस में प्रतिभागियों की रूचि विकास में कम, अपनी धज प्रदर्शित करने में अधिक थी। इस समारोह को ग्लोबल नहीं गोलमाल समारोह कहने वाले लालू प्रसाद ने भी ठीक इसी समय को ब्राह्मणवादी ठीहे पर आत्मसमर्पण के लिए चुना था। इस दौरान वे अपने गांव में शंकराचार्य को बुलाकर उनके चरणों में लोट रहे थे। फुलवरिया में खुला ब्राह्मणवाद था तो पटना में प्रच्छन्न ब्राह्मणवाद। अब बिहार को इनके बीच से आगे या पीछे जाना है।

सवाल उठता है बिहार में विकास का मॉडल क्या हो? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद सोचते हैं तो उनके सोच में सामाजिक न्याय का एक पुट होता है। पंचायत चुनावों में अपनी सोच को साकार कर उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाया था। महिलाओं और बहुत पिछड़े तबकों को पंचायत चुनावों में आरक्षण सुनिश्चित कर ग्रामीण इलाकों में उन्होंने एक नया नेतृ वर्ग खड़ा किया है। इससे जो हलचल पैदा हुई है वह सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन का कारक बनेगा। लेकिन नीतीश कुमार यदि यह सोचते हैं कि बाहरी निरंकुश निवेश से बिहार में विकास होगा तो वे गलती पर हैं। वास्तविक विकास के लिए ग्रामीण स्तर पर कृषि क्षेत्र में पूंजीवादी रूझानों को बल देना होगा। आजादी के बाद से ही ब्राह्मणवादी-समाजवादी चेतना ने निचले स्तर पर पूंजीवादी रूझानों को हतोत्साहित किया और इसी का नतीजा है गांव और शहर की दूरी बढ़ती गयी। जिन लोगों ने यूरोप में औद्योगिक क्रांति के इतिहास का अध्ययन किया है वे यह भी जानते हैं कि किन लोगों ने वहां इसे विकसित किया था। पूंजीवाद एक अवस्था में प्रगतिशील कदम होता है क्योंकि यह सामंतवादी रूझानों को खत्म करता है। (फ्रांसीसी लेखक बॉल्जाक की रचनाओं को देखें। मार्क्स ने इसे रेखांकित किया है।) हमारे मुल्क में आयातित समाजवाद ने अपनी लड़ाई पूंजीवाद से शुरू की। (दरअसल समाजवाद पूंजीवाद से ही संघर्ष करता है।) इसका प्रतिफल हुआ कि एक तरफ तो समाज के सामंतवादी रूझान साबूत रह गये दूसरी तरफ ऊंची जातियों के प्रभुत्व वाले लोकतंत्र ने जिस समाजवाद को लाया वह ब्राह्मण-समाजवाद बन कर रह गया। उदाहरण के लिए भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर में ऊंची जातियों, खासकर ब्राह्मणों के प्रभुत्व को देखंे। यह सरकारी प्रयासों से हुआ है। (विस्तृत अध्ययन के लिए गेल ऑम्वेट का लेख 'रिजर्वेशन इन प्राइवेट सेक्टर` द हिन्दू ३१ मई-१ जून २००१) अब विकास के इस दौर में देखना होगा कि निचले तबकों को लेकर हम विकास का कैसा खाका बनायंे जिससे वास्तविक विकास हो सके। शायद इसे ही नीतीश कुमार न्याय के साथ विकास कहते हैं। इसके लिए पूंजी से अधिक ज्ञान और समर्पण की जरूरत है। फ्रांसीसी लेखक-चिन्तक गाइ सोमां इसे बेयरफुट कैप्टिलिज्म (नंगे पांव पूंजीवाद) कहते हैं। यह बेयरफुट कैप्टिलिज्म विकास का आधार बनेगा तभी सामाजिक न्याय भी संभव होगा। (मार्च अंक में इस विषय पर गाई सोमां का लेख देखेंगे) १९-२१ जनवरी को संपन्न ग्लोबल मीट पिछड़े बिहार को विकास की ओर नहीं, एक नयी राजनीतिक गुलामी की ओर ले जायेगा जो अंतत: एक जटिल सामाजिक गुलामी को भी जन्म देगा और जिससे जूझने में समानता और आजादी के सिपाहियों को दशकों का समय लग जायेगा।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य और आधारभूत ढांचे की मजबूती के लिए रात-दिन परिश्रम कर रहे हैं। हर सभा-समारोह में लाठी फेंकने और कलम-कागज पकड़ने की बात कहते हैं। बिहारियों की लगनशीलता और काबलियत पर वे इतराते भी हैं। इस मानव संसाधन को उन्होंने अपनी पूंजी माना है। जाति और संप्रदाय से बाहर आकर वे बिहारीपन की, इसके स्वाभिमान की बात करते हैं। दरअसल यही वह महत्वपूर्ण कार्य है जिससे निचले स्तर से पूंजीवादी रूझान विकसित होंगे। इसी आधार पर सम्यक विकास की रूप रेखा बन सकेगी। यही वास्तविक सामाजिक न्याय भी है। जैसा कि राष्ट्रपति कलाम ने भी २०१५ तक पूर्ण साक्षरता और पूर्ण गरीबी उन्मूूलन की बात की है। इसे हर हाल में हासिल करना होगा। लेकिन प्रवासी निवेशकों की रूचि साक्षरता और गरीबी उन्मूलन में नहीं है। उनकी रूचि औन-पौन दाम में जमीन हासिल करने और येन-केन अपनी झोली भरने में है। किसी भी विकास पुरुष के लिए ऐसे लोगों से सावधान रहना ही श्रेयस्कर होगा।
जनविकल्प से साभार

10 दिसंबर 2007

मानवाधिकार दिवस गोष्टीयों में और मानवाधिकार कार्यकर्ता जेल में


आज मानवाधिकार दिवस है और छत्तीसगढ़ में मानवाधिकारों की रक्षा करने वाले आदिवासियों के हक हुकूक की लड़ाई लड़ने वाले डा बिनायक सेन जेल में है - संयोग यह भी है कि आज सुप्रीम कोर्त में उनके बेल को लेकर सुनवाई भी है
नक्सल समर्थन के आरोप में गिरफ्तार, पेशे से बाल चिकित्‍सक डा. बिनायक पी यू सी एल से जुड़े रहे हैं। उनकी पत्‍नी इलीना सेन ने आज अखबार में लिखा कि डा. बिनायक पर नक्‍सलियों को समर्थन देने का आरोप है- उनके बच्‍चे की ट्रिग्‍नोमैट्री की कापी को सबूत के तौर पर पेश किया गया है। डा. जीलानी पर संसद पर आतंकवादी हमले का आरोप था और इसी किस्‍म के ‘प्रमाण’ जुटाए गए थे- जो कोर्ट में धराशाही हो गए- खुन्‍नस में जीलानी पर हमला किया गया और स्‍पेशल सेल के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं मिला (संयोग से उसी स्‍पेशल सेल में अपना एक पुराना सहपाठी भी था- उसने क्‍या बताया ये नहीं बताउंगा पर ये मान लीजिए कि सब ठीक तो नहीं ही था)। अब जाहिर है कोई ‘मसिजीवी की आत्‍मा’ बनकर कहेगा कि देश की पुलिस के खिलाफ लिखना जयचंदी काम है पर क्‍या करें हमें लगता है कि यही राष्‍ट्रभक्ति है- देश की संसद पर हमला हो और आप इस-उस को पकड़कर दोषी सिद्ध करने में ताकत झोंको, जिसका मतलब है कि दोषी आतंकवादी अगला हमला करने के लिए अभी भी बाहर मजे में घूम रहे हैं- दूसरी ओर किसी विचारधारा से भयंकर तौर पर भयभीत होकर आप एक डाक्‍टर को जेल में ठूंसो क्‍योंकि आप उससे सहमत नहीं हैं।

डा. बिनायक के विषय में हमें नहीं पता कि वे कितने नक्‍सली हैं जैसे कि अफजल व जीलानी के विषय में नहीं पता था कि वे कितने बड़े आतंकवादी थे – किंतु एक बात सहजता से पता लग रही है- राज्‍य अपनी वैधता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है और हॉं उसी व्‍यकितगत अनुभव से ये भी जानते हैं कि जीलानी को राज्‍य के दमन के विरुद्ध प्रतीक बनाने में सरकार की वही भूमिका है जो बजार1 जैसे बदमजा चिट्ठे को असहमति की अभिव्‍यक्ति का प्रतीक बना देने में नारद की थी।

जिस तरह कश्‍मीरी अलगाववाद से हम असहमत है, राहुल की भाषा को अनावश्‍यक रूप से बदमजा मानते हैं तथा अधिकतर समय हमने नए नए मार्क्‍सवादी रंगरूटों से उनके विचारों से गहरी असहमति जाहिर करते हुए गुजारा है- अब भी उस विचारधारा से अपना असहमति का ही रिश्‍ता है पर पुलिस स्‍टेट कायम करने के खिलाफ लोकतंत्र के पक्ष में हम राहुल, जीलानी और बिनायक के पक्ष में खड़े हैं। मसीजीवी सेः-

06 दिसंबर 2007

लाल सलाम-लाल सालेम:-

घटनायें काल परिवर्तन का माध्यम होती है वे स्थितियों का भान कराती है नंदीग्राम आज के बर्बर व क्रूर सत्ता का सच है जिसे बार-बार याद कराने की जरूरत हैः-



विचारधारा के लिए लड़ने वाले सिपाही या राजनीतिक गुंडे? पश्चिम बंगाल में पिछले तीन दशक से सीपीएम के अबाध राज का राज़ कैडर ही रहे हैं. कैसे कैडर सीपीएम की मदद करते हैं और इसमें उनका क्या फायदा है बता रहे हैं शांतनु गुहा रे...

भास्वती सरकार कार्ल मार्क्स के केवल नाम से ही परिचित हैं, मगर मार्क्स के सिद्धांत क्या हैं ये जानने के लिए उन्होंने उनकी किताबों को कभी नहीं खंगाला. 34 वर्षीय ये स्कूल शिक्षिका अपने पति(राज्य परिवहन निगम में क्लर्क) के साथ कोलकाता के दक्षिणी इलाके में रहती हैं. समर्पित सीपीएम कैडरों की तरह ये दोनों पति-पत्नी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) की गढ़िया से निकलने वाली रैलियों का एक अभिन्न हिस्सा होते हैं. सरकार पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के शासन पर बात तो करती हैं लेकिन अपनी तस्वीर छपवाने के सवाल पर पीछे हट जाती हैं. हालांकि उनके पड़ोसी बताते हैं कि सरकार को रैलियों में नारे लगाने के बदले पैसे मिलते हैं, लेकिन वो इस बारे में कुछ भी कहने को तैयार नहीं.
गौरतलब है कि ये महिला कैडर, पार्टी में और पांच साल बिताने के बाद नेता के रूप में अपनी पदोन्नति का सपना संजोए हुए है. सरकार का पार्टी से जुड़ाव छात्र जीवन में ही हो गया था. तब वो स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया(एसएफआई) की एक सामान्य सदस्य थीं और उसी दौरान उन्होंने पहली बार सीपीएम की रैली में भी हिस्सा लिया था. कैडर सत्ता का उतना आनंद नहीं ले पाते. लिहाजा सरकार सहित राज्य के लाखों कैडर राज्य के शीर्ष पार्टी नेताओं के संपर्क में आने की अपनी बारी के इंतजार में हैं. पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के लिए नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है. पश्चिम बंगाल में सीपीएम से जुड़ने के बाद किसी भी कैडर के नेता की स्थिति तक पहुंचना एक स्वर्णिम अवसर होता है, जिसका वे बेसब्री से इंतजार करते हैं. इससे न सिर्फ उन्हें ज्यादा आजादी मिल जाती है बल्कि बड़े पैसे बनाने के खेल में भी उनकी पैठ हो जाती है.

अब जरा ये देखें कि पार्टी के प्रति इस अंधभक्ति के फलस्वरूप सरकार जैसे लोगों को मिलता क्या है.

पहले राज्य में सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया राज्य सरकार के हाथ में होती थी और इनमें से 90 प्रतिशत तक नौकरियां प. बंगाल में सीपीएम कैडरों की झोली में ही जाती थीं. नौकरियों से योग्यता का कोई लेना-देना नहीं था और वामपंथ से थोड़ा-सा जुड़ाव ही पर्याप्त योग्यता मानी जाती थी. कुछ साल पहले केंद्र सरकार ने इस प्रक्रिया को कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) के जिम्मे कर दिया मगर अब भी सैकड़ों अस्थाई नियुक्तियां स्थानीय नेताओं के निर्देशों पर ही होती हैं. चाहे सरकारी नौकरी हो, नगर परिषद् की या फिर किसी निजी संस्थान की - पार्टी का संदेश स्पष्ट हैः यदि आप हमारे साथ हैं, तो हम भी आपका ध्यान रखेंगे.

बहरहाल, कैडर के सवाल पर सरकार कहती हैं, “मैं एक कैडर हूं और पार्टी के लिए काम करती हूं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि कोई गुंडा-बदमाश हूं.” वो एक सीधा-सा सिद्धांत जानती हैं - पार्टी के प्रति अंधभक्ति कैडर के जीवन और उसकी प्रगति की अनिवार्य शर्त है. यानी कैडर को हर हाल में पार्टी के पक्ष में खड़ा होना है, पार्टी के बचाव का रास्ता तलाशना है. वह इसे पलटवार का सिद्धांत कहती हैं. उनका मानना है कि विरोधी हर कदम पर पार्टी पर कीचड़ उछालते रहते हैं, लिहाजा कैडरों को उसके जवाब के लिए हमेशा तैयार रहना पड़ता है.

उदाहरण के तौर पर जिस दिन फिल्मकार अपर्णा सेन ने नंदीग्राम विरोधी रैली में हिस्सा लेने का निर्णय किया, कैडर पहले से तैयार थे कि मीडिया में उन्हें क्या कहना है. सेन के इस कदम पर कैडरों ने ये प्रचारित करना शुरू किया कि कोलकाता में हाल में संपन्न हुए फिल्म समारोह में अध्यक्ष न बनाए जाने को लेकर वो सरकार से नाराज थीं. जिन तक ये कहानी नहीं पहुंच पाई थी, उन्होंने दूसरा कारण गढ़ा: सेन इसलिए नाराज थीं क्योंकि राज्य सरकार ने सेन की अगली फिल्म को वित्तीय सहायता देने से इनकार कर दिया था.

पश्चिम बंगाल में यदि आप एक कैडर हैं, तो आपको न केवल इस सिद्धांत में विश्वास करना होगा, बल्कि इसे प्रचारित-प्रसारित भी करना होगा. यानी जमीनी स्तर पर व्यावहारिक मार्क्सवादी सिद्धांत यही है.

स्थानीय न्यूज चैनल तारा बंगला की संपादक सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है. गली के नुक्कड़ पर होने वाली सभा में वक्ता के रूप में कोई प्राध्यापक भी हो सकता है. किसी सार्वजनिक सभा में भीड़ जुटाने वाला संयोजक हो सकता है. पास-पड़ोस के तलाक, किराएदारी, असफल प्रेम प्रसंग जैसे मामलों को सुलझाने के प्रयास करता कोई कार्यकर्ता भी हो सकता है और विरोधियों के खिलाफ क्रूर कार्रवाई करने वाला कोई क्षेत्रीय गुंडा भी हो सकता है, जिसे सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त होता है.”

चट्टोपाध्याय अपने स्टूडियो में घटी एक घटना का उदाहरण देती हैं. एक प्राइमटाइम शो के खत्म होने के बाद उन्होंने स्टूडियो में मौजूद और सत्ताधारी पार्टी से निकटता रखने वाले गार्डन रीच इलाके के डॉन झुनू अंसारी से पूछा कि क्या उन्होंने अपने आदमियों को नंदीग्राम में जवाबी कार्रवाई के लिए भेजा था. अंसारी ने ऐसा करने से तो इनकार किया लेकिन ये जरूर बताया कि ज्यादातर कैडर बंगाल के बाहर से आए थे. सुमन चट्टोपाध्याय कहती हैं कि “पश्चिम बंगाल में कैडर की कोई तय परिभाषा नहीं है. ये सिस्टम के एक हिस्से के रूप में हर जगह मौजूद रहते हैं. वो पार्टी के दैनिक पत्र गणशक्ति को दीवारों पर चिपकाने वाला कोई लड़का भी हो सकता है.

जानकार बताते हैं कि ज्यादातर माकपाई कैडर बेरोजगार हैं और सीपीएम से उनके जुड़ाव के कई कारण हैं. एक तो इससे उनकी कुछ आमदनी की गारंटी हो जाती है, दूसरे, उनका एक सामाजिक स्तर बन जाता है और साथ ही प्रसिद्धि की राह पर पहला कदम भी पड़ जाता है.

सीपीआई(एमएल) के वरिष्ठ नेता अरिंदम पाल स्वीकारते हैं कि “पार्टी के कई कार्यकर्ता मुश्किलें खड़ी कर देने वाले हैं. शीर्ष कामरेड इसे महसूस भी करते हैं लेकिन उन्हें पता है कि राजनीति में आपको बुद्धिजीवियों की नहीं, ऐसे ही तत्वों की जरूरत पड़ती है.” उन्होंने हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर घटी घटना का हवाला दिया, जहां कैडरों ने एयरपोर्ट यूनियन के चुनाव प्रचार के दौरान एक तरह से इस पर कब्जा कर लिया था. इस उपद्रव के कारण एयरपोर्ट्स अथॉरिटी के लगभग 55 प्रतिशत कर्मचारी काम पर आए ही नहीं. हॉवड़ा स्टेशन पर होने वाले रेलवे इम्प्लाइज यूनियन के चुनाव में भी इसी नजारे की उम्मीदें लगाई जा रही है. “ये तो राष्ट्रीय चुनाव है, और मुंबई व दिल्ली के मतदाता भी वोट देने आएंगे. लेकिन मुंबई में विक्टोरिया टर्मिनस के पोस्टरों से पटे होने और कामकाज ठप्प होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. दरअसल, ये सब सिर्फ बंगाल में ही संभव है, क्योंकि सत्ताधारी पार्टी इस तरह के चुनावों को अपने जनाधार से जुड़ाव का आदर्श रास्ता मानती है. यही दरअसल कैडर हैं”, कहते हैं सीपीआई(एमएल) के ही कार्तिक सेन.

शहर के जादवपुर विश्वविद्यालय में इस मुद्दे पर चर्चा के दौरान छात्रा सोहिनी मजुमदार कहती हैं, “सभी पार्टियों की तरह वाम मोर्चे में और सीपीएम में भी इस तरह के लोग इसलिए हैं, क्योंकि आप खुद इस तरह के लोगों का समर्थन चाहते हैं. लेकिन उनके बारे में नकारात्मक सोच इसलिए बन गई है क्योंकि ज्यादातर घटनाओं में उनके बुरे पक्ष को ही सामने लाया जाता है.” इस तरह की शुरुआती घटनाओं में से एक 1990 में उत्तरी कोलकाता के विधानसभा चुनाव में हुई थी जहां स्थानीय डॉन नंदा के नेतृत्व में अपराधियों ने सुबह 10 बजे ही बूथ पर कब्जा कर लिया था. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया से सक्रिय रूप से जुड़ी मजुमदार स्वीकारती हैं, “वहां नंदा का खुलेआम रिवाल्वर लहराना निश्चितरूप से परेशान करने वाली बात थी.” लेकिन वो ये भी कहती हैं कि अब परिस्थिति बदल रही है और हाल ही में पार्टी ने इस तरह के 12 हजार लोगों को पार्टी से निकाल बाहर कर दिया है.

प्रेसीडेंसी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य अमाल मुखर्जी कहते हैं, “कैडर ब्रिगेड, कार्यकर्ता बनने के लिए मौका देख कर सुविधानुसार अपने रंग बदलता है. चूंकि उनके पास आरएसएस की शाखा की तरह कोई नियमित अड्डा नहीं होता और उन्हें रोज सुबह परेड नहीं करनी पड़ती, लिहाजा उन्हें पहचानना मुश्किल होता है.”

पास के ही सरकारी स्कूल में पार्टी की स्थानीय शाखा की एक बैठक चल रही है जहां कार्ल मार्क्स, लेनिन, प्रमोद दासगुप्ता व ज्योति बसु जैसे नेताओं के कटआउट लगे हुए हैं. पूछे जाने पर सभा के आयोजक अनिरबन रॉय चौधरी कहते हैं, “यहां ऐसी कोई गलत चीजें नहीं है. किसी के पास कोई गोली-बंदूक नहीं होती. ये तो पश्चिम बंगाल के बारे में मीडिया की अपनी कपोल कल्पना है. कैडर तो अनुशासित कार्यकर्ता मात्र होते हैं जो पार्टी हित में जमीनी जनाधार जुटाने का काम करते हैं.”

वामपंथी विचारधारा के कट्टर समर्थक, केंद्रीय कर्मचारी उत्पल मित्रा कहते हैं, “कोई राजनीतिक पार्टी किसी राज्य में तीन दशक तक सिर्फ इस वजह से सत्ता में नहीं रह सकती, क्योंकि उसके पास कैडर के रूप में असामाजिक तत्व हैं.” मित्रा नंदीग्राम के प्रेत को दफन करने के लिए शहर भर में निकाली जा रही रैलियों का नियमित हिस्सा होते हैं. वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है.

अब सवाल ये उठता है कि राज्य भर में कैडरों की वृद्धि को आखिर प्रोत्साहित किसने किया है और उनकी संख्या इतनी कैसे हो गई जिसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है? विश्लेषक कहते हैं कि शुरुआत 1977 में सीपीएम के सत्ता में आने के साथ हुई. पश्चिम बंगाल में रीयल एस्टेट कारोबार में तेजी की शुरुआत ही हुई थी. इससे जुड़े हर तरह के फायदे पार्टी से जुड़े लोगों को दिए जाने लगे. देखादेखी और लोग भी बहती गंगा में हाथ धोने को सीपीएम से जुड़ने लगे. भूमि सुधारों ने भी लोगों की पार्टी के प्रति अंधस्वामिभक्ति सुनिश्चित की.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता निरबेद रे कहते हैं, “वास्तव में सीपीएम में कैडरों की भीड़ 1990 में आनी शुरू हुई और ये आज तक जारी है.” रे आगे जोड़ते हैं, “इन कैडरों ने राज्य के मतदाताओं का विस्तृत डाटाबेस तैयार किया, जो चुनावों के दौरान पार्टी के काम आया और क्षेत्र पर पकड़ बनाने में उनकी मदद की. कैडरों के पास अपने पास-पड़ोस के बारे में जो सूक्ष्म जानकारी होती है, वो अन्य पार्टियों के पास नहीं होती और ये जानकारी उन्हें बड़ी मदद पहुंचाती है.” रे की मानें तो वाममोर्चा को इस बात का अहसास है कि नंदीग्राम की घटना ने उसकी अच्छी-खासी छवि को कलंकित कर दिया है. गौरतलब है कि भारतीय राजनीति के गलियारों में वामपंथियों की छवि सार्वजनिक शुचिता, गरीबों की पक्षधर व संवैधानिक मूल्यों के रक्षक की रही है. “लेकिन आज अपराधीकरण, भ्रष्टाचार, पूंजीपतियों व नव उदारवादी नीतियों का समर्थन, बाहुबलियों पर भरोसा और अपने सहयोगियों के प्रति उपेक्षापूर्ण बरताव वामपंथी राजनीति का शगल बन गया है.” रे आगे कहते हैं, “आज तो कैडर नंदीग्राम में लोगों को धमकाने, उन्हें वहां से बेदखल करने या फिर उन्हें अपने प्रभाव में लेने संबंधी पार्टी के अभियान का एक अहम हिस्सा बन गए हैं.”

कैडरों की क्रूरता की पहली घटना 1978 में तब सामने आई थी जब उन्होंने बीरभूमि जिले के मारिचझापी में असहाय बांग्लादेशी शरणार्थियों पर फायरिंग में पुलिस का साथ दिया था. रे कहते हैं कि “उसके बाद तो इस तरह की घटनाओं का सिलसिला सा चल पड़ा. शहर के एक पुल से गुजर रहे 17 आनंदमार्गियों की सरेआम हत्या इसी तरह की एक जघन्य घटना थी, लेकिन नंदीग्राम आज इन सभी घटनाओं को पीछे छोड़ते हुए शीर्ष पर पहुंच गया है क्योंकि सभी को ऐसा लग रहा है कि हथियारबंद कैडरों की वहां उपस्थिति व उनके द्वारा की गई हिंसा को पार्टी खुद ही जायज ठहरा रही है.”

वरिष्ट स्तंभकार प्रभाष जोशी भी सच की पड़ताल में एक दल के साथ नंदीग्राम गए थे. उनका कहना है कि कैडर नजर न आने वाली ऐसी इकाई है जिसमें अनवरत बढ़ोतरी हो रही है. “ये तो आप भाग्यशाली थे जो नंदीग्राम में इनमें से कुछ को देख पाए, वरना ग्रामीण इलाकों में जिन कैडरों को बाइक वाहिनी के रूप में जाना जाता है, उनके बारे में तो शायद ही किसी को पता हो.”

राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एस.एन. भार्गव कहते हैं कि कैडर एक ऐसी विध्वंशक सेना हैं जिसकी ताकत पुलिस की मिलीभगत से बनती है. भार्गव कहते हैं, “नंदीग्राम के कैडर पश्चिमी मिदनापुर, बांकुरा व 24-परगना जिलों से आए थे और वे स्वचालित आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल में पूर्ण प्रशिक्षित थे.”

कुछ भी हो कैडर तो इन सब चर्चाओं से बेखबर अपनी प्राथमिकता वाले कामों में आज भी व्यस्त हैं. और ये काम हैं--नंदीग्राम की हिंसा की लीपापोती और सरकारी तंत्र के पार्टी हितों के आगे घुटने टेकने के आरोपों को खारिज करना.

:-तहलका से साभार

04 दिसंबर 2007

डॉलर : साम्राज्य में सेंध


रेयाज-उल-हक
द इकोनॉमिस्ट भले ही इस बात पर खुशी जाहिर कर रहा हो कि डॉलर अभी ध्वस्त नहीं होने जा रहा है. मगर यह एक विश्व मुद्रा के लिए बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं कि वह एक मॉडल के पारिश्रमिक भुगतान में असमर्थ साबित हो. ब्राजील की सुपर मॉडल गीसेल अब डॉलर स्वीकार नहीं कर रही हैं.
और ऐसा करनेवाली गीसेल अकेली नहीं हैं. अरबपति जार्ज सोरोस के पूर्व पार्टनर जिम रोजर्स अपनी पूरी जायदाद और मकान बेच रहे हैं, ताकि वे पूरी संपत्ति चीनी यूआन में तबदील कर सकें. एयर बस ने पहले ही डॉलर के इस संकट को प्राणघातक कहा है. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने इकोनॉमिक वार की चेतावनी दी है.
अमेरिकी पूंजी का अमेरिका से बाहर निवेश होना और बुश द्वारा युद्ध पर किये जा रहे भारी खर्च के बीच मांग और आपूर्ति के सिद्धांत में विश्वास रखनेवालों को यह अभी आकलन ही करना है कि डॉलर की मांग में कमी डॉलर की कीमत और अमेरिकी शक्ति को किस तरह डुबो रही है.
दुनिया भर के अर्थशास्त्री मान रहे हैं कि डॉलर का इस तरह लुढकते जाना नियंत्रण से बाहर हो सकता है. और अगर ऐसा हुआ तो अमेरिकी साम्राज्य का बने रहना असंभव हो जायेगा.
अगर हम थोडी कल्पना करने की इजाजत लें तो हम देखेंगे कि अमेरिका के लिए तब भारी मुश्किल पैदा हो जायेगी, जब उसका डॉलर विश्व मुद्रा के रूप में अपना अस्तित्व खो देगा. तब अमेरिका को विदेशों में स्थित अपने ७३७ सैनिक अड्डों के खर्च के लिए भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा अर्जित करनी होगी. और अभी अमेरिका के ८०० बिलियन व्यापार घाटे को देखते हुए यह असंभव लगता है. जब डॉलर रिजर्व करेंसी के रूप में नहीं रह जायेगा, विदेशी निवेशक अमेरिकी व्यापार और बजट घाटे में पैसा लगाना भी बंद कर देंगे.
२००२ में, जबकि डॉलर का प्रभुत्व विश्व अर्थव्यवस्था पर सबसे अधिक था, के बाद से वह संयुक्त रूप से विश्व की शेष करेंसियों के मुकाबले २४ प्रतिशत नीचे गिरा है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में ०.७५ प्रतिशत की कटौती के बावजूद इसकी गिरावट जारी है. बढी हुई मुद्रास्फीति से उबरने के लिए ब्याज दरों में कटौती की जाती है. मगर अब अमेरिका में यह मांग उठने लगी है कि डॉलर को विनाश से बचाने के लिए अभी और कटौती पर रोक लगायी जाये.
अभी कुछ समय पहले यह खबर आयी थी कि दुनिया के सात देश डॉलर का परित्याग करनेवाले हैं. इनमें दक्षिण कोरिया, वेनेजुएला, ईरान, सूडान, चीन और रूस के साथ आश्चर्यजनक रूप से सऊदी अरब भी शामिल है. सऊदी अरब ने हाल में तब ब्याज दरों में कटौती से इनकार कर दिया, जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरें घटायीं. जानकारों का कहना है कि यह स्थिति अमेरिकी डॉलर के लिए एक विश्व मुद्रा के रूप में बेहद खतरनाक हालात पैदा करेगी. अमेरिका के साथ लेन-देन में अकेले सऊदी अरब की ८०० बिलियन डॉलर की भागीदारी है. और अगर सऊदी अरब ने डॉलर का साथ छोड दिया तो यह मध्य पूर्व में डॉलर के लिए एक बडा झटका साबित होगा. पूरे मध्य पूर्व के साथ अमेरिका का ३५०० बिलियन का लेन-देन है. दक्षिण कोरिया अगस्त में १०० मिलियन डॉलर बेच चुका है और ऐसी खबरें हैं कि वह एक बिलियन अमेरिकी बांड बेचनेवाला है. चीन के बारे में माना जाता है कि वह डॉलर को उडा देने की क्षमता रखता है.
नवंबर, २००५ में दक्षिण कोरिया के मात्र इतना कहने से कि वह अपने विदेशी मुद्रा भंडार में कटौती करने की योजना पर विचार कर रहा है, डॉलर के इतिहास में सबसे बडी एकदिवसीय गिरावट आयी थी. उस समय द कोरिया के पास मात्र ६९ बिलियन डॉलर का रिजर्व था. हम कल्पना कर सकते हैं कि चीन और जापान जैसे देशों, जिनके पास कुल मिला कर लगभग एक ट्रिलियन डॉलर का विदेशी भंडार है, यदि डॉलर में कटौती पर विचार करें तो क्या हालत हो सकती है.
हम संकेतों को पढ सकते हैं. मध्य पूर्व में ताजा राजनीतिक-सैन्य गतिविधियों को देखें तो युद्ध को लेकर अमेरिकी उतावली और ईरान के खिलाफ नये सिरे से और तेज लामबंदी का डॉलर के इस घटते प्रभुत्व से भी संबंध है. २००३ में इराक पर सारी दुनिया की जनता के प्रतिरोध को नजरअंदाज करते हुए थोपे गये युद्ध के पूर्व भी ऐसी ही स्थिति थी. तब साम हुसेन ने अपने १० बिलियन अमेरिकी डॉलर के भंडार को यूरो में बदल दिया था और उसकी देखा-देखी कई और देश इस राह पर जाने को तैयार थे.
१९७० के बाद से जारी वैश्विक मंदी से निकलने के लिए कि्वे ग्वे सारे उपा्व असफल साबित हुए हैं. उल्टे संकट और सघन हुआ है. लैटिन अमेरिका, एशि्वा और अफ्रीका में जनता के तेज होते प्रतिरोध संघर्षों के बीच उसका संकट और बढेगा ही.
...और जाहिर है, ऐसे में द इकोनॉमिस्ट' के लिए राहत भरे दिन लंबे समय तक नहीं नहीं रहनेवाले हैं.

03 दिसंबर 2007

लज्जा : तसलीमा की नहीं, हमारी



क्या तसलीमा नसरीन की कहानी हमारे समाज की उदारता के पतन की कहानी है? शांतनु गुहा रे बता रहे हैं कि जब राजनीतिक हितों पर आंच आती नजर आती है तो दक्षिणपंथी और वामपंथी एक ही पंथ पर चल पड़ते हैं.

“बारी फिरबो सुनिल दा...कोतो दिन बारी जाई नी. कोतो दिन बारी फिरे कोब्जी डूबिए गोरोम दाल भात खाई नी, किच्छू बूझते पारछी ना कि होछे.” (मैं घर लौटना चाहती हूं, सुनिल दा. घर गए और अपना मनपसंद गर्म दाल-भात खाए कितने दिन गुजर गए. मुझे समझ नहीं आता कि ये क्या हो रहा है.)

ये वे शब्द हैं जो 2004 में तसलीमा नसरीन ने बंगाली लेखक सुनिल गंगोपाध्याय से तब कहे थे जब वे जर्मनी के म्यूनिख शहर में थीं. शायद इन दिनों भी उनकी मनोदशा कमोबेश ऐसी ही हो. बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन दर-दर भटकने को मजबूर हैं. वह भी एक ऐसे देश में जिसे वह अपना घर कहती आई हैं. वह एक ऐसी अनचाही और असुविधाजनक वस्तु हो गई हैं जिससे हर कोई पीछा छुड़ाता नजर आ रहा है. तसलीमा इसलिए अनचाही हो गईं थीं कि उन्हें सुरक्षा देने से वामदलों को प. बंगाल में कीमती मुस्लिम वोटों के खिसकने का डर लग रहा था. और हास्यास्पद ही है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत इस पेशकश से की कि ‘तसलीमाबेन’ गुजरात में रहें.

तसलीमा जब भारत पहुंची थी तो उन्हें यकीन था कि यहां उन्हें लिखने और बोलने की आजादी होगी. उनके ऐसा सोचने की वजह भी थी. लोकतंत्र और सामाजिक अधिकारों के लिए लड़ने वालों को भारत ने हमेशा पनाह दी है. उदाहरण एक नहीं अनेक हैं--दलाई लामा और उनके हजारों अनुयायी, नेपाली कांग्रेस के कई नेता, फैज़ अहमद फैज़ और फाहमिदा रियाज़ जैसे पाकिस्तानी लेखक, शेख मुजीबुर्र रहमान की पुत्री शेख हसीना वाज़ेद, अफगानिस्तान के नजीबुल्ला और उनका परिवार.

तो फिर अचानक तसलीमा नसरीन के साथ ही ऐसा क्या हो गया?

जवाब सीधा मगर शर्मिंदा करने वाला है. तसलीमा राजनीतिक रूप से तकलीफदेह हो गईं थीं और इसलिए उन्हें निकाल बाहर किया गया. अप्रत्याशित ये रहा कि उन्हें धक्का देने वाले हाथ इस बार वामपंथियों के थे जिन्होंने सामाजिक अधिकारों और आजादी की बड़ी-बड़ी बातें के बीच अचानक अपना असली चेहरा जाहिर कर दिया है. वह चेहरा जो पार्टी के हित के लिए आजादी और अधिकारों के दमन से बनता है. ऐसा ही कुछ नंदीग्राम में हुआ और यही तसलीमा नसरीन के साथ भी दोहराया गया. मुस्लिमों का एक वर्ग इस जानी-मानी लेखिका के विरोध में सड़कों पर क्या उतरा कि तसलीमा को बंजारा बना दिया गया. उन्हें आनन-फानन में पहले जयपुर रवाना किया गया, उसके बाद दिल्ली और अब वह राजधानी के आसपास किसी गोपनीय जगह पर राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड की सुरक्षा में हैं.

वामदल हमेशा से लेखकों और कलाकारों के खिलाफ संघ परिवार की असहिष्णुता पर लानत भेजते रहे हैं लेकिन अचानक ही इस घटना ने उनके दोगलेपन को सामने ला दिया है. तसलीमा इसलिए अनचाही हो गईं थीं कि उन्हें सुरक्षा देने से वामदलों को प. बंगाल में कीमती मुस्लिम वोटों के खिसकने का डर लग रहा था. और हास्यास्पद ही है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत इस पेशकश से की कि ‘तसलीमाबेन’ गुजरात में रहें. नई दिल्ली में मौजूद उनके साथी शायद वाम को शर्मिंदा करने और अपनी खामियों से ध्यान हटाने के लिए तसलीमा बचाओ अभियान को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा रहे थे. वामपंथियों की असहिष्णुता ने अचानक ही दक्षिणपंथियों को अपनी असहिष्णुता के बचाव का ब्रह्मास्त्र दे दिया है. जहां तक केंद्र का सवाल है तो उसकी जबान ज्यादातर मौकों पर दबी ही रही. जैसा कि एक कांग्रेस नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “ये एक गंदा राजनीतिक खेल बन गया है. किसी को तसलीमा की चिंता नहीं है. सबको अपने वोटबैंक की पड़ी है.”

विचारों की आजादी का मुद्दा राजनीतिक बयानों में कहीं दिखाई नहीं दे रहा. जैसा कि जाने-माने लेखक और संपादक जॉय गोस्वामी कहते हैं, “उनके (तसलीमा के) लेखन की आलोचना की जा सकती है पर जिस तरह से उन्हें निकाला गया यह खेदजनक है.” ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव विमन्स एसोसिएशन की महासचिव कुमुदिनी पति भी इससे सहमति जताते हुए कहती हैं, “इसे और कुछ नहीं बस अपने मतलब के लिए किसी के पीछे पड़ना कहा जा सकता है. हैरानी हो रही है कि आखिर कलाकारों को राजनीतिक गोटियों की तरह इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है? नंदीग्राम और रिजवानुर मुद्दे पर प. बंगाल के मुस्लिम नाराज हैं और ऐसे में तसलीमा को कोलकाता से बाहर करना राजनीति से प्रेरित कदम ज्यादा लगता है.” “अब जब सरकार ने बयान दे दिया है तो कौन ये फैसला करेगा कि किस चीज से भारत में धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचती है और किससे नहीं.क्या उन्हें हर बार अपनी मूल प्रति सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भेजनी होगी?”

उधर, सीपीएम ऐसी किसी भी बात से इनकार करती है. लेकिन इस मामले में उसका रुख साफ है कि पार्टी तसलीमा को सुरक्षा देकर अपने वोट बैंक के नुकसान का खतरा मोल नहीं ले सकती. पार्टी प्रवक्ता सीताराम येचुरी तीखे सुर में कह चुके हैं कि तसलीमा को वीजा देने वाले केंद्र को उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए. पिछले तीन साल से तसलीमा का घर रहे कोलकाता में राज्य सरकार और पुलिस विभाग के आला अधिकारी इस मामले पर कोई टिप्पणी करने के लिए तैयार नहीं हैं. हालांकि राइटर्स बिल्डिंग में बैठे उच्चाधिकारी विनम्र और अनिश्चित लहजे में ‘तसलीमा की वापसी का स्वागत है’ जैसी बातें जरूर कह रहे हैं, लेकिन पुलिस ने यह साफ कर दिया है कि तसलीमा वहां अवांछित हैं. कोलकाता के डिप्टी कमिश्नर विनीत गोयल का कहना था, “हमें फौरन उन्हें बाहर भेजने के आदेश थे. हमने सुरक्षा कारणों के चलते उन्हें बाहर भेजा और ऐसा करने के निर्देश राज्य के गृह विभाग से आए थे.”

लेकिन बात छोटी-मोटी नहीं थी. तसलीमा की जिंदगी में आए इस नए भूचाल से उपजी तरंगों को प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंचने में देर नहीं लगी. युगांडा की राजधानी कंपाला में राष्ट्रकुल देशों के सम्मेलन से वापस आने के बाद प्रधानमंत्री ने सबसे पहले यह संदेश बाहर भेजा कि सरकार कट्टरपंथी ताकतों द्वारा तसलीमा के उत्पीड़न को बर्दाश्त नहीं करेगी और उनकी सुरक्षा हर कीमत पर सुनिश्चित करेगी. विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद को आश्वासन दिया कि सरकार न केवल तसलीमा के वीजा की अवधि बढ़ाएगी बल्कि उन्हें सुरक्षा भी प्रदान करेगी. गौरतलब है कि तसलीमा ने स्वीडन की नागरिकता ली हुई है और भारत में उनका वीजा फरवरी 2008 में खत्म होना है.

मगर वोट बैंक की चिंता तो कांग्रेस को भी है. इसीलिए सुरक्षा की बातें तो की गईं लेकिन साथ ही तसलीमा को, उनका व्यवहार कैसा होना चाहिए, ये पाठ भी पढ़ाया गया. प्रणव मुखर्जी के शब्द थे, “यह उम्मीद की जाती है कि मेहमान उन गतिविधियों से परहेज करेंगी जिनसे हमारे लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचे.”

मशहूर चित्रकार सुवाप्रसन्ना के मुताबिक इस हिदायत से तसलीमा के लेखन की आजादी पर कोई न कोई असर तो पड़ेगा ही. वह कहती हैं, “अब जब सरकार ने बयान दे दिया है तो कौन ये फैसला करेगा कि किस चीज से भारत में धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचती है और किससे नहीं.क्या उन्हें हर बार अपनी मूल प्रति सूचना और प्रसारण मंत्रालय को भेजनी होगी.” जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के शिक्षक जोया हसन कहती हैं, “दुखद ये है कि कोई भी इसका विरोध नहीं कर रहा. उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया है कि उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाए.” लेखक सुनिल गंगोपाध्याय भी नाराजगी भरे स्वर में कहते हैं, “किसी न किसी को जिम्मेदारी तो लेनी ही होगी. आखिर किसी लेखक को इस तरह परेशान कैसे किया जा सकता है?”

गंगोपाध्याय अनुमान लगाते हैं कि अगर तसलीमा ने 2004 के बाद अपनी कोई कृति प्रकाशित नहीं की है तो इसके पीछे की एक वजह शायद उनकी परेशानियों को लेकर कोलकाता के प्रबुद्ध वर्ग की खामोशी भी हो सकती है. तसलीमा ने उस साल जब अपनी आत्मकथा का चौथा भाग ‘साइ सोब ओंधोकार’ (वही अंधकार) लिखा था तो बांग्लादेश सरकार ने ये कहते हुए तुरंत इस पर प्रतिबंध लगा दिया था कि इसमें पैगंबर के बारे में आपत्तिजनक बातें हैं.

गौरतलब है कि पुलिस द्वारा कई बार शहर छोड़ने के सुझाव को तसलीमा ने कोई तरजीह नहीं दी थी. इसलिए ये भी कहा जा रहा है कि राज्य सरकार ने 22 नवंबर को कोलकाता में हुई हिंसा को तसलीमा से छुटकारा पाने के लिए इस्तेमाल किया. गुपचुप रूप से ये भी कहा जा रहा है कि ये हिंसा कई सालों से तसलीमा के खिलाफ सुलग रहे गुस्से का परिणाम हो सकती है. इसी साल अगस्त में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों ने तसलीमा के खिलाफ मौत का फतवा भी जारी किया था. लेकिन आलोचकों के मुताबिक कोलकाता में हुई हिंसा तसलीमा को लेकर नहीं बल्कि नंदीग्राम के विरोध में थी.

लेकिन कोलकाता छोड़ना शायद तसलीमा की मुसीबतों का अंत न हो. विश्वस्त सूत्रों ने तहलका को बताया है कि परदे के पीछे तसलीमा को इस बात के लिए राजी करने की कोशिशें हो रही हैं कि वह स्वीडन या किसी दूसरे यूरोपीय देश चली जाएं. दिल्ली में स्वीडन के डिप्टी चीफ ऑफ मिशन ने हमें बताया कि उनका देश तसलीमा के वापस लौटने का स्वागत करेगा.

लेकिन सवाल ये है कि अगर तसलीमा को भारत छोड़ना भी पड़ा तो क्या हम खुद को कभी सही अर्थों में उदार लोकतंत्र की संज्ञा दे पाएंगे? क्या ये हमारी छवि पर एक और दाग नहीं होगा?

:-तहलका से सभार